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Tuesday, July 26, 2011

सुप्रीम कोर्ट इतना सक्रिय क्यों


      सुप्रीम कोर्ट इसलिए सक्रिय है कि देश की जनता को न्याय मिले, उसके संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो तथा कार्यपालिका संवैधानिक दायरे में रहकर सार्वजनिक हित में कार्य करे। देश की जनता से सवाल यह है कि वह सुप्रीम कोर्ट को माननीय कपाडिया के नेतृत्व में सक्रिय देखना चाहती है अथवा निष्क्रिय करके अपना दमन देखना चाहती है।

      जिस अमेरिका के नेतृत्व में हमारी भारत की सरकार चल रही है, उसकी दुहाई चन्द बेवकूफ हिन्दुस्तानी भी देते हैं। देखिए अमेरिका और यूरोप की सरकारें अपने यहॉं निजी उद्योगों के लिए भूमि का अधिग्रहण नहीं करती हैं। जिस कानून के जरिए भारत की सरकारों ने ऐसे कानून का सहारा लिया हुआ है, वह अंग्रेज का बनाया हुआ है, लेकिन अंग्रेज ने कभी भी इस कानून का दुरुपयोग नहीं किया। उसे रेल लाइन बिछाने के लिए जितनी जमीन की आवश्यकता थी, उतनी ही अधिग्रहीत की, उससे ज्यादा नहीं। वह भी चाहता तो रेल लाइन के किनारे की सारी जमीन अपने वतन के लोगों के रिहायशी आवास बनाने के लिए कौडियों में  अधिग्रहीत कर लेता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसे पता था कि वह दूसरे देश में शासन कर रहा है जिसकी कुछ सीमा और कुछ मर्यादायें भी हैं।

      अंग्रेज के बनाये इसी कानून का चहुं ओर जबरदस्त विरोध इसके अनुपालन के कारण हो रहा है, वरना मेरा मानना है कि इस कानून में भी कोई कमी नहीं है। इस कानून को सरकार अपने मनमानी तरीके से लागू कर रही है, इसीलिए यह उपहास का कारण बनता जा रहा है। यह मुद्दा अब सरकार बनाने और गिराने की हद तक जा पहुचा है, इसीलिए सरकारें अब इसमें कुछ संशोधन का दिखावा करने को मजबूर हो रहीं हैं। इसमें संशोधन से भी कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं है जबतक कि सरकार की मंशा ठीक नहीं होगी।

        सरकार ने जो नयी नीति का मसौदा तैयार किया है उसके अनुसार 80 फीसदी जमीन निजी क्षेत्र को स्वयं अधिग्रहीत करनी है, बाकी की 20 प्रतिशत सरकार उसे अधिग्रहीत करके देगी, इसी के साथ भूमि के रजिस्टर्ड मूल्य का छह गुना मुआवजा दिया जायेगा। इस मुआवजे का फार्मूला भी एकदम गलत एवं भरमाने वाला है। सवाल सीधा है कि सरकार को निजी उद्योग के लिए भूमि अधिग्रहीत करने की आवश्यकता ही क्या है?  अधिग्रहण केवल शुद्ध सरकार के कार्य के लिए होना चाहिए, और सरकार की परिभाषा में ना तो सरकारी प्राधिकरण आते हैं, ना ही नगर निगम, ना ही बिजली कार्पोरेशन, ना ही भारत संचार निगम अथवा आवास विकास परिषद या कोई अन्य अथारिटी और कार्पोरेशन। निजी क्षेत्र को आपसी सहमति से जमीन खरीदने के लिए क्यों नहीं कहा जाता? जब निजी क्षेत्र जमीन क्रय करले तब सरकार उस भूमि का उपयोग, जिस उद्देश्य के लिए उसने जमीन क्रय की है, उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कर दे। ये ट्रिपल पी क्या बला है? पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को ही ट्रिपल पी कहा जाता है। अब इसमें सरकार बीच में कहॉं से आ गई। मामला दो बिल्लीओं का है, ये बन्दर बीच में कहॉं से आ गया! अब जब बन्दर बीच में आयेगा तो सारी रोटी तो वही खाने के फेर में रहेगा।

      अन्तरराष्ट्रीय कानून संस्था ने सिद्धान्त बनाया है कि जब आप किसी की जमीन लें तो उसे भी उस प्रक्रिया में भागीदार बनायें। मूल सवाल यह है कि आखिरकार आप जमीन किस उद्देश्य के लिए अधिग्रहीत करना चाह रहे हैं। यदि आप मॉल, सिनेमा हाल, जिम, गोल्फ कोर्स, रेस कोर्स और स्टेडियम के लिए ले रहे हैं तो ये सारे प्रोजेक्ट जबरन भूमि अधिग्रहण कानून के तहत आ ही नहीं सकते। ये सब मौज-मस्ती और सम्पन्नता की निशानी हैं, जहॉं की सरकार 20 रुपये में 2400 कैलोरी का भोजन देने की बात करती हो, उस देश की जनता की गरीबी का हाल इसी से जाना जा सकता है कि उसका नागरिक कितना मजबूर है कि वह 20 रुपये भी नहीं कमा पा रहा है, तभी तो सरकार को इस जनहित के कार्य के लिए योजना आयोग से ऐसी स्कीम लाने के निर्देश दिये गये हैं। 20 रुपये की एक पॉव दाल जिस देश में बिक रही हो, उस देश के नीति निर्माणकर्ता 20 रुपये में 2400 कैलोरी देने की बात राष्ट्रीय स्तर से कर रहे हैं। जो बालक कभी भट्टा-पारसौल, कभी अलीगढ़, कभी पडरौना, कभी सुल्तानपुर, कभी पूर्वी उ0प्र0 और कभी पश्चिमी उ0प्र0 में घूमघूमकर यह प्रचारित कर रहा हो कि देशवासियों चिंता मत कीजिए हमारी सरकार आपके लिए 20 रुपये में 2400 कैलोरी का भोजन उपलब्ध कराने जा रही है, तो उस देश के भविष्य को अपने आप समझ लेना चाहिए! किसानों को उन्हें अपने यहॉं रोककर कहना चाहिए कि राहुल जी हम आपको 20 रुपये की दर से तीन दिन का 60 रुपये देते हैं, लेकिन आप यहॉं से कहीं नहीं जायेंगे, 60 रुपये में तीन दिन खाकर, रहकर और 7200 कैलोरी लेकर दिखाइये, हम उ0प्र0 नहीं पूरा भारत आपको पूरी मेजारिटी से देने को तैयार हैं। इस पर राहुल जी को बगल झांकते भी नहीं मिलेगा।

       कुछ खास वर्ग के लिए बनाई जाने वाली ऐसी स्कीम का अमीर भारत देश की गरीब जनता से कोई लेना-देना नहीं, ये यहॉ की जनता का उपहास उड़ाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। नोएडा एक्सटेंशन में निवेश करने वाले ज्यादातर लोग इलीट क्लास की श्रेणी में ही आते हैं, 80 प्रतिशत पैसा नम्बर दो का लगा है, याकि एनआरआई का। वहॉं का सारा खेल मुनाफे पर ही आधारित है, फिर चाहे यह बिल्डर हो या प्राधिकरण अथवा सरकार अथवा किसान। जिस काम के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया था उसके विपरीत इसका इस्तेमाल किया गया, इसी कारण न्यायालय को इसकी अधिसूचना को ही रद्द करना पड़ा। जमीन अधिग्रहण से पूर्व उन किसानों के पर्नवास की व्यवस्था सुनिश्चित करने से पूर्व उसका अधिग्रहण करना मान्य नैतिक मूल्यों से परे है। इसी प्रकार खेती/फसली भूमि का भी अधिग्रहण किया जाना, राष्ट्रीय उन्नति के एकदम खिलाफ है। कुलमिलाकर यदि सार्वजनिक हित में भूमि का अधिग्रहण एकदम आवश्यक है तो भी इसके लिए बंजर भूमि का ही अधिग्रहण किया जाना चाहिए, जिसकी इस देश में कमी नहीं है, क्योंकि ऐसी भूमि को उपजाऊ बनाने के नाम पर भी इस देश में कई हजार करोड़ का बजट लूटा जा रहा है।

