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Thursday, October 20, 2011

जेट उड़ाने से कठिन है, फॉर्मूला-1 कार ड्राइविंग


          इण्डिया के ग्रेटर नोएडा स्थित, बुद्ध इन्टरनेशनल सर्किट पर 30 अक्टूबर 2011 को पहली फॉर्मूला-1 कार रेस इंडियन ग्राण्ड प्रिक्स के आयोजन से पहले जे0के0एशिया सीरीज और दिल्ली एमआरएफ चैम्पियनशिप का आयोजन 28-30 अक्टूबर के दौरान इसी ट्रैक पर होगा। पहला अभ्यास सत्र 28 अक्टूबर को सुबह 10 बजे और दूसरा दोपहर दो बजे से शुरू होना है, तीसरा और आखिरी अभ्यास सत्र 29 अक्टूबर को 11 बजे यानी क्वालीफाइंग रेस से
तीन घण्टा पूर्व होगा।                                        

  अभ्यास सत्रों के मध्य दर्शकों के मनोरंजन के लिए दिल्ली चैम्पियनशिप और जे0के0एशिया सीरीज की दो रेस सेटरडे और सण्डे को होनी हैं। जे0पी0 स्पोर्ट्स इंटरनेशनल लि0 के प्रबन्ध निदेशक एवं सीईओ श्री समीर गौण ने बताया कि वह भारत में पहली एफ-1 ग्राण्ड प्रिक्स के आयोजन से उतने ही रोमांचित हैं, जितना कि कोई आविष्कारक अपने आविष्कार से होता है, इसीलिए वह इसे वर्ष की सबसे यादगार रेस बनाना चाहते हैं। ध्यान रहे कि इस सत्र(2010) में 19 रेस होनी हैं। 15-16 अक्टूबर 2011 को योनगाम(Yeongam)में आयोजित कोरियन ग्राण्ड प्रिक्स रेस 16वीं थी। 17वीं इण्डियन ग्राण्ड प्रिक्स, बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट, ग्रेटर नोएडा में 60 लैप की फाइनल फॉर्मूला-1 रेस 30 अक्टूबर, सण्डे को दोपहर तीन बजे होगी। 18वीं अबुधाबी ग्राण्ड प्रिक्स, यास मरीना (Yas Marina) में 12 एवं 13 नवम्बर 2011 को तथा इस सत्र की अंतिम 19वीं ब्राजीलियन ग्राण्ड प्रिक्स 26-27 नवम्बर 2011 को इंटरलागोस (Interlagos) में समपन्न होनी है। 
  अब आइये इस रेस से जुड़ी कुछ खास जानकारी भी शेयर करते हैं। रेस की कार, पंख, इंजन, गीयर, स्टीयरिंग, टायर और ब्रेक के बारे में आपको जानकारी से लैस कराते हैं, जिससे कि आपका रोमांच भी 320 किलोमीटर प्रति घण्टा की स्पीड पकड़ सके।
कारः फॉर्मूला-1 कार, कार्बन-फाइबर और बेहद ही हल्के कलपुर्जो से बनी होती है। इसका न्यूनतम वजन भी तय किया गया है। नियम के अनुसार ड्राइवर सहित इसका वजन 640 किलोग्राम से कम नहीं होना चाहिए, लेकिन ज्यादातर कारों का वजन इससे कम ही होता है, वह भी लगभग 440 किलोग्राम। ऐसी स्थिति में टीमें कार का वजन बढ़ाने के लिए पूरक भार (ऐसा भार जो गाड़ी को स्थिर बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाये) का प्रयोग करती हैं। नियम के ही अनुसार एफ-1 कार की चौड़ाई 180 से0मी0 और उंचाई 95 से0मी0 से अधिक नहीं होनी चाहिए, जबकि इसकी लम्बाई के सन्दर्भ में नियम बिल्कुल मौन हैं।
