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Tuesday, October 4, 2011

बेल बॉण्ड के अभाव में लाखों बन्द हैं जेल में




          यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय जेलों में बंद कैदियों की संख्या का एक बड़ा हिस्सा उन कैदियों का है, जो सिर्फ इस कारण सलाखों के पीछे है क्योंकि वे अदालतों द्वारा निर्धारित जमानत की राशि का बॉण्ड भरने में सक्षम नहीं हैं। उनके अपराध की प्रकृति उन्हें समाज में वापस जाने की अनुमति देने के साथ ही उन्हें अपराध साबित होने तक अदालत सामान्य जीवन-बसर करने की इजाजत देती है, लेकिन वे कभी इस योग्य हो ही नहीं पाते कि अदालत द्वारा निर्धारित जमानत की राशि बॉण्ड के रूप में जमा करा सकें। नतीजतन वर्षों से सलाखों के पीछे वे अपने बेगुनाह होने का इंतजार ही करते रहते हैं, जबकि अमीर व सुविधा संपन्न व्यक्ति बड़े से बड़ा गुनाह करने के बाद भी बडे आराम से खुले में विचरण करता नज़र आता है। 
          ऐसा ही उदाहरण देखने को मिला, दिल्ली स्थित तिहाड़ जेल में, जहॉं 2-जी स्पैक्ट्रम के आरोपी भारत के निवर्तमान केन्द्रीयमंत्री ए.राजा बन्द हैं। उन्हें एक ऐसा कैदी मिला जो पिछले कई सालों से मात्र 20 हजार रुपये बॉण्ड के लिए न हो पाने के कारण जेल से मुक्त नहीं हो पा रहा था। राजा ने जब सुना कि उसकी प्रजा मात्र 20 हजार रुपये के अभाव के कारण जेल में बन्द है तो उनका दिल पसीज गया और उन्होंने बीस हजार रुपये उस कैदी को दिये, और सच मानिए वह कैदी उन रुपये से बॉण्ड भरकर जेल से मुक्ति पा गया। अब इसका सबाब तो ए.राजा को ऊपर वाला निश्चित रूप से देगा ही।
          सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे ही मामलों को देखकर एक समय कहा था कि हमारे मुल्क में जमानत का प्रचलित तरीका गरीबों को सताने और उनके प्रति भेदभाव करने वाला है, क्योंकि गरीब अपनी गरीबी के कारण जमानतराशि जुटाने के काबिल ही नहीं है। इसी पर उसने एक आदेश में कहा था कि अदालतें यह भूल जाती हैं कि गरीब व अमीर को जमानत देने में उनकी हैसियत का कितना बडा रोल होता है। इन दोनों को जमानत के मामले में बराबर समझकर अदालतें गरीब व अमीर में असमानता ही पैदा नहीं कर रही हैं अपितु गरीबों के साथ एक तरह से भेदभाव और अन्याय भी कर रही हैं।
          अदालतों को चाहिए कि वे सिर्फ मुजरिम के जुर्म की संगीनता के आधार पर कोई फैसला नहीं सुनायें। वे अभियुक्त की माली हालत और उसके नाम को ध्यान में रखकर भी अपना निर्णय दें। वहीं पुलिस को जमानतियों के साथ बॉण्ड भरने पर रिहाई मंजूर करने के घिसे-पिटे तरीके को छोड़ देना चाहिए। उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि अभियुक्त समाज से जुड़ा व्यक्ति है, उसके भाग जाने का कोई खास खतरा नहीं है। उसे चाहिए कि वह गरीब लोगों को निजी बॉण्ड पर, बिना रुपए-पैसे की देनदारी पैदा किये रिहा कर दे। इससे गरीबों में कानून के प्रति न सिर्फ सम्मान बढ़ेगा बल्कि वे छोटे-मोटे अपराधों में भगोड़ा होने से भी बच जाऐंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कोई पालन आजतक होता नहीं दिखाई देता।
          गौरतलब है कि सीआरपीसी संशोधन-2005 में भगोड़ों के लिए अलग से मामला चलाये जाने का प्राविधान लाया गया है, क्योंकि यह देखा गया है कि अक्सर व्यक्ति सजा व जेल से बचने के लिए भाग जाता है। ऐसे मामले ज्यादातर गरीब व सुविधाहीन लोगों में पाये गये हैं। सुविधा सम्पन्न पैसों के बल पर अग्रिम जमानत ले लेते हैं, वह भी बडे आराम से। वहीं गरीबों में इस बात का भय होता है कि पुलिस उसे पकड कर जेल में बन्द कर देगी क्योंकि वह अग्रिम जमानत नहीं ले सकता। वह जानता है कि पुलिस के हत्थे चढ़ने के बाद मुकदमे का निर्णय आने तक वह जेल से बाहर नहीं आ सकता, इसीलिए वह भाग जाता है। यदि अदालत उन्हें सरकारी वकील दे देती हैं और वह उनकी जमानत करवा भी देता है, तो भी वे जमानत के पैसे एकत्र करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। वहीं दूसरी ओर उनके जेल चले जाने से उनका पूरा परिवार दाने-दाने को मोहताज हो तितर-बितर हो जाता है।
           सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि भगोड़ों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने से कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा। हाँ, यदि गरीबों में यह विश्वास पैदा कर दिया जाए कि अदालत उनमें और अमीरों में कोई भेदभाव नहीं करेंगी तो स्थिति में कुछ सुधार संभव है। विधि विशेषज्ञों ने भारतीय दंड संहिता व आपराधिक प्रक्रिया दंड संहिता में इस बात का खास ख्याल रखा था। भारतीय दंड संहिता पाठ 33 की धारा-436 से 450 तक जमानत से संबंधित है। इसमें जमानत के उद्देश्य से लेकर अपराध की प्रकृति के अनुरूप आरोपी को मिलने वाले लाभ की चर्चा की गई है। इसके अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को उस पर मुकदमें का फैसला होने तक कानूनी हिरासत से रिहा करने को जमानत कहते हैं। इसके लिए आरोपी को अदालत में एक अर्जी लगाकर गुहार लगानी पड़ती है। धारा-437(1) व 439(1) में कहा गया है कि जमानत की अर्जी पर अदालतें अपनी सूझ-बूझ पर फैसला देंगी। इसके तहत न्यायाधीष को परिस्थितियों का अध्ययन करना चाहिए जिसके कारण अपराध हुआ है। आरोपी के भागने की संभावना का ध्यान रखना चाहिए। साक्ष्य को प्रभावित करने की संभावना, मुकदमे का इतिहास एवं जांच पड़ताल की गति का अध्ययन करना चाहिए।
          यदि अपराध की प्रकृति धारा-437(2) के अनुरूप है तो उसे विशेष शर्तों पर रिहा किया जा सकता है। यह शर्त पासपोर्ट जमा करना, अदालत की इजाजत के बिना भारत से बाहर नहीं जाना और साक्ष्य को प्रभावित नहीं करना हो सकता है। वहीं धारा-442 के तहत जज अभियुक्त की रिहाई का आदेश जारी कर सकता है। जमानती मुचलके की स्थिति में अभियुक्त द्वारा पेश जमानती को अदालत मानने से कभी इंकार नहीं कर सकती बशर्ते जमानती की आयु 18 वर्ष से ऊपर हो, उसके पास स्थायी पते का साक्ष्य हो और सभी कर्जों को चुकाने के बाद वह जमानत की राशि चुका पाने के योग्य हो। साथ ही कानून में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि यदि कोई आरोपी जमानत लेने के बाद अदालत द्वारा लगाई पाबंदियों को तोड़ता है तो उसका बेल बॅाण्ड जब्त किया जा सकता है। धारा-446 के तहत उसे अदालत जुर्माना भरने को कह सकती है। धारा-446(3) के तहत अदालत जुर्माने की रकम को कम कर सकती है या उसे किस्तों में बांट सकती है।
          आरोपी से मतभेद होने पर जमानती धारा-444(1) के तहत जमानती बॉण्ड वापस लेने की अर्जी दे सकता है। ऐसी स्थिति में अदालत धारा-444(2) के तहत आरोपी को सम्मन कर सकती है और गिरफ्तारी का आदेश भी दे सकती है या धारा-446(क) के तहत नए जमानती से बॉण्ड भरवाया जा सकता है। यह अदालत के अपने विवेक पर निर्भर करता है कि वह अभियुक्त के साथ कैसा बरताव करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में इस बात को इंगित भी किया है कि उस वक्त तक कानून अपने आप में पर्याप्त नहीं है जब तक कि उसे लागू करने वाला अपने विवेक का समुचित प्रयोग न करे। उनके अनुसार कानून के महत्व को जोखिम में डाले बगैर जमानत के तरीके में मुकम्मल सुधार होना चाहिए ताकि गरीब के लिए भी यह मुमकिन हो सके कि वह मुकदमा शुरू होने से पहले अमीरों की तरह आसानी से रिहाई हासिल कर सके और भगोड़ा न बने। 
सतीश प्रधान

