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Thursday, December 15, 2011

दलाईलामा और अन्ना से घबराती सरकारें

          चीन सरकार दलाईलामा की और सोनिया सरकार अन्ना की मृत्यु की कामना कर रही हैं,जिससे एक ओर जहां चीन किसी कठपुतली को अगले दलाईलामा के रूप में पेश करके अपनी मनमर्जी कर सके,वहीं दूसरी ओर मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठ रही आवाज का गला दबाकर चैन की बंशी बजा सके। और दोनों ही स्थिति में ले-देकर भारत की ही ऐसी की तैसी होनी है।
          यदि ऐसा नहीं है तो एक भिक्षु और तिब्बती धर्मगुरू दलाईलामा से पूरी चीन सरकार क्यों घबराई हुई है,और एक बुजुर्ग एवं दुर्बल समाजसेवी अन्ना हजारे से भारत सरकार क्यों गुण्डई कर रही है। जिस तरह तिब्बतीयों के लिये दलाईलामा महत्व रखते हैं,ठीक उसी तरह 120 करोड़ भारतीय जनता के लिये अन्ना हजारे का महत्व है। पिछले दो दशक से विश्व मंच पर लगातार बढ़ रहे चीनी दबदबे के आदी हो चुके लोग इस बात से हैरान-परेशान हैं कि चीन सरकार अपनी बौखलाहट और हताशा का प्रदर्शन क्यों करती है! इसी प्रकार मात्र छह माह पूर्व भ्रष्टाचार के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर रालेगण सिद्धी(महाराष्ट्र)से लेकर दिल्ली की ओर कूच करने वाले अन्ना हजारे से सोनिया गांधी सरकार हलकान क्यों है?
          जिस प्रकार पूरी दुनिया यह नहीं समझ पा रही है कि लगभग हर मामले में दुनिया को ठेंगा दिखाने की हिम्मत रखने वाला चीन,सत्ताहीन पूर्व शासक और एक बौद्ध भिक्षु दलाईलामा से इस कदर घबराता क्यों है,ठीक इसी प्रकार भारतीय जनता यह नहीं समझ पा रही है कि आखिरकार भारत के सारे भ्रष्ट नेता अन्ना हजारे से भयभीत क्यों है? लेकिन इस भय के बाद भी वे अपनी गुण्डई छोड़ने को कतई तैयार नहीं है,जैसे की चीन।
          पिछले दिनो बीजिंग ने ऐसी ही हायतौबा,नई दिल्ली में होने वाले विश्व बौद्ध सम्मेलन को लेकर भारत सरकार के खिलाफ मचाई। पहले तो उसने ‘सीमावार्ता’ की आड़ लेकर इस सम्मेलन को स्थगित करने की मांग की,लेकिन जब भारतीय विदेश मंत्रालय ने इंकार कर दिया तो चीन ने मांग उठाई कि दलाईलामा को इसमें भाग लेने से रोक दिया जाये। इन दोनों ही बातों को न मानने के एवज में भारत सरकार ने,इस विश्व सम्मेलन में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की उपस्थिति को गैरहाजिर कराकर चीन को संतुष्ट किया,जैसा कि अन्ना हजारे के दिल्ली स्थित रामलीला मैदान पर 13 दिनो के अनशन के बाद संसद के दबाव में आश्वासन देकर किया था।
          उधर चीन सरकार,इतने से खुश नहीं हुई और उसने गुस्से में आकर‘बीजिंग’में होने वाली प्रस्तावित सीमावार्मा को ही स्थगित कर दिया। भारत में,संसद और राष्ट्रपति के आश्वासन के बावजूद मजबूत लोकपाल बिल(एनाकौण्डा) की जगह विष-दंतहीन लोकपाल(मटमैले सांप)का मसौदा,मजबूत अभिषेक मनु सिंघवी ने  दिसम्बर 2011 के दूसरे पक्ष में संसद के समक्ष रखने का मन बनाया है। जिस प्रकार तिब्बती चीन का कुछ नहीं कर सकते सिवाय इसके कि दिन-प्रतिदिन अपनी नफरत को दिन-दूनी रात चैगुनी करते जायें,ठीक उसी प्रकार भारतीय जनता इस हठी और कमीशनखोर सरकार का आम चुनाव से पूर्व कुछ नहीं कर सकती,सिवाय इसके कि इस सरकार के प्रति अपनी नफरत को दिन-दूनी रात चैगुनी बढ़ाती जाये। दिल्ली में आयोजित बौद्ध सम्मेलन के एक दिन बाद ही चीन सरकार के कोलकाता स्थित वाणिज्य दूत ने पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार को सीधे धमकी भरी एक चिट्ठी लिख मारी और कहा कि राज्य के राज्यपाल और मुख्यमंत्री उस सभा में भाग न लें,जो मदर टेरेसा की स्मृति में कोलकाता में होने वाली थी और जिसमें दलाईलामा मुख्य अतिथि के रूप में भाग ले रहे थे।
          एक विदेशी राजदूत की इस बेजा हरकत पर कपिल सिबल, अभिषेक मनु सिंघवी, एसएम कृष्णा, प्रणव मुखर्जी,पी. चिदम्बरम,मनमोहन सिंह समेत सोनिया गांधी और राहुल गांधी को चिंता नहीं हो रही है? ये सरकार न तो देश को ठीक से चला पा रही है और न ही विदेशों में अपने सम्मान की रक्षा कर पा रही है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने सम्मेलन में भाग लेकर और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने,अपनी गम्भीर रूप से बीमार माँ की तीमारदारी में लगी रहने के बावजूद अपने एक वरिष्ठ प्रतिनिधि को सभा में भेजकर चीनी राजदूत को उसकी हैसियत तो दिखा ही दी।
