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Sunday, January 29, 2012

आईएसआई एजेण्ट पर आरोप तय

          भारत की पूर्व राजनयिक माधुरी गुप्ता द्वारा आईएसआई को संवेदनशील दस्तावेज दिए जाने के मामले में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट ने आरोप तय करते हुए उसके खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत दे दी है।इस मामले में अब 22 मार्च से अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान दर्ज करने की प्रक्रिया शुरू होगी। तीस हजारी कोर्ट के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश पवन कुमार जैन ने 53 वर्षीय माधुरी पर जासूसी के लिए सरकारी गोपनीयता कानून की धारा-3 और धारा-5 तथा आइपीसी की धारा-120 बी के तहत आरोप तय कर दिये हैं।

                    इन्हीं माधुरी गुप्ता के माध्यम से आईएसआई कनेक्शन रखने वाले एक पत्रकार के बारे में लखनऊ से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार-पत्र, उत्पीड़न की पुकार ने विस्तृत रपट अभी हाल ही में प्रकाशित की है, निश्चित तौर पर यह खबर जबरदस्त संदेह एवं सनसनाहट उत्पन्न करती है। समाचार-पत्र की प्रति एवं उसे प्रकाशित करने वाले प्रकाशक की छानबीन कर वस्तुस्थिति से अवगत होने की कोशिश की जा रही है और सत्यता का भान होते ही विस्तृत रपट पोस्ट की जायेगी। (सतीश प्रधान)

Friday, January 27, 2012

धर्मान्तरण से दूर रहें ईसाई संगठनः जयराम रमेश

          भारत के केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कड़े शब्दों में कहा है कि कैथालिक चर्च द्वारा संचालित संगठन माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास कराने में मदद करें, लेकिन लक्ष्मण रेखा का सम्मान करें और धर्मान्तरण की गतिविधियॉं नहीं चलाएं। जाहिर है एक केन्द्रीय मंत्री ने ऐसी सीख बिना वजह नहीं दी है, जरूर इसके पीछे का इतिहास संदिग्ध दिखाई देता है! ऐसी टिप्पणी से सहमत होना लाजिमी है कि कैथोलिक संगठन जरूर धर्मान्तरण के खेल में संलग्न होंगे।

          जयराम रमेश ने कैथोलिक संगठन कैरिटस इण्डिया के स्वर्ण जयन्ती समारोह का उदघाटन करते हुए कहा कि मैं कैरिटस इण्डिया से धर्मान्तरण में शामिल न होने की भावना के सम्मान की उम्मीद करता हूं। यह उद्देश्य नहीं है। उन्होंने कहा कि उद्देश्य आपके जैसे संगठनों की शक्तियों को सरकार और आदिवासी समुदायों के बीच विश्वास की कमी को तोड़ने में हमारी मदद में इस्तेमाल किये जाने का है। यह हमारा उद्देश्य है।

आर्कबिशपों और बिशपों सहित कैथोलिक पादरी श्रोताओं की खचाखच भरी भीड़ को सम्बोधित करते हुए मंत्री ने कहा कि वह कैरिटस इण्डिया के बारे में कैथोलिक संगठन के रूप में नहीं, बल्कि कैथोलिक द्वारा संचालित सामाजिक संगठन के रूप में बात कर रहे हैं। माओवादियों के प्रभाव पर ध्यान केन्द्रित करते हुए जयराम रमेश ने कहा कि चुनौती यह है कि हम माओवादी हिंसा के समूचे मुद्दे से किस तरह निपटें जो आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैल रही है।
          जयराम रमेश ने कहा कि उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि सभी मध्य भारतीय आदिवासी इलाके आज उस बुराई की चपेट में हैं जिसे हमारे प्रधानमंत्री हमारे देश की सबसे गम्भीर आंतरिक सुरक्षा चुनौती करार दे चुके हैं। जयराम रमेश ने कहा कि एक ऐसी विचारधारा की वजह से इन इलाकों में लोग शांति, सामान्य स्थिति और सौहार्द लाने में सक्षम नहीं हो पा रहे, जो सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को उखाड़ फेंकने पर केन्द्रित है। उन्होंने कहा कि कैरिटस इण्डिया और रामकृष्ण मिशन जैसे संगठनों को इन क्षेत्रों में महत्वपूंर्ण भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन सामाजिक संगठनों को एक लक्ष्मण रेखा का सम्मान करना चाहिए। माओवाद प्रभावित इलाकों में कैरिटस इण्डिया को शामिल किए जाने पर भाजपा शासित राज्य झारखण्ड में संभावित विरोध को देखते हुए रमेश ने कहा कि आपको इसके लिए तैयार रहना चाहिए। 
(रीता सक्सेना)



