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Monday, January 15, 2018

CJI रहित संविधान पीठ को न्याय की दरकार


भारत  की जनता के लिए  गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए कि ऐसा क्या हुआ कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीषों को अपनी बात कहने के लिए देश की मीडिया के सामने आना पड़ा?

Justice J Chelameswar and three other senior Supreme Court judges had held a press conference.


देखा जाये तो न्यायिक इतिहास की यह अभूतपूर्व घटना साबित होगी। भारत में न्यायपालिका और विशेषकर उच्चतम न्यायालय एक ऐसा संस्थान है, जिसपर भारत का जनमानस बहुत अधिक विश्वास करता है। जब पीड़ित हर तरफ से न्याय की उम्मीद छोड़ चुका होता है तो यही संस्थान जिसे न्यायालय कहा जाता है, उसके उम्मीद की एक किरण होती है।
उम्मीद की यही किरण उसे अधीनस्थ न्यायालय से उच्चतम न्यायालय लाती है कि न्याय के अंतिम पायदान पर तो उसे न्याय नसीब होगा ही। जबकि बहुत से वरिष्ठ वकीलों से मैंने सुना है कि न्यायलय में न्याय नहीं जजमेन्ट मिलता है।


अदालत के सामने एक केस होता है, जिस पर न्यायालय दोनों पक्षों को सुनने के बाद अपना फैसला सुनाता है।  पेश किये गये तथ्यों, उस पर दोनों पक्षों के तर्कों को सुनने के बाद कानून में नीहित प्राविधानों के मद्देनजर, अदालत जजमेन्ट देती है। अब किसको न्याय मिला नहीं मिला ये सब गौण हैं।
चारों जजों ने अपने को मीडिया के समक्ष पेश किया और अपनी बात रखी, इसलिए यह कोई केस तो हुआ नहीं कि इस पर अदालत फैसला दे। यहॉं तो बात न्याय की है और वो भी इन जजों को मिलता है कि नहीं, ये तो आने वाला समय ही बतायेगा।
शुक्रवार को उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीषों द्वारा पता नहीं किस मजबूरी में एक संवाददाता सम्मेलन बुलाना पड़ा और एक संयुक्त पत्र जारी कर देश की सबसे बड़ी अदालत के मुख्य न्यायाधीष पर न्यायसम्मत तरीके से कार्य न करने की बात कहनी पड़ी।
उन्होंने मुख्य न्यायाधीष के प्रशासनिक अधिकार की ओर उंगली उठाते हुए कहा कि मुख्य न्यायाधीष अपने इस अधिकार का सही इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। उन चारों का कहना रहा कि अगर हम आज उच्चतम न्यायालय की मौजूदा स्थिति के खिलाफ न खड़े होते तो अब से 20 साल बाद समाज के कुछ बुद्धिमान व्यक्ति यह कहते कि हम चार जजों ने ‘अपनी आत्मा बेच’ दी थी।
इन चारों न्यायाधीषों ने यह भी बयान किया कि हम इस मामले में चीफ जस्टिस के पास गए थे, लेकिन वहां से खाली हाथ लौटना पड़ा। ये भी बड़ा गंभीर विषय है कि उच्चतम न्यायालय के ही चार वरिष्ठ न्यायाधीषों की बात मुख्य न्यायाधीष ने नहीं सुनी।
इस प्रेस कांफ्रेंस को संपन्न हुए पांच मिनट भी नहीं हुए थे कि कई वरिष्ठ वकीलों ने पक्ष-विपक्ष में अपने-अपने तर्क देने शुरू कर दिए। वकील प्रशांत भूषण ने मीडिया में आकर मुख्य न्यायाधीष के कथित चहेते जजों का नाम और वे मामले जो उन्हें सौंपे गए, बताना शुरू कर दिया तो पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आर0एस0 सोढ़ी ने इन चार जजों के कदम को उच्चतम न्यायालय की गरिमा गिराने वाला, हास्यास्पद और बचकाना करार दिया।
वकील के0टी0एस0 तुलसी और इंदिरा जयसिंह ने चार जजों का पक्ष लिया तो पूर्व अटार्नी जनरल एवं वरिष्ठ वकील सोली सोराबजी ने चार जजों की ओर से प्रेस कांफ्रेंस करने पर घोर निराशा जताई। चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के औचित्य-अनौचित्य को लेकर तरह-तरह के तर्कों के बाद आम जनता के लिए यह समझना कठिन हो गया कि यह सब क्यों हुआ और इसके क्या परिणाम होंगे?
उसके मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिरकार उच्चतम न्यायालय में क्या चल रहा है? इन सवालों का चाहे जो जवाब हो, लेकिन पहली नजर में यही लगता है कि एक विश्वसनीय संस्थान व्यक्तिगत अहंकार या कहिए वर्चस्व की जंग का शिकार हो गया है।
जब प्रेस कांफ्रेंस में चार न्यायाधीषों से पूछा गया कि क्या वे मुख्य न्यायाधीष के खिलाफ महाभियोग लाने के पक्षधर हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि यह समाज को तय करना है। इसका सीधा और साफ मतलब यही निकलता है कि उच्चतम न्यायालय के ये चारों जज मुख्य न्यायाधीष के खिलाफ महाभियोग चलाये जाने के पक्ष में हैैं?
ज्ञात हो कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के जजों को, मात्र महाभियोग लगाकर ही हटाया जा सकता है। और यह बहुत ही कठिन प्रक्रिया है।
भारत में उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीषों की पीठ को संविधान पीठ का दर्जा मिला हुआ है और उसके फैसलों में कानून की ताकत होती है। आपने अभी तक कभी-कभार ही केंद्रीय बार काउंसिल और राज्य बार एसोसिएशनों द्वारा जजों के खिलाफ व्यक्तिगत मामलों में आरोप लगते हुए देखा-सुना होगा?
लेकिन पिछले 70 सालों में एक बार भी ऐसा देखने को नहीं मिला होगा कि उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ जज अपने मुख्य न्यायाधीष के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस करें और वह भी केसों के आवंटन में कथित पक्षपात को लेकर। इन चार जजों का कहना है कि कौन केस किस बेंच के पास जाएगा, यह तो मुख्य न्यायाधीष के अधिकार क्षेत्र में है।

