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Tuesday, January 17, 2012

अमेरिका को अश्वेत और भारत को श्वेत राष्ट्रनायक की ही जरूरत

          वर्ष 2008 में अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने बराक ओबामा उस प्रतिभा, क्षमता, कौशल और रणनीतिक व्यक्तित्व के धनी हैं, जिसकी जरूरत अमेरिका जैसे देश को वर्तमान में तो है ही, आगे भी पड़ती रहेगी। पिछले तीस सालों से अमेरिका में मंदी का दौर चल रहा है। कई दशकों से धौंस और दादागिरी के बूते दुनिया पर राज कर रहे अमेरिका ने दरकती-टूटती पूंजीवादी व्यवस्था की खामियों को विश्व से छिपाये रखा। कर्ज लेकर घी पीने की ठसक ने वहॉं बैंकिंग प्रणाली को अन्दर ही अन्दर खोखला कर दिया, लेकिन जार्ज बुश का अमेरिका अकबर दी ग्रेट होने का महान प्रपंच रचता रहा। तीन दशकों से अमेरिका में नौकरियां घट रही हैं। इराक पर बमबारी और अमेरिकी फौजों की देश से बाहर बनाई गई छावनियों पर होने वाले व्यय ने अमेरिका को मन्दी के दौर में ले जाने का कार्य किया।

          उन्हीं बुश की रणनीति से प्रभावित रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिक सांटोराम भी औरान परमाणु संयंत्र पर हमला कराने का वादा अमेरिकी जनता से करते हैं तो क्षोभ होता है। यह जानते हुए भी कि इ वर्ष क्रिसमस के मौके पर खून जमा देने वाली सर्द हवाओं के बीच लोग क्रिसमस मनाने नहीं, बल्कि पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ सड़कों पर डेरा डाले बैठे रहे। अमेरिका में विरोध प्रदर्शन जारी हैं। शेयर मार्केट, मुक्त बाजार और पूंजीवादी अर्थतन्त्र के विरूद्ध लोगों की नाराजगी सातवें आसमान पर है। ऐसा ही हाल भारत का है, लेकिन यहॉं के अश्वेत, अश्वेतों को ही लूट रहे हैं।यहॉं की जनता को भी अभी पता नहीं चल रहा है कि क्या और क्यों ऐसा हो रहा है।
        
          कहा जा सकता है कि लम्बे समय के बाद दुनियाभर में बहुसंख्यक कामकाजी आबादी अल्पसंख्यक पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ी हुई है। अमरीका में यह एक प्रतिशत अमीरों के खिलाफ  निन्नयानवे प्रतिशत आम लोगों का जबरदस्त गुस्सा है। लोगों का कहना है कि अमेरिका में कंजरवेटिज्म ने घटिया पूंजीवाद को मनमानी करने दी और उसे आला मुकाम दे दिया। बड़े अमेरिकी कार्पोरेट घरानों ने अपने अल्पकालिक लाभ के लिए उन मूल्यों और संस्कारों को त्याग दिया जिसके लिए कभी अमेरिका को उस पर नाज था।

          अपने भारत में भी कार्पोरेट सेक्टर का यही हाल है। वे देश में उद्योग लगाने को तब आतुर रहते हैं जब उन्हें टैक्स में जबरदस्त छूट मुहैय्या हो, बिल्कुल सस्ते में यानी कौडी के तीन के दाम में कृषकों की जमीन सरकार द्वारा जबरिया अधिग्रहीत कर उन्हें दे दी जाये और इसके बाद भी उनके उत्पादों पर ब्रिकी का मूल्य तय करने में उनकी ही मनमानी चले। सरकारों द्वारा इतना करने के बाद भी वे सरकार को धौंसियाते रहते हैं कि यहॉं भ्रष्टाचार और लालफीताशाही है इसलिए हम विदेश में निवेश करेंगे। यानी मोटी मलाई से घी बनायेंगे हिन्दुस्तान में और उस करेन्सी को ले जायेंगे विदेश में। क्या कार्पोरेट सेक्टर का कोई सूरमा कह सकता है कि ब्यूरोक्रेशी को भ्रष्ट करने में उसका हांथ नहीं है? जो ऐसा कहने की हिम्मत रखता हो मुझसे बात कर सकता है, मैं बताऊंगा कैसे और किस तरीके से आप जैसे महान लोगों ने भ्रष्टाचार को बढ़ाकर लालफीताशाही को जन्म दिया है। 

