के विशेषज्ञ हैं जिसके तहत भारत के अर्थ को बहुत खूबी से विदेशी बैंकों में जमा किया जाता है। ऐसा शास्त्र भारत के बहुत से कम पढ़े-लिखे और बुद्धिहीन नेता भी भली भांति जानते हैं, क्योंकि उनके खाते भी इस बैंक में खुले हुए हैं, जो अब सुनने में आया है कि वहॉं से बन्द करके अन्य छोटे बैंकों में स्थानान्तरित किये जा रहे हैं।
तबीयत से प्रचारित किया गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक महान अर्थशास्त्री और बेदाग ईमानदार व्यक्ति हैं। भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों और इस आम धारणा के बावजूद कि वह भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं, इस मिथक के कारण ही वह अब तक पद पर बने हुए हैं और उन्हें कांग्रेस पार्टी या फिर बाहर से तगड़ी चुनौती नहीं मिली है, जबकि उनसे योग्य उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी उनके अधीन कार्य करने को मजबूर हैं। आखिरकार संसद में सरकार की गरिमा को कुछ हदतक उन्होंने ही बचाया, वरना तो सरकार के खाशुलखास पी.चिदम्बरम, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह, रेनुका चौधरी, अम्बिका सोनी ने पगड़ी उछालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। क्या प्रधानमंत्री में वास्तव में ये तमाम खूबियां हैं जो उनके प्रशंसक और कांग्रेस पार्टी एक दशक से बखान करती आ रही हैं?
दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की पड़ताल से हमें आंकलन कर लेना चाहिए कि मनमोहन सिंह की तथाकथित व्यक्तिगत ईमानदारी और अर्थशास्त्र की उनकी समझ से देश को फायदा पहुंचने के स्थान पर अरबों-खरबों का नुकसान ही अधिक हुआ है? इस आधार पर उन्हें ईमानदारी का मेडल पहनाये रखना क्या मेडल पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता? राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की जिम्मेदारी भारत को 2003 में सौंप दी गई थी। इस प्रकार भारत सरकार और अन्य तमाम इकाइयों को खेलों के लिए ढांचागत सुविधाएं तैयार करने के लिए सात साल का समय मिला था। मई 2004 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मनमोहन सिंह पर तैयारियों पर निगरानी रखने की प्रमुख जिम्मेदारी थी, लेकिन शुरू से ही एक सोची समझी साजिश के तहत खुली लूट की छूट के लिए उसी के अनुसार कार्रवाई की गई।
सबसे पहले तो विशुद्ध भारतीय अंदाज में खेलों से जुड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए अनेक कमेटियों का गठन कर दिया गया। इस कारण खेलों के आयोजन में घालमेल हो गया, किंतु मनमोहन सिंह ने गड़बड़ियों को दूर करने के लिए कभी शीर्ष इकाई के गठन की जहमत नहीं उठाई। दूसरे, एक बार फिर खालिश भारतीय अंदाज में करार पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद काम शुरू नहीं किया गया। शुरुआती साल टालमटोल में निकाल दिए गए, क्योंकि हर जिम्मेदार एजेंसी ने सोचा कि जब समय कम बचेगा तब तीव्रता से काम करने में बंदरबांट आसानी से और बिना किसी रोक-टोक के कर ली जायेगी! इसीलिए जानबूझकर देरी की गई।
राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन की तैयारियों में ढ़िलाई को लेकर पॉच साल बाद वर्ष 2009 में जाकर गंभीर चिंताएं जताई गईं और तब तक अनेक काबिल व्यक्तियों द्वारा बार-बार आग्रह किए जाने के बाद भी तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री ने संकट हल करने की दिशा में कोई कदम जानबूझकर नहीं उठाया। जुलाई, 2009 में यानी खेल शुरू होने से 15 माह पहले कैग ने पहली चेतावनी जारी करते हुए केंद्र सरकार से कहा कि विभिन्न प्रकार की जटिल गतिविधियों और संगठनों के आलोक में तथा उस समय तक खेलों के आयोजन की तैयारियों की प्रगति को देखते हुए परियोजनाओं के परिचालन के तौर-तरीकों में तुरंत बदलाव की आवश्यकता है।
कैग ने चेताया कि अगर खेल समय पर आयोजित करने हैं तो अब किसी किस्म की लापरवाही और देरी की कतई गुंजाइश नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद सरकार को काम में तेजी लानी चाहिए थी, परियोजनाओं की निगरानी करनी चाहिए थी, किंतु जैसाकि देश को बाद में पता चला मनमोहन सिंह ने कैग की चेतावनी को रद्दी की टोकरी मे फेंक दिया। अब कैग ने मई 2003 में राष्ट्रमंडल खेलों के करार पर हस्ताक्षर होने से लेकर दिसंबर, 2010 तक के समूचे प्रकरण पर अपनी समग्र रिपोर्ट पेश कर दी है।
कैग की यह रिपोर्ट, सीधे-सीधे प्रधानमंत्री को ही कठघरे में खड़ा करती है, लेकिन कैट की श्रेणी में खड़े मनमोहन सिंह के सामने सबकुछ बेईमानी है। करार दस्तावेजों के अनुसार खेलों की आयोजन समिति सरकारी स्वामित्व वाली रजिस्टर्ड सोसाइटी होनी चाहिए थी, जिसका अध्यक्ष सरकार को नियुक्त करना था। हालांकि जब फरवरी 2005 में आयोजन समिति का गठन किया गया तो यह एक गैरसरकारी रजिस्टर्ड सोसाइटी थी और उसके अध्यक्ष भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी थे। हैरत की बात यह है कि आयोजन समिति के पद पर सुरेश कलमाड़ी की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर ही हुई थी। एक गैर सरकारी सोसाइटी में उसके अध्यक्ष पद पर कलमाड़ी की नियुक्ति के लिए पीएमओ कार्यालय को अनुशंसा क्यों करनी पड़ी? ये जॉंच का विषय है, पर इसकी जॉंच करेगा कौन?