पंख (विंग्स): फॉर्मूला-1 कार के सस्पेंशन, कार की चेसिस को उसके चकों (पहिए) से जोड़ने वाले आधार से लेकर उसके ड्राइवर के हेलमेट तक, प्रत्येक कोंण से एयरोडायनमिक्स का ध्यान रखा जाता है, लेकिन ध्यान रहे इन एयरोडायनमिक्स में सबसे खास ख्याल कार के पंख का ही रखा जाता है, जो कि 320 किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार तक कार का संतुलन बनाये रखने में अपनी महत्वपूंर्ण भूमिका अदा करते हैं। इन पंखों को बनाने से पूर्व बाज़ पक्षी के पंख एवं उसके वर्किंग सिस्टम पर वर्षों रिसर्च की जा चुकी है। पंख,कार को जमीन पर उसकी पकड़ बनाने में मददगार साबित होते हैं,ठीक उसी तरह जैसे बाज़ पक्षी जब अपने शिकार पर झपट्टा मारता है तो उसके पंख मददगार होते हैं। फॉर्मूला वन कार में भी दो ही पंख होते हैं,एक आगे और एक पीछे।
इंजन: फॉर्मूला-1, कार में 2.4 लीटर, वी-8 इंजन का इस्तेमाल होता है जो 18000 राउण्ड प्रति मिनट (आर.पी.एम.) की स्पीड देता है। इससे कार का इंजन औसतन 320 किलोवॉट की उर्जा उत्सर्जित करता है, और इस प्रक्रिया में तापमान तकरीबन 1000 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। इंजन, ईधन को 20 प्रतिशत अधिक क्षमता से ऊर्जा में तब्दील करता है। फॉर्मूला वन कार का इंजन, ड्राइवर सीट और पिछले एक्सेल के बीच में स्थित होता है। तापमान और जबरदस्त गुरूत्वाकर्षक दबाव के कारण एक रेस के दौरान फॉर्मूला-1 कार ड्राइवर के शरीर से तकरीबन दो से चार लीटर पसीना बह जाता है।
गीयरः फॉर्मूला-1 कार में सात फॉरवर्ड गीयर और एक रिवर्स गीयर होता है। फॉर्मूला वन कार का गीयर बॉक्स कार्बन-टाइटेनियम का बना होता है और पूरी तौर पर ऑटोमैटिक होता है।
स्टीयरिंगः फॉर्मूला-1 कार का स्टीयरिंग सामान्य नहीं होता है, उसमें कई तरह के फंक्शनल स्विच बटन होते हैं। रेस के दौरान ड्राइवर स्टीयरिंग पर लगे इन स्विचों की मदद से क्लच ऑपरेट करते हैं, गीयर बदलते हैं, पैट्रोल और हवा के दबाव पर नज़र रखते हैं। स्टीयरिंग पर एक स्क्रीन भी लगी होती है, जिसमें ड्राइवर लैप टाइम, स्पीड एवं गीयर देख सकते हैं। फाइबर से ही बने इस स्टीयरिंग का वजन 1.3 किलोग्राम तक होता है।
टायरः फॉर्मूला-1 कार के टायर की चौड़ाई 245 मिलीमीटर से अधिक नहीं होती है। यह एक खास रबर के बने होते हैं। जहॉं एक सामान्य कार के टायर की उम्र 80,000 किलोमीटर होनी चाहिए, वहीं इन फॉर्मूला-1 कार के टायर की उम्र महज 300 किलोमीटर ही होती है।
ब्रेकः फॉर्मूला-1 कार के ब्रेक पैड 1000 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान सहने में सक्षम होते हैं। सर्किट पर ब्रेक के अलावा इंजन की गति कम करके भी रफ्तार पर नियन्त्रण करते हैं। फॉर्मूला-1 कार का ब्रेकिंग सिस्टम इतना जबरदस्त होता है कि महज 15 मीटर की दूरी के अन्दर ही 100 किलोमीटर प्रति घन्टे की स्पीड को जीरो पर लाया जा सकता है।