          अमेरिका में घटिया पूंजीवादी व्यवस्था ने पॉंव पसारना शुरू किया और वॉल स्ट्रीट द्वारा संचालित इस व्यवस्था ने अतिधनाड्य लोगों को तो और अमीर बना दिया, लेकिन नौकरियों के खत्म होने, छटनी होने के अलावा और कोई भविष्य न होने के कारण बहुसंख्यक आबादी को मृत्यु के कुएं में धकेल दिया, ठीक यही हालात भारत में चल रहे हैं। अमेरिका दिल फरेब रंगीनियों में डूबता चला गया। मॉल्स की संस्कृति फलने-फूलने लगी। इस एक प्रतिशत से नकल के चक्कर में निन्नयानवे प्रतिशत लोग कर्ज लेकर घी पीने लगे, और अब उसके दुष्परिणाम दुनिया के सामने हैं। भारत में भी मॉल कल्चर फेल हो रहा है, इसी कारण उसे जमाने के लिए रिटेल सेक्टर में एफडीआई को ग्रुप ऑफ मिनिस्टर ने मंजूरी दे दी है।

  बराक ओबामा के हांथ में एक बर्बाद अमेरिका आया। ऐसी विषम परिस्थितियों में ही श्वेत अमेरिकी नागरिकों ने अपने देश की कमान किसी श्वेत को ना देकर एक अश्वेत बराक ओबामा के हांथ में दी कि अब इस देश को कोई अश्वेत ही बचा पायेगा। लेकिन तीस साल के विनाश को मात्र तीन सालों में कोई भी व्यक्ति चाहकर भी चहुंओर विकास की अलख नहीं जगा सकता। खर्च में कटौती करने, अपनी फौज को वापस अपने देश में लाने और उन परिवारों को राहत पहुंचाने के नाम पर ही राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दुनियाभर में डेरा डाले पड़ी अपनी सेनाओं को वापस बुलाने की मुहिम चालू की है। इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान से उसका बोरिया बिस्तर समेटे जाना इसी बात का प्रमाण है।

  पटरी पर से उतरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था को काफी हद तक वे ही पटरी पर लाये हैं और अब भी जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं कि किसी तरह से उसे बचाया जाये। इसीलिए उन्होंने कहा है कि अब समय आउटसोर्सिंग के बजाय इनसोर्सिंग का है। उन्होंने रोजगार के अवसर देश से बाहर भेजने के बजाय देश के भीतर ही रोजगार देने पर जोर दिया। ओबामा ने कहा है कि आने वाले दिनों में वे ऐसी नीतियां बनाएंगे जो आऊटसोर्सिंग को हतोत्साहित करेंगी तथा विदेशों से रोजगार वापस लाने वाली कम्पनियों को प्रोत्साहन देंगी। देश को अपने साप्ताहिक सम्बोधन में उन्होंने कहा कि आपने आऊटसोर्सिंग के बार में सुना था, अब इनसोर्सिंग की बात कीजिए। 
इस सम्बोधन का वीडियो व्हाइट हाऊस की वेबसाइट पर उपलब्ध है जिसमें ओबामा ने मेड इन अमरीका उत्पादों को दिखाया है। ओबामा ने कहा कि ये उत्पाद आमतौर पर नहीं दिखते हों, लेकिन वे तीन गर्वित करने वाले शब्दों से बंधे हैं, मेड इन अमरीका। अमेरिकी श्रमिकों ने इन्हें अमरीकी कारखानों में बनाया और इन्हें देश के अन्दर और दुनिया भर के ग्राहकों को भेजा। उन्होंने कहा कि इन उत्पादों को बनाने वाली कम्पनियां एक उम्मीद बढ़ाने वाले क्रम का हिस्सा हैं, जो विदेशों से नौकरियां वापस ला रही हैं।
ओबामा ने कहा कि रोजगारों की इनसोर्सिंग करने वाले कारोबारी अधिकारियों को उन्होंने इसी सप्ताह व्हाइट हाऊस में एक मंच में बुलाया था। राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि मैंने उन सीईओ से वही बात कही जो मैं किसी भी उद्योगपति से कहना चाहूंगाः कि आप और अधिक रोजगार देश में लाने के लिए क्या कर सकते हैं, और मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि आपके साथ ऐसी सरकार होगी जो आपकी सफलता के लिए हर सम्भव कदम उठायेगी।