Wednesday, January 25, 2012

ये हस्ती हिन्दुस्तान की

नेताजी के योगदान को भुलाने की साजिश
          नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ऐतिहासिक योगदान की जानकारी देश के ग्रह मंत्रालय के पास नहीं है अथवा जानबूझकर मिटा दी गई है, यह जॉंच का विषय हो सकता है क्योंकि सूचना के अधिकार के तहत जब ग्रह मंत्रालय से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर जानकारी मांगी गई तो उसने किसी जानकारी के वजूद से ही इनकार कर दिया। जानकारी मांगने वाले का इरादा चाहे जो भी रहा हो, लेकिन सुभाष चंद्र बोस को लेकर इस देश की चिंता अब इस पर सिमटकर रह गई है कि वे अभी जिंदा भी हैं अथवा जान-बूझकर भ्रम की स्थिति बनाये रखी गई है? या फिर विमान दुर्घटना में उनका निधन हुआ नहीं तो वे कहां गए? इस रहस्य में दिलचस्पी रखने वाले और देशप्रेमी लोग तो यहॉं तक कहते हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अगर जिंदा होते तो देश की सूरत क्या आज ऐसी होती, जैसी दिख रही है। परन्तु उससे भी दुखद एवं आघात देने वाली बात पिछले कई दशकों से उनके नाम पर की जाने वाली अनैतिक व अनैतिहासिक राजनीति की है। 

          दरअसल, इसी राजनीति ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बारे में आम लोगों के बीच तमाम भ्रामक धारणाएं प्रचालित कर उनके व्यक्तित्व को विवादित बनाने की चेष्ठा की है। पहली बात, आजाद हिन्द फौज का गठन सुभाष चन्द्र बोस के जीवन की सर्वाधिक चर्चित घटना अवश्य थी, परन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं। उनकी सबसे बड़ी पहचान 1930 और 40 के दशक के युवा समाजवादी नेता के रूप में होनी चाहिए। जब सुभाश चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू ने मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मूल कार्यक्रम में मौलिक अधिकार व राष्ट्रीय आर्थिक नीति जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को शामिल कराया था।  

          1938 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बने। उन्होंने एक राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया और नेहरू को उसका अध्यक्ष बनाया। यानी कांग्रेस के भीतर बिताए गए सुभाष बाबू के राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दो दशक अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तनों के वाहक थे, जिनकी पूरी तरह से उपेक्षा कर दी जाती है। ऐसा दिखाया जाता है कि उनके जीवन के आखिरी संघर्षमय दिनों का ही उनके संपूर्ण जीवन में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक योगदान है। दूसरे, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और महात्मा गांधी के आपसी सम्बन्धों को बेहद कटुतापूर्ण ढंग से बयान करना गांधीवादियों का पुराना शगल रहा है। वास्तव में गांधी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के मतभेद पूरी तरह विचारधारा के ही थे। दोनों की राजनीतिक समझ भिन्न थी, परन्तु दोनों ही शख्सियतों के आपसी सम्बन्ध अन्त तक बहुत महत्वपूर्ण बने रहे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे के बाद गांधी ने उन्हें 23 नवंबर, 1939 को लिखे एक पत्र में कहा-तुम मेरी खोई हुई भेंड़ हो। अगर मेरा प्रेम पवित्र और रास्ता सच्चा है तो एक दिन मैं पांऊगा कि तुम अपने घर वापस आ गए हो। सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस छोड़ने के बाद 9 जनवरी 1940 को गांधी जी ने ‘हरिजन’ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तुलना कस्तूरबा और अपने सबसे बड़े पुत्र के साथ करते हुए लिखा- मैंने सुभाष को हमेशा अपने पुत्र की तरह माना है।
          दूसरी ओर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की सरकार की घोषणा करते हुए उसे बेहद भावपूर्ण तरीके से अपने ‘राष्ट्रपिता’ को समर्पित किया। उन्होंने अपने सैनिकों से कहा- मैं सिर्फ तब तक तुम्हारा नेता हॅू, जब तक हम भारत की धरती पर कदम नहीं रख लेते। उसके बाद हम सबके सर्वोच्च और एकमात्र नेता राष्ट्रपिता होंगे। यहां तक कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के बाद उनके भाई शरतचन्द्र बोस, गांधी जी के अनुयायी बने रहे। गांधी के सबसे संकटपूर्ण समय में नोआखाली में भी वे उनके साथ थे।