लेकिन यह प्रक्रिया भी कुछ संस्थापित परंपराओं के अनुरूप चलाई जाती है। सामान प्रकृति के मामले सामान बेंच को जाते हैं। और यह निर्धारण, मामलों की प्रकृति के आधार पर होता है, ना कि केस के आधार पर।

कुछ विद्वानों का मत है कि अगर यह तरीका कारगर नहीं हुआ जैसा कि जजों द्वारा संकेत किया गया है तो फिर ये जज मुख्य न्यायाधीष की केस आवंटन प्रक्रिया के खिलाफ स्वयं संज्ञान लेते हुए फैसला दे सकते थे। ऐसा कोई फैसला स्वत: सार्वजनिक होता और कम से कम उससे यह ध्वनि न निकलती कि सार्वजनिक तौर पर कुछ जज मुख्य न्यायाधीष के खिलाफ सड़क पर आ गए हैैं।
कैसी-कैसी हास्यास्पद बातें की जा रही हैं। यदि ऐसा कुछ इन चार जजों में से किसी के भी द्वारा ऐसा किया जाता तो तब पूरा देश उन्हें कटघरे में खड़ा करता कि अगर उन्हें मुख्य न्यायाधीष की कार्यप्रणाली से कोई शिकायत थी तो वे कहीं उचित फोरम पर अपनी बात रखते? स्वंय मुख्य न्यायाधीष के एक्शन के खिलाफ स्यो-मोटो फैसला लेना कहॉं तक उचित था।

प्रेस के सामने आना कोई गुनाह नहीं होना चाहिए,और गुनाह होता भी नहीं है। इस देश में हर व्यक्ति न्याय पाने के लिए अपनी बात कहीं भी और विशेषतौर पर मीडिया के सामने रखने के लिए स्वतंत्र है। और विशेषतौर पर मीडिया के समक्ष रखना ही उसे ज्यादा आसान दिखाई देता है।  
इस देश के आम नागरिक से लेकर, विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री, छोटे से अधिकारी से लेकर बड़े-बड़े ब्यूरोक्रेट्स तक, एवं विपक्षी पार्टीयों से लेकर मुख्य न्यायाधीष तक प्रेस के सामने आये ही हैं।

फिर ऐसी सूरत में संविधान पीठ के चार जज यदि अपनी बात की सुनवाइ उसी संविधान पीठ के एक अन्य जज जो कि मुख्य न्यायाधीष हैं द्वारा उनकी ही बात ना सुने जाने पर प्रेस के सामने आ गये तो कौन सा अपराध हो गया?
अपनी ही न्यायपालिका के जज हैं अपने ही देश में अपनी ही प्रेस के सामने आ गये तो क्या हो गया?

उन्होंने जो कहा और उस पर जो नतीजा सामने आयेगा, उससे हमारी न्यायपालिका  और अधिक न्यायिक नज़र आयेगी। उन्होंने प्रेस के सामने यह तो नहीं कहा कि संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया है, इसलिए वे प्रेस के अलावा कहॉं जाते?
मुख्य न्यायाधीष ने भी अबतक निभाई जा रही मान्य परम्पराओं का निर्वहन करते हुए अपना अधिकार समझते हुए निर्णय लिए।

अब यदि उन प्रशासनिक निर्णयों से अपनी ही पीठ के चार अन्य जज सहमत नहीं हैं तो, सर्वमान्य प्रक्रिया का प्रतिपादन हो सकता है। इसे परिवार में हुए मन-मुटाव के अलावा अन्य किसी भी तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए।
मैं तो अपनी छोटी सी बुद्धि के बल पर यही कहूंगा कि ये कोई ऐसा मसला नहीं कि इसका हल ना निकले, इससे पहले रविवार को सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) के अध्यक्ष विकास सिंह ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा से मुलाकात की थी।
विकास सिंह ने शीर्ष न्यायपालिका में संकट को लेकर एक प्रस्ताव सौंपा था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण पीठ की बैठक होने की संभावना है, जिसमें मौजूदा संकट पर चर्चा हो सकती है।

वरिष्ठ वकील विकास सिंह ने सीजेआई दीपक मिश्रा से मुलाकात करने के बाद बताया कि उन्होंने एससीबीए के प्रस्ताव की एक प्रति प्रधान न्यायाधीश को सौंपी, जिन्होंने उस पर गौर करने का आश्चासन दिया है। उनकी न्यायमूर्ति मिश्रा से करीब 15 मिनट बातचीत हुई।
सिंह ने कहा,‘मैं प्रधान न्यायाधीश से मिला और प्रस्ताव की प्रति उन्हें सौंपी। उन्होंने कहा कि वह इस पर गौर करेंगे और सुप्रीम कोर्ट में जल्द-से-जल्द सौहार्द कायम करेंगे।’

सतीश प्रधान
(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार,स्तम्भकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार है)

Monday, June 18, 2012

माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ठेंगा

लगभग 44 वर्ष की उम्र तक पत्रकारिता से दूर-दूर तक का नाता ना रखने वाले एवं प्रबन्धकीय पद पर कार्य करने वाले एक व्यक्ति नेअचानक रातों-रात लखनऊ से प्रकाशित होने वाले एक दैनिक समाचार-पत्र, जनसत्ता एक्सप्रेस (फ्रेन्चाइजी के तहत वर्तमान में बन्द हो चुके) के तत्कालीन अनुबन्धकर्ता एवं स्वामी डा0 अखिलेश दास की मेहरबानी से महाप्रबन्धक होने के बावजूद सम्पादक का चार्ज ले लिया और पत्रकार बन गये। डा0 अखिलेश दास ने भी बगैर यह विचार किये कि इस महाप्रबन्धक का पत्रकारिता से कोई लेना-देना ही नहीं है, फिर भी सम्पादकीय विभाग में एक से एक पत्रकारों के मौजूद रहने के बाद भी उन सबको नजरअन्दाज करते हुए समाचार-पत्र का सम्पादक बना दिया। मि0 दास एक बिजनेसमैन हैं और उन्होंने अपने फायदे के लिए ही ऐसा कर डाला। दोनों पद एक व्यक्ति को देकर उन्होंने सम्पादक को दी जाने वाली सेलरी को आराम से बचा लिया।
इस प्रकार सीनियर प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारियों को आम की पेटी एवं उपहार के बल पर अपने को जिन्दा रखने वाले इस व्यक्ति, मि0 पंकज वर्मा ने महाप्रबन्धक एवं सम्पादक का चार्ज लेते ही समाचार-पत्र के ब्यूरो प्रमुख की मेहरबानी से दिनांक 31 जनवरी 2004 को राज्य सम्पत्ति विभाग का शासकीय आवास, राजभवन कालोनी में नं0-1 आवंटित करा लिया। वर्ष 2005 में मि0 पंकज वर्मा को डा0 अखिलेश दास ने विज्ञापन के धन में हेरा-फेरी करने के आरोप में नौकरी से भी निकाल बाहर किया।
पंकज वर्मा के पत्रकार न रहने और मेसर्स शोंख टैक्नोलॉजी इण्टरनेशनल लिमिटेड में वाइस प्रेसीडेन्ट का पद पाने और इसके बाद हेरम्ब टाइम्स में राजनीतिक सम्पादक होने और फिर वारिस-ए-अवध का संवाददाता दर्शाने की स्थिति में विशेष सचिव एवं राज्य सम्पत्ति अधिकारी, उ0प्र0 शासन ने 15 फरवरी 2006 को उनका आवंटन आदेश निरस्त कर दिया। इस आदेश के विरूद्ध मि0 पंकज वर्मा ने वर्ष 2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में रिट पिटीसन संख्या-1272 दाखिल की।