        सार्वजनिक हित के नाम पर जो भी हो रहा है, आखिरकार इसे किसका विज़न माना जाये! निजी उद्योगपतियों का, ब्यूरोक्रेट्स का या सत्ता में बैठे नेताओं का। ऐसे विजन के लोग भारत को क्या बनाना चाह रहे हैं! कहीं इनका विजन अपना खजाना किलोमीटरों के दायरे में बढ़ाना और अपने लिए 9000 करोड़ का रिहायशी आवास बनाना ही तो नहीं। सारी जनता को फिर से गुलाम बनाना तो नहीं! या इस देश को बेचने का तो नहीं!
      सरकार द्वारा सार्वजनिक हित के फरेब में जबरन किया जाने वाला भू अधिग्रहण कहीं इस देश की जनता को फिर से गुलाम बनाने की साजिश तो नहीं! सरकार के ऐसे कृत्य को कौन रोक सकता है, किसान?, आमजन?, मीडिया या कोई और! दरअसल मीडिया और आमजन तो सरकार की आलोचना ही कर सकता है। मीडिया गैलरी में तो सरकार के खिलाफ चिल्ला सकता है, लेकिन सत्ता के मुख्य कमरे में तो वह भी नतमस्तक ही दिखाई देता है। देखा नहीं आपने कि गुलाम नबी फई द्वारा आयोजित सेमिनार में कितने धुरन्धर पत्रकार कविता पाठ करने जाते थे! अन्त में आलोचना से होता क्या है। जब देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद सभालने वाला व्यक्ति यह उद्गगार व्यक्त करता हो कि अखबार जो चाहें छापे, उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं क्योंकि उसका मतदाता बिना पढा लिखा है और अखबार नहीं पढ़ता, ऐसी सोच अगर मुख्यमंत्री की हो तो, उस प्रदेश का तो बंटाधार ही है ।
        ले-देकर बचता है सुप्रीम कोर्ट, और केवल वही ऐसी स्थिति में है कि उसका आदेश ही कुछ बदलाव ला सकता है वरना तो स्थिति बड़ी भयंकर है। सुप्रीम कोर्ट ही सरकार को निर्देश दे सकता है, दे भी रहा है और देना भी चाहिए। इसे कोर्ट की अति सक्रियता कदापि नहीं कहा जा सकता एवं जो ऐसा कह रहे हैं या चैनल पर प्रचारित कर रहे हैं, दरअसल वे प्रभु चावला, हरिशंकर व्यास, वीर संघवी, हिन्दुस्तान टाइम्स के शर्मा और इन्हीं की थाली के चट्टे-बट्टे हैं।

       हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं उसमें ना तो सरकार बड़ी है, ना ही न्यायालय। हमारा संविधान बराबरी के सिद्वान्त पर काम करता है। संविधान हमें बराबरी का अधिकार देता है। इस अधिकार का हनन सरकार नहीं कर सकती, फिर चाहे यह केन्द्र की सरकार हो या प्रदेश की। सरकारें इस भूमि अधिग्रहण अधिनियम का बेजा और गैर कानूनी इस्तेमाल करके अवैध कमाई करने के लिए आमजन के बराबरी के हक को छीन रही हैं, इसी कारण सुप्रीम कोर्ट को सक्रिय होना पड़ा। क्योंकि यदि राज्य, संविधान में अंकित व्यवस्था के विपरीत आचरण कर रहा है तो इसे सुप्रीम कोर्ट को ही देखना होगा कि सरकार संविधान के दायरे में रहे।

       कोई दो दशक पूर्व मध्य प्रदेश में म0प्र0विद्युत बोर्ड ने एक बिजली परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहीत की। सरकार ने इसका मुआवजा दस से पन्द्रह हजार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से किसानों को दे दिया। लेकिन यह परियोजना शुरू ही नहीं की गई तथा बाद में सरकार ने यह जमीनें निजी ठेकेदारों को मोटे मुनाफे, लाखों रुपये प्रति एकड़ पर बेंच दी। इलाहाबाद जनपद के बारा क्षेत्र में भारत सरकार के हिन्दुस्तान पैट्रोलियम कार्पोरेशन ने हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहीत कर रखी है, लेकिन उसपर एक दशक से कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं किया है, क्या ये जमीन किसानों को वापस नहीं दी जानी चाहिए? क्या सरकार और इन कार्पारेशन का गठन मुनाफाखोरी के लिए किया गया है? कदापि नहीं। जमीन अधिग्रहण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी निहितार्थ/निश्कर्श यही है।

       इसी के साथ कालेधन की बात करें तो देश के पैसे को विदेशी खाते में गुपचुप तरीके से जमा करना देश के कानून का उल्लंघन है। सरकार का यह फर्ज है कि वह कानून का उल्लंघन ना होने दे। मीडिया भी कालेधन की आलोचना कर रहा है। आमजन भी सवाल उठा रहा है, लेकिन सरकार है कि सभी की आवाज दबाने पर तुली है। क्या रामदेव, क्या अन्ना हजारे। रामदेव के साथ सरकार ने क्या गुण्डागर्दी की किसी से छिपी नहीं है। अन्ना हजारे को कांग्रेश का एक पागल नेता वही हश्र दिखाने की बात करता है।

       इसी कालेधन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महसूस किया कि 17-18 सुनवाई के बाद भी सरकार अपनी ढ़िठाई पर अड़ी है, और उसने उच्चस्तरीय समिति गठित कर कोर्ट को लॉली पॉप पकड़ाने की कोशिश की है तो संविधान की रक्षा के लिए उसे आगे आना ही पड़ा। यही सोचकर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फर्ज निभाने वास्ते अभूतपूर्व न्याय देने की शुरूआत की है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस उच्च स्तरीय समिति को ही एसआईटी में तब्दील कर दिया, इससे कौन सा आसमान फटा जा रहा है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो अपने कर्तव्य पालन में कोताही बरते जाने का दोष करार दिया जाता, जो उसके लिए बहुत ही लज्जा की बात होती।

       इसलिए कालेधन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ भी किया वह उसके अधिकार क्षेत्र का ही मामला है। यह न तो विधायिका के काम में हस्तक्षेप है, ना ही कार्यपालिका के। यदि सरकार राह से भटक जाये, जैसे इन्दिरा गॉंधी भटक गईं थीं तो उसे राह पर कौन लायेगा? निष्चित रुप से न्यायपालिका। लोकतन्त्र में जनता को अपना हक मांगने का कानूनी अधिकार है। जब उसे उसके हक के बदले गोली मिलेगी तो आक्रोश बढ़ेगा, आक्रेाश बढ़ेगा तो तोड़-फोड़ और सरकारी सम्पत्ति को नुकसान होगा, जनहानि होगी, अराजकता फैलेगी, फिर देश का क्या होगा। ये सारे लक्षण क्रान्ति की शुरूआत ही तो हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसलॉ ने इसी क्रान्ति को रोकने की कड़ी में ऐसे फैसलॉ की शुरूआत की है। उसका सारा फैसला देश और यहॉं की जनता के हित में है। समाज को बदलाव की जरुरत है और इसमें न्यायपालिका की महत्वपूंर्ण भूमिका है।