कलमाड़ी की नियुक्ति के समय ईमानदार प्रधानमंत्री कार्यालय ने युवा मामले व खेल मंत्री सुनील दत्त की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया था। 2007 में तत्कालीन खेलमंत्री मणीशंकर अय्यर ने आयोजन समिति पर सरकारी नियंत्रण न होने का मामला उठाया था, किंतु ईमानदार प्रधानमंत्री ने उनको भी एक तरफ कर दिया और उनकी भी नहीं सुनी। आखिरकार जब खेलों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे थे तो ईमानदार प्रधानमंत्री ने इन पर सरकारी नियंत्रण सुनिश्चित क्यों नहीं किया? मगरूरसत्ता, जवाबदेही की अनुपस्थिति और शासन के सुस्पष्ट ढ़ांचे के अभाव के कारण खेलों के आयोजन में गड़बड़ियां पैदा हुईं या कराई गईं, यह इंटरपोल के खोज की विषय वस्तु है।
अगस्त 2010 में जब तैयारियां पूरी होने के दावे किए गए तो विश्व मीडिया में गंदे टॉयलेट, कूड़े के ढेर, छतों से टपकते पानी की तस्वीरें प्रकाशित हुईं और भारत की दुनियाभर में खिल्ली उड़ी, वह भी एक तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री के रहते? कैग रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने तैयारियों के लिए मिले सात सालों का खुलकर दुरूपयोग किया। आखिरकार इसके लिए ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बेईमानी का आरोप किस विषेशाधिकार के अधीन आता है?
अब खेलों की लागत पर विचार करें, तो कैग ने बताया है कि केंद्र सरकार ने खर्च का स्पष्ट और सही अनुमान नहीं लगाया। भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन ने खेलों के आयोजन पर 1200 करोड़ के खर्च का अनुमान लगाया था, किंतु आयोजन में सरकार के खजाने से 18,532 करोड़ रुपये निकाल लिए गए। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रमंडल खेलों की लागत 15 गुणा बढा दी़ गई, क्यों! ये रुपये कहॉं गये? दूसरी तरफ, आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों की लागत आय से निकल आएगी, वह दावा कहॉं गया? ये सरकारी खजाने के 17,332 करोड़ रूपये की वसूली किससे की जानी चाहिए, ये तथाकथित ईमानदार सरदार मनमोहन सिंह बतायेंगे!