जिसकी पूरी तरह से सुनवाई करने के बाद विद्धान न्यायाधीषों क्रमशः श्री संजय मिश्रा एवं श्री राजीव शर्मा ने रिट पिटीसन संख्या-1272 पर फाइनल आर्डर किया कि- 
                   The impugned order does not suffer from any error in law and as such, the writ petition having  no merit is accordingly dismissed. 

इसके बाद मि0 पंकज वर्मा ने माननीय सुप्रीम कोर्ट में संख्या-18145 से वर्ष 2007 में एस0एल0पी0 दाखिल कर दी।
माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 05 अक्टूबर 2007 को हुई पहली सुनवाई में आदेश हुए कि-
              Upon hearing counsel the court made the following ORDER-
              Issue notice. Status quo shall be maintained in the meantime. 

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 04 फरवरी 2008 को हुई दूसरी सुनवाई में आदेश हुए कि-
              Ms Shalini Kumar, learned Advocate appearing on behalf of Ms. Niranjana Singh, Advocate on Record accepts notice for all the respondents and seeks time to file Vakalatnama & Counter Affidavit. 
              They may do so, before 29th Feb. 2008. 
              List the matter on 29th Feb. 2008.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 29 फरवरी 2008, को हुई तीसरी सुनवाई में आदेश हुए कि-
              Office is directed to rectify the data base so as to disclose the names of all the concerned Advocates in the Cause List who have filed their appearance. 
               List the matter before the Hon’ble Court. 

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 21 अप्रैल 2008, को हुई चैथी सुनवाई में आदेश हुए कि-
              Two weeks time is granted to file rejoinder affidavit.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 14 जुलाई 2008, को हुई पांचवीं सुनवाई में आदेश हुए कि-

             We find that the petitioners counsel had made a request by letter dated 16/04/2008 for grant of time & time was accordingly granted on 21/04/2008. 
             Again similar request is made by writing an identical letter. We see no ground for extending the time.The request for extending further time to file a rejoinder is rejected. 

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 19 अगस्त 2008, को हुई छठी सुनवाई में आदेश हुए कि-
             Place before appropriate Bench.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 13 अक्टूबर 2008, को हुई सातवीं सुनवाई में आदेश हुए कि-
             Order dated 14/07/2008 is recalled. Rejoinder affidavit be filled within two days.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 01 जनवरी 2009, को हुई आठवीं सुनवाई में आदेश हुए कि-
             Pleadings are complete. List this matter for hearing in the last week of Feb.2009. In the meantime, the State Govt. is at liberty to take a decision on the representation stated to have been filed by the petitioner if the said representation is still pending for decision.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 23 फरवरी 2009, को हुई नौवीं सुनवाई में आदेश हुए कि-
             In view of the letter circulated on behalf of learned counsel for the petitioner, list after four weeks.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 27 मार्च 2009, को हुई दसवीं सुनवाई में आदेश हुए कि-
            On the joint request made by the parties, list this matter after the ensuing Summer Vacation.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 06 जुलाई 2009 को ग्यारहवीं सुनवाई में आदेश हुए कि-
             List for final disposal in Nov. 2009.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 17 सितम्बर 2010 को हुई बारहवीं सुनवाई में आदेश हुए कि-
             The matter is adjourned for eight weeks.

माननीय सुप्रीम कोर्ट में दिनांक 26 अगस्त 2011 को हुई फाइनल सुनवाई में एस0एल0पी0संख्या-18145 को न्यायमूर्ति माननीय श्री आर.बी रविन्द्रन और न्यायमूर्ति माननीय श्री ए0के0पटनायक ने अंतिम रूप से निस्तारित करते हुए आदेश दिये कि-
           
         Upon hearing counsel the Court made the following ORDER-
             Special Leave Petition is dismissed.

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान भी पंकज वर्मा के वकील महोदयों ने टाइम-पर टाइम लेने और कोर्ट का समय जाया करने की असफल कोशिश की, एवं मा0 सुप्रीम कोर्ट की जल्द निपटारे की मंशा के बाद भी चार साल लग गये। मि0 पंकज वर्मा ने इस प्रकार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वाद दाखिल करके छह साल आराम से गुजार दिये और अब 26 अगस्त 2011 को दिये गये सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी अनादर करते हुए आराम से उसी सरकारी आवास में अवैध एवं अविधिक कब्जा जमाये हुए हैं।

जिस आवास को खाली कराने के लिए राज्य सम्पत्ति विभाग ने जनता के धन के लाखों रूपये वकीलों की फीस के रूप में खर्च कर डाले और दोनों ने मिलकर माननीय हाई कोर्ट और माननीय सुप्रीम कोर्ट का समय भी बर्बाद किया, उसी आवास को पुलिस बल से कब्जा मुक्त कराने की कोई मंशा राज्य सम्पत्ति विभाग की नहीं दिखाई देती। नहीं तो क्या कारण है कि 26 अगस्त 2011 को मा0 सुप्रीम कोर्ट से फैसला राज्य सम्पत्ति विभाग के पक्ष में होने के बावजूद राज्य सम्पत्ति विभाग आज दिनांक 18 जून 2012 तक मि0 पंकज वर्मा से शासकीय आवास रिक्त नहीं करा पाया है? जब मि0 पंकज वर्मा से आवास खाली ही नहीं कराना था तो आवंटन आदेश रद्द ही क्यों किया गया? और मा0 हाईकोर्ट में एवं मा0 सुप्रीम कोर्ट में प्रतिवाद ही क्यों किया गया? यदि प्रतिवाद सही किया गया तो राज्य सम्पत्ति विभाग मि0 पंकज वर्मा के खिलाफ पब्लिक प्रिमाइसेज (इविक्सन) एक्ट के तहत बेदखली की कार्रवाई क्यों नहीं करता है?