ओबामा ने कहा कि इसीलिए अगले कुछ सप्ताह में मैं नए कर प्रस्ताव पेश करूंगा जो रोजगार वापस लाने तथा अमेरिका में निवेश करने वाली कम्पनियों को पुरस्कृत करेंगे। इनमें उन कम्पनियों के लिए कर छूट समाप्त की जाएगी जो रोजगार विदेश भेजती हैं। ओबामा ने अमरीकी सरकार के ढ़ांचे तथा कार्य परिचालन को भी चुस्त दुरूस्त बनाने का आह्वान किया ताकि यह 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था के अनुरूप बन सके, इसी के साथ यह लिखने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्र को सुरक्षित भी बनाया है।

ओबामा के ही कारण अमेरिका जैसा राष्ट्र अवसाद की स्थिति में जाने से बच गया। उद्योग जगत को भी उन्होंने हर सम्भव बचाने की कोशिेश की। यह अलग बात है कि अमेरिकी बच्चों एवं युवाओं में बढ़ते मोटापे के कारण उनकी पत्नी मिशेल ओबामा ने पीजा, बर्गर बनाने वाली कम्पनियों को देश से बाहर का रास्ता दिखाने की जुर्रत की, जिसके लिए अमेरिकी जनता को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए। लेकिन साथ ही यह स्तम्भकार उनसे अपील करता है कि ऐसी कम्पनियों को कोई और क्षेत्र अपनाने की सीख वे दें, तथा इन कम्पनियों को भारत में अपना व्यापार फैलाने की इजाजत कतई ना दें।

जब भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी और हमारे भगवान हनुमान जी को वे उसी श्रद्धा से मानते हैं, जिससे की हम तो फिर जो कम्पनियां अमेरिकी समाज में मोटापा बढ़ा रही हैं, उन्हें थुल-थुल और आलसी बना रही हैं, ऐसी कम्पनियों को भारत भेजकर वे क्यों हमारे परिवार के साथ अन्याय कर रहे हैं। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिकी समाज की स्वास्थ्य सेवा पर आने वाले खर्च को कम करने एवं भविष्य में किसी भी स्थिति में दिवालियेपन से बचने के उपाय करने शुरू कर दिये हैं। ओसामा बिन लादेन का पाकिस्तान की धरती पर ही एनकाउन्टर कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं है, इसके जरिए उन्होंने निश्चित रूप से अलकायदा को कमजोर किया है।

अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया है, जबकि वे डा0 मनमोहन सिंह जैसे अनर्थशास्त्री नहीं हैं, लेकिन वे अपने देश की मुद्रा को (स्टैण्डर्ड एण्ड पूअर्स संस्था द्वारा क्रेडिट रेटिंग ट्रिपल ए से डबल ए पर गिराने के बाद भी) मजबूती प्रदान कराना जानते हैं। अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग जब घटी थी तो तथाकथित मजबूत अनर्थशास्त्री डा0 मनमोहन सिंह के देश में एक डॉलर 43 रूपये का था, जो आज की तारीख में 52 रूपये है। इसका सीधा मतलब है कि किसी अर्थशास्त्री को देश के प्रधानमंत्री के पद पर बैठाना उस देश की मुद्रा की ऐसी की तैसी कराने के अलावा और कुछ भी नहीं है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि देश की बागडोर किसी अर्थशास्त्री को सौंपा जाना, देश को कुएं में धकेलने जैसा है।


          इस स्तम्भकार का विश्लेषण यही कहता है कि अमेरिकी जनता के हित में यही है कि एक मौका और बराक ओबामा को प्रदान करे, और पूरी जिन्दगी इसका विश्लेष्ण करे कि एक अश्वेत ओबामा जिसने दो टर्म इस देश की कमान संभाली, अमेरिकी नागरिकों को क्या दिया और उसके अलावा बने रहे श्वेत राष्ट्रपतियों की लीडरशिप में उन्हें क्या मिला? अमेरिका में राष्ट्रपति का एक टर्म कोई बहुत बड़ा मायने नहीं रखता, इसलिए राष्ट्रपति बराक ओबामा को एक और टर्म प्रदान कर प्रयोग किया जाना ही चाहिए कि एक अश्वेत राष्ट्रपति ने अमेरिका को क्या दिया।