          चीनी बौखलाहट के इस सार्वजनिक प्रदर्शन की वजह से उपरोक्त दोनों सभाओं को दुनिया भर के मीडिया एवं सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इतना भरपूर समर्थन मिला कि इतना तो इसके आयोजक कई करोड़़ डालर विज्ञापन पर खर्च करके भी नहीं प्राप्त कर सकते थे। दुनिया को एक बार फिर सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि आखिरकार क्या कारण है कि चीन जैसा विशालकाय देश दलाईलामा से इतना घबराता है। लगभग यही हालात भारत में भी विद्यमान हैं। 11 दिसम्बर को दिल्ली में अन्ना हजारे का एक दिन का सांकेतिक अनशन हुआ जिसमें सभी राजनीतिक दलों ने भाग लिया जिससे घबराकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 13 दिसम्बर को कैबिनेट की बैठक बुलाई तथा 14 दिसम्बर को सर्वदलीय बैठक का आयोजन किया गया है।
          एक तरफ जहां दलाई लामा को लेकर चीनी नेताओं की इस बौखलाहट के कई कारण हैं। इनमें सबसे बड़ा कारण चीन द्वारा पिछले सात दशक में जबरन कब्जाये गये तीन देशों यथा पूर्वी तुर्किस्तान(शिजियांग),भीतरी मंगोलिया और तिब्बत में से अकेला तिब्बत ऐसा है,जिसके स्वतंत्रता आन्दोलन को दलाईलामा जैसा अंतरराष्ट्रीय प्रभाव वाला भिक्षु नेता उपलब्ध है। 1949 में पूर्वी तुर्किस्तान के लगभग सभी नेता तब मार दिये गये थे,जब चेयरमैन माओ के निमंत्रण पर चीन की हवाई यात्रा के दौरान उनके विमान को हवा में ही विस्फोट करा दिया गया।
          भीतरी मंगोलिया में भी कडे़ चीनी नियंत्रण के कारण आज तक कोई प्रभावी नेता नहीं उभर पाया है, लेकिन 1959 में तिब्बत से भाग कर स्वतंत्र दुनिया में आने के बाद से दलाईलामा के प्रति चीन सरकार के मन में बसे खौफ का एक और बड़ा कारण यह है कि 1951 में तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद वाले 60 वर्ष में अपने सारे प्रयासों के बावजूद वह तिब्बती जनता का दिल जीतने में बुरी तरह नाकामयाब रहा है। इसकी भी सटीक वजह यह है कि दरअसल तिब्बती जनता को खौफजदा करने और असहाय समझने और तिब्बत पर नियंत्रण पक्का करने के इरादे से चीन सरकार ने वहां लाखों चीनी नागरिकों को बसा दिया,इसका परिणाम यह हुआ कि तिब्बती नागरिकों के मन में असुरक्षा की भावना पहले से कहीं अधिक बलवती हो गयी,जिसके कारण 1989 में राजधानी ‘ल्हासा’ और दूसरे कुछ बड़े शहरों में उठ खड़े हुए विशाल तिब्बती मुक्ति आन्दोलन ने चीनी नेताओं को हैरान कर दिया।
          दलाईलामा के समर्थन वाले लोकप्रिय नारों के बल पर तिब्बत की आजादी के लिये चले आन्दोलन को तत्कालीन तिब्बती गवर्नर हूं जिंताओ ने टैंकों और बख्तरबन्द गाड़ियों की मदद से कुचल तो दिया,लेकिन इस आन्दोलन ने तिब्बती जनता के मन की ज्वाला को और हवा दे दी। इसके एक साल बाद ही चीन सरकार ने यह निश्चय किया कि तिब्बती धर्म का दमन करने की नीति को छोड़कर तिब्बती जनता का दिल जीतने का प्रयत्न किया जाये। इसी उद्देश्य से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एक ‘अवतार खोजी कमेटी’ ने धार्मिक नेता करमापा के नये अवतार को खोजा,जिसे दलाईलामा ने भी अपनी स्वीकृति दे दी।
          ठीक इसी प्रकार भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन करने वाले बाबा रामदेव को पुलिसिया तांडव से भयभीत कराकर उनके आन्दोलन को तो कुचल दिया,लेकिन भारतीय जनमानस के मन में यह छाप छोड़ दी कि यह सरकार गुण्डों की है। वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे को आन्दोलन करने से पूर्व ही उन्हें सुबह-सुबह गिरफ्तार किरके जेल में बन्द कर देने पर वह मुसीबत में आ गयी,आखिरकार 12 दिनो के उनके जबरदस्त आन्दोलन से हारी सरकार ने एक दांव खेला‘स्टैंडिंग कमेटी’ का जिसने खोजकर निकाला है,बाबा राहुल गांधी जैसा मजबूत लोकप्रिय लोकपाल।
          उधर 1995 में तिब्बत में दूसरे नम्बर के धार्मिक धर्मगुरू पंजेन लामा की खोज की गयी,लेकिन उसके लिये खोजे गये 6 वर्षीय बालक गेदुन नीमा को जब दलाई लामा ने अपनी स्वीकृति दे दी तो चीन भड़क गया और उसने उस 6 वर्षीय मासूम,उसके माता-पिता को हिरासत में लेकर अपनी पसन्द के एक लड़के ग्यालसेन नोरबू को असली ‘पंचेन लामा घोषित कर दिया। इस सारी कवायद का मकसद वर्तमान दलाईलामा के बाद अपनी सुविधा के अनुसार किसी बच्चे को ‘असली दलाईलामा’ के रूप में घोषित करने का है। लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा है कि यदि दलाई लामा ने घोषणा कर दी कि उनके न रहने के सातवें दिन जो बच्चा चीन में पैदा होगा,वह तिब्बत को स्वतंत्र कर देगा,तब चीन की सरकार कितने चीनी बच्चों का कत्ल करायेगी?