  रेस के दौरान सर्किट पर 300-320 किलोमीटर प्रति घन्टा की स्पीड से दौड़ती फॉर्मूला-1 कार में ड्राइवर को उच्च तापमान और जबरदस्त ग्रेविटेशनल फोर्स का सामना करना पड़ता है। इस स्पीड पर ग्रेविटेशनल फोर्स, सामान्य का तीन गुणा हो जाता है। सर्किट पर कुछ मोड़ ऐसे भी होते हैं, जहॉं से टर्न लेने पर यह फोर्स पांच गुणा भी हो जाता है। ड्राइवर जहॉं बैठता है, उसे कॉकपिट ही समझिये, जहॉं का तापमान किसी भट्टी से कम नहीं होता है। ऐसे हालातों में ड्राइवर की जान को पल-पल का खतरा बना रहता है। आर्यटन सेना जैसे चैम्पियन-ड्राइवर इस खेल में अपनी जान से हांथ धो बैठे हैं। जरा सी चूक हुई नहीं कि इस स्पीड मशीन को आग के गोले में तब्दील होने में एक सेकण्ड का भी समय नहीं लगता है। इसी वजह से एफआईए ने ड्राइवर की सुरक्षा के लिए खास-आवश्यक नियम बनाये हैं। इसमें ड्राइवर का सेफ्टी ड्रेस कोड सबसे अहम है।
जूतेः फॉर्मूला-1 ड्राइवर के जूते खास तरह के बनाये जाते हैं। इन्हें भी आग और तगड़े झटके झेलने के हिसाब से बनाया जाता है, लेकिन एक्सीलेटर और ब्रेक पर कन्ट्रोल के लिए इनके सोल को बेहद पतला रखा जाता है, ये कार्बन-फाइबर के बने होते हैं और दस हजार डॉलर से भी ज्यादा कीमत के होते हैं। जिस देश में डालर चलता है, वहॉं के हिसाब से मंहगे नहीं हैं लेकिन यदि इसे नेपाल देश की करेन्सी में बदलेंगे तो निश्चित ही बहुत ही मंहगे दिखाई पड़ेंगे।
ग्लब्सः ड्राइवर के दस्ताने भी एंटी फॉयर मैटीरियल के बने होते हैं। इन्हें कार्बन फाइबर से बनाया जाता है। इन्हें बनाते वक्त इनकी मोटाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। इनकी मोटाई 0.55 मिलीमीटर से ज्यादा नहीं होती है, जिससे ग्लब्स पहने के बाद भी ड्राइवर की अंगुलियां सामान्य तरीके से काम करती रहती हैं। ये भी तापमान रोधी, पसीना सोखनेवाले और बेहद आरामदायक होते हैं, जिससे पूरी रेस के दौरान लगातार स्टीयरिंग पकड़े रहने में ड्राइवर को कोई दिक्कत न महसूस हो।
शोल्ड स्ट्रिपः सूट में कंधे पर चैड़ी पट्टी लगी होती है, यह काफी मजबूत होती है जो दुघर्टना की स्थिति में ड्राइवर को जल्द से जल्द कार से बाहर खींचने के काम आती है। आग अथवा कार क्रैश होने की स्थिति में बचावकर्मी इसी पट्टी के सहारे ड्राइवर को फौरन खींचकर बाहर निकालते हैं।
गर्दन का बचावः सिर और गर्दन को एक सीध में रखने के लिए एक हार्ड-ब्रेक फ्रेम सिर से गर्दन के पीछे लगाया जाता है,जिससे दुघर्टना की स्थिति में गर्दन के मुड़ने का खतरा न्यूनतम हो जाता है।
बॉडी सूटः ड्राइवर को एक खास प्रकार का बॉडी सूट पहनना होता है, जिसका वजन 1.9 किलोग्राम होता है। यह अग्निरोधी होता है। यह 1500 डिग्री सेल्सियस के तापमान को आराम से सह सकता है। इसमें सिलाई नहीं होती है। यह सूट उच्च तकनीक से निर्मित फॉयर-प्रूफ आर्मीड प्लास्टिक से बनाया जाता है एवं इसका फैब्रिक कुछ इस तरह से तैयार किया जाता है कि यह ड्राइवर के शरीर के तापमान को सहनीय बनाता है। इस फैब्रिक में कई रोम-छिद्र होते हैं, जो तापमान को बढ़ने से रोकते हैं। बावजूद इसके, एक रेस के दौरान ड्राइवर के शरीर से दो से चार लीटर तक बहने वाले पसीने को यह आसानी से सोख लेता है। सूट पर लगा टीम का लोगो अलग से सिला या चिपकाया हुआ नही होता है, बल्कि यह सूट में ही उभारा जाता है।