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा पट्टाभि सीतारमैया की पराजय के बाद गांधीजी के बयान को परिप्रेक्ष्य से काटकर प्रस्तुत किया जाता है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने वह चुनाव वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ के मुद्दे पर लड़ा था। दक्षिणपंथी धड़े में अधिकांश निष्ठावान गांधीवादी नेता आते थे। इसलिए स्वाभाविक रूप से सीतारमैया को गांधीजी का आशीर्वाद प्राप्त था। इसी संदर्भ में गांधी जी ने उपरोक्त बयान दिया था। परन्तु इसी बयान में उन्होंने सुभाष बाबू को उनकी जीत पर बधाई देते हुए उन्हें पूरी तरह वामपंथी कांग्रेस कार्यकारिणी के निर्माण का न्यौता भी दिया था। चुनाव प्रचार के दौरान यह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रमुख मांग थी। हालांकि गलतफहमियों के चलते गतिरोध गहराता गया और अंततः 29 अप्रैल, 1939 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी गरिमा के साथ कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि यदि वे इस देश के सर्वोच्च नेता का विश्वास हासिल न कर सके तो उनकी विजय का कोई अर्थ नहीं है।  

          आजादी के बाद काफी लम्बे समय तक नेताजी के जीवित होने सम्ंबन्धी अफवाहें आम जनता के बीच खूब प्रचारित एवं प्रचालित की गई, जिनका फायदा ढपोरशंखी साधुओं ने खुद को नेताजी बताकर उठाने की खूब कोशिशें भी कीं, जिनमें टाट वाले बाबा का नाम लिया जाना प्रासंगिक ही होगा। यह कितना खेदजनक है कि लोग मानते हैं कि नेताजी अपनी गिरफ्तारी के बाद ब्रिटेन को सौंपे जाने के डर से भूमिगत रहे। जो व्यक्ति दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य से टकराने का साहस रखता हो, वह देश में अपने ही लोगों के सामने आने की ताकत नहीं जुटा सकेगा क्या ऐसा एहसास दिलाया जाना कटुतापूंर्ण नहीं है? और ऐसा मानना नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अदम्य साहसी व्यक्तित्व का सबसे बड़ा अपमान नहीं है। 

          नेताजी की मृत्यु की घटना की जांच के लिए बने शाहनवाज कमीशन पर नेहरू की इच्छा के दबाव में गलत रिपोर्ट देने का आरोप लगाया जाता है। बताया जाता है कि नेहरू, नेताजी की लोकप्रियता से घबराते थे और इसलिए उन्होंने ब्रिटेन के साथ नेताजी की गिरफ्तारी का गुप्त समझौता कर लिया था। ध्यान देने वाली बात यह है कि शाहनवाज आईएनए (आजाद हिन्द फौज) के उन तीन शीर्ष कमाण्डरों में से एक थे, जिन्हें गिरफ्तार कर लाल किले का प्रसिद्ध मुकदमा चलाया गया था। नेहरू ने उन्हें पाकिस्तान से बुलाकर जांच आयोग का अध्यक्ष बनाया था। कैप्टन शाहनवाज एवं जवाहरलाल नेहरू की संदेहास्पद भूमिका का कोई सबूत नि उपलब्ध होते हुए भी अगर यह आरोप बार-बार सामने आता है, तो कुछ तो ऐसा है ही जो सन्देह के घेरे में है। यानी सुभाषचन्द्र बोस के ऐतिहासिक योगदान और उनकी व्यक्तिगत गरिमा को ठेस पहुंचाने का काम गृह मंत्रालय ने कोई अनजाने में नहीं किया है। यह काम तो पिछले काफी समय से एक सोची समझी राणनीति के तहत किया जाता रहा है। लोगों के बीच नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आधी-अधूरी तस्वीर जानबूझकर एक षडयंत्र के तहत पेश की जाती रही है।
          नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को राष्ट्रीय आंदोलन की मूल धारा से साजिशन काटकर अलगा कर दिया गया है। एक महान राजनीतिक व्यक्तित्व, जिसने अपना सम्पूंर्ण जीवन प्रगतिशील और धर्म-निरपेक्षता के संघर्ष में समर्पित कर दिया, उसकी आत्मा को सुखद एहसास दिलाने में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस असफल रही तो उनकी तस्वीर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने अपने कार्यालयों में लगाने की हिम्मत और दरियादिली दिखाई। आखिरकार धर्म-निरपेक्षता की परिभाषा किससे सीखी जाये? कांग्रेस से अथवा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से! 
 (सतीश प्रधान)