मि0 पंकज वर्मा ने भी वकीलों की फौज पर लाखों रूपये बहाये, आखिरकार इतना धन मि0 पंकज वर्मा कहॉं से लाये? इनके पास आय से अधिक सम्पत्ति की आखिरकार जॉंच क्यों नहीं होनी चाहिए? उ0प्र0की राजधानी लखनऊ में तकरीबन तीन दर्जन पत्रकार ऐसे हैं जो करोड़पति हैं, एक दर्जन ऐसे हैं जो अरबपति हैं और प्रदेश की मीडिया को, नौकरशाही को एवं सरकार को अपनी उंगली पर नचाते हैं एवं पत्रकारिता की ऐसी की तैसी कर रखी है। प्रदेश के समस्त मान्यता प्राप्त पत्रकारों की आय से अधिक सम्पत्ति की जॉंच तो होनी ही चाहिए, यदि देश के इस चौथे खम्भे को दुरूस्त रखना है तो।

मि0 पंकज वर्मा और राज्य सम्पत्ति विभाग, दोनों ने मिलकर क्या माननीय उच्च एवं उच्चतम न्यायालय का वक्त बर्बाद करते हुए उसके दिये गये आदेश को ठेंगा नहीं दिखाया। यदि यह मुकदमा दोनों न्यायालय में ना लगा होता तो मा0 दोनों न्यायालयों को किसी और विशेष मुकदमे को निपटाने का समय मिला होता एवं वास्तव में किसी गरीब-गुरबे की सुनवाई हुई होती और उसे राहत मिली होती। यहॉं तो कुल मिलाकर माननीय न्यायालयों को ही बेवकूफ बनाने में दोनों पक्ष एकमत रहे

उत्तर प्रदेश में ज्यादातर पत्रकारों ने इसी तरह फर्जी तरीके से सरकारी आवास पाये हुए हैं। अपना मकान होते हुए भी (जिसे सरकार ने 40 प्रतिशत की सबसिडी पर दिया है) उसे अस्सी-अस्सी हजार रूपये प्रतिमाह किराये पर उठाकर, राज्य सम्पत्ति विभाग में झूंठा शपथ-पत्र प्रस्तुत कर कई दशकों से सरकारी आवास पर कब्जा जमाये हुए हैं और संस्थान से रिटायर होने के बावजूद पत्रकार मान्यता पाने के लिए और आवास पर कब्जा बरकरार रखने के लिए वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्र पत्रकार की श्रेणी बनवाकर शासकीय आवास पर कब्जा किये हुए हैं। कितने तो करोड़ों की अचल सम्पत्ति रखने के बाद भी सरकारी आवास पर काबिज हैं। क्या यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि 70 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्ति भी पत्रकार बने रहकर सरकारी आवास घेरे हुए हैं और आर्थिक रूप से कमजोर एवं नौजवान, कर्मठ लगभग तीन दर्जन पत्रकार सरकारी आवास पाने से वंचित हैं और किसी तरह से गुजर-बसर कर रहे हैं।

माननीय मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट श्री एस0एच0 कपाड़िया जी से अनुरोध है कि मेरी इस अपील को पब्लिक इंटीरेस्ट लिटिगेसन की तरह ट्रीट करते हुए मुझ समेत समस्त पक्ष को नोटिस जारी करना चाहें, जिससे भविष्य में आपके न्यायालय तक पहुंचने वाला वादी और प्रतिवादी आपके आदेश का अक्षरशः पालन करे, उसके साथ ढ़ींगा-मुस्ती करने की हिम्मत ना दिखा पाये।

उपरोक्त की हार्ड कॉपी मय आवश्यक कागजातों के द्वारा रजिस्ट्री आपके पास इस उम्मीद से भेज रहा हॅूं कि आपके आदेश के बाद भी मि0 पंकज वर्मा का निरस्त आवास संख्या-1, राजभवन कालोनी, लखनऊ जो मुझे 30 मई 2012 को आवंटित किया गया है,उस पर अभी तक मि0 पंकज वर्मा का कब्जा किस प्रकार से बना हुआ है? आवास निरस्तीकरण के बाद फैसला आने पर भी राज्य सम्पत्ति विभाग ने अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की?
(सतीश प्रधान)
http://janawaz.com/archives/2020

Tuesday, July 26, 2011

सुप्रीम कोर्ट इतना सक्रिय क्यों


      सुप्रीम कोर्ट इसलिए सक्रिय है कि देश की जनता को न्याय मिले, उसके संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो तथा कार्यपालिका संवैधानिक दायरे में रहकर सार्वजनिक हित में कार्य करे। देश की जनता से सवाल यह है कि वह सुप्रीम कोर्ट को माननीय कपाडिया के नेतृत्व में सक्रिय देखना चाहती है अथवा निष्क्रिय करके अपना दमन देखना चाहती है।

      जिस अमेरिका के नेतृत्व में हमारी भारत की सरकार चल रही है, उसकी दुहाई चन्द बेवकूफ हिन्दुस्तानी भी देते हैं। देखिए अमेरिका और यूरोप की सरकारें अपने यहॉं निजी उद्योगों के लिए भूमि का अधिग्रहण नहीं करती हैं। जिस कानून के जरिए भारत की सरकारों ने ऐसे कानून का सहारा लिया हुआ है, वह अंग्रेज का बनाया हुआ है, लेकिन अंग्रेज ने कभी भी इस कानून का दुरुपयोग नहीं किया। उसे रेल लाइन बिछाने के लिए जितनी जमीन की आवश्यकता थी, उतनी ही अधिग्रहीत की, उससे ज्यादा नहीं। वह भी चाहता तो रेल लाइन के किनारे की सारी जमीन अपने वतन के लोगों के रिहायशी आवास बनाने के लिए कौडियों में  अधिग्रहीत कर लेता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसे पता था कि वह दूसरे देश में शासन कर रहा है जिसकी कुछ सीमा और कुछ मर्यादायें भी हैं।