          राष्ट्रपति का पद पाने के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिक सांटोराम का अमेरिकी जनता से यह वादा करना कि अगर वे राष्ट्रपति बनते हैं तो औरान परमाणु संयंत्र पर हमला करवा देंगे, निहायत ही मूर्खतापूर्णं वादा है। ऐसा वादा अथवा बयान एक सनक से अधिक कुछ और नहीं है, जो अमेरिकी नागरिकों को फायदे के अलावा नुकसान अधिक पहुंचायेगा।

        एक तरफ रणनीतिक कौशल देखिए ओबामा का कि उन्होंने अमेरिका के अपने व्हाइट हाऊस में बैठे-बैठे पाकिस्तान में आराम से सो रहे कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को ढे़र करा दिया और एक भी पाकिस्तानी जनता हताहत नहीं हुई, ना ही अमेरिकी फौज का कोई रखवाला हताहत हुआ। इससे उनके रण कौशल की रणनीति का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस आपरेशन से पाकिस्तान की जनता भी खुश हुई और अमेरिकी जनता के तो कहने ही क्या! इसके विपरीत यदि यह मान लिया जाये कि रिक सांटोराम राष्ट्रपति बन गये और उन्होंने अपने वादे के अनुसार औरान के परमाणु संयंत्र पर हमला करा भी दिया तो इससे अमेरिकी नागरिकों को क्या मिलेगा? क्या गारन्टी है कि हवाई हमला कराने के दौरान अमेरिकी फौज के जाबांज हताहत नहीं होंगे! क्या इससे परमाणु युद्ध की शुरूआत नहीं होगी? ऐसे कितने ही प्रश्न तब उभरकर सामने आयेंगे जब ऐसा हमला कराया जायेगा।
          औरान में लाखों निरीह लोग मारे जायेंगे, विकिरण फैलने से लाखों लोग अन्धे, विकलांग और जाने क्या-क्या नहीं होगे। क्या उस देश की पुस्त दर पुस्त अपाहिज पैदा नहीं होगी? इस सबका कलंक क्या अमेरिकी जनता के सिर नहीं पड़ेगा? ऐसे कृत्य किसका भला करेंगे? अमेरिका के प्रति जबरदस्त नफरत फैलाकर रिक सांटोराम अमेरिकी नागरिकों को क्या मुहैय्या करायेंगे? मेरी राय में तो रिपब्लिकन पार्टी को ऐसे सनक मिजाज मानसिकता वाले नेता को कोई भी बड़ी जिम्मेदारी नहीं सौंपनी चाहिए।

            यह स्तम्भकार निश्चित रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि अमेरिकी नागरिकों के हित में यही है कि अगला राष्ट्रपति भी अश्वेत बराक ओबामा को ही बनायें, और उस श्वेत लीडर को भारत भेज दें, जिसे वे बहुत पसन्द करते हैं। वह हिन्दुस्तान सुधार देगा और ओबामा अमेरिका। अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति ओबामा ने जितने भी निर्णय लिए हैं, निश्चित रूप से वे अमेरिका के हित में ही रहे हैं। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, इसलिए यह वह समय है जब अमेरिकी जनता को उनका साथ अपनी कन्ट्री के हित में देना चाहिए, बाकी रही उनकी मर्जी, उनका देश। मेरा स्पष्ट मत है कि अमेरिकी जनता अपने मत का प्रयोग बराक ओबामा के ही पक्ष में करके उन्हें नवम्बर 2012 में होने वाले चुनाव में पुनः एक और टर्म के लिए अमेरिका का राष्ट्रपति बनायेगी।   
अमेरिका जैसे प्रभावशाली राष्ट्र का पुनः नेतृत्व संभालने की शुभकामनाओं के साथ अग्रिम बधाई।  
(सतीश प्रधान)

Sunday, January 8, 2012

असली लोकतंत्र अमेरिका में है, भारत में नहीं


बुद्धिमान, राष्ट्रभक्त और कामयाब नेतृत्व के धनी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपनी पत्नी  और बच्चों के साथ