Tuesday, January 17, 2012

अमेरिका को अश्वेत और भारत को श्वेत राष्ट्रनायक की ही जरूरत

          वर्ष 2008 में अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने बराक ओबामा उस प्रतिभा, क्षमता, कौशल और रणनीतिक व्यक्तित्व के धनी हैं, जिसकी जरूरत अमेरिका जैसे देश को वर्तमान में तो है ही, आगे भी पड़ती रहेगी। पिछले तीस सालों से अमेरिका में मंदी का दौर चल रहा है। कई दशकों से धौंस और दादागिरी के बूते दुनिया पर राज कर रहे अमेरिका ने दरकती-टूटती पूंजीवादी व्यवस्था की खामियों को विश्व से छिपाये रखा। कर्ज लेकर घी पीने की ठसक ने वहॉं बैंकिंग प्रणाली को अन्दर ही अन्दर खोखला कर दिया, लेकिन जार्ज बुश का अमेरिका अकबर दी ग्रेट होने का महान प्रपंच रचता रहा। तीन दशकों से अमेरिका में नौकरियां घट रही हैं। इराक पर बमबारी और अमेरिकी फौजों की देश से बाहर बनाई गई छावनियों पर होने वाले व्यय ने अमेरिका को मन्दी के दौर में ले जाने का कार्य किया।

          उन्हीं बुश की रणनीति से प्रभावित रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिक सांटोराम भी औरान परमाणु संयंत्र पर हमला कराने का वादा अमेरिकी जनता से करते हैं तो क्षोभ होता है। यह जानते हुए भी कि इ वर्ष क्रिसमस के मौके पर खून जमा देने वाली सर्द हवाओं के बीच लोग क्रिसमस मनाने नहीं, बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ सड़कों पर डेरा डाले बैठे रहे। अमेरिका में विरोध प्रदर्शन जारी हैं। शेयर मार्केट, मुक्त बाजार और पूंजीवादी अर्थतन्त्र के विरूद्ध लोगों की नाराजगी सातवें आसमान पर है। ऐसा ही हाल भारत का है, लेकिन यहॉं के अश्वेत, अश्वेतों को ही लूट रहे हैं।यहॉं की जनता को भी अभी पता नहीं चल रहा है कि क्या और क्यों ऐसा हो रहा है।
        
          कहा जा सकता है कि लम्बे समय के बाद दुनियाभर में बहुसंख्यक कामकाजी आबादी अल्पसंख्यक पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ी हुई है। अमरीका में यह एक प्रतिशत अमीरों के खिलाफ  निन्नयानवे प्रतिशत आम लोगों का जबरदस्त गुस्सा है। लोगों का कहना है कि अमेरिका में कंजरवेटिज्म ने घटिया पूंजीवाद को मनमानी करने दी और उसे आला मुकाम दे दिया। बड़े अमेरिकी कार्पोरेट घरानों ने अपने अल्पकालिक लाभ के लिए उन मूल्यों और संस्कारों को त्याग दिया जिसके लिए कभी अमेरिका को उस पर नाज था।

          अपने भारत में भी कार्पोरेट सेक्टर का यही हाल है। वे देश में उद्योग लगाने को तब आतुर रहते हैं जब उन्हें टैक्स में जबरदस्त छूट मुहैय्या हो, बिल्कुल सस्ते में यानी कौडी के तीन के दाम में कृषकों की जमीन सरकार द्वारा जबरिया अधिग्रहीत कर उन्हें दे दी जाये और इसके बाद भी उनके उत्पादों पर ब्रिकी का मूल्य तय करने में उनकी ही मनमानी चले। सरकारों द्वारा इतना करने के बाद भी वे सरकार को धौंसियाते रहते हैं कि यहॉं भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है इसलिए हम विदेश में निवेश करेंगे। यानी मोटी मलाई से घी बनायेंगे हिन्दुस्तान में और उस करेन्सी को ले जायेंगे विदेश में। क्या कार्पोरेट सेक्टर का कोई सूरमा कह सकता है कि ब्यूरोक्रेशी को भ्रष्ट करने में उसका हांथ नहीं है? जो ऐसा कहने की हिम्मत रखता हो मुझसे बात कर सकता है, मैं बताऊंगा कैसे और किस तरीके से आप जैसे महान लोगों ने भ्रष्टाचार को बढ़ाकर लालफीताशाही को जन्म दिया है। 