कैग के अनुसार आयोजन समिति ने आय का अनुमान बढ़ा-चढ़ा कर लगाया था। उदाहरण के लिए, मार्च 2007 में आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों से 900 करोड़ रुपयों की आय होगी, किंतु जुलाई 2008 में इस अनुमान को बढ़ाकर दोगुना यानी 1780 करोड़ रुपये कर दिया गया। दरअसल, आयोजन समिति ने आय के अनुमान को इसलिए बढ़ाया, क्योंकि उसे सरकार से और धन चाहिए था। खेलों के समापन के बाद पता चला कि आयोजन से मात्र 173.96 करोड़ रुपयों की ही आय हुई। खर्च 15 गुना कम और आय दस गुना अधिक बताना क्या क्रिमिनल कॉन्सप्रेसी नहीं है? इस कॉन्सप्रेसी के लिए क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट सज्ञान लेने की स्थिति में नही है! क्या इस सबके लिए ईमानदार अनर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को कटघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिए? ये रिकवरी उनसे और अन्य जिम्मेदार लोगों से क्यों नहीं होनी चाहिए? इसका जवाब क्या निकारागुआ कि संसद देगी?सतीश प्रधान
तबीयत से प्रचारित किया गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक महान अर्थशास्त्री और बेदाग ईमानदार व्यक्ति हैं। भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों और इस आम धारणा के बावजूद कि वह भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं, इस मिथक के कारण ही वह अब तक पद पर बने हुए हैं और उन्हें कांग्रेस पार्टी या फिर बाहर से तगड़ी चुनौती नहीं मिली है, जबकि उनसे योग्य उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी उनके अधीन कार्य करने को मजबूर हैं। आखिरकार संसद में सरकार की गरिमा को कुछ हदतक उन्होंने ही बचाया, वरना तो सरकार के खाशुलखास पी.चिदम्बरम, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह, रेनुका चौधरी, अम्बिका सोनी ने पगड़ी उछालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। क्या प्रधानमंत्री में वास्तव में ये तमाम खूबियां हैं जो उनके प्रशंसक और कांग्रेस पार्टी एक दशक से बखान करती आ रही हैं?
दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की पड़ताल से हमें आंकलन कर लेना चाहिए कि मनमोहन सिंह की तथाकथित व्यक्तिगत ईमानदारी और अर्थशास्त्र की उनकी समझ से देश को फायदा पहुंचने के स्थान पर अरबों-खरबों का नुकसान ही अधिक हुआ है? इस आधार पर उन्हें ईमानदारी का मेडल पहनाये रखना क्या मेडल पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता? राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की जिम्मेदारी भारत को 2003 में सौंप दी गई थी। इस प्रकार भारत सरकार और अन्य तमाम इकाइयों को खेलों के लिए ढांचागत सुविधाएं तैयार करने के लिए सात साल का समय मिला था। मई 2004 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मनमोहन सिंह पर तैयारियों पर निगरानी रखने की प्रमुख जिम्मेदारी थी, लेकिन शुरू से ही एक सोची समझी साजिश के तहत खुली लूट की छूट के लिए उसी के अनुसार कार्रवाई की गई।
सबसे पहले तो विशुद्ध भारतीय अंदाज में खेलों से जुड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए अनेक कमेटियों का गठन कर दिया गया। इस कारण खेलों के आयोजन में घालमेल हो गया, किंतु मनमोहन सिंह ने गड़बड़ियों को दूर करने के लिए कभी शीर्ष इकाई के गठन की जहमत नहीं उठाई। दूसरे, एक बार फिर खालिश भारतीय अंदाज में करार पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद काम शुरू नहीं किया गया। शुरुआती साल टालमटोल में निकाल दिए गए, क्योंकि हर जिम्मेदार एजेंसी ने सोचा कि जब समय कम बचेगा तब तीव्रता से काम करने में बंदरबांट आसानी से और बिना किसी रोक-टोक के कर ली जायेगी! इसीलिए जानबूझकर देरी की गई।
राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन की तैयारियों में ढ़िलाई को लेकर पॉच साल बाद वर्ष 2009 में जाकर गंभीर चिंताएं जताई गईं और तब तक अनेक काबिल व्यक्तियों द्वारा बार-बार आग्रह किए जाने के बाद भी तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री ने संकट हल करने की दिशा में कोई कदम जानबूझकर नहीं उठाया। जुलाई, 2009 में यानी खेल शुरू होने से 15 माह पहले कैग ने पहली चेतावनी जारी करते हुए केंद्र सरकार से कहा कि विभिन्न प्रकार की जटिल गतिविधियों और संगठनों के आलोक में तथा उस समय तक खेलों के आयोजन की तैयारियों की प्रगति को देखते हुए परियोजनाओं के परिचालन के तौर-तरीकों में तुरंत बदलाव की आवश्यकता है।
कैग ने चेताया कि अगर खेल समय पर आयोजित करने हैं तो अब किसी किस्म की लापरवाही और देरी की कतई गुंजाइश नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद सरकार को काम में तेजी लानी चाहिए थी, परियोजनाओं की निगरानी करनी चाहिए थी, किंतु जैसाकि देश को बाद में पता चला मनमोहन सिंह ने कैग की चेतावनी को रद्दी की टोकरी मे फेंक दिया। अब कैग ने मई 2003 में राष्ट्रमंडल खेलों के करार पर हस्ताक्षर होने से लेकर दिसंबर, 2010 तक के समूचे प्रकरण पर अपनी समग्र रिपोर्ट पेश कर दी है।
कैग की यह रिपोर्ट, सीधे-सीधे प्रधानमंत्री को ही कठघरे में खड़ा करती है, लेकिन कैट की श्रेणी में खड़े मनमोहन सिंह के सामने सबकुछ बेईमानी है। करार दस्तावेजों के अनुसार खेलों की आयोजन समिति सरकारी स्वामित्व वाली रजिस्टर्ड सोसाइटी होनी चाहिए थी, जिसका अध्यक्ष सरकार को नियुक्त करना था। हालांकि जब फरवरी 2005 में आयोजन समिति का गठन किया गया तो यह एक गैरसरकारी रजिस्टर्ड सोसाइटी थी और उसके अध्यक्ष भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी थे। हैरत की बात यह है कि आयोजन समिति के पद पर सुरेश कलमाड़ी की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर ही हुई थी। एक गैर सरकारी सोसाइटी में उसके अध्यक्ष पद पर कलमाड़ी की नियुक्ति के लिए पीएमओ कार्यालय को अनुशंसा क्यों करनी पड़ी? ये जॉंच का विषय है, पर इसकी जॉंच करेगा कौन?