      सुप्रीम कोर्ट के ऐसे ही आदेश को कुचक्र रचकर अति सक्रियता की श्रेणी में रखते हुए सरकार ने मीडिया के माध्यम से इसकी आलोचना कराने की शुरूआत की है, जिसके तहत बहुत से स्वनाम धन्य पत्रकारों को सरकार ने अपने पैनल में सूचीबद्ध कर भुगतान भी शुरू करा दिया है। इसे आप प्रिन्ट मीडिया के सम्पादकीय पेज पर और इलैक्ट्रानिक चैनल पर आयोजित कराई जाने वाली बहस में आसानी से देख सकते हैं। 

सतीश प्रधान

Monday, July 25, 2011

जिसे होना चाहिए था मीडिया के निशाने पर उसी ने लिया मीडिया को निशाने पर


कमजोर, अक्षम और ईमानदार समझे जाने वाले प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह, भारत की मीडिया से नाराज हैं, इसलिए अपनी नाराजगी उन्होंने यह कहकर व्यक्त की है कि भारत का मीडिया, खुद ही अपील, दलील और मुंसिफ की भूमिका निभा रहा है। क्षेत्रीय अखबारों के सम्पादकों से उन्होंने यह शिकायत करते हुए कहा है कि मीडिया आरोप भी लगाता है, मुकदमा भी चलाता है और फैसला भी खुद ही सुना देता है।

डा0 मनमोहन सिंह यह भूले हुए हैं कि मीडिया तो विगत 2004 से यह नजरअन्दाज किये बैठा है कि डा0 सिंह को तो प्रधानमंत्री के पद पर होना ही नहीं चाहिए था। जिन मान्य परम्पराओं, संवैधानिक व्यवस्था और चुने हुए सांसदों की छाती पर पैर रख कर वह प्रधानमंत्री के पद पर बैठे हैं, उनकी इस करनी से तो हमारे लोकतन्त्र की धज्जियॉं ही उड़ गई हैं, बावजूद इसके मीडिया ने आजतक इस घपले को दबाये रखा है। मीडिया ने आज तक कहाँ शोर मचाया कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति लोकतंत्र और संविधान का मजाक उड़ाते हुए कितनी बेशर्मी से शासन कर रहा है. इतने बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति लोकतंत्रिक तरीके के बजाय मनोनयन के बल पर भारत की सत्ता अपनी हठधर्मिता और मनमर्जी से चला रहा है।

मीडिया के प्रति ऐसी तल्ख टिप्पणी करने वाले डा0 मनमोहन सिंह ने क्या कभी अपने गिरेबां में झांका है? या कभी गम्भीरता से सोचा है कि इस देश के प्रधानमंत्री का पद कोई खैरात में दी जाने वाली वस्तु नहीं है कि लोकसभा में चुनकर आये कांग्रेसी सांसदों के संसदीय दल की अध्यक्षा सोनिया गॉंधी चुनी जायें और वह संसदीय दल के नेता का पद डा0 मनमोहन सिंह को गिफ्ट कर उन्हें प्रधानमंत्री बना दें। प्रधानमंत्री का पद कोई गिफ्ट की वस्तु नहीं है। कहा जाता है कि सोनिया गॉंधी के इशारे पर मनमोहन सिंह चल रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि सोनिया गॉधी मनमोहन के इशारे पर उसी दिन से चल रही हैं, जिस दिन वह प्रधानमंत्री की शपथ लेने जा रही थीं और रास्ते में एक विदेशी कॉल ने सोनिया को मनमोहन को प्रधानमंत्री बनाने और उनके इशारे पर चलने को मजबूर कर दिया।

क्या यह चुनी हुई लोकसभा के सांसदो के उस अधिकार का सीधा हनन नहीं है जो उन्हें आम मतदाता से मिला है। जनता ने उन्हें इस विश्वास के साथ सांसद बनाया था कि वे संसद में जायें और सांसदों के सबसे बड़े दल में से उसके मुखिया को चुनें और उसे भारत का प्रधानमंत्री बनायें। डा0 साहब गलतफहमी में हैं और जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं हैं, इसीलिए वह गाहे-बगाहे सभी को धौंस में लेने की कोशिश करते रहते हैं। कौन कहता है कि वह एक कमजोर, अक्षम और ईमानदार प्रधानमंत्री हैं। वह जब चाहते हैं सुप्रीम कोर्ट को हड़काने लगते हैं, और जब चाहे मीडिया को। यह बात दीगर है कि सुप्रीम कोर्ट उनके हड़काने में न तो आया है और ना ही आयेगा। ऐसा ही चरित्र इस मीडिया का भी है।

क्षेत्रीय अखबारों के कुल पॉंच सम्पादकों के साथ बैठकर उन्हें पटा लेना और अपनी बात उनके मुख से निकलवा लेना अलग बात है। लेकिन सम्पूर्णं मीडिया को अपनी तड़ी में लेना कोई गुड़िया-गुड्डे का खेल नहीं है। सिविल सोसाइटी के पॉच व्यक्तियों से बात करना प्रधानमंत्री को नागवार लगता है लेकिन इतने बड़े मुल्क के भारी-भरकम मीडिया में से केवल पॉच सम्पादकों से वह भी क्षेत्रीय स्तर के अखबारों से वार्ता किये जाने पर वह अपने आपको आह्लादित महसूस कर रहे हैं। यह कृत्य न तो ईमानदारी के बैनर तले आता है, ना ही निर्बलता के तहत और ना ही यह दर्शाता है कि वे एक अक्षम प्रधानमंत्री हैं। इस सबसे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वे एक निहायती चालाक, बुद्विमान, क्रूर और कपटी राजा हैं। इसमें कहीं से भी ईमानदारी नाम की कोई चीज दिखाई नहीं देती।

मीडिया को प्रधानमंत्री कैसे गलत ठहरा सकते हैं, जब वह खुद ही सारी मान्य परम्पराओं और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को धता बताते 2004 से शासन करते-करते डा0 मनमोहन सिंह इतने मजबूत हो चुके हैं कि अब चाहकर भी सोनिया गॉंधी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। सोनिया और राहुल गॉंधी भूल जायें कि डा0 मनमोहन सिंह के रहते हुए  वे हिन्दुस्तान के कभी प्रधानमंत्री बन सकते हैं। प्रधानमंत्री के पद पर ठीक सीवीसी थॉमस की तरह बैठे हैं जिनका पद उच्चतम न्यायालय ने शून्य घोषित कर दिया था। यदि वह वास्तव में ईमानदार हैं तो लोकतन्त्र को अपनी गरिमा में बनाये रखने के लिए उन्हें अपने पद से स्वंय इस्तीफा दे देना चाहिए।