          अमेरिका में घटिया पूंजीवादी व्यवस्था ने पॉंव पसारना शुरू किया और वॉल स्ट्रीट द्वारा संचालित इस व्यवस्था ने अतिधनाड्य लोगों को तो और अमीर बना दिया, लेकिन नौकरियों के खत्म होने, छटनी होने के अलावा और कोई भविष्य न होने के कारण बहुसंख्यक आबादी को मृत्यु के कुएं में धकेल दिया, ठीक यही हालात भारत में चल रहे हैं। अमेरिका दिल फरेब रंगीनियों में डूबता चला गया। मॉल्स की संस्कृति फलने-फूलने लगी। इस एक प्रतिशत से नकल के चक्कर में निन्नयानवे प्रतिशत लोग कर्ज लेकर घी पीने लगे, और अब उसके दुष्परिणाम दुनिया के सामने हैं। भारत में भी मॉल कल्चर फेल हो रहा है, इसी कारण उसे जमाने के लिए रिटेल सेक्टर में एफडीआई को ग्रुप ऑफ मिनिस्टर ने मंजूरी दे दी है।

  बराक ओबामा के हांथ में एक बर्बाद अमेरिका आया। ऐसी विषम परिस्थितियों में ही श्वेत अमेरिकी नागरिकों ने अपने देश की कमान किसी श्वेत को ना देकर एक अश्वेत बराक ओबामा के हांथ में दी कि अब इस देश को कोई अश्वेत ही बचा पायेगा। लेकिन तीस साल के विनाश को मात्र तीन सालों में कोई भी व्यक्ति चाहकर भी चहुंओर विकास की अलख नहीं जगा सकता। खर्च में कटौती करने, अपनी फौज को वापस अपने देश में लाने और उन परिवारों को राहत पहुंचाने के नाम पर ही राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दुनियाभर में डेरा डाले पड़ी अपनी सेनाओं को वापस बुलाने की मुहिम चालू की है। इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से उसका बोरिया बिस्तर समेटे जाना इसी बात का प्रमाण है।

  पटरी पर से उतरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था को काफी हद तक वे ही पटरी पर लाये हैं और अब भी जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं कि किसी तरह से उसे बचाया जाये। इसीलिए उन्होंने कहा है कि अब समय आउटसोर्सिंग के बजाय इनसोर्सिंग का है। उन्होंने रोजगार के अवसर देश से बाहर भेजने के बजाय देश के भीतर ही रोजगार देने पर जोर दिया। ओबामा ने कहा है कि आने वाले दिनों में वे ऐसी नीतियां बनाएंगे जो आऊटसोर्सिंग को हतोत्साहित करेंगी तथा विदेशों से रोजगार वापस लाने वाली कम्पनियों को प्रोत्साहन देंगी। देश को अपने साप्ताहिक सम्बोधन में उन्होंने कहा कि आपने आऊटसोर्सिंग के बार में सुना था, अब इनसोर्सिंग की बात कीजिए। 
इस सम्बोधन का वीडियो व्हाइट हाऊस की वेबसाइट पर उपलब्ध है जिसमें ओबामा ने मेड इन अमरीका उत्पादों को दिखाया है। ओबामा ने कहा कि ये उत्पाद आमतौर पर नहीं दिखते हों, लेकिन वे तीन गर्वित करने वाले शब्दों से बंधे हैं, मेड इन अमरीका। अमेरिकी श्रमिकों ने इन्हें अमरीकी कारखानों में बनाया और इन्हें देश के अन्दर और दुनिया भर के ग्राहकों को भेजा। उन्होंने कहा कि इन उत्पादों को बनाने वाली कम्पनियां एक उम्मीद बढ़ाने वाले क्रम का हिस्सा हैं, जो विदेशों से नौकरियां वापस ला रही हैं।
ओबामा ने कहा कि रोजगारों की इनसोर्सिंग करने वाले कारोबारी अधिकारियों को उन्होंने इसी सप्ताह व्हाइट हाऊस में एक मंच में बुलाया था। राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि मैंने उन सीईओ से वही बात कही जो मैं किसी भी उद्योगपति से कहना चाहूंगाः कि आप और अधिक रोजगार देश में लाने के लिए क्या कर सकते हैं, और मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि आपके साथ ऐसी सरकार होगी जो आपकी सफलता के लिए हर सम्भव कदम उठायेगी।