कलमाड़ी की नियुक्ति के समय ईमानदार प्रधानमंत्री कार्यालय ने युवा मामले व खेल मंत्री सुनील दत्त की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया था। 2007 में तत्कालीन खेलमंत्री मणीशंकर अय्यर ने आयोजन समिति पर सरकारी नियंत्रण न होने का मामला उठाया था, किंतु ईमानदार प्रधानमंत्री ने उनको भी एक तरफ कर दिया और उनकी भी नहीं सुनी। आखिरकार जब खेलों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे थे तो ईमानदार प्रधानमंत्री ने इन पर सरकारी नियंत्रण सुनिश्चित क्यों नहीं किया? मगरूरसत्ता, जवाबदेही की अनुपस्थिति और शासन के सुस्पष्ट ढ़ांचे के अभाव के कारण खेलों के आयोजन में गड़बड़ियां पैदा हुईं या कराई गईं, यह इंटरपोल के खोज की विषय वस्तु है।
अगस्त 2010 में जब तैयारियां पूरी होने के दावे किए गए तो विश्व मीडिया में गंदे टॉयलेट, कूड़े के ढेर, छतों से टपकते पानी की तस्वीरें प्रकाशित हुईं और भारत की दुनियाभर में खिल्ली उड़ी, वह भी एक तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री के रहते? कैग रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने तैयारियों के लिए मिले सात सालों का खुलकर दुरूपयोग किया। आखिरकार इसके लिए ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बेईमानी का आरोप किस विषेशाधिकार के अधीन आता है?
अब खेलों की लागत पर विचार करें, तो कैग ने बताया है कि केंद्र सरकार ने खर्च का स्पष्ट और सही अनुमान नहीं लगाया। भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन ने खेलों के आयोजन पर 1200 करोड़ के खर्च का अनुमान लगाया था, किंतु आयोजन में सरकार के खजाने से 18,532 करोड़ रुपये निकाल लिए गए। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रमंडल खेलों की लागत 15 गुणा बढा दी़ गई, क्यों! ये रुपये कहॉं गये? दूसरी तरफ, आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों की लागत आय से निकल आएगी, वह दावा कहॉं गया? ये सरकारी खजाने के 17,332 करोड़ रूपये की वसूली किससे की जानी चाहिए, ये तथाकथित ईमानदार सरदार मनमोहन सिंह बतायेंगे!
कैग के अनुसार आयोजन समिति ने आय का अनुमान बढ़ा-चढ़ा कर लगाया था। उदाहरण के लिए, मार्च 2007 में आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों से 900 करोड़ रुपयों की आय होगी, किंतु जुलाई 2008 में इस अनुमान को बढ़ाकर दोगुना यानी 1780 करोड़ रुपये कर दिया गया। दरअसल, आयोजन समिति ने आय के अनुमान को इसलिए बढ़ाया, क्योंकि उसे सरकार से और धन चाहिए था। खेलों के समापन के बाद पता चला कि आयोजन से मात्र 173.96 करोड़ रुपयों की ही आय हुई। खर्च 15 गुना कम और आय दस गुना अधिक बताना क्या क्रिमिनल कॉन्सप्रेसी नहीं है? इस कॉन्सप्रेसी के लिए क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट सज्ञान लेने की स्थिति में नही है! क्या इस सबके लिए ईमानदार अनर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को कटघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिए? ये रिकवरी उनसे और अन्य जिम्मेदार लोगों से क्यों नहीं होनी चाहिए? इसका जवाब क्या निकारागुआ कि संसद देगी?सतीश प्रधान