      अंग्रेज के बनाये इसी कानून का चहुं ओर जबरदस्त विरोध इसके अनुपालन के कारण हो रहा है, वरना मेरा मानना है कि इस कानून में भी कोई कमी नहीं है। इस कानून को सरकार अपने मनमानी तरीके से लागू कर रही है, इसीलिए यह उपहास का कारण बनता जा रहा है। यह मुद्दा अब सरकार बनाने और गिराने की हद तक जा पहुचा है, इसीलिए सरकारें अब इसमें कुछ संशोधन का दिखावा करने को मजबूर हो रहीं हैं। इसमें संशोधन से भी कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं है जबतक कि सरकार की मंशा ठीक नहीं होगी।

        सरकार ने जो नयी नीति का मसौदा तैयार किया है उसके अनुसार 80 फीसदी जमीन निजी क्षेत्र को स्वयं अधिग्रहीत करनी है, बाकी की 20 प्रतिशत सरकार उसे अधिग्रहीत करके देगी, इसी के साथ भूमि के रजिस्टर्ड मूल्य का छह गुना मुआवजा दिया जायेगा। इस मुआवजे का फार्मूला भी एकदम गलत एवं भरमाने वाला है। सवाल सीधा है कि सरकार को निजी उद्योग के लिए भूमि अधिग्रहीत करने की आवश्यकता ही क्या है?  अधिग्रहण केवल शुद्ध सरकार के कार्य के लिए होना चाहिए, और सरकार की परिभाषा में ना तो सरकारी प्राधिकरण आते हैं, ना ही नगर निगम, ना ही बिजली कार्पोरेशन, ना ही भारत संचार निगम अथवा आवास विकास परिषद या कोई अन्य अथारिटी और कार्पोरेशन। निजी क्षेत्र को आपसी सहमति से जमीन खरीदने के लिए क्यों नहीं कहा जाता? जब निजी क्षेत्र जमीन क्रय करले तब सरकार उस भूमि का उपयोग, जिस उद्देश्य के लिए उसने जमीन क्रय की है, उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कर दे। ये ट्रिपल पी क्या बला है? पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को ही ट्रिपल पी कहा जाता है। अब इसमें सरकार बीच में कहॉं से आ गई। मामला दो बिल्लीओं का है, ये बन्दर बीच में कहॉं से आ गया! अब जब बन्दर बीच में आयेगा तो सारी रोटी तो वही खाने के फेर में रहेगा।

      अन्तरराष्ट्रीय कानून संस्था ने सिद्धान्त बनाया है कि जब आप किसी की जमीन लें तो उसे भी उस प्रक्रिया में भागीदार बनायें। मूल सवाल यह है कि आखिरकार आप जमीन किस उद्देश्य के लिए अधिग्रहीत करना चाह रहे हैं। यदि आप मॉल, सिनेमा हाल, जिम, गोल्फ कोर्स, रेस कोर्स और स्टेडियम के लिए ले रहे हैं तो ये सारे प्रोजेक्ट जबरन भूमि अधिग्रहण कानून के तहत आ ही नहीं सकते। ये सब मौज-मस्ती और सम्पन्नता की निशानी हैं, जहॉं की सरकार 20 रुपये में 2400 कैलोरी का भोजन देने की बात करती हो, उस देश की जनता की गरीबी का हाल इसी से जाना जा सकता है कि उसका नागरिक कितना मजबूर है कि वह 20 रुपये भी नहीं कमा पा रहा है, तभी तो सरकार को इस जनहित के कार्य के लिए योजना आयोग से ऐसी स्कीम लाने के निर्देश दिये गये हैं। 20 रुपये की एक पॉव दाल जिस देश में बिक रही हो, उस देश के नीति निर्माणकर्ता 20 रुपये में 2400 कैलोरी देने की बात राष्ट्रीय स्तर से कर रहे हैं। जो बालक कभी भट्टा-पारसौल, कभी अलीगढ़, कभी पडरौना, कभी सुल्तानपुर, कभी पूर्वी उ0प्र0 और कभी पश्चिमी उ0प्र0 में घूमघूमकर यह प्रचारित कर रहा हो कि देशवासियों चिंता मत कीजिए हमारी सरकार आपके लिए 20 रुपये में 2400 कैलोरी का भोजन उपलब्ध कराने जा रही है, तो उस देश के भविष्य को अपने आप समझ लेना चाहिए! किसानों को उन्हें अपने यहॉं रोककर कहना चाहिए कि राहुल जी हम आपको 20 रुपये की दर से तीन दिन का 60 रुपये देते हैं, लेकिन आप यहॉं से कहीं नहीं जायेंगे, 60 रुपये में तीन दिन खाकर, रहकर और 7200 कैलोरी लेकर दिखाइये, हम उ0प्र0 नहीं पूरा भारत आपको पूरी मेजारिटी से देने को तैयार हैं। इस पर राहुल जी को बगल झांकते भी नहीं मिलेगा।

       कुछ खास वर्ग के लिए बनाई जाने वाली ऐसी स्कीम का अमीर भारत देश की गरीब जनता से कोई लेना-देना नहीं, ये यहॉ की जनता का उपहास उड़ाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। नोएडा एक्सटेंशन में निवेश करने वाले ज्यादातर लोग इलीट क्लास की श्रेणी में ही आते हैं, 80 प्रतिशत पैसा नम्बर दो का लगा है, याकि एनआरआई का। वहॉं का सारा खेल मुनाफे पर ही आधारित है, फिर चाहे यह बिल्डर हो या प्राधिकरण अथवा सरकार अथवा किसान। जिस काम के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया था उसके विपरीत इसका इस्तेमाल किया गया, इसी कारण न्यायालय को इसकी अधिसूचना को ही रद्द करना पड़ा। जमीन अधिग्रहण से पूर्व उन किसानों के पर्नवास की व्यवस्था सुनिश्चित करने से पूर्व उसका अधिग्रहण करना मान्य नैतिक मूल्यों से परे है। इसी प्रकार खेती/फसली भूमि का भी अधिग्रहण किया जाना, राष्ट्रीय उन्नति के एकदम खिलाफ है। कुलमिलाकर यदि सार्वजनिक हित में भूमि का अधिग्रहण एकदम आवश्यक है तो भी इसके लिए बंजर भूमि का ही अधिग्रहण किया जाना चाहिए, जिसकी इस देश में कमी नहीं है, क्योंकि ऐसी भूमि को उपजाऊ बनाने के नाम पर भी इस देश में कई हजार करोड़ का बजट लूटा जा रहा है।