          लोकतंत्र की बात की जाय तो भारत के मुकाबले अमेरिका में लोकतंत्र ज्यादा मज़बूत  है।  भारत में तो सत्ता,वसीयत से संचालित हो रही है। अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की अलग-अलग वसीयतें हैं। कांग्रेस पार्टी,नेहरू परिवार की वसीयत से संचालित हो रही है,तो समाजवादी पार्टी,मुलायम सिंह यादव के वसीयतनामे से। राष्ट्रीय जनता दल,लालू यादव के वसीयतनामे से संचालित है तो एम.जी.रामचन्द्रन की अन्नाद्रमुक उनकी प्रेमिका जयललिता के वसीयतनामे से। ले-देकर मुख्य रूप से इस देश की तीन ही राजनीतिक पार्टियां हैं जो बगैर किसी वसीयतनामे के संचालित हो रही हैं,जिनमें एक है भारतीय जनता पार्टी, दूसरी है,बहुजन समाज पार्टी तथा तीसरी है कम्युनिस्ट पार्टी। इन तीनों पार्टियों का यदि विश्लेषण किया जाये तो कम्युनिस्ट पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ही आज की तारीख में ऐसी राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक पार्टी है,जो न तो वसीयतनामे से संचालित हो रही है और न ही आज तक ऐसा कुछ देखने-सुनने को मिला है कि बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती ने अपने किसी रिश्तेदार को सांसद, विधायक, पार्षद अथवा ग्राम प्रधान बनवा दिया हो।
          वंशवाद की बेल पर फलफूल रही दुनिया की सबसे बड़ी जम्हूरियत है हिन्दुस्तान। भारत की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां किसी न किसी खास व्यक्ति अथवा परिवार से ही जानी जाती हैं, जैसे कि औद्योगिक घराने जाने-पहचाने जाते हैं,उनके पुरखों के नाम से। परिवार और पार्टी एक-दूसरे के पर्यायवाची हो गये हैं। ऐसी परिस्थितियों में किसी व्यक्ति का चाहे वह कितना ही अच्छा हो,सभ्य एवं सुसंस्कृत हो,ईमानदार हो, जनता के भले की सोचता हो, जिसका मोरेल ऊंचा हो,जिसमें राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी हो,यदि किसी राजनीतिक परिवार का सदस्य या कृपापात्र नहीं है तो सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
          कहा जाता है भारत, अमेरिका की नकल करता है, उसके इशारे पर नाचता है तथा उसके द्वारा निर्देशित नीतियों को अपने देश में जबरन लागू भी कराता है, लेकिन मुझे तो लगता है कि भारत का राजवंश, अभी तक अमेरिका की बेहतरीन लोकतांत्रिक व्यवस्था का ही अनुशरण ही नहीं कर पाया है। कौन नहीं जानता कि अमेरिकी इतिहास ने जब करवट ली तो श्वेत जनता ने अपने यहां एक अश्वेत व्यक्ति बराक ओबामा को राष्ट्रपति का पद सौंप दिया। 
          श्वेत जो कि अश्वेतों से बेइंतहा नफरत करते हैं,उन्होंने ऐसा इतिहास रचा कि पूरे विश्व को उसका कायल होना पड़ा। समय था वर्ष 2009, अमेरिका में पहले अश्वेत राष्ट्रपति का चयन,पूरा जगत स्तब्ध,चहुं ओर एक ही सवाल? आखिरकार कौन है यह राष्ट्रपति। सच मानिये राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की घोषणा से पहले बहुत कम लोग ही बराक ओबामा के बारे में जानते थे। नीचे के स्तर पर सुस्थापित, सक्षम, पैने, होशियार, बुद्धिमान, काबिल और कामयाब नेतृत्व के धनी बराक ओबामा जैसे व्यक्तित्व का अमेरिका जैसे देश की बागडोर संभालकर विश्व पटल पर छा जाना किसी बहुत बड़े चमत्कार से कम नहीं है। इसे कहते हैं बेहतरीन लोकतंत्र की नायाब मिसाल, जिसकी आधारशिला रखी है पूरे अमेरिकी समाज ने और आज जिसके वाहक हैं राष्ट्रपति बराक ओबामा। क्या आप सपने में भी सोच सकते हैं कि भारत में ऐसे व्यक्तित्व का कोई ओबामा,किसी गैर राजनीतिक परिवार से निकलकर सत्ता के शीर्ष पर पहुंच सकता है? कदापि नहीं। यहां सरदार जी के बारे में जरा भी सोचने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वे तो राजवंश परिवार के एक मैनेजर भर हैं जो भारतीय इस्टेट की देखभाल, राजवंश के इशारे पर कर रहे हैं।