विश्व के दरोगा अमेरिका के लिए डा0 मनमोहन सिंह से इतर कोई दूजा बढ़िया प्रतिनिधि हो ही नहीं सकता सिवाय मोंटेक सिंह आहलूवालिया के। अभी हिन्दुस्तान में ऐसा भी मीडिया है जिसका प्रबन्धतंत्र विदेशी सोसाइटी के हांथ में नहीं है, जिसका पत्रकार विदेश घूमने का शौकीन नहीं है, जो सत्ता की दलाली बरखा दत्त, प्रभु चावला और वीर संघवी की तरह नहीं कर रहा है, एवं जिसके प्रबन्धतंत्र के पास विदेशी सोसाइटियों से ब्लैंक चेक नहीं आ रहे हैं।

दरअसल उस मीडिया से डा0 मनमोहन सिंह को विषेश आपत्ति है जिसे वह धौंस देकर चुप नहीं करा पा रहे हैं, इसीलिए चाटुकार पत्रकारों को उन्होंने न्यौता दिया। इसे प्रधानमंत्री की अकर्मण्यता कहिए या संलिप्तता कि उन्हीं के नेतृत्व में 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाला हुआ ;हवा में पैसे बनाने का खेल, उन्हीं की सरपरस्ती में कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला बदस्तूर चालू रहा, उन्हीं के निर्देश पर सीवीसी पद पर थॉमस जैसे भ्रष्टतम व्यक्ति की नियुक्ति हुई। इसके बावजूद भी वह अपने को ईमानदार मानने के मुगालते में हैं तो यह उनका भ्रम है। ये सारे घोटाले मीडिया के दबाब में सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस में लिए हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को भी के0जी0बालाकृष्णनन कैसी स्थिति में छ़ोडकर गये थे यह वहॉं के मुख्य न्यायाधीश एच0एस कपाड़िया से बेहतर और कौन जान सकता है।

डा0 मनमोहन सिंह, मीडिया के क्षेत्र में आई जबरदस्त क्रान्ति से परेशान हैं। इलैक्ट्रानिक मीडिया, पल-पल की खबरों को बड़ी तत्परता से लोगों तक तुरत-फुरत पहुचाने का काम कर रहा है। इस अफरा-तफरी में और प्रभु चावला जैसे धुरन्धरों द्वारा मीडिया में अपरिपक्व और कम पढ़े-लिखे लोगों की एन्ट्री ने उसे इस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव जैसे लोगों का इन्टरव्यू एक सोलह साल की लड़की लेती है अथवा ऐसा लड़का जो सिर्फ दलाली का काम करता है, के कारण कुछएक गल्तियां हो जाती हैं, लेकिन वे सुधार भी ली जाती हैं। 

जाहिर है ऐसी एन्ट्री मीडिया को सन्देह के घेरे में तो लायेगी ही और इसी बिना पर डा0 मनमोहन सिंह ने मीडिया के कान उमेठने की कोशिश भी की है। लेकिन वह भूल गये हैं कि उनकी कांग्रेस पार्टी में सारे नेता मनोनीत नहीं हैं, जनता द्वारा चुनकर आने वालों की तादाद बहुत है। उनकी राजनीतिक यात्रायें जमीन से जुड़ी हुई है, जनता और मीडिया दोनों को वे अच्छी तरह पहचानते हैं। कुछ ना बोलपाना उनकी शराफत हो सकती है दब्बूपन नहीं। उन्हीं में से कोई खड़ा हो गया कि अब बहुत हुआ डा0 साहब, हमें मनोनीत प्रधानमंत्री मान्य नहीं, तो लेने के देने पड़ जायेंगे।

डा0 मनमोहन सिंह केवल क्षेत्रीय अखबार, राजीव शुक्ला के चैनल और ऐसे ही अन्य चैनल, जो निजी मामलो को खबर बनाकर पेश करते हैं, को ही पूरा मीडिया समझते हैं तो यह उनकी समझदानी का मामला है, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। अगर मीडिया अपील ना करे, दलील पेश ना करे और मुंसिफ की भूमिका ना निभाये तो हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री पद पर बैठा मनोनीत व्यक्ति अंधेर नगरी चैपट राजा वाली कहावत चरितार्थ करने में किंचित मात्र का भी विलम्ब नहीं लगायेगा। इतनी सी चीज ही विस्फोट का विषय होना चाहिए थी कि कांग्रेस पार्टी के चुने हुए सांसदों ने अपने संसदीय दल की बैठक में श्रीमती सोनिया गॉंधी को नेता चुना, लेकिन सोनिया गॉंधी को यह अधिकार किस जनता ने, किस सांसद ने और किस संविधान ने दे दिया कि वह प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद को मनोनयन से भर दें! 

प्रधानमंत्री चुनने का अधिकार इस देश के 80 करोड़ मतदाता के पास है, किसी एक व्यक्ति के पर्स की वस्तु नहीं है कि जिसे जी चाहा उसे गिफ्ट कर दिया जाये। नेहरु जी की मृत्यू के बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष स्व0 कामराज ने स्व0 लाल बहादुर शास्त्री को संसदीय दल के नेता का प्रत्याशी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में बनाया था एवं शास्त्री जी की मृत्यु के बाद तो बाकायदा कांग्रेस संसदीय दल के नेता पद के लिए स्व0 मोरारजी देसाई और स्व0 इन्दिरा गॉधी के बीच मतदान हुआ था। क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र में मनोनीत प्रधानमंत्री की व्यवस्था लागू रहना 80 करोड़ मतदाताओं के मुंह पर जूता मारने जैसा नहीं है?

कांग्रेस लोकसभा में बहुमत में होगी और है भी तो मतदाताओं के कारण लेकिन क्या मजाक है कि डा0 मनमोहन सिंह ने बिना लोकसभा का चुनाव लड़े ही देश की बागडोर संभाल ली और वह भी देश की जनता द्वारा दिये गये जनमत की तौहीन करके!  फिर किस आधार पर हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होने का दम्भ भरते हैं। भारत नौजवानों का देश है, इसे खुद डा0 मनमोहन सिंह स्वीकारते हैं। युवाओं के मन में गुणवत्ता प्रधान शिक्षा एवं कौशल प्रदान करने वाली व्यवस्था का निर्माण न होने के कारण भी रोष है। ऊपर से जबरदस्त मंहगाई, लूट और भ्रष्टाचार ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया है। उनके पास डा0 मनमोहन जैसा बुजुर्गियत वाला धैर्य भी नहीं है, क्योंकि ऐसा धैर्य जब उम्र 70 के पार हो गई हो और आदमी मालामाल हो, तभी रह सकता है। ऐसे ही बुर्जुग व्यक्ति में समस्या का निदान करने के बजाय उस पर कुण्डली मारकर बैठने का भीषड़ अनुभव होता है, जैसा डा0 मनमोहन सिंह के पास है। 

आज का नौजवान सूचनाओं और विचारों से लैस है, इसलिए उसे सब दिखाई दे रहा है कि देश में कब, कहॉं और क्या हो रहा है। इसी कारण वह अधीर है और अन्ना हजारे एवं रामदेव के साथ है। सुप्रीम कोर्ट ने एसआईटी में सुप्रीम कोर्ट के दो अवकाश प्राप्त जजों में से एक को अध्यक्ष और दूसरे को उपाध्यक्ष बनाकर एवं तीसरे सदस्य के रुप में अवकाश प्राप्त रॉ के निदेशक को सम्मलित कर अपनी मानीटरिंग में कालेधन की जॉच करने का जो फैसला दिया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाये कम रहेगी।