मास्कः ड्राइवर हेलमेट के नीचे मास्क पहनते हैं। यह उसके पूरे सिर, चेहरे और गर्दन को कवर करते हुए कंधे तक पहुंचते हैं। चेहरे पर सिर्फ आख और नाक का हिस्सा ही खुला रहता है। ये मास्क भी पॉली- कार्बोनिक फाइबर के बने होते हैं। ड्राइवर के सिर और चेहरे से बहने वाले पसीने को यह सोख लेते हैं।
हेलमेटः ड्राइवर की सुरक्षा के लिहाज से हेलमेट सबसे खास होता है, क्योंकि ड्राइवर खुले कॉकपिट में बैठे होते हैं। हेलमेट की बनावट में एयरोडायनेमिक्स के सिद्धान्त को ध्यान में रखा जाता है। इसकी बाहरी परत, दो अन्तः परतों से बनी होती हैं। ऐसी ही हार्ड प्लास्टिक बुलेट प्रूफ जैकेट में भी इस्तेमाल की जाती है।

जेट विमान और एफ वन कार चलाने में अन्तर

1. जेट विमान हवा में उड़ाया जाता है, जबकि फॉर्मूला-1 कार जमीन पर दौड़ानी पड़ती है।
2. हवा में उड़ते जेट को लोग हवा में देखने के बजाय जमीन से देखते हैं,जबकि फॉर्मूला-1 कार जो कि जमीन पर ही दौड़ती है, और दर्शक जमीन स्थित दीर्घा से ही देखते हैं।
3. जेट विमान उड़ाने में पायलट को पसीना नहीं आता है, जबकि फॉर्मूला-1 कार ड्राइवर को एक रेस में दो से चार लीटर पसीना बहाना ही पड़ता है।
4. जेट में एक सेकण्ड को आख बन्द भी हो जाये तो भी कोई आफत नहीं आने वाली लेकिन फॉर्मूला-1 कार ड्राइवर की रेस के दौरान एक बटा दस सेकण्ड के लिए भी आंख बन्द हो जाये तो वह खुदा को प्यारा हो सकता है।
5. जेट उड़ाने में न्यूनतम रिस्क है, जबकि फॉर्मूला-1 कार रेस ड्राइवर को रिस्क ही रिस्क है।
6. जेट उड़ाना आसान है, जबकि फॉर्मूला-1 कार दौड़ाना उतना ही कठिन है, क्योंकि इसमें उतार-चढाव और कई मोड़ वाले सर्किट पर फॉर्मूला-1 कार को नियंत्रित करना बहुत ही कठिन कार्य है।
7. जेट, जब करतब दिखाते हैं तब रोमांचकारी लगते हैं, लेकिन फॉर्मूला-1 कार रेस का आयोजन ही रोमांच से भर देता है, और इस रेस को आंखों से देखना ही शरीर में सिरहन पैदा कर देता है।


सतीश प्रधान

Saturday, October 8, 2011

बैंकिंग व्यवस्था के कर्णधार हैं, भारत के साहूकार



          भारत के प्रधानमंत्री पद पर भले ही आर्थिक जगत के धुरन्धर कहे जाने वाले महान अर्थशास्त्री डा0 मनमोहन सिंह विराजमान हों,  लेकिन भारत के सन्दर्भ में उनकी भूमिका अर्थशास्त्री की कम अनर्थशास्त्री की ज्यादा है। भारत की आर्थिक नीतियों को कन्ट्रोल करने वाला ऑटोनामस संस्थान, भारतीय रिजर्व बैंक, यदि किसी की चिन्ता कर रहा है,तो वे हैं देश के कार्पोरेट घराने एवं प्राइवेट बैंक्स। भारत की गरीब जनता को यदि कर्ज की कोई सुविधा उपलब्ध