        सार्वजनिक हित के नाम पर जो भी हो रहा है, आखिरकार इसे किसका विज़न माना जाये! निजी उद्योगपतियों का, ब्यूरोक्रेट्स का या सत्ता में बैठे नेताओं का। ऐसे विजन के लोग भारत को क्या बनाना चाह रहे हैं! कहीं इनका विजन अपना खजाना किलोमीटरों के दायरे में बढ़ाना और अपने लिए 9000 करोड़ का रिहायशी आवास बनाना ही तो नहीं। सारी जनता को फिर से गुलाम बनाना तो नहीं! या इस देश को बेचने का तो नहीं!
      सरकार द्वारा सार्वजनिक हित के फरेब में जबरन किया जाने वाला भू अधिग्रहण कहीं इस देश की जनता को फिर से गुलाम बनाने की साजिश तो नहीं! सरकार के ऐसे कृत्य को कौन रोक सकता है, किसान?, आमजन?, मीडिया या कोई और! दरअसल मीडिया और आमजन तो सरकार की आलोचना ही कर सकता है। मीडिया गैलरी में तो सरकार के खिलाफ चिल्ला सकता है, लेकिन सत्ता के मुख्य कमरे में तो वह भी नतमस्तक ही दिखाई देता है। देखा नहीं आपने कि गुलाम नबी फई द्वारा आयोजित सेमिनार में कितने धुरन्धर पत्रकार कविता पाठ करने जाते थे! अन्त में आलोचना से होता क्या है। जब देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद सभालने वाला व्यक्ति यह उद्गगार व्यक्त करता हो कि अखबार जो चाहें छापे, उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं क्योंकि उसका मतदाता बिना पढा लिखा है और अखबार नहीं पढ़ता, ऐसी सोच अगर मुख्यमंत्री की हो तो, उस प्रदेश का तो बंटाधार ही है ।
        ले-देकर बचता है सुप्रीम कोर्ट, और केवल वही ऐसी स्थिति में है कि उसका आदेश ही कुछ बदलाव ला सकता है वरना तो स्थिति बड़ी भयंकर है। सुप्रीम कोर्ट ही सरकार को निर्देश दे सकता है, दे भी रहा है और देना भी चाहिए। इसे कोर्ट की अति सक्रियता कदापि नहीं कहा जा सकता एवं जो ऐसा कह रहे हैं या चैनल पर प्रचारित कर रहे हैं, दरअसल वे प्रभु चावला, हरिशंकर व्यास, वीर संघवी, हिन्दुस्तान टाइम्स के शर्मा और इन्हीं की थाली के चट्टे-बट्टे हैं।

       हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं उसमें ना तो सरकार बड़ी है, ना ही न्यायालय। हमारा संविधान बराबरी के सिद्वान्त पर काम करता है। संविधान हमें बराबरी का अधिकार देता है। इस अधिकार का हनन सरकार नहीं कर सकती, फिर चाहे यह केन्द्र की सरकार हो या प्रदेश की। सरकारें इस भूमि अधिग्रहण अधिनियम का बेजा और गैर कानूनी इस्तेमाल करके अवैध कमाई करने के लिए आमजन के बराबरी के हक को छीन रही हैं, इसी कारण सुप्रीम कोर्ट को सक्रिय होना पड़ा। क्योंकि यदि राज्य, संविधान में अंकित व्यवस्था के विपरीत आचरण कर रहा है तो इसे सुप्रीम कोर्ट को ही देखना होगा कि सरकार संविधान के दायरे में रहे।

       कोई दो दशक पूर्व मध्य प्रदेश में म0प्र0विद्युत बोर्ड ने एक बिजली परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहीत की। सरकार ने इसका मुआवजा दस से पन्द्रह हजार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से किसानों को दे दिया। लेकिन यह परियोजना शुरू ही नहीं की गई तथा बाद में सरकार ने यह जमीनें निजी ठेकेदारों को मोटे मुनाफे, लाखों रुपये प्रति एकड़ पर बेंच दी। इलाहाबाद जनपद के बारा क्षेत्र में भारत सरकार के हिन्दुस्तान पैट्रोलियम कार्पोरेशन ने हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहीत कर रखी है, लेकिन उसपर एक दशक से कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं किया है, क्या ये जमीन किसानों को वापस नहीं दी जानी चाहिए? क्या सरकार और इन कार्पारेशन का गठन मुनाफाखोरी के लिए किया गया है? कदापि नहीं। जमीन अधिग्रहण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी निहितार्थ/निश्कर्श यही है।

       इसी के साथ कालेधन की बात करें तो देश के पैसे को विदेशी खाते में गुपचुप तरीके से जमा करना देश के कानून का उल्लंघन है। सरकार का यह फर्ज है कि वह कानून का उल्लंघन ना होने दे। मीडिया भी कालेधन की आलोचना कर रहा है। आमजन भी सवाल उठा रहा है, लेकिन सरकार है कि सभी की आवाज दबाने पर तुली है। क्या रामदेव, क्या अन्ना हजारे। रामदेव के साथ सरकार ने क्या गुण्डागर्दी की किसी से छिपी नहीं है। अन्ना हजारे को कांग्रेश का एक पागल नेता वही हश्र दिखाने की बात करता है।

       इसी कालेधन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महसूस किया कि 17-18 सुनवाई के बाद भी सरकार अपनी ढ़िठाई पर अड़ी है, और उसने उच्चस्तरीय समिति गठित कर कोर्ट को लॉली पॉप पकड़ाने की कोशिश की है तो संविधान की रक्षा के लिए उसे आगे आना ही पड़ा। यही सोचकर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फर्ज निभाने वास्ते अभूतपूर्व न्याय देने की शुरूआत की है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस उच्च स्तरीय समिति को ही एसआईटी में तब्दील कर दिया, इससे कौन सा आसमान फटा जा रहा है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो अपने कर्तव्य पालन में कोताही बरते जाने का दोष करार दिया जाता, जो उसके लिए बहुत ही लज्जा की बात होती।