मीडिया इन युवाओं की अधीरता की अनदेखी नहीं कर सकता। यही कारण है कि कांग्रेस के अन्दर खाने में भी नौजवान नेता विचलित हैं और घुटन महसूस कर रहे हैं। इन नेताओं को राहुल में उम्मीद दिखाई देती है, क्योंकि वह भी सीमित क्षेत्र में ही, विशेष तौर पर उ0प्र0 के पश्चिमी इलाके के सामाजिक विकास को लेकर चिंतित दिखाई देते हैं, लेकिन उन्हें भी मनमोहन सिंह अपनी अंगुली पर नचा रहे हैं।मीडिया खासकर प्रतिष्ठित न्यूज चैनल इस दौर में सकारात्मक भूमिका निभा रहा है, इतना अवश्य है कि अभी इसमें विषय की गहराई की पकड़ कम है, अथवा चैबीसों घन्टे खबरों में बने रहने की मजबूरी में वह राह भटक भी जाता है, जिसे ठीक होने में समय लगेगा, लेकिन इसे नकारात्मक कदापि नहीं कहा जा सकता।

प्रधानमंत्री को यह नहीं समझना चाहिए कि वह आर्थिक उदारीकरण की बरसाती में मीडिया को ढ़ंक देंगे। उन्हें पूरी दुनिया विशेषज्ञ मानती होगी और हो सकता है कि वह अमेरिका का कोई सबसे बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कार भी पा जायें लेकिन इस हिन्दुस्तान का जागरुक नागरिक उन्हें उनके कृत्यों के लिए कभी माफ नहीं करेगा। उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि भारत का मीडिया लंगडा नहीं है और ना ही चाटूकार पत्रकारों के भरोसे चल रहा है, बल्कि हर कदम पर पैनी नज़र रखने वाले पत्रकारों के बल पर ही जिन्दा है। मीडिया और न्यायपालिका कोई रामदेव नहीं है कि रात में 2 बजे गुण्डागर्दी के बल पर टेरेराइज करके उसे बदनाम और मजबूर कर दिया जाये। डा0 मनमोहन सिंह के ग्रिप में कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा हो सकती हैं, कार्यपालिका मजबूरी में हो सकती है, लेकिन मीडिया और न्यायपालिका को हड़काकर काबू में करने की कोशिश में ही उनकी ऐंठन दम तोड़ देगी। 

अन्त में मेरी आदरणीय-माननीय डा0 मनमोहन सिंह, मनोनीत प्रधानमंत्री, भारत को सलाह है कि वह इस देश की निरीह एवं भोली-भाली जनता और इस देश के करोड़ों होनहार नौजवानों को बेवकूफ बनाने की कोशिश ना करें, और  भारत के कल्याण के बारे में सोचें ना कि अमेरिका के कल्याण के बारे में। अन्ना हजारे और उनके आन्दोलन को दिग्विजय सिंह और सिबल जैसे नेताओं के चक्कर में हल्के में लेने की कोशिश ना करें वरना अन्ना हजारे की आँधी, हजारों को नहीं लाखों को भारी पड़ेगी, क्योंकि उनके साथ देश का आम जनमानस जुड़ा हुआ है, यह अलग बात है कि वह डा0 मनमोहन सिंह और सोनिया गॉंधी को दिखाई ना दे रहा हो। 
 सतीश प्रधान

Saturday, July 9, 2011

३०० टुकड़ों की अजब कहानी .