          भारतीय लोकतंत्र में, बात चाहे जीतने वाले उम्मीदवार की, की जाये अथवा युवा नेतृत्व की, चयन की प्रक्रिया घर से ही शुरू होती है और घर में ही लक्ष्य की प्राप्ति कर लेती है। शुरुआत करते हैं देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस से। वर्तमान में नेहरू-गांधी परिवार की चौथी पीढ़ी के राहुल गांधी का नेतृत्व भारत के मत्थे मढ़ने के लिये उनकी माँ सोनिया गांधी छटपटा रही हैं। कांग्रेस में परिवारवाद की बीमारी, कैंसर के रोग की तरह है जिसके निदानपूंर्ण इलाज के लिए अभी भी रिसर्च की आवश्यकता है।
          वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस के वंशवाद का विरोध करते-करते भारतीय जनता पार्टी को भी वंशवाद का रोग लग गया है, यह अलग बात है कि भाजपा में उसने अभी राजवंश का रूप नहीं लिया है। भाजपा के अन्दरखाने तो परिवारवाद फल-फूल रहा है लेकिन शुक्र है कि राष्ट्रीय नेतृत्व किसी वसीयतनामे से संचालित नहीं हो रहा है। कांग्रेस के विरोध स्वरूप उपजे अन्य राजनीतिक दलों की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल के लालू यादव ने अपने सत्ता से हटने के बाद अपनी पत्नी राबड़ी देवी को ही बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। उनका दल एक तरह से वंशवाद की परिभाषा तले ही आता है। उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में हिस्सा ले रही समाजवादी पार्टी के स्वत्वाधिकारी एवं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अपने सगे बेटे अखिलेश यादव को पार्टी का नया चेहरा बना दिया है। यह पार्टी भी वंशवाद का ही अनुशरण कर रही है।
          समाजवादी पार्टी के मुखिया हैं, मुलायम सिंह यादव। उनके भाई, रामगोपाल यादव, पार्टी के महासचिव होने के साथ-साथ राज्यसभा सदस्य एवं पार्टी के प्रवक्ता भी बना दिये गये हैं। प्रवक्ता का पद अभी हाल ही में उन्हें पार्टी के वरिष्ठ नेता मोहन सिंह से छीनकर दिया गया है। घ्यान रहे मोहन सिंह उनके परिवार से नहीं थे इसीलिए पद छीनने में कोई ज्यादा सोचने समझने की जरूरत नहीं पड़ी। मुलायम सिंह के दूसरे भाई शिवपाल सिंह यादव, उ.प्र.के निवर्तमान नेता विरोधी दल तथा विधायक हैं। मुलायम सिंह यादव के सुपुत्र अखिलेश यादव, उ.प्र.समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एवं सांसद हैं। इनकी पत्नी डिम्पल यादव भी फिरोजाबाद से संसदीय चुनाव लड़ी थीं,हार गयीं वरना वह भी सांसद होतीं। मुलायम के भतीजे धर्मेन्द्र यादव भी सांसद हैं। लोगों का ऐसा कहना है कि इस परिवार का कोई सदस्य ऐसा नहीं है जो 25 वर्ष से अधिक का हो और विधायक अथवा सांसद न हो। कुल मिलाकर, यह एक लिमिटेड कम्पनी ही है,जिसके 51 प्रतिशत शेयर इसी परिवार के पास हैं और सारा प्रबन्धतंत्र इन्हीं के हाथ में है। पूरा परिवार जब खाने की टेबल पर बैठ जाये समझ लीजिए समाजवादी पार्टी की कैबीनेट बैठी हुई है।