          तिब्बती आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा ने कहा है कि गुस्सा नुकसानदायक है और करूणा खुशहाली लाती है। पांचवें पेंग्विन व्याखान में लोगों के प्रश्नों का जवाब देते हुए दलाई लामा ने कहा कि वर्ष 2008 के संकट के दौरान मेरी इच्छा थी कि मैं चीनी अधिकारियों की नाराजगी और भय ले सकूं और उन्हें अपनी करूणा दे दूं। करूणा आपके मस्तिष्क को शांत रखने में मदद करता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2008 में तिब्बत में दंगे भड़क गये थे, यहॉं तक कि भिक्षू भी विद्रोह करने में शामिल हुए और दंगे स्वायत्त क्षेत्र के बाहर बौद्ध मठों तक पहुंच गये थे।
          पिछले कुछ वर्षों से चीन,भारत की क्षेत्रीय अखण्डता की खिल्ली उड़ा रहा है,जबकि भारत अपने तिब्बत रुख में कोई बदलाव करने का इच्छुक ही नहीं दिखाई दे रहा। दरअसल सरदार मनमोहन सिंह के दब्बूपने से बीजिंग की दबंगई बढ़ गयी है। अगर ऐसे ही हालात रहे तो चीन,जिसने भारत का 1,35,000 वर्ग किलोमीटर भू-भाग दबा रखा है, तिब्बत पर किये गये कब्जे का विस्तार अरुणाचल को दक्षिण तिब्बत बताकर वहां तक करने की चेष्ठा करेगा। 2006 से बीजिंग अरुणाचल प्रदेश के तिब्बत से सम्बन्धों के आधार पर इस पर दावा करता आ रहा है। वह तमाम सेक्टरों में सैन्य भिड़न्त के लिये तत्पर दिखता है,जबकि नई दिल्ली सीमा वार्ताओं अथवा वार्ताओं से ही किसी को मूर्ख बनाने का भ्रम पाले हुए है।
          वार्ताओं के दौर से न तो ड्रैगन को बेवकूफ बनाया जा सकता है और न ही अन्ना हजारे और इस देश को। वार्ताओं के दौर जारी रखकर मनमोहन सिंह,पी.चिदम्बरम,कपिल सिब्बल,सलमान खुर्शीद,अभिषेक मनु सिंघवी,दिग्विजय सिंह,मनीष तिवारी,नारायण सामी आदि नेताओं के माध्यम से राहुल गांधी और सोनिया गांधी की तो लुटिया डुबो सकते हैं लेकिन दलाईलामा का साथ देकर ‘तिब्बत’ में विकास के माध्यम से कुछ करने की हिम्मत नहीं जुटा सकते। वैसे भी एसएम कृष्णा के जाने का नम्बर आ गया है, विदेश मंत्रालय कपिल सिब्बल को दे दिया जाये,तो कुछ न कुछ तो हो ही जायेगा। वर्तमान माहौल में स्व.लाल बहादुर शास्त्री की याद आती है,क्योंकि सरदार जी में तो सरदार वाले एक भी गुण दिखाई नहीं देते और जो दिखाई दे रहे हैं,वे सरदार के तो नहीं हैं। (सतीश प्रधान)