          पवई से लौटकर- 2008 की 7 मई को की गई टेलीविज़न प्रोडक्शन हाऊस से जुड़े नीरज ग्रोवर की सनसनीखेज हत्या के मामले में मुम्बई की सेशन कोर्ट ने कन्नड फिल्मों की तथाकथित अभिनेत्री मारिया सुसैराज को सबूत मिटाने का दोषी पाया] जबकि उसके प्रेमी एमिल जैरोम को गैर इरादतन हत्या और सबूत मिटाने का दोषी पाया गया। एमिल को 10 वर्ष और मारिया को 3 साल की सजा सुनाई गई। इतना बर्बर गुनाह और सजा ऐसी की सारा समाज सन्नाटे में है] जबकि इसका दोष सारी जनता न्यायालय पर मढ़ रही है। पुलिसिया कार्यवाही और उसके द्वारा अदालत में पेश किये गये कमजोर सबूतों पर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा।
  निठारी काण्ड] आरुशि हत्याकाण्ड] जेसिका लाल मर्डर केस और प्रियदर्षिनी मुट्टू हत्याकाण्ड में क्या उचित न्याय हुआ कहा जा सकता है\ जब प्रियदर्षिनी मुट्टू काण्ड के हत्यारे को रिहाई दी गई थी तो जज ने कहा था कि मैं जानता हूँ कि वह हत्या का दोषी है] लेकिन मैं इसे फांसी नहीं दे सकता क्योंकि पुलिस कानूनी तौर पर इसे साबित करने में विफल रही है। आरुशि काण्ड में तो सीबीआई ने अदालत में साफ तौर पर कह दिया कि सबूत नष्ट कर दिये गये है] या फिर लिए ही नहीं गए और असली अपराधी को इतनी छूट दे दी गई कि वह एक&एक करके समस्त सबूतों को आसानी से नष्ट कर दे। हम सभी जानते हैं कि कानून अन्धा होता है] लेकिन यहॉं तो कानून को जानबूझकर अन्धा बनाया जा रहा है।
  अदालत मौकये वारदात पर होते हुए भी आँखों देखा हाल केस में दर्ज नहीं कर सकती क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे विटनेस बॉक्स में आना पड़ेगा और तब वह मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकती] क्योंकि वह भी एक पक्ष में गिनी जायेगी। इतना सब जानते हुए भी अदालत को साक्ष्य पर ही भरोसा करना पड़ता है। साक्ष्य जुटाने का कार्य विवेचक ऐजेन्सी का होता है। विवेचक ऐजेन्सियों की कैसी विश्वसनीयता रह गई है] यह किसी से छिपी नहीं है। किसी भी प्रकार के आपराधिक षडयन्त्र की कहानी पुलिस की विवेचना पर ही टिकी होती है। स्थानीय पुलिस जातिवाद@ राजनीतिक@प्रभावशाली लोगों के प्रभाव में आकर भी सही विवेचना नहीं करती है। आवश्यक साक्ष्य एकत्र ही नहीं करती तो न्याय कैसे हो सकता है। अपने ऊपर के अधिकारियों और राजनेताओं के चंगुल में फंसी पुलिस का चरित्र रक्षक के बजाय भक्षक की श्रेणी में पहुंच गया है।
          पुलिस की ही कहानी है कि नीरज ग्रोवर के शव के 300 टुकड़े करके उसे जला दिया गया। शव को ठिकाने लगाने के लिए दोषियों ने शापिंग माल जाकर बड़ा सा चाकू भी खरीदा। चूंकि पुलिस ने ऐसा कोई साक्ष्य अदालत के समक्ष पेश ही नहीं किया जिससे यह सिद्ध होता हो कि ग्रोवर की हत्या पूर्व नियोजित साजिश थी। इसी कारण सेशन कोर्ट को यह मानना पड़ा कि एमिल जैरोम ने परिस्थितियों से उत्तेजित हो और जज्बात में बहकर सब्जी काटने वाले चाकू से नीरज ग्रोवर की हत्या कर दी। 
  अदालत ने स्पष्ट कहा है कि हत्या सोची-समझी साजिश के तहत की गई है] ऐसा साबित तो नहीं होता। अदालत ने इस बात को भी नहीं स्वीकारा कि मारिया पांच दिन पहले मुम्बई आती है और प्रोडक्शन हाऊस से जुड़े नीरज ग्रोवर से काम मांगती है एवं पांच दिन के अन्दर ही वह नीरज ग्रोवर से हताश हो जाती है तथा उसकी हत्या की साजिश रच देती है। अभियोजन पक्ष ने केस तैयार करने में जानबूझकर चूक की] इसीलिए अदालत के पास 302 की धारा को हटाने के अलावा अन्य कोई विकल्प शेष नहीं रह गया था।
  ग्रोवर हत्याकाण्ड ऐसा पहला मामला नहीं है जिसमें अभियोजन पक्ष ने कमजोर आरेाप पत्र प्रस्तुत किये हों। दिल्ली में हिरासत में मौत के कारण एक पुलिसकर्मी पर हत्या का आरोप लगाया गया लेकिन मुकदमे के दौरान उसे गैर इरादतन हत्या का दोषी करार देना पड़ा एवं उसे हत्या के आरोप से बरी भी करना पड़ा। दिल्ली के ही हाई- प्रोफाइल मामले में पूर्व नौसेना अध्यक्ष के पौत्र संजीव नन्दा की सजा हाईकोर्ट ने पांच साल से घटाकर दो साल कर दी थी।
अदालत साक्ष्य जुटाने का काम नहीं करती है बल्कि पेश किये गये साक्ष्यां पर ही अपना फैसला सुनाती है। साक्ष्य जुटाने में गड़बड़ी करना पुलिस की आदत बन गई है। बाकी रह गई बहस की बात तो वकीलगणों की कार्यपद्वति भी सन्देह के घेरे में है] फिर चाहे वह अभियोजन पक्ष का वकील हो अथवा बचाव पक्ष का।
सब्जी काटने वाले चाकू की क्या परिभाषा है और सब्जी काटने वाला चाकू कितना पैना होता है] इसे 99 प्रतिशत भारतीय जनता जानती है कि उससे ठीक से सब्जी ही कट जाये बहुत है] शरीर के 300 टुकड़े कैसे किये जा सकते हैं \ पुलिस की जांच में तथ्यों एवं साक्ष्यों को छिपाया गया है तथा माननीय जज साहब ने भी न्याय देने में अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया है। क से कबूतर ही सीखा और पढ़ा है एवं क से कबूतर के अलावा कुछ भी नहीं देखा। उन्होंने यह जॉंचने की कोशिश ही नहीं की कि क से क्रूरतम कत्ल हुआ है] और अपराधी को सजा एवं पीड़ित को न्याय देना उनका कर्तव्य है।
न्यायालय के फैसले पर ज्यादा टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना हो जाती है और इसमें पुलिस से साक्ष्य मांगने की भी जहमत नहीं कराई जाती। इसपर तो अदालत स्वंय ही सज्ञान ले लेती है] इसीलिए ज्यादा कुछ न लिखना ही श्रेयष्कर है। नीरज ग्रोवर हत्याकाण्ड की जड़ तो वैसे मारिया सुसैराज ही है] जिसने प्रेम एमिल जैरोम से किया और अपने को फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए नीरज ग्रोवर को अपने प्यार के जाल में फंसाकर परलोक तक पहुंचवाया। पता नहीं क्यों सारा मीडिया मारिया को फिल्म अभिनेत्री लिखता है। कन्नड और तेलुगू फिल्मों में काम करने वाली ज्यादातर लड़कियां ब्लू फिल्मों से ही पायदान चढ़ती हैं। इनमें से जिसने इसे सहर्ष स्वीकार करते हुए अपने बदन को चमड़े के सिक्के की तरह इस्तेमाल होने दिया और मुकद्दर ने साथ दिया तो वह कहॉं पहुंच जाती हैं आप अन्दाजा भी नहीं लगा सकते। मर्लिन मुनरो का नाम सुना हो तो बताइये कौन सी हीरोइन उसके समकक्ष थी\ जहॉं सारी सत्ता हमबिस्तर होती थी] क्या पक्ष क्या विपक्ष] उस हीरोइन का नाम था मर्लिन मुनरो।
अपने बालीवुड की बिपाशा बसु को ही ले लीजिए। अमर सिंह और उसके बीच की बातचीत को ही आप सुनलें तो शर्मसार हो जायेंगे। तब आप जान पायेंगे कि हीरोइन क्या होती है और एक हीरोइन बनती है तो वह अपने पीछे कितनी हीरोइन को गन्दे नाले में छोड़कर आ रही होती है। मारिया जैसी हीरोइन की ही रामगोपाल वर्मा जैसे निर्माता-निर्देशकों को आवश्यकता होती है] इसीलिए उन्होंने बिना वक्त गवांये तुरन्त मारिया को आफर भी दे दिया। जो अदना सा व्यक्ति अमिताभ बच्चन को गाली दे रहा है] उसका कृत्य कैसा है] यह आसानी से समझा जा सकता है\  अभी कुछ साल पहले तक रामगोपाल वर्मा मारे-मारे घूमते थे] मुम्बई में उनकी हैसियत कौड़ी की तीन थी] लेकिन मुकद्दर ने साथ क्या दिया मुकद्दर के सिकन्दर को ही गाली बकने लगे।
  दरअसल रामगोपाल वर्मा ने साजिशन मारिया को न्यौता दिया है। वह जानते हैं कि मारिया की स्टोरी उससे ही पूछने के बाद उसे वे आसानी से अपनी अंगुलियों पर नचा सकते हैं। शिखर पर पहुंचने की चाहत में मारिया ने क्या नहीं कर डाला तब फिर वर्मा जी उसके साथ क्या नहीं कर सकते हैं। उसके प्रेमी एमिल जैरोम को तो अभी कम से कम सात साल तक जेल में ही रहना है। सात साल रामगोपाल वर्मा के लिए पर्याप्त हैं। कुल मिलाकर इस सारे मामले में पुलिस ही असली कसूरवार है। पुलिस चाहे महाराष्ट्र की हो अथवा उत्तर प्रदेश की उसका चरित्र पूरे हिन्दुस्तान में एक सा है।
          यह बात अलग है कि उ0प्र0 पुलिस की बागडोर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक कर्मवीर सिंह के रहते हुए विशेष पुलिस महानिदेशक ब्रजलाल के हांथ में है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ही आईबीएन-7 के पत्रकार शलभमणि त्रिपाठी के साथ कैसा सलूक किया गया, सबकी आंखों के सामने है। पीलीभीत में भी खबरों से परेशान वहां के एस.पी. ने एक फोटो-पत्रकार साकेत कुमार को आई.टी.एक्ट में फर्जी फंसा दिया। शिकायत कर्ता की शिकायत में दिये गये मोबाइल नं0 की जांच करने के बजाय पत्रकार को ही झूंठा फंसा दिया।
विशेष पुलिस महानिदेशक ब्रजलाल से जब प्रदेश स्तर की अन्यत्र किसी ऐजेन्सी से जांच कराने की बात की गई तो वह पीलीभीत के एस.पी.की ही प्र'kaसा करने लगे और बोले कि एस.पी. ठीक से काम कर रहा है और मामला बिल्कुल सही है। इतने बड़े पद पर बैठा अधिकारी जिलों में तैनात अधिकारियों का ठेका कैसे ले रहा है] आखिर कोई तो वजह होगी\ सुश्री मायावती का शासन प्रदेश पुलिस की ऐसी ही कार्यपद्वति पर चलता रहा तो कानून व्यवस्था की स्थिति चिंताजनक बने रहना लाजिमी है। पुलिस अपना खौफ अपराधियों पर बनायेगी तभी प्रदेश में अमन चैन कायम रहेगा।
इसी लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार हेमन्त तिवारी के साथ भी पुलिस ने खौफनाक अन्दाज में हरकत की थी। दैनिक जागरण के कानपुर स्थित प्रबन्धतंत्र की महिलाओं के साथ पुलिस ने कैसा सलूक किया यह अभी छिपा हुआ है] क्योंकि प्रबन्धतंत्र ने उसे बाहर नहीं आने दिया। सुश्री मायावती एवं उनकी मशीनरी से आग्रह है कि वे अपराध को नियन्त्रित करना चाहती है तो पुलिस को नियन्त्रण में करें। यदि आप पुलिस को ठीक कर लेंगे तो अपराध अपने आप कम हो जायेंगे। बड़े पुलिस अधिकारियों को अपनी व्हिम्स पर कार्य नहीं करना चाहिए। केवल कुछ लोगों को खुश करके बाकी जनता के साथ ज्यादती करना अच्छे शासन के संकेत नहीं देता है।
         उ0प्र0 के काबीना सचिव कैप्टन शशांक शेखर सिंह को देखना चाहिए कि न्याय पाना मानव का मूलभूत नैसर्गिक अधिकार है और न्याय देना शासन का कर्तव्य। यह आम नागरिक के द्वारा मांगी जाने वाली कृपा या भीख नहीं है, जैसा विशेष पुलिस महानिदेशक समझते हैं। सभ्यता और शिष्टता न्यायविहीन समाज में जीवित नहीं रह सकते। संविधान में देश के प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक] आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाने का वादा किया गया है। न्याय की इसी विशद परिकल्पना को मूर्तरुप देना सन का कर्तव्य है। अब वक्त आ गया है कि प्रदेश के काबीना सचिव] विशेष पुलिस महानिदेशक को समझा दें कि जनता के लिए कार्य करें ना कि पुलिस कप्तानों के लिए।
सतीश प्रधान