Sunday, May 22, 2011

कलमाड़ी पर थर्ड डिग्री क्यूँ नहीं


       दिल्ली – राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति घोटाले में गिरफ्तार पूर्व अध्यक्ष सुरेश  कलमाड़ी को विशेष  सी.बी.आई. अदालत ने लम्बे समय तक हिरासत में तिहाड़ जेल में रखने का पुख्ता इंतजाम कर दिया है। कलमाड़ी को सी.बी.आई. ने 25 अप्रैल को गिरफ्तार किया था। 25 अप्रैल से 3 मई तक सी.बी.आई. कलमाड़ी एण्ड कम्पनी (आयोजन समिति के पूर्व संयुक्त महानिदेशक  (खेल) एस0वी0प्रसाद और आयोजन समिति के पूर्व उपमहानिदेशक (व्यवस्था) सुरजीत लाल साथ में जेल में हैं) से कुछ खास नहीं उगलवा सकी थी। इसीलिए 4 मई को अदालत में पेश करने के बाद 14 दिन की रिमाण्ड मांगी गई जिसे विशेष सी.बी.आई. जज धर्मेन्द्र शर्मा ने मंजूर कर लिया।
       सी.बी.आई. को यह रिमाण्ड बार-बार नहीं मिलेगी इसीलिए सी.बी.आई. ने एक माह के भीतर ही कलमाड़ी के खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल कर कलमाड़ी को तकनीकी आधार पर जमानत पाने का रास्ता पूरी तौर पर बन्द कर दिया है। कलमाड़ी के साथ आयोजन समिति के छह अधिकारियों को स्विस कम्पनी को टाइम स्कोरिंग एण्ड रिजल्ट का ठेका देने का आरोपी बनाया गया है। इसके अलावा फरीदाबाद के जैम baVjus”kuy के दो मालिकों और हैदराबाद की ए0के0आर dUlVªD”ku  के मालिक के नाम भी आरोप पत्र में हैं।
इन सभी पर धोखाधड़ी फर्जी दस्तावेज़् बनाने और पद का दुरुपयोग कर सरकारी खजाने को चूना लगाने की साज़िश रचने का आरोप है। जो काम सिर्फ 62 करोड़ में स्पेन की कं0 करने को तैयार थी उसे इस मण्डली ने 158 करोड़ में करने का ठेका स्विस कं0 को दिया। सीबीआई को इन सभी पर थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करना चाहिए। क्या थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करने के लिए सिर्फ भारत की निर्दोष जनता ही बनी है। देश को गधे की तरह 24 घण्टे चर रहे ये नेता थाने पहुंचते ही बीमार पड़ जाते हैं और अस्पताल में भर्ती होने का जुगाड़ लगाने लगते हैं।
       सुप्रीम कोर्ट को भारतीय चिकित्सा जगत को भी आगाह कर देना चाहिए कि जेल में बन्द किसी भी व्यक्ति के बन्द होने की स्थिति में उसकी चिकित्सा से संबंधित शिकायत पर देश हित में अपनी राय दें ना कि उसकी हैसियत को देखते हुए अथवा किसी तरह के प्रलोभन को देखते हुए। यदि इसके विपरीत किसी डाक्टर की गतिविधि पाई जाये तो उसका मेडिकल लाईसेन्स कम से कम दस वर्ष के लिए निलम्बित कर देना चाहिए।
       वैसे कलमाड़ी एण्ड कम्पनी के लिए थर्ड डिग्री के इस्तेमाल की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ेगी। एक करारा थप्पड़ इन सभी अधिकारियों के सामने कलमाड़ी पर जड़ दिया जाये बस सारा कुछ स्वयं कलमाड़ी कबूल देंगे। लेकिन यहां यह भी देखा जाना है कि कलमाड़ी जेल के अन्दर से भी कई करोड़ का ऑफर  सी.बी.आई. को देने में सक्षम है। यहां यह भी उल्लेख किया जाना नितान्त आवश्यक है कि भारत में वित्तीय अपराध कोई अपराध ही नहीं माना जाता है। पता नहीं काला धन जमा करने वालों के खिलाफ इतने कड़े कानून क्यों नहीं हैं जितने कड़े कानून एक गरीब की जमीन वह भी जनहित के शब्दजाल  के नाम पर अधिग्रहीत करने के लिए बने हैं। एक गरीब की जमीन ये सरकार इमरजेन्सी सेक्सन (6@17) के तहत् जबरन अधिग्रहीत कर लेती है लेकिन भ्रष्ट तरीकों से कमाये गये कालेधन को हवाला के जरिए स्विस बैंक तथा अन्य विदेशी  बैंकों में जमा करने वाले भारतीयों के खिलाफ ऐसी धारा का प्राविधान नहीं रखा गया है।
       जनहित एवं राष्ट्रहित में ऐसा कानून बनना चाहिए जो ऐसे कृत्यों को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में रखे। वास्तविक धरातल से इतर कई गुना ज्यादा अधिक की प्रोजेक्ट के लिए जनता से पब्लिक  ऑफर के तहत् शेयर से पैसा इकट्ठा करने वाली  कम्पनी के सारे निदेशकों की सम्पत्ति को इमरजेन्सी क्लाज़ के तहत् जब्त कर उनका डिन कौन्सिल करने का प्राविधान होना ही चाहिए जिससे वे कोई दूसरी कम्पनी न बना सके इसी के साथ उस चार्टेड एकाउन्टेन्ट कम्पनी का लाईसेन्स भी रद्द किया जाना चाहिए।
सतीश प्रधान