          इसी सप्ताह इस कम्पनी में नरेश अग्रवाल अपने पूरे कुनबे सहित यह कहकर समाहित हो गये हैं कि अब जाकर राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हुआ हूं। जब तक मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री नहीं बना लेता चैन से नहीं बैठने वाला। ऐसा कहकर उन्होंने यह जताने की कोशिश की कि वे जिसे चाहें मुख्यमंत्री बना सकते हैं क्योंकि उनमें स्वंय मुख्यमंत्री बनने की क्षमता नहीं है,इसलिए किसी दूसरे नेता को ही मुख्यमंत्री बनवाना उनकी मजबूरी है। उन्होंने कहा कि जो गलती हुई उसके लिये क्षमा चाहता हूं। नेता जी आपका ऋण अदा करके ही रहूंगा। (30 दिसम्बर को समाजवादी पार्टी ज्वाइन करते वक्त नरेश अग्रवाल द्वारा व्यक्त किये गये उदगार)  इससे पूर्व जब 28 मई 2008 को सपा छोड़कर बहुजन समाज पार्टी में शामिल हुए थे तो क्या कहा था, वह भी देखिए।
          समाजवादी पार्टी, परिवार तक सीमित रह गयी है। अब पूरा राजनीतिक जीवन मैं बहिन जी को अर्पित कर रहा हूं। मेरे बाद मेरा बेटा नितिन उनके साथ रहेगा। मायावती जी भावी प्रधानमंत्री ही नहीं देश की कर्णधार भी हैं। उनकी कथनी-करनी में कभी अन्तर नहीं रहा है। बहुजन समाज पार्टी से सांसद एवं पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव नरेश अग्रवाल अपने पूरे कुनबे सहित फिर से हांथी से फिसलकर गिर पड़े और साइकिल पर सवार हो गये हैं। उनके पुत्र नितिन अग्रवाल,हरदोई से बसपा विधायक हैं। नरेश अग्रवाल के भाई व पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष मुकेश अग्रवाल, इनकी पत्नी व जिला पंचायत अध्यक्ष कामिनी अग्रवाल और पूर्व विधान परिषद सदस्य राजकुमार अग्रवाल,बावन की बसपा विधायक राजेश्वरी ने सपा की सदस्यता ग्रहण कर ली है। परिवारवाद की यह संक्रमणीय बीमारी वह कांग्रेस से ही लेकर आये हैं।
          नरेश अग्रवाल मूल रूप से कांग्रेसी हैं। वह कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे हैं। वर्ष 1997 में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी बना ली थी और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री बने थे। इसके बाद वह समाजवादी पार्टी की सरकार में मंत्री बने। 2007 में वह सपा के टिकट से ही जीते लेकिन पांच सालों के घने अंधेरे की रेप्लिका देखने के बाद 28 मई 2008 को वह इसी तरह बसपा में शामिल हुए थे। बसपा ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाने के बाद राज्यसभा सदस्य भी बनवा दिया। अब जबकि उनका कार्यकाल अप्रैल 2012 में समाप्त हो रहा है, अपने नफे-नुकसान का आंकलन करते हुए (चुकि वे वैश्य जाति के हैं) पूरे परिवार सहित सपा में चले गये हैं।
          राष्ट्रीय स्तर की बहुजन समाज पार्टी जिसकी राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती हैं, जरूर राजवंश की बीमारी से ग्रस्त नहीं हैं,लेकिन उनकी पार्टी में भी परिवारवाद की वंशबेल के रूप में छोटे-छोटे मनी प्लान्ट बड़ी खूबशूरती से फल-फूल रहे हैं। बसपा में राजवंश तो दिखाई नहीं दिया, बावजूद इसके कि सुश्री मायावती का भरा-पूरा परिवार है। उनके परिवार में माता-पिता, भाई-बहन सभी मौजूद हैं, इसके बाद भी उनका एक भी परिवारी न तो विधायक है, न ही सांसद। लेकिन उनकी पार्टी परिवारवाद को सींचने का काम क्यों कर रही है,चिंतन का विषय है। उनकी सरकार में नम्बर दो की हैसियत रखने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी की पत्नी हुस्ना सिद्दीकी, विधान परिषद की सदस्य बना दी गयी हैं। बसपा सांसद, बृजेश पाठक की पत्नी नम्रता पाठक, उन्नाव से बसपा प्रत्याशी हैं तथा उनके साले अरविन्द त्रिपाठी भी विधान