करा भी रहा है तो वे हैं गॉ़व के कोने-कोने में फैला हुआ साहूकारों का नेट(जाल)। एक-एक साहूकार,बैंक की एक-एक ब्रान्च के बराबर है, जिनकी संख्या हजारों में नहीं, लाखों में है एवं उनका कारोबार भी लाखों हजार करोड़ रुपयों का है। इस पर आश्चर्य केवल उसे ही हो सकता है जिसे इस सच्चाई का पता ही ना हो अथवा जो सच्चाई को जानते हुए भी जानबूझकर इसे स्वीकार करने की हिम्मत ना रखता हो।
          बैंकिंग क्षेत्र के विकास के बारे में चाहे जो भी और जितने भी दावे किये जायें, लेकिन यह कटु सत्य है कि निम्न आय वर्ग की करोडों जनता को जब भी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है तो उनका एक मात्र सहायक और मददगार साबित होता है साहूकार। यह अलग बात है कि ये साहूकार एक सौ पचास प्रतिशत प्रतिवर्ष तक का वार्षिक ब्याज वसूलने से चूकते नहीं हैं, और इन पर देश का कोई भी, किसी भी प्रकार का कानून लागू नहीं होता है। देश के कोने-कोने में साहूकार मौजूद हैं, जबकि देश को आजाद हुए साढ़े छह दशक होने को आये, इसके बाद भी क्या गॉंव-गॉव में बैंक की शाखा खोलने में भारतीय रिजर्व बैंक ने दिलचस्पी दिखाई है? कदापि नहीं, क्योंकि उसका इरादा ही ऐसा नहीं है। उसका ध्यान केवल स्वदेशी नॉन बैंकिंग संस्थाओं पर दादागिरी करने और कार्पोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने तक ही सीमित है। देश में क्रेडिट गैप को किस तरह पूरा किया जाये और बैंकों के प्राथमिकता सेक्टर में कौन से क्षेत्र डाले जायें इससे उसका रत्ती भर का भी लेना-देना नहीं है। यह केन्द्र सरकार की समस्या हो सकती है, वह तो ऑटोनामस संस्थान है, इसलिए मनमर्जी करना उसका पहला परम कर्तव्य है।


          गॉंव की ओर रुख करने से पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ही बैंकिंग जगत की हालात से आपको रूबरू कराते हैं। बैंक चाहे प्राइवेट सेक्टर का हो या वाणिज्यिक, ये बैंकें, पत्रकार, वकील और पुलिस वालों को कर्ज देने को अपनी निगेटिव लिस्ट में रखती हैं। इस लखनऊ क्या पूरे देश का मुश्किल से प्वांइट एक प्रतिशत पत्रकार होगा जो शायद पत्रकार बताकर बैंक से कर्ज पा गया हो वरना कर्ज पाना उसके लिए टेढ़ी खीर है। वकीलों में भी लोअर कोर्ट का वकील शायद ही कर्ज पा सका हो और यही हाल पुलिस वालों का भी है। यहां बात मालिक-कम-पत्रकार, हाईकोर्ट के वकील और पुलिस के आईपीएस अधिकारियों की नहीं की जा रही है, क्योंकि ये तो इलीट क्लास में आते हैं। एक बडे समाचार पत्र के वरिष्ठ पत्रकार जिनका एक अपना जबरदस्त नेक्सस है और जिनकी तूती बोलती है, वह भी अपने नाम से कार का लोन पाने में असमर्थ रहने के पश्चात अपने पिता (जो कि सरकारी टीचर हैं) के नाम से ही कार का लोन पा सके। यह हाल है समाज के इन रसूखदार लोगों का, तो भारत की दीन-हीन निरीह, निम्न आय वर्ग वाली आबादी को कैसा लोन कहॉं का लोन!