ओबामा ने कहा कि इसीलिए अगले कुछ सप्ताह में मैं नए कर प्रस्ताव पेश करूंगा जो रोजगार वापस लाने तथा अमेरिका में निवेश करने वाली कम्पनियों को पुरस्कृत करेंगे। इनमें उन कम्पनियों के लिए कर छूट समाप्त की जाएगी जो रोजगार विदेश भेजती हैं। ओबामा ने अमरीकी सरकार के ढ़ांचे तथा कार्य परिचालन को भी चुस्त दुरूस्त बनाने का आह्वान किया ताकि यह 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था के अनुरूप बन सके, इसी के साथ यह लिखने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्र को सुरक्षित भी बनाया है।

ओबामा के ही कारण अमेरिका जैसा राष्ट्र अवसाद की स्थिति में जाने से बच गया। उद्योग जगत को भी उन्होंने हर सम्भव बचाने की कोशिेश की। यह अलग बात है कि अमेरिकी बच्चों एवं युवाओं में बढ़ते मोटापे के कारण उनकी पत्नी मिशेल ओबामा ने पीजा, बर्गर बनाने वाली कम्पनियों को देश से बाहर का रास्ता दिखाने की जुर्रत की, जिसके लिए अमेरिकी जनता को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए। लेकिन साथ ही यह स्तम्भकार उनसे अपील करता है कि ऐसी कम्पनियों को कोई और क्षेत्र अपनाने की सीख वे दें, तथा इन कम्पनियों को भारत में अपना व्यापार फैलाने की इजाजत कतई ना दें।

जब भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी और हमारे भगवान हनुमान जी को वे उसी श्रद्धा से मानते हैं, जिससे की हम तो फिर जो कम्पनियां अमेरिकी समाज में मोटापा बढ़ा रही हैं, उन्हें थुल-थुल और आलसी बना रही हैं, ऐसी कम्पनियों को भारत भेजकर वे क्यों हमारे परिवार के साथ अन्याय कर रहे हैं। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिकी समाज की स्वास्थ्य सेवा पर आने वाले खर्च को कम करने एवं भविष्य में किसी भी स्थिति में दिवालियेपन से बचने के उपाय करने शुरू कर दिये हैं। ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान की धरती पर ही एनकाउन्टर कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है, इसके जरिए उन्होंने निश्चित रूप से अलकायदा को कमजोर किया है।

अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया है, जबकि वे डा0 मनमोहन सिंह जैसे अनर्थशास्त्री नहीं हैं, लेकिन वे अपने देश की मुद्रा को (स्टैण्डर्ड एण्ड पूअर्स संस्था द्वारा क्रेडिट रेटिंग ट्रिपल ए से डबल ए पर गिराने के बाद भी) मजबूती प्रदान कराना जानते हैं। अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग जब घटी थी तो तथाकथित मजबूत अनर्थशास्त्री डा0 मनमोहन सिंह के देश में एक डॉलर 43 रूपये का था, जो आज की तारीख में 52 रूपये है। इसका सीधा मतलब है कि किसी अर्थशास्त्री को देश के प्रधानमंत्री के पद पर बैठाना उस देश की मुद्रा की ऐसी की तैसी कराने के अलावा और कुछ भी नहीं है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि देश की बागडोर किसी अर्थशास्त्री को सौंपा जाना, देश को कुएं में धकेलने जैसा है।


          इस स्तम्भकार का विश्लेषण यही कहता है कि अमेरिकी जनता के हित में यही है कि एक मौका और बराक ओबामा को प्रदान करे, और पूरी जिन्दगी इसका विश्लेष्ण करे कि एक अश्वेत ओबामा जिसने दो टर्म इस देश की कमान संभाली, अमेरिकी नागरिकों को क्या दिया और उसके अलावा बने रहे श्वेत राष्ट्रपतियों की लीडरशिप में उन्हें क्या मिला? अमेरिका में राष्ट्रपति का एक टर्म कोई बहुत बड़ा मायने नहीं रखता, इसलिए राष्ट्रपति बराक ओबामा को एक और टर्म प्रदान कर प्रयोग किया जाना ही चाहिए कि एक अश्वेत राष्ट्रपति ने अमेरिका को क्या दिया।

          राष्ट्रपति का पद पाने के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिक सांटोराम का अमेरिकी जनता से यह वादा करना कि अगर वे राष्ट्रपति बनते हैं तो औरान परमाणु संयंत्र पर हमला करवा देंगे, निहायत ही मूर्खतापूर्णं वादा है। ऐसा वादा अथवा बयान एक सनक से अधिक कुछ और नहीं है, जो अमेरिकी नागरिकों को फायदे के अलावा नुकसान अधिक पहुंचायेगा।