       इसलिए कालेधन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ भी किया वह उसके अधिकार क्षेत्र का ही मामला है। यह न तो विधायिका के काम में हस्तक्षेप है, ना ही कार्यपालिका के। यदि सरकार राह से भटक जाये, जैसे इन्दिरा गॉंधी भटक गईं थीं तो उसे राह पर कौन लायेगा? निष्चित रुप से न्यायपालिका। लोकतन्त्र में जनता को अपना हक मांगने का कानूनी अधिकार है। जब उसे उसके हक के बदले गोली मिलेगी तो आक्रोश बढ़ेगा, आक्रेाश बढ़ेगा तो तोड़-फोड़ और सरकारी सम्पत्ति को नुकसान होगा, जनहानि होगी, अराजकता फैलेगी, फिर देश का क्या होगा। ये सारे लक्षण क्रान्ति की शुरूआत ही तो हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसलॉ ने इसी क्रान्ति को रोकने की कड़ी में ऐसे फैसलॉ की शुरूआत की है। उसका सारा फैसला देश और यहॉं की जनता के हित में है। समाज को बदलाव की जरुरत है और इसमें न्यायपालिका की महत्वपूंर्ण भूमिका है।

      सुप्रीम कोर्ट के ऐसे ही आदेश को कुचक्र रचकर अति सक्रियता की श्रेणी में रखते हुए सरकार ने मीडिया के माध्यम से इसकी आलोचना कराने की शुरूआत की है, जिसके तहत बहुत से स्वनाम धन्य पत्रकारों को सरकार ने अपने पैनल में सूचीबद्ध कर भुगतान भी शुरू करा दिया है। इसे आप प्रिन्ट मीडिया के सम्पादकीय पेज पर और इलैक्ट्रानिक चैनल पर आयोजित कराई जाने वाली बहस में आसानी से देख सकते हैं। 

सतीश प्रधान

Friday, May 20, 2011

सुप्रीम कोर्ट जिंदाबाद



      लखनऊ-एक तुम ही बचे हो भारत में जो डायलिसिस पर पड़ी भारतीय जनता को जिन्दा रखे हो, वरना तो इण्डियन सरदार मनमोहन सिंह एण्ड कम्पनी ने इस देश की ऐसी की तैसी करके रख दी है। गाली नहीं लिख सकता, इसीलिए कुण्ठा में ऐसी की तैसी लिखकर ही दिल को ठंडक पहुंचाने का प्रयास कर रहा हूँ
     इस देश में नेता, नेता को बचा रहा है, अफसर, नेता को बचा रहा है। ये दोनों फंसते हैं तो वकील उन्हें बचा रहे हैं। और इन सबको पाल रहा है या यूं कहिए बचा रहा है पूंजीपति। सबसे ज्यादा मजे में इस हिन्दुस्तान में यदि कोई है तो वह है उद्योगपति/पूंजीपति। कुल मिलाकर भ्रश्ट, भ्रष्ट को बचा रहा है, लेकिन जनता है कि सबको बचा रही है और खुद मरी जा रही है। उसके खून में ग्लूकोज़ की कमी हो गई है। वह इतनी कमरतोड़ मंहगाई एवं दिन-रात लुटने के बाद भी सड़क पर उतरने को तैयार नहीं दिखाई देती।
     मेरी कुण्ठा से भारत का सुप्रीम कोर्ट भी इत्तेफाक रखता है, इसकी बानगी आप नीचे उद्धृत अंश से देख सकते हैं। 
         सम्पत्ति का अधिकार, संवैधानिक अधिकार है।

-सुप्रीम कोर्ट आफ इण्डिया-
     सम्पत्ति का अधिकार, संवैधानिक अधिकार है, और सरकार मनमाने तरीके से किसी व्यक्ति को उसकी भूमि से वंचित नहीं कर सकती है। न्यायमूर्ति जी.एस.सिंद्यवी और न्यायमूर्ति ए.के.गांगुली की पीठ ने अपने एक फैसले में कहा है कि जरुरत के नाम पर निजी संस्थानों के लिए भूमि अधिग्रहण करने में सरकार के काम को अदालतों को सन्देह की नज़र से देखना चाहिए।
     पीठ की ओर से फैसला लिखते हुए न्यायमूर्ति सिंद्यवी ने कहा कि अदालतों को सतही नज़रिया नहीं अपनाना चाहिए। सामाजिक और आर्थिक न्याय के संवैधानिक लक्ष्यों को ध्यान में रखकर मामले में फैसला करना चाहिए। सम्पत्ति का अधिकार यद्यपि मौलिक अधिकार नहीं है, लेकिन यह अब भी महत्वपूंर्ण संवैधानिक अधिकार है, और यदि संविधान के अनुच्छेद 300ए के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसकी सम्पत्ति से कानून के प्राधिकार के अलावा किसी भी तरह से वंचित नहीं किया जा सकता है। 
          सीबीआई कारपोरेट दिग्गजों को बचा रही है।

-सुप्रीम कोर्ट आफ इण्डिया-

     यह टिप्पणी माननीय कोर्ट ने 2-जी स्पैक्ट्रम द्योटाले में कारपोरेट दलाल नीरा राडिया और अन्य के खिलाफ आयकर चोरी की जॉंच की धीमी गति पर की है। जॉंच में सीबीआई, आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय एवं आर.बी.आई तबतक तेजी नहीं दिखायेंगे, जबतक माननीय सुप्रीम कोर्ट इसकी सुस्ती में धन सप्लाई की खोज़ की जॉंच के आदेश नहीं देगा और जबतक किसी एक विभाग के मुखिया को इसमें बर्खास्त नहीं करेगा। बड़ी मोटी खाल के हैं ये अधिकारी।

       ये आंकड़े दिमाग को झकझोर कर रख देने वाले हैं।

-सुप्रीम कोर्ट आफ इण्डिया-

      यह टिप्पणी मा0 सुप्रीम कोर्ट ने 2-जी स्पैक्ट्रम द्योटाले में आयकर विभाग की ओर से सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई पहली रिर्पोट में VªkUtsD”ku के आंकड़ों को देखकर करनी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट सन्न रह गया, और उसे यह कहना पड़ा कि ये आंकड़े दिमाग को झकझोर कर रख देने वाले हैं। पीठ ने कहा कि हम लोगों ने अपनी जिन्दगी में इतने जीरो कभी नहीं देखे। यहॉं तक कि इसके आधे जीरो भी नहीं देखे हैं। इतने जीरो तो सिर्फ स्कूल की गणित की किताब में होते हैं।