परिषद सदस्य हैं। बहुजन समाज पार्टी में ही रामवीर उपाध्याय, ऊर्जा मंत्री की पत्नी सीमा उपाध्याय, बसपा सांसद हैं, उनके भाई मुकुल उपाध्याय, विधान परिषद सदस्य हैं तथा एक अन्य भाई डिबाई विधान सभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। बसपा के ही मंत्री हैं, स्वामी प्रसाद मौर्या, जिनके पुत्र एवं पुत्री बसपा से प्रत्याशी बनाये गये हैं। बसपा के ही एमएलसी हैं, रामचन्द्र प्रधान, जिनके भाई धर्मेन्द्र प्रधान जिला पंचायत अध्यक्ष हैं और पत्नी अनीता प्रधान को राजनीति में लाने की तैयारी है।
          जम्मू-काश्मीर में शेख अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्ला के बाद अब उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर की कमान संभाले हुए हैं। विपक्ष की भूमिका में मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी पुत्री महबूबा ही हैं। महाराष्ट्र में ठाकरे और शरद पवार परिवारवाद की मैट्रो ट्रेन को स्पीड पकड़ाये हुए हैं। पंजाब में प्रकाश सिह बादल का पूरा परिवार राजनीति में प्रवेश कर गया है। प्रकाश सिह बादल, मुख्यमंत्री और अकाली दल के मुखिया हैं। इनके बेटे सुखबीर सिंह बादल, उपमुख्यमंत्री एवं पार्टी अध्यक्ष हैं। इनकी पुत्रवधू हरसिमरत कौर बादल,सांसद हैं। पुत्र सुखबीर के साले विक्रम मजीठिया, विधायक और युवा अकाली दल के अध्यक्ष है। बादल के भतीजे, मनप्रीत बादल, पूर्व मंत्री हैं तथा नई पार्टी का गठन किया है। बादल के दामाद आदेश प्रताप सिह कैरों,कैबिनेट मंत्री हैं, जो सुरिन्दर प्रताप सिंह केरों, पूर्व सांसद के पुत्र तथा स्व0 प्रताप सिंह कैरो पूर्व मुख्यमंत्री के पौत्र हैं।
          ओडीशा में बीजू पटनायक के बाद,उनकी पार्टी ने उनके बेटे नवीन पटनायक को ही सबसे उपयुक्त माना है। राजस्थान में विपक्ष में बैठी वसुन्धरा राजे ने अपने बेटे दुश्यंत सिंह को सांसद बनवा दिया। वसुन्धरा राजे द्वारा, ऐसा किया जाना अचरज उत्पन्न नहीं करता क्योंकि वह तो राजवंश की हैं ही। मध्य प्रदेश का ग्वालियर क्षेत्र परिवारवादी राजनीति का ही नमूना है। तमिलनाडु में कलैगनार कुनबा और उसकी सियासत तमिलनाडु को ही नहीं अपितु केन्द्र को भी प्रभावित करता है। सूबे की सत्ता में बैठी अन्नाद्रुमक पार्टी में एम.जी.रामचन्द्रन की राजनीतिक विरासत पत्नी के बजाये प्रेमिका जे. जयललिता के हाथ में होना भी परिवारवाद के अन्तर्गत ही कहा जायेगा। 

         आन्ध्र प्रदेश में फिल्म अभिनेता स्व.एन.टी.रामाराव का परिवार पक्ष और विपक्ष दोनों खेमों में विराजमान हैं। बेटी डी पुरंदेश्वरी केन्द्र की कांग्रेस सरकार में मंत्री है तो दामाद चन्द्रबाबू नायडू विपक्ष की तेलगुदेशम पार्टी के बरसों से मुखिया हैं। राजवंश की पोषक,कांग्रेस पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी ने जो फार्मूला अपने लिये अपनाया हुआ है, उसी फार्मूले के आधार पर, हेलीकॉप्टर हादसे में मारे गये मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी की जगह उनके बेटे जगन मोहन रेड्डी को आन्ध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने से इंकार कर दिया, जिसके फलस्वरूप कांग्रेस को विभाजन झेलना पड़ा।
          भारतीय राजनीति में वंशवाद अथवा परिवारवाद की परम्परा बड़ी तेजी से फल-फूल रही है और यह प्रवृत्ति देश हित के बजाय स्वहित का पोषण कर रही है, इसलिए स्वस्थ लोकतंत्र के लिये हानिकारक ही नहीं अपितु खतरनाक भी है। (सतीश प्रधान)