        एक तरफ रणनीतिक कौशल देखिए ओबामा का कि उन्होंने अमेरिका के अपने व्हाइट हाऊस में बैठे-बैठे पाकिस्तान में आराम से सो रहे कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को ढे़र करा दिया और एक भी पाकिस्तानी जनता हताहत नहीं हुई, ना ही अमेरिकी फौज का कोई रखवाला हताहत हुआ। इससे उनके रण कौशल की रणनीति का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस आपरेशन से पाकिस्तान की जनता भी खुश हुई और अमेरिकी जनता के तो कहने ही क्या! इसके विपरीत यदि यह मान लिया जाये कि रिक सांटोराम राष्ट्रपति बन गये और उन्होंने अपने वादे के अनुसार औरान के परमाणु संयंत्र पर हमला करा भी दिया तो इससे अमेरिकी नागरिकों को क्या मिलेगा? क्या गारन्टी है कि हवाई हमला कराने के दौरान अमेरिकी फौज के जाबांज हताहत नहीं होंगे! क्या इससे परमाणु युद्ध की शुरूआत नहीं होगी? ऐसे कितने ही प्रश्न तब उभरकर सामने आयेंगे जब ऐसा हमला कराया जायेगा।
          औरान में लाखों निरीह लोग मारे जायेंगे, विकिरण फैलने से लाखों लोग अन्धे, विकलांग और जाने क्या-क्या नहीं होगे। क्या उस देश की पुस्त दर पुस्त अपाहिज पैदा नहीं होगी? इस सबका कलंक क्या अमेरिकी जनता के सिर नहीं पड़ेगा? ऐसे कृत्य किसका भला करेंगे? अमेरिका के प्रति जबरदस्त नफरत फैलाकर रिक सांटोराम अमेरिकी नागरिकों को क्या मुहैय्या करायेंगे? मेरी राय में तो रिपब्लिकन पार्टी को ऐसे सनक मिजाज मानसिकता वाले नेता को कोई भी बड़ी जिम्मेदारी नहीं सौंपनी चाहिए।

            यह स्तम्भकार निश्चित रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि अमेरिकी नागरिकों के हित में यही है कि अगला राष्ट्रपति भी अश्वेत बराक ओबामा को ही बनायें, और उस श्वेत लीडर को भारत भेज दें, जिसे वे बहुत पसन्द करते हैं। वह हिन्दुस्तान सुधार देगा और ओबामा अमेरिका। अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति ओबामा ने जितने भी निर्णय लिए हैं, निश्चित रूप से वे अमेरिका के हित में ही रहे हैं। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, इसलिए यह वह समय है जब अमेरिकी जनता को उनका साथ अपनी कन्ट्री के हित में देना चाहिए, बाकी रही उनकी मर्जी, उनका देश। मेरा स्पष्ट मत है कि अमेरिकी जनता अपने मत का प्रयोग बराक ओबामा के ही पक्ष में करके उन्हें नवम्बर 2012 में होने वाले चुनाव में पुनः एक और टर्म के लिए अमेरिका का राष्ट्रपति बनायेगी।   
अमेरिका जैसे प्रभावशाली राष्ट्र का पुनः नेतृत्व संभालने की शुभकामनाओं के साथ अग्रिम बधाई।  
(सतीश प्रधान)

Thursday, January 12, 2012

वेटिकन सिटी के स्कैनर पर इण्डिया


          इटली की वैभवशाली राजधानी रोम में बसा वेटिकन सिटी, जिसे हॉली सी भी कहा जाता है, दुनिया का सबसे छोटा देश है, जो रोम के अन्दर ही स्थित है और जिसका कंट्री कोड 39, क्षेत्रफल 44 हेक्टेयर एवं जनसंख्या एक हजार से भी कम (लगभग आठ सौ उनतीस) है। यहाँ पर इटेलियन,लैटिन, फ्रेंच एवं अन्य भाषायें बोली जाती हैं। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि विश्व का सबसे बड़ा हेल्थ स्पा, विश्व के इस सबसे छोटे देश, वेटिकन सिटी में है।
           इस देश का अपना अलग कानून, अपनी राजभाषा, यहॉं तक की अपनी करेन्सी, अपना पोस्ट आफिस और अपना रेडियो स्टेशन भी है। वास्तव में यह ईसाइ धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय रोमन कैथोलिक चर्च का केन्द्र (सेन्टर) है, जिसकी सत्ता और सम्पूंर्ण शक्ति इस सम्प्रदाय के सर्वोच्चाधीष धर्मगुरू पोप के हांथों में रहती है। 1929 से इसे एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में मान्यता मिली हुई है। वेटिकन सिटी अपने खुद के पासर्पोट भी जारी करता है, जो पोप, पादरियों, कॉर्डिनल्स और स्विस गार्ड के सदस्यों (जो वेटिकन सिटी में सैन्य बल के रूप में कार्यरत हैं) को दिये जाते हैं। वेटिकन सिटी सारे विश्व में फैले कैथोलिक सम्प्रदाय के अनुयायियों की आस्था का केन्द्रबिन्दु है। इसकी मुख्य पहचान इसके सेन्टर में स्थित सैन पियेत्रो नाम के भव्य हॉल से है, जहॉं लाखों की संख्या में ईसाइ समुदाय के लोग एकत्र होकर अपने सर्वोच्चाधीष धर्मगुरू पोप का विशेष अवसरों पर दिया जाने वाला उपदेश ग्रहण करते हैं।