Wednesday, August 31, 2011

देश को मिल गया मसीहा



          भारत गणराज्य के वर्तमान प्रधानमंत्री किसी समस्या का राजनीतिक समाधान तलाशने में एकदम असमर्थ हैं। जनलोकपाल के प्रति पहले ही सहानुभूति पूर्वक विचार के लिए तैयार हो जाते तो एक 75 वर्षीय बुजुर्ग मा0 अण्णा हजारे जी को इतने दिनों तक अनशन पर नहीं रहना पड़ता,  इसलिए उनकी जगह पर कांग्रेस को प्रणव दा को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। मनमोहन को सार्वजनिक-राजनीतिक जीवन में सबकुछ मिल चुका है। सात वर्ष से वह लगातार प्रधानमंत्री पद पर हैं। यह साधारण उपलब्धि नहीं कही जायेगी, क्योंकि ऐसा सिर्फ हिन्दुस्तान में ही सम्भव है, वरना देखिए गद्दाफी लुका-छिपा घूम रहा है। ईमानदारी के सिरमौर बनने वाले सरदार जी  को अब राष्ट्रहित में स्वंय ही प्रधानमंत्री पद से मुक्ति पा लेनी चाहिए, वरना आगे क्या हो कौन जाने। इस देश को वास्तव में मसीहा मिल गया है।
      अण्णा के मामले में सरकार ने असंवेदना, अपरिपक्वता, अदूरदर्शिता का परिचय ही नहीं दिया अपितु एक नेक आन्दोलन को सिब्बल के जरिए स्वामी अग्निवेष जैसे एजेन्ट को अण्णा टीम में घुसाने और उसे बदनाम करने की पूरी कोशिश की। तभी तो मनीष जैसे लोगों से गाली दिलवाई गई, और बाद में वक्त की नजाकत को देखते हुए उससे माफी भी मंगवाई। ऐसे को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया, क्योंकि पता नहीं ये खोटे सिक्के कब काम आ जायें। जो निर्णय प्रारम्भ में हो सकता था,  उसके लिए देश आन्दोलित हुआ, लेकिन अच्छा हुआ। वयोवृद्ध अण्णा को अनशन करना पड़ा, क्योंकि भगवान ऐसा चाहते थे। इस अवधि में ज्ञात हुआ कि सरकार अपना इकबाल पूरी तरह समाप्त कर  चुकी है। बेशक वह बहुमत में होगी,  लेकिन अण्णा ने पूरी दुनिया के सामने सिद्ध कर दिया  कि असल में जनता उनके साथ है।
      प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने अण्णा के आन्दोलन को असंवैधानिक बताया, संविधान, प्रजातंत्र और संसद की सर्वोच्चता के बेतुके तर्क रखे । वस्तुतः मनमोहन सिंह राजनीतिक रूप से किसी समस्या को समाधान की स्थिति तक पहुंचाने में सक्षम नहीं हैं। यह उनकी नियुक्ति से जुड़ा मसला  है। वह प्रजातंत्र की बात करते हैं लेकिन उनको इस पद पर आसीन करने में प्रजा की इच्छा बिल्कुल शामिल नहीं है। इसलिए महत्वपूर्ण पद पर होने के बाद भी वह आठ दिन तक राजनीतिक पहल करने की स्थिति में नहीं थे। गनीमत यहीं तक नहीं थी, उन्होंने कपिल सिब्बल और पी. चिदम्बरम जैसे सहयोगियों को आगे रखा, सोचा कि उनकी वकालत लोकपाल पर भारी पड़ जायेगी।
      कपिल भी उन्हीं की तरह निकले,  जिनका राजनीति में आना घटना प्रधान है। वह जमीनी पृष्ठभूमि से राजनीति में नहीं है। केवल इतना अन्तर है कि कपिल सिब्बल संयोग कहिए या जनता की गलतफहमी कि वह लोकसभा चुनाव जीत गए। मनमोहन को चुनाव जीतना अभीतक नसीब    नहीं हुआ है। लेकिन जमीन से इनकी भी दूरी में ज्यादा फर्क नहीं है। इसलिए ये मनीष तिवारी या दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को किनारे करने की बजाय इनकी छिछली हरकत पर इतराते रहे।   इनको ए राजा, कलमाड़ी आदि नेता सिर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबे नजर नहीं आये,       जो शब्द उन्होंने अण्णा के लिए प्रयुक्त करवाये। सरकार और पार्टी खामोश रही। इस    प्रकार सरकार और पार्टी  दोनों का नजरिया जाहिर हुआ। उसकी नजर में भ्रष्ट किसे माना जाता     है, यह पता चला। प्रधानमंत्री प्रभावशून्य और कठपुतली ही दिखाई दिए, या समझिये वह अपने को कठपुतली ही दिखाना चाहते हों।
      संप्रग सरकार संवेदनहीनता का परिचय शुरू से ही देती रही, उसे खाद्यान्न का सड़ जाना मंजूर हुआ, लेकिन भारत के सुप्रीम कोर्ट के निर्देष के बावजूद, निर्धनों में उस अनाज को बांटना मंजूर नहीं हुआ। मंहगाई रोकने के प्रयास नहीं किए गये। सामान्य जनता को होने  वाली कठिनाई के प्रति उसने कभी संवेदना नहीं दिखाई। पछहत्तर वर्षीय अण्णा हजारे के अनशन का सातवां दिन था। मनमोहन सिंह इस गम्भीर मसले पर विचार विमर्श करने के बजाय कोलकाता की एक दिवसीय यात्रा पर चले गये। यह ठीक है कि उनका कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था। वहां आई.आई.एम. में गाउन ओढ़कर उन्हें लिखित भाषण पढ़ना था। प्रधानमंत्री पद के दायित्व और मानवीय संवेदना का तकाजा यह था कि मनमोहन सिंह इस कार्यक्रम में शामिल होने का कार्यक्रम स्थगित कर देते। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वहां के लोग मनमोहन सिंह को देखने-सुनने के लिए एकदम व्याकुल थे। वह सुसज्जित बन्द हॉल में भाषण पढ़ रहे थे। बाहर कोलकाता के नागरिक उनकी यात्रा का विरोध कर रहे थे, और अन्दर मेधावी छात्र उनसे डिग्री न लेने के लिए काली पट्टी बांधकर विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि अण्णा के अनशन का समाधान निकालने के लिए प्रधानमंत्री को नईदिल्ली में ही रहना चाहिए था। वापस लौटने के दो दिन बाद रायता फैलाने के लिए सरदार जी ने सर्वदलीय बैठक रखी। तब तक अन्ना की सेहत बिगड़ती रही।