अदालत यह महसूस करती है कि जॉंच विषेश जॉंच दल को सौंपी जानी चाहिए, साथ ही इस मामले की जॉंच हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश या अन्य सक्षम व्यक्ति की निगरानी में की जानी चाहिए।  
-सुप्रीम कोर्ट आफ इण्डिया-
      सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि विदेश में कालाधन रखने वाले सभी भारतीयों की जॉंच हो। भारत सरकार के ढुलमुल रवैये और यह कहने पर की कालेधन के मुद्दे पर कई एजेन्सियॉं जॉंच कार्य कर रही हैं तथा कोई रिजल्ट नहीं निकल रहा है। सुप्रीम कोर्ट को आर.बी.आई. और पासपोर्ट के मामले में सीबीआई को जॉंच के लिए आदेश देने चाहिए।

जॉच हसन अली पर ही क्यों टिकी है।

-सुप्रीम कोर्ट आफ इण्डिया-
       घोड़ा व्यापारी एवं हवाला कारोबारी हसन अली मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हम बहुत ही सादगी और सीधे तौर पर पूछ रहे हैं कि क्या स्विस बैंक में खाता रखने वाला और कोई व्यक्ति सन्देह के घेरे में नहीं है ?

     न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी और न्यायमूर्ति एस.एस.निज्जर की खण्डपीठ ने विदेशी बैंकों में कालाधन जमा करने वालों के नाम का खुलासा करने एवं एस.आई.टी. के गठन पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है।
     रामजेठमलानी और अन्य ने कालेधन को विदेश से वापस लाने की अपील की है, इसी के साथ रामजेठमलानी, डी.एम.के. प्रमुख करुणानिधी की बेटी कनिमोझी जो कि 2-जी स्पैक्ट्रम द्योटाले में फंसी हैं, को बचाने के लिए भी पैरवी कर रहे हैं और सुना गया है कि इस कार्य के लिए उन्होंने एक करोड़ की फीस वसूली है। यह कैसा दोहरा चरित्र है जो एक ओर स्विस बैंक के खातेदारों का नाम खुलवाना चाहता है, वहीं दूसरी ओर ऐसे लोगों को बचाना चाहता है जो तबियत से इस देश को लूट रहे हैं।
     रामजेठमलानी की सारी काबलियत मा0 सुप्रीम कोर्ट ने घुसेड़ दी। उसने अनतत्वोगत्वा कनिमोझी को तिहाड़ जेल पहुंचा ही दिया, लेकिन इतनी परिणति ही काफी नहीं है। इन सबसे दस गुनी रकम का रिकवरी सर्टीफिकेट जारी किया जाना चाहिए जितने का इन्होंने द्योटाला किया है।
     राष्ट्रीय क्षितिज पर यह Li’Vदेश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लिए जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने बीड़ा उठाया हुआ है वह निसन्देह सराहना के योग्य है।
     मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई में चलाया जा रहा अभियान क्लीन इण्डिया को जितना ज्यादा से ज्यादा सर्पोट हम दे पायेंगे, उतना ज्यादा से ज्यादा हम सुखी और खुशीपूर्वक रह पायेंगे। सुप्रीम कोर्ट के इसी बेलाग प्रयास पर बोलने को क्या चिल्लाने का मन करता है कि सुप्रीम कोर्ट जिन्दाबाद, सुप्रीम कोर्ट जिन्दाबाद............. सुप्रीम कोर्ट अमर रहे।
     आज की तारीख में जितने भी बड़े मगरमच्छ हैं, चाहे वह ए.राजा हो अथवा कलमाड़ी। रिलायन्स के अधिकारी हों या अन्य। सभी को अपनी हैसियत समझ में आ गई होगी। भ्रष्टाचार के अगेन्स्ट में जितना भी कुछ हो रहा है वह केवल सुप्रीम कोर्ट का ही डण्डा है, वरना तो हमारे इण्डियन सरदार मनमोहन सिंह इतने ढ़ीठ हैं कि कुछ भी करने वाले नहीं हैं। वह तो स्विस बैंक में भारतीय मगरमच्छों के जमा कालेधन को भी दोहरी कर नीति के चक्कर में फंसा कर किसी का भी नाम ना जाहिर करने का मन बना चुके हैं।
     अब देखना यही है कि सुप्रीम कोर्ट आफ इण्डिया के चाबुक में कितना दम है। उसे निःसन्देह वह सब करना चाहिए जो इस देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लिए आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट को ही भारत को हांगकांग बनाना है। भारतीय जनता अन्ना हजा़रे से कहीं ज्यादा सुप्रीम कोर्ट का साथ देगी, यदि सुप्रीम कोर्ट ईमानदारी से इसी तरह कार्रवाई करता रहा तो।
      विधायिका, कार्यपालिका और चौथा खम्भा जो इन्हीं दोनों के नेक्सस का पार्ट है, धीरे-धीरे स्वंय ही सुधार जायेगा, यदि सुप्रीम कोर्ट अपना तेवर बरकरार रखे। क्या कहा जाये कितने ही इलैक्ट्रानिक चैनल और प्रिन्टमीडिया के संस्थान विदेश से ब्लैंक चेक पाते हैं। जाहिर है ये ब्लैंक चेक ईमानदारी से काम करने के लिए तो नहीं ही आते होंगे। ये तो राड़िया, बरखादत्त, सिंद्यवी जैसों के लिए आते हैं कि खूब भ्रष्टाचार करो और हमारे मन मुताबिक काम करो।
       एक चैनल को तो केवल इसलिए ब्लैंक चेक आता है कि वह कैसे गुजरात में केवल मुस्लिम और ईसाइयों पर हुई छोटी सी भी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित करें। मीडिया, सरकारों का गुलाम हो गया है। मान्यता प्राप्त पत्रकार पैदा करके सरकार ने ईमानदार पत्रकारिता की कमर तोड़ दी है। आसानी से समझा जा सकता है कि मान्यता किसे और क्यों दी जाती है। यहॉं इसकी समीक्षा किया जाना आवश्यक है कि क्या अंग्रेज सरकार भारतीय उन पत्रकारों को मान्यता देती थी जो देश के स्वतंत्रता सेनानियों का साथ देते थे तथा अंग्रेज सरकार के काले कारनामों का पर्दाफाश करते थे।
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