Thursday, May 26, 2011

पप्पु के पापा की डिलीवरी हो गई.



         इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मनी लॉंड्रिंग मामले में समाजवादी पार्टी के पूर्व महासचिव व सांसद अमर सिंह की याचिका खारिज कर, पप्पू के पापा की डिलीवरी का इंतजाम कर दिया है। f”kवाकान्त त्रिपाठी  की याचिका पर उच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदे”kkलय को कई राज्यों में पaaaaaaaजीकृत कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के मामलों की जांच करने का निर्दे”k दिया है। याचिका की सुनवाई की तिथी जुलाई के प्रथम सप्ताह में नियत करते हुए न्यायालय ने ईडी से एक माह के भीतर जांच की प्रगति रिiksZV पे”k करने के साथ ही स्वंय भी उपस्थित रहने को कहा है।
         उक्त आदे”k न्यायमूर्ति इम्तियाज मुर्तजा और न्यायमूर्ति एस.एस.तिवारी की खण्डपीठ ने अमर सिंह व f”koकान्त  त्रिपाठी की याचिका की सुनवाई करते हुए दिया। याचिका पर राम जेठमलानी और गोपाल चतुर्वेदी के अलावा राज्य सरकार के वकील डीआर चौधरी व अपर महाधिवक्ता ने भी अपना पक्ष रखा। याचिका के अनुसार व’kZ 2003 में जब प्रदे”k में मुलायम सिंह की सरकार थी, राज्य सरकार ने अमर सिंह को उ0प्र0विकास परि’kद कk चेयरमैन नियुक्त किया था।
      चेयरमैन पद पर रहते हुए अमर सिंह ने मेसर्स पंकजा आर्ट एण्ड क्रेडिट प्रा0लि0 तथा मेसर्स सर्वोत्तम कैप्स लि0 को सरकारी ठेके दिए तथा सरकार को करोड़ों का चूना लगाया। ज्ञात हो कि उक्त दोनों कम्पनियों के अधिकां”k ksयर अमर सिंह की पत्नी व फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन के पास हैं। अमर सिंह ने अपने नियन्त्रणाधीन छह कम्पनियों को वि”ks’k लाभ पहुंचाया जो कि किसी भी प्रकार की व्यावसायिक गतिविधियों में संलग्न नहीं थीं] फिर भी इन कम्पनियों की सम्पत्ति 400 करोड़ तक पहुaaWWWWच गई। अमर सिंह के टेप से और ढ़ेर सारी कारिस्तानियों का पता चल सकता है एवं उसके आधार पर वि”ks’k जांच की कार्रवाई की जा सकती है।
         अमर सिंह ने कहा है कि हाईकोर्ट द्वारा कराई जा रही जांच में वह दो’kh पाये जाते हैं तो कोई भी दण्ड भुगतने को तैयार हैं] वह कानून से ऊपर नहीं हैं। उन्होंने कहा कि अपने ऊपर लगे आरोपों के सम्बन्ध में जांच के लिए वह dsUnªh;  वित्त मंत्री और कम्पनी मामलों के मंत्री को पहले ही पत्र लिख चुके हैं। लगता है अमर सिंह ऊर्फ पप्पू के पापा अभी भी इस न”ks में हैं कि अगर जांच में फंसे तब भी कोर्ट के आर्डर को दर-किनार कर सकते हैं। यह बात “kk;n उन्हें पहली बार समझ में आई है कि वे कानून से ऊपर नहीं हैं] वरना तो मुलायम राज में वह कानून को जेब में रखकर चलते थे। यदि वास्तव में वह अपनी सभी कम्पनियों की जांच के लिए भारत सरकार के मंत्रालयों को पत्र भेज चुके हैं तो इसे कोर्ट में अगली सुनवाई के समय पे”k करें तथा उसकी एक प्रति bl Cykx dks भी भेजने का क’V करें।
      वैसे उन्होने क्या गलत नहीं किया इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने समाजवादी पार्टी में रहते हुए पूरा समाजवाद लाने की कोf”k”k की। अमर सिंह ने पान की दुकान चलाने वाले  ट्रक ड्राइवर और घरेलू नौकरानी तक को कम्पनी का निदे”kक बना दिया वह भी उन्हेa बिना बताये। दरअसल वे उन्हें सरप्राइज देना चाहते थे। है ना बात समाजवाद की! और दूसरी कम्पनियाWa तो प्राइवेट लि0 और लिमिटेड कम्पनी में चेयरमैन रहे व्यक्ति को भी निदे”kक बनाने को तैयार नहीं हैं जबकि ऐसे चेयरमैन के पास बुद्वि है] विवेक है एवं सबसे बड़ी बात सामने वाले के समक्ष पे”k करने के लिए तार्किक kक्ति भी मौजूद है।
      ?kkटमपुर थाना क्षेत्र के आमौर निवासी पान विक्रेता दिलीप सिंह को भी अमर सिंह ने एक कम्पनी का डायरेक्टर बनाया हुआ था। जिन 23 लोगों ने अमर सिंह के खिलाफ हाईकोर्ट में हलफनामा दिया है उसमें यह पान विक्रेता दिलीप सिंह भी है। गौर तलब यह है कि ना तो उसके पास पैन कार्ड है ना ही किसी खाते का वह संचालन करता है] फिर भी आरओसी ने उसे डायरेक्टर बनाने पर कोई आपत्ति नहीं की।
      दिलीप सिंह के अलावा हलफनामा देने वालों में अधिकाaZa”k कोलकाता के रहने वाले हैं। अधिवक्ता श्री त्रिपाठी ने कहा कि अब किसी भी समय अमर सिंह की गिरफ्तारी हो सकती है। गिरफ्तार करके अमर सिंह को भी तिहाड़ जेल में करुणानिधि की आWख की पुतली कनिमोझी के साथ रख दिया जाये] जिससे वहां मौजूद अच्छी-अच्छी हस्तियों से देास्ती कर कुछ विकास की बात अमर सिंह कर सकते हैं।
      काने करुणानिधि की पुत्री कनिमोझी सजा काट रही हत्यारिन “kkरदा जैन] पाकिस्तान के लिए जासूसी कर रही पूर्व आईएफएस अधिकारी माधुरी गुप्ता]  सेक्स रैकेट चलाने वाली सोनू पंजाबन के साथ अमर सिंह अपनी “ks;रो- “kkयरी भी कर सकते हैं और किसी नई कम्पनी की नींव भी रख सकते हैं। सोनू पंजाबन तो अमर सिंह के लिए हजारों बिपा”kklq ले आयेगी]  बस फिर क्या है अमर चाचा के मजे ही मजे हैं।
      अमर सिंह को तिहाड़ में नीरा राडिया की जगह सोनू पंजाबन]  बरखा दत्त की जगह कनिमोझी मिलेंगीं और रतन टाटा एवं अनिल अम्बानी की जगह वह खुद हैं ही। फिर क्या कमी बची बस फटाफट एक कम्पनी बनायें और इन सबको रखने के बाद कम्पनी के प्रोजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई बिल आने से पहले “kqरु करा दें और उसका चेयरमैन बना दें अपने इण्डियन सरदार मनमोहन सिंह कोA पैसों की पूर्ति के लिए कुछ दिनों बाद आईएमएफ के चेयरमैन पद पर आहलूवालिया की नियुक्ति होने ही वाली है] फिर तो पैसों की बरसात ही बरसात है और अपने अमर सिंह की बल्ले-बल्ले। जय हो बिरला के दलाल की और जय कन्हैया लाल की।
सतीश प्रधान 