     किसी को खुली लूट की छूट देना, उसका बचाव करना, आरोपों को जानबूझ कर नजरअंदाज   करना ईमानदारी का लक्षण नहीं है। एक ईमानदार प्रधानमंत्री की सुख-सुविधा, सुरक्षा, आवास आदि पर सरकारी खजाने से बहुत बड़ी धनराशि खर्च की जाती है। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद अनेक खर्चीली सुविधाओं की गारण्टी मिलती है। ऐसे में निजी ईमानदारी पर आत्ममुग्ध होना,  कोई उदाहरण पेश नहीं करता है। उन्हें अपने सहयोगियों व प्रशासन को ईमानदार रहने के लिए बाध्य करना चाहिए था। अन्यथा उनकी निजी ईमानदारी भी भ्रष्टाचार के साथ समझौते के दायरे में ही आती है। वैभवशाली प्रधानमंत्री पद के लिए बेईमानी से समझौता करना किस आक्सफोर्ड की डिक्शनरी में ईमानदारी के अंतर्गत आता है।
      वैसे यहॉं कि जनता को इस पर भी विचार करना चाहिए कि इतने बड़े लोकतांत्रिक देश,      भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठे सरदार मनमोहन सिंह के कितने ही अरमान मन में ही धरे रह   जाते हैं। बतौर प्रधानमंत्री समय-समय पर दिखने वाले उनके अरमानों पर नजर डालिए, वह मंहगाई रोकना चाहते है, वह भ्रष्टाचार समाप्त करना चाहते हैं, वह आतंकी हमले रोकना चाहते हैं,वह दोषियों को कड़ी सजा दिलाना चाहते है, पर विडम्बना देखिए उनके भाग्य की कि वह कुछ कर नहीं पाते। अपनी दुरदशा पर दृश्टिपात करते हुए ही उन्होंने कहा कि वह अब हर हालत में शक्तिशाली लोकपाल चाहते  हैं। साथ ही कहीं जनता यह न समझ ले कि वह तुरन्त अपने से तगडे लोकपाल की नियुक्ति न कर दें, यह भी जोड़ दिया कि संसदीय प्रक्रिया में समय लगता है, इसलिए अभी इंतजार कीजिए।
     क्या मनमोहन सिंह के इस वक्तव्य पर विश्वास किया जा सकता है। क्या मजबूत और प्रभावी लोकपाल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से देश निश्चिंत हो सकता है। कठिनाई यह है कि भारत गणराज्य के वर्तमान प्रधानमंत्री किसी समस्या का राजनीतिक समाधान तलाशने की स्थिति में ही नहीं हैं। इस महत्वपूर्ण पद पर वह जनता की पसन्द से नहीं हैं। शायद इसीलिए वह जनभावना को समझने में समय गवांना नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सलाह पर कानून बनाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती है, और ना ही उस पर सर्वदलीय बैठक की आवष्यकता ही वह महसूस करते है। सोनिया जी का, अमेरिका का हांथ उनके सिर पर है, इसलिए वह जो चाहेंगे करेंगे, आप क्या कर लेंगे। बाकी उनके किये पर ताली बजाने के लिए पूरी कांग्रेस उनके साथ है।
     ताजा उदाहरण देखिए! स्पोर्ट्स बिल पर सर्वदलीय बैठक बुलाने की जरूरत इसके लिए नही समझी गई, क्योंकि उसकी कैबिनेट में मंत्री पदपर विराजमान बहुत से मंत्री प्रदेशीय क्रिकेट एसोसियेशन के अध्यक्ष हैं, और उन्होंने ही इसका विरोध किया। सशक्त लोकपाल के प्रति पहले ही ईमानदारी से उसमें प्राविधान कराकर बिल रख देते तो ऐसे लेने के देने तो न पड़ते। मेरा तो मानना है कि अब भी कुछ करने की जरूरत नहीं है। फिर से पूरे हिन्दुस्तान को बेवकूफ बना सकते हैं। मा0 अण्णा जी को जो पत्र पहुंचाया है, उसे सिंघवी, अमर सिंह और लालू यादव से खारिज करा दें, बस हो गया काम हिन्दुस्तान का। मनमोहन सिंह अपने को कितना ही ईमानदार दिखाने का नाटक करें,   वह मा0 अण्णा हजारे जी की हद की दिवानगी का अनुभव इस जिन्दगी में तो कदापि नहीं कर सकते। इसके लिए उनको दूसरी जिन्दगी लेनी पडेगी और अण्णा बनना पड़ेगा, जो इस जिन्दगी में किसी भी तरीके से सम्भव नहीं है। मनमोहन को तो सार्वजनिक, राजनीतिक जीवन में बहुत कुछ मिल गया है, लेकिन उन्होने इस भगत सिंह के देश को क्या दिया, इसको वह बिस्तर पर सोते जाते वक्त सोचें? शायद उनके अन्तरमन से कोई आवाज आये और उनको कुछ अच्छा करने के लिए झकझोरे। अब इस देश की जनता को ईमानदारी की परिभाषा पर नये सिरे से विचार- विमर्श करने की तीव्र आवश्यकता आन पड़ी है।   सतीश प्रधान  