          इसी वेटिकन सिटी का स्कैनर आजकल भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के बरेली जनपद के बरेली कैथोलिक धर्मप्रान्त रीजन पर लगा हुआ है। दरअसल कैथोलिक धर्मप्रान्त रीजन बरेली के बिशप एंथोनी फर्र्नाडिस का कार्यकाल इसी वर्ष पूरा होने जा रहा है, जो विगत दो दशक से यहॉं कार्यरत हैं। नये बिशप की तलाश में वेटिकन सिटी की नज़र इस धर्मप्रान्त पर लगातार बनी हुई है। कैथोलिक चर्च में बिशप का ओहदा बहुत महत्वपूंर्ण होता है क्योंकि चर्च और उससे संचालित स्कूल व सोशल सर्विस सेन्टर्स के बिशप ही मुखिया होते हैं।बरेली कैथोलिक धर्मप्रान्त क्षेत्र में उत्तर प्रदेश राज्य के तीन जनपद, बरेली, पीलीभीत और शाहजहॉंपुर, उत्तराखण्ड राज्य के छह जनपद क्रमशः ऊधमसिंह नगर, नैनीताल, अल्मोडा, बागेश्वर, चम्पावत और पिथौरागढ़ आते हैं। इन सभी नौ जनपदों में कैथोलिक चर्च और उनके सोशल सर्विस सेन्टर्स और स्कूलों की सारी व्यवस्था बिशप एंथोनी फर्नांडिस ही देख रहे हैं। श्री एंथोनी वर्ष 1989 में बरेली धर्मप्रान्त के बिशप बने और अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई उल्लेखनीय और ऐतिहासिक कार्य किये हैं, जिसके कारण उत्तर भारत रीजन के कैथोलिक बिशप में उनका स्थान अहम और सम्मानित है।
          कैथोलिक चर्च की सारी गतिविधियॉं रोम स्थित रोमन कैथोलिक चर्च के निर्देश पर ही संचालित की जाती हैं। पोप इसके प्रमुख एवं सर्वोच्चाधीष हैं। चर्च के नियमानुसार धर्मप्रान्त क्षेत्र स्तर पर प्रत्येक बिशप का कार्यकाल उनकी 75 वर्ष की उम्र तक ही होता है, इसके बाद उन्हें रिटायर होना पड़ता है। चूंकि बिशप एंथोनी फर्नांडिस को इसी वर्ष रिटायर होना है, इसी नाते बरेली धर्मप्रान्त के लिए नये बिशप को लेकर सरगर्मियां भी तेज हैं और पूरे धर्मप्रान्त पर वेटिकन सिटी का स्कैनर लगा हुआ है।
          कहा जाता है कि कैथोलिक बिशप के चयन में इलेक्शन की प्रक्रिया नहीं है। नियमानुसार प्रत्येक धर्मप्रान्त के बिशप का चयन रीजन के सभी बिशप मिलकर सर्वानुमति से करते हैं। बरेली रीजन में दस धर्मप्रान्त हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और राजस्थान को मिलाकर बरेली एक रीजन है। इस बरेली रीजन में दस धर्मप्रान्त हैं इन सभी धर्मप्रान्तों के बिशप, बरेली धर्मप्रान्त रीजन के बिशप का चयन करेंगे। इसी वर्ष यह प्रक्रिया शुरू होनी है, जिसके बाद ये सारे बिशप किसी एक के नाम पर अपनी सहमति रोमन कैथोलिक चर्च के दिल्ली स्थित प्रतिनिधियों के जरिए पोप को भेजेंगे। अन्त में जब सर्वोच्चाधीष पोप उस नाम पर अपनी मुहर लगा देंगे, तभी नये बिशप का नाम घोषित कर दिया जायेगा। 

(सतीश प्रधान)