Sunday, May 22, 2011

कलमाड़ी पर थर्ड डिग्री क्यूँ नहीं


       दिल्ली – राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति घोटाले में गिरफ्तार पूर्व अध्यक्ष सुरेश  कलमाड़ी को विशेष  सी.बी.आई. अदालत ने लम्बे समय तक हिरासत में तिहाड़ जेल में रखने का पुख्ता इंतजाम कर दिया है। कलमाड़ी को सी.बी.आई. ने 25 अप्रैल को गिरफ्तार किया था। 25 अप्रैल से 3 मई तक सी.बी.आई. कलमाड़ी एण्ड कम्पनी (आयोजन समिति के पूर्व संयुक्त महानिदेशक  (खेल) एस0वी0प्रसाद और आयोजन समिति के पूर्व उपमहानिदेशक (व्यवस्था) सुरजीत लाल साथ में जेल में हैं) से कुछ खास नहीं उगलवा सकी थी। इसीलिए 4 मई को अदालत में पेश करने के बाद 14 दिन की रिमाण्ड मांगी गई जिसे विशेष सी.बी.आई. जज धर्मेन्द्र शर्मा ने मंजूर कर लिया।
       सी.बी.आई. को यह रिमाण्ड बार-बार नहीं मिलेगी इसीलिए सी.बी.आई. ने एक माह के भीतर ही कलमाड़ी के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल कर कलमाड़ी को तकनीकी आधार पर जमानत पाने का रास्ता पूरी तौर पर बन्द कर दिया है। कलमाड़ी के साथ आयोजन समिति के छह अधिकारियों को स्विस कम्पनी को टाइम स्कोरिंग एण्ड रिजल्ट का ठेका देने का आरोपी बनाया गया है। इसके अलावा फरीदाबाद के जैम baVjus”kuy के दो मालिकों और हैदराबाद की ए0के0आर dUlVªD”ku  के मालिक के नाम भी आरोप पत्र में हैं।
इन सभी पर धोखाधड़ी फर्जी दस्तावेज़् बनाने और पद का दुरुपयोग कर सरकारी खजाने को चूना लगाने की साज़िश रचने का आरोप है। जो काम सिर्फ 62 करोड़ में स्पेन की कं0 करने को तैयार थी उसे इस मण्डली ने 158 करोड़ में करने का ठेका स्विस कं0 को दिया। सीबीआई को इन सभी पर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करना चाहिए। क्या थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करने के लिए सिर्फ भारत की निर्दोष जनता ही बनी है। देश को गधे की तरह 24 घण्टे चर रहे ये नेता थाने पहुंचते ही बीमार पड़ जाते हैं और अस्पताल में भर्ती होने का जुगाड़ लगाने लगते हैं।
       सुप्रीम कोर्ट को भारतीय चिकित्सा जगत को भी आगाह कर देना चाहिए कि जेल में बन्द किसी भी व्यक्ति के बन्द होने की स्थिति में उसकी चिकित्सा से संबंधित शिकायत पर देश हित में अपनी राय दें ना कि उसकी हैसियत को देखते हुए अथवा किसी तरह के प्रलोभन को देखते हुए। यदि इसके विपरीत किसी डाक्टर की गतिविधि पाई जाये तो उसका मेडिकल लाईसेन्स कम से कम दस वर्ष के लिए निलम्बित कर देना चाहिए।
       वैसे कलमाड़ी एण्ड कम्पनी के लिए थर्ड डिग्री के इस्तेमाल की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ेगी। एक करारा थप्पड़ इन सभी अधिकारियों के सामने कलमाड़ी पर जड़ दिया जाये बस सारा कुछ स्वयं कलमाड़ी कबूल देंगे। लेकिन यहां यह भी देखा जाना है कि कलमाड़ी जेल के अन्दर से भी कई करोड़ का ऑफर  सी.बी.आई. को देने में सक्षम है। यहां यह भी उल्लेख किया जाना नितान्त आवश्यक है कि भारत में वित्तीय अपराध कोई अपराध ही नहीं माना जाता है। पता नहीं काला धन जमा करने वालों के खिलाफ इतने कड़े कानून क्यों नहीं हैं जितने कड़े कानून एक गरीब की जमीन वह भी जनहित के शब्दजाल  के नाम पर अधिग्रहीत करने के लिए बने हैं। एक गरीब की जमीन ये सरकार इमरजेन्सी सेक्सन (6@17) के तहत् जबरन अधिग्रहीत कर लेती है लेकिन भ्रष्ट तरीकों से कमाये गये कालेधन को हवाला के जरिए स्विस बैंक तथा अन्य विदेशी  बैंकों में जमा करने वाले भारतीयों के खिलाफ ऐसी धारा का प्राविधान नहीं रखा गया है।
       जनहित एवं राष्ट्रहित में ऐसा कानून बनना चाहिए जो ऐसे कृत्यों को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में रखे। वास्तविक धरातल से इतर कई गुना ज्यादा अधिक की प्रोजेक्ट के लिए जनता से पब्लिक  ऑफर के तहत् शेयर से पैसा इकट्ठा करने वाली  कम्पनी के सारे निदेशकों की सम्पत्ति को इमरजेन्सी क्लाज़ के तहत् जब्त कर उनका डिन कौन्सिल करने का प्राविधान होना ही चाहिए जिससे वे कोई दूसरी कम्पनी न बना सके इसी के साथ उस चार्टेड एकाउन्टेन्ट कम्पनी का लाईसेन्स भी रद्द किया जाना चाहिए।
सतीश प्रधान