Tuesday, July 26, 2011

सुप्रीम कोर्ट इतना सक्रिय क्यों


      सुप्रीम कोर्ट इसलिए सक्रिय है कि देश की जनता को न्याय मिले, उसके संवैधानिक अधिकारों का हनन न हो तथा कार्यपालिका संवैधानिक दायरे में रहकर सार्वजनिक हित में कार्य करे। देश की जनता से सवाल यह है कि वह सुप्रीम कोर्ट को माननीय कपाडिया के नेतृत्व में सक्रिय देखना चाहती है अथवा निष्क्रिय करके अपना दमन देखना चाहती है।

      जिस अमेरिका के नेतृत्व में हमारी भारत की सरकार चल रही है, उसकी दुहाई चन्द बेवकूफ हिन्दुस्तानी भी देते हैं। देखिए अमेरिका और यूरोप की सरकारें अपने यहॉं निजी उद्योगों के लिए भूमि का अधिग्रहण नहीं करती हैं। जिस कानून के जरिए भारत की सरकारों ने ऐसे कानून का सहारा लिया हुआ है, वह अंग्रेज का बनाया हुआ है, लेकिन अंग्रेज ने कभी भी इस कानून का दुरुपयोग नहीं किया। उसे रेल लाइन बिछाने के लिए जितनी जमीन की आवश्यकता थी, उतनी ही अधिग्रहीत की, उससे ज्यादा नहीं। वह भी चाहता तो रेल लाइन के किनारे की सारी जमीन अपने वतन के लोगों के रिहायशी आवास बनाने के लिए कौडियों में  अधिग्रहीत कर लेता, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया क्योंकि उसे पता था कि वह दूसरे देश में शासन कर रहा है जिसकी कुछ सीमा और कुछ मर्यादायें भी हैं।

      अंग्रेज के बनाये इसी कानून का चहुं ओर जबरदस्त विरोध इसके अनुपालन के कारण हो रहा है, वरना मेरा मानना है कि इस कानून में भी कोई कमी नहीं है। इस कानून को सरकार अपने मनमानी तरीके से लागू कर रही है, इसीलिए यह उपहास का कारण बनता जा रहा है। यह मुद्दा अब सरकार बनाने और गिराने की हद तक जा पहुचा है, इसीलिए सरकारें अब इसमें कुछ संशोधन का दिखावा करने को मजबूर हो रहीं हैं। इसमें संशोधन से भी कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं है जबतक कि सरकार की मंशा ठीक नहीं होगी।

        सरकार ने जो नयी नीति का मसौदा तैयार किया है उसके अनुसार 80 फीसदी जमीन निजी क्षेत्र को स्वयं अधिग्रहीत करनी है, बाकी की 20 प्रतिशत सरकार उसे अधिग्रहीत करके देगी, इसी के साथ भूमि के रजिस्टर्ड मूल्य का छह गुना मुआवजा दिया जायेगा। इस मुआवजे का फार्मूला भी एकदम गलत एवं भरमाने वाला है। सवाल सीधा है कि सरकार को निजी उद्योग के लिए भूमि अधिग्रहीत करने की आवश्यकता ही क्या है?  अधिग्रहण केवल शुद्ध सरकार के कार्य के लिए होना चाहिए, और सरकार की परिभाषा में ना तो सरकारी प्राधिकरण आते हैं, ना ही नगर निगम, ना ही बिजली कार्पोरेशन, ना ही भारत संचार निगम अथवा आवास विकास परिषद या कोई अन्य अथारिटी और कार्पोरेशन। निजी क्षेत्र को आपसी सहमति से जमीन खरीदने के लिए क्यों नहीं कहा जाता? जब निजी क्षेत्र जमीन क्रय करले तब सरकार उस भूमि का उपयोग, जिस उद्देश्य के लिए उसने जमीन क्रय की है, उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कर दे। ये ट्रिपल पी क्या बला है? पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप को ही ट्रिपल पी कहा जाता है। अब इसमें सरकार बीच में कहॉं से आ गई। मामला दो बिल्लीओं का है, ये बन्दर बीच में कहॉं से आ गया! अब जब बन्दर बीच में आयेगा तो सारी रोटी तो वही खाने के फेर में रहेगा।

      अन्तरराष्ट्रीय कानून संस्था ने सिद्धान्त बनाया है कि जब आप किसी की जमीन लें तो उसे भी उस प्रक्रिया में भागीदार बनायें। मूल सवाल यह है कि आखिरकार आप जमीन किस उद्देश्य के लिए अधिग्रहीत करना चाह रहे हैं। यदि आप मॉल, सिनेमा हाल, जिम, गोल्फ कोर्स, रेस कोर्स और स्टेडियम के लिए ले रहे हैं तो ये सारे प्रोजेक्ट जबरन भूमि अधिग्रहण कानून के तहत आ ही नहीं सकते। ये सब मौज-मस्ती और सम्पन्नता की निशानी हैं, जहॉं की सरकार 20 रुपये में 2400 कैलोरी का भोजन देने की बात करती हो, उस देश की जनता की गरीबी का हाल इसी से जाना जा सकता है कि उसका नागरिक कितना मजबूर है कि वह 20 रुपये भी नहीं कमा पा रहा है, तभी तो सरकार को इस जनहित के कार्य के लिए योजना आयोग से ऐसी स्कीम लाने के निर्देश दिये गये हैं। 20 रुपये की एक पॉव दाल जिस देश में बिक रही हो, उस देश के नीति निर्माणकर्ता 20 रुपये में 2400 कैलोरी देने की बात राष्ट्रीय स्तर से कर रहे हैं। जो बालक कभी भट्टा-पारसौल, कभी अलीगढ़, कभी पडरौना, कभी सुल्तानपुर, कभी पूर्वी उ0प्र0 और कभी पश्चिमी उ0प्र0 में घूमघूमकर यह प्रचारित कर रहा हो कि देशवासियों चिंता मत कीजिए हमारी सरकार आपके लिए 20 रुपये में 2400 कैलोरी का भोजन उपलब्ध कराने जा रही है, तो उस देश के भविष्य को अपने आप समझ लेना चाहिए! किसानों को उन्हें अपने यहॉं रोककर कहना चाहिए कि राहुल जी हम आपको 20 रुपये की दर से तीन दिन का 60 रुपये देते हैं, लेकिन आप यहॉं से कहीं नहीं जायेंगे, 60 रुपये में तीन दिन खाकर, रहकर और 7200 कैलोरी लेकर दिखाइये, हम उ0प्र0 नहीं पूरा भारत आपको पूरी मेजारिटी से देने को तैयार हैं। इस पर राहुल जी को बगल झांकते भी नहीं मिलेगा।

       कुछ खास वर्ग के लिए बनाई जाने वाली ऐसी स्कीम का अमीर भारत देश की गरीब जनता से कोई लेना-देना नहीं, ये यहॉ की जनता का उपहास उड़ाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। नोएडा एक्सटेंशन में निवेश करने वाले ज्यादातर लोग इलीट क्लास की श्रेणी में ही आते हैं, 80 प्रतिशत पैसा नम्बर दो का लगा है, याकि एनआरआई का। वहॉं का सारा खेल मुनाफे पर ही आधारित है, फिर चाहे यह बिल्डर हो या प्राधिकरण अथवा सरकार अथवा किसान। जिस काम के लिए भूमि का अधिग्रहण किया गया था उसके विपरीत इसका इस्तेमाल किया गया, इसी कारण न्यायालय को इसकी अधिसूचना को ही रद्द करना पड़ा। जमीन अधिग्रहण से पूर्व उन किसानों के पर्नवास की व्यवस्था सुनिश्चित करने से पूर्व उसका अधिग्रहण करना मान्य नैतिक मूल्यों से परे है। इसी प्रकार खेती/फसली भूमि का भी अधिग्रहण किया जाना, राष्ट्रीय उन्नति के एकदम खिलाफ है। कुलमिलाकर यदि सार्वजनिक हित में भूमि का अधिग्रहण एकदम आवश्यक है तो भी इसके लिए बंजर भूमि का ही अधिग्रहण किया जाना चाहिए, जिसकी इस देश में कमी नहीं है, क्योंकि ऐसी भूमि को उपजाऊ बनाने के नाम पर भी इस देश में कई हजार करोड़ का बजट लूटा जा रहा है।

        सार्वजनिक हित के नाम पर जो भी हो रहा है, आखिरकार इसे किसका विज़न माना जाये! निजी उद्योगपतियों का, ब्यूरोक्रेट्स का या सत्ता में बैठे नेताओं का। ऐसे विजन के लोग भारत को क्या बनाना चाह रहे हैं! कहीं इनका विजन अपना खजाना किलोमीटरों के दायरे में बढ़ाना और अपने लिए 9000 करोड़ का रिहायशी आवास बनाना ही तो नहीं। सारी जनता को फिर से गुलाम बनाना तो नहीं! या इस देश को बेचने का तो नहीं!
      सरकार द्वारा सार्वजनिक हित के फरेब में जबरन किया जाने वाला भू अधिग्रहण कहीं इस देश की जनता को फिर से गुलाम बनाने की साजिश तो नहीं! सरकार के ऐसे कृत्य को कौन रोक सकता है, किसान?, आमजन?, मीडिया या कोई और! दरअसल मीडिया और आमजन तो सरकार की आलोचना ही कर सकता है। मीडिया गैलरी में तो सरकार के खिलाफ चिल्ला सकता है, लेकिन सत्ता के मुख्य कमरे में तो वह भी नतमस्तक ही दिखाई देता है। देखा नहीं आपने कि गुलाम नबी फई द्वारा आयोजित सेमिनार में कितने धुरन्धर पत्रकार कविता पाठ करने जाते थे! अन्त में आलोचना से होता क्या है। जब देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद सभालने वाला व्यक्ति यह उद्गगार व्यक्त करता हो कि अखबार जो चाहें छापे, उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं क्योंकि उसका मतदाता बिना पढा लिखा है और अखबार नहीं पढ़ता, ऐसी सोच अगर मुख्यमंत्री की हो तो, उस प्रदेश का तो बंटाधार ही है ।
        ले-देकर बचता है सुप्रीम कोर्ट, और केवल वही ऐसी स्थिति में है कि उसका आदेश ही कुछ बदलाव ला सकता है वरना तो स्थिति बड़ी भयंकर है। सुप्रीम कोर्ट ही सरकार को निर्देश दे सकता है, दे भी रहा है और देना भी चाहिए। इसे कोर्ट की अति सक्रियता कदापि नहीं कहा जा सकता एवं जो ऐसा कह रहे हैं या चैनल पर प्रचारित कर रहे हैं, दरअसल वे प्रभु चावला, हरिशंकर व्यास, वीर संघवी, हिन्दुस्तान टाइम्स के शर्मा और इन्हीं की थाली के चट्टे-बट्टे हैं।

       हम जिस लोकतंत्र में रह रहे हैं उसमें ना तो सरकार बड़ी है, ना ही न्यायालय। हमारा संविधान बराबरी के सिद्वान्त पर काम करता है। संविधान हमें बराबरी का अधिकार देता है। इस अधिकार का हनन सरकार नहीं कर सकती, फिर चाहे यह केन्द्र की सरकार हो या प्रदेश की। सरकारें इस भूमि अधिग्रहण अधिनियम का बेजा और गैर कानूनी इस्तेमाल करके अवैध कमाई करने के लिए आमजन के बराबरी के हक को छीन रही हैं, इसी कारण सुप्रीम कोर्ट को सक्रिय होना पड़ा। क्योंकि यदि राज्य, संविधान में अंकित व्यवस्था के विपरीत आचरण कर रहा है तो इसे सुप्रीम कोर्ट को ही देखना होगा कि सरकार संविधान के दायरे में रहे।

       कोई दो दशक पूर्व मध्य प्रदेश में म0प्र0विद्युत बोर्ड ने एक बिजली परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहीत की। सरकार ने इसका मुआवजा दस से पन्द्रह हजार रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से किसानों को दे दिया। लेकिन यह परियोजना शुरू ही नहीं की गई तथा बाद में सरकार ने यह जमीनें निजी ठेकेदारों को मोटे मुनाफे, लाखों रुपये प्रति एकड़ पर बेंच दी। इलाहाबाद जनपद के बारा क्षेत्र में भारत सरकार के हिन्दुस्तान पैट्रोलियम कार्पोरेशन ने हजारों एकड़ भूमि अधिग्रहीत कर रखी है, लेकिन उसपर एक दशक से कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं किया है, क्या ये जमीन किसानों को वापस नहीं दी जानी चाहिए? क्या सरकार और इन कार्पारेशन का गठन मुनाफाखोरी के लिए किया गया है? कदापि नहीं। जमीन अधिग्रहण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी निहितार्थ/निश्कर्श यही है।

       इसी के साथ कालेधन की बात करें तो देश के पैसे को विदेशी खाते में गुपचुप तरीके से जमा करना देश के कानून का उल्लंघन है। सरकार का यह फर्ज है कि वह कानून का उल्लंघन ना होने दे। मीडिया भी कालेधन की आलोचना कर रहा है। आमजन भी सवाल उठा रहा है, लेकिन सरकार है कि सभी की आवाज दबाने पर तुली है। क्या रामदेव, क्या अन्ना हजारे। रामदेव के साथ सरकार ने क्या गुण्डागर्दी की किसी से छिपी नहीं है। अन्ना हजारे को कांग्रेश का एक पागल नेता वही हश्र दिखाने की बात करता है।

       इसी कालेधन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महसूस किया कि 17-18 सुनवाई के बाद भी सरकार अपनी ढ़िठाई पर अड़ी है, और उसने उच्चस्तरीय समिति गठित कर कोर्ट को लॉली पॉप पकड़ाने की कोशिश की है तो संविधान की रक्षा के लिए उसे आगे आना ही पड़ा। यही सोचकर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फर्ज निभाने वास्ते अभूतपूर्व न्याय देने की शुरूआत की है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस उच्च स्तरीय समिति को ही एसआईटी में तब्दील कर दिया, इससे कौन सा आसमान फटा जा रहा है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो अपने कर्तव्य पालन में कोताही बरते जाने का दोष करार दिया जाता, जो उसके लिए बहुत ही लज्जा की बात होती।

       इसलिए कालेधन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ भी किया वह उसके अधिकार क्षेत्र का ही मामला है। यह न तो विधायिका के काम में हस्तक्षेप है, ना ही कार्यपालिका के। यदि सरकार राह से भटक जाये, जैसे इन्दिरा गॉंधी भटक गईं थीं तो उसे राह पर कौन लायेगा? निष्चित रुप से न्यायपालिका। लोकतन्त्र में जनता को अपना हक मांगने का कानूनी अधिकार है। जब उसे उसके हक के बदले गोली मिलेगी तो आक्रोश बढ़ेगा, आक्रेाश बढ़ेगा तो तोड़-फोड़ और सरकारी सम्पत्ति को नुकसान होगा, जनहानि होगी, अराजकता फैलेगी, फिर देश का क्या होगा। ये सारे लक्षण क्रान्ति की शुरूआत ही तो हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसलॉ ने इसी क्रान्ति को रोकने की कड़ी में ऐसे फैसलॉ की शुरूआत की है। उसका सारा फैसला देश और यहॉं की जनता के हित में है। समाज को बदलाव की जरुरत है और इसमें न्यायपालिका की महत्वपूंर्ण भूमिका है।

      सुप्रीम कोर्ट के ऐसे ही आदेश को कुचक्र रचकर अति सक्रियता की श्रेणी में रखते हुए सरकार ने मीडिया के माध्यम से इसकी आलोचना कराने की शुरूआत की है, जिसके तहत बहुत से स्वनाम धन्य पत्रकारों को सरकार ने अपने पैनल में सूचीबद्ध कर भुगतान भी शुरू करा दिया है। इसे आप प्रिन्ट मीडिया के सम्पादकीय पेज पर और इलैक्ट्रानिक चैनल पर आयोजित कराई जाने वाली बहस में आसानी से देख सकते हैं। 

सतीश प्रधान