          इन खास श्रेणी के प्वाइंट एक प्रतिशत लोगों को भी यदि किसी बैंक ने कर्ज दे दिया हो तो बड़े अचम्भे की बात है। अगर ऐसा हुआ भी होगा तो वह भी उस ग्राहक की क्रेडिबिलिटी इतनी गजब की होगी कि उसे कर्ज देने से इंकार करना उस बैंक के स्वयं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक दिखाई दिया होगा तभी उस पत्रकार को कर्ज दिया गया होगा, वरना 365 घूमते हैं, बैंक वालों के सामने। नान गजेटेड पुलिस वालों को भी बैंकें पतली गली का राश्ता दिखाने से नहीं चूकती हैं। कमोबेश यही हाल लोअर कोर्ट के वकीलों का भी है, लेकिन वक्त जरुरत इन बैंकों की खिदमत में ये सारा तबका बड़ी मुस्तैदी से अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए तैनात रहता है।
          भारत के निम्न आय वर्ग वाले अपनी अस्सी प्रतिशत आर्थिक जरूरतों की पूर्ति के लिए साहूकार पर ही निर्भर करते हैं, जबकि मात्र एक प्रतिशत मामलों में ही उन्हें वाणिज्यिक बैंकों से कर्ज मिल पाता है। दस प्रतिशत मामलों में उनके रिश्तेदार-दोस्त-यार, साहूकारों से कम दर पर और बैंको से अधिक ब्याज पर कर्ज दे देते हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ही सरकारी कर्मचारियों को इन बैंकों से कर्ज नहीं मिल पाता, जिसका परिणाम यह है कि नब्बे प्रतिशत सरकारी कर्मचारी, साहूकारों के चंगुल में फंसे हुए हैं, जिनमें रेलवे में कार्य करने वाले लोगों की परसेन्टेज सबसे अधिक है। ये साहूकार दस से पन्द्रह प्रतिशत प्रतिमाह का ब्याज वसूलते हैं और आश्चर्य की बात तो यह है कि कर्ज देते समय अपना ब्याज काटकर ही बाकी का पैसा कर्जदार को दिया जाता है। इसमें किसी भी प्रकार की लिखा-पढ़ी की आवश्यकता नहीं होती है। इन साहूकारों के अपने लठैत होते हैं जो रिकवरी का कार्य करते हैं और इन लठैतों की सुरक्षा के लिए तो अपना पुलिस विभाग है ही! फिर चाहे ये पुलिस, रेलवे की हो अथवा सिविल की।
          भारत में तकरीबन 25 करोड़ कामगार, कम आय वाले वर्ग में हैं जिन्हें प्रतिदिन 80 रुपये से कम मजदूरी मिलती है। इसका 80 प्रतिशत यानी 20 करोड़ कामगार 20 रुपये से भी कम प्रतिदिन पाते हैं, जिनमें 5 रुपया प्रतिदिन पाने वालों की संख्या भी 5 करोड़ के करीब है। पॉच रुपया प्रतिदिन कमाने वालों का यदि औसत निकाला जाये तो वर्ष भर में उसे अधिकतम रुपये पन्द्रह सौ मिल पाते हैं, वह भी तब जब वह वर्ष में 300 दिन काम पा जाये। और भारत में हालात ये हैं कि मजदूरों को 100 दिन का काम मिलना भी मुश्किल है तभी तो भारत सरकार ने नरेगा के तहत 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराने की रोज़गार गारन्टी स्कीम चलाई हुई है। इससे आसानी से समझा जा सकता है कि इस देश में 100 दिन का रोजगार पाना भी कितनी टेढ़ी खीर है।
          निम्न आय वर्ग का उम्र के लिहाज से यदि वर्गीकरण किया जाये तो 25 से 35 वर्ष के बीच के लगभग 8 करोड़ कामगार हैं। 36 से 45 वर्ष के बीच 7 करोड़ एवं 45 वर्ष से ऊपर की यह संख्या 5 करोड़ की है तथा 25 वर्ष से नीचे भी यह 5 करोड़ हैं। सर्वेक्षण से यह निकल कर आया है कि निम्न आय वर्ग के 38 प्रतिशत लोग तभी कर्ज लेते हैं जब उन्हें आर्थिक विपदा घेर लेती है, और वह जिन्दगी तथा मौत के बीच खड़े होते हैं। 26 प्रतिशत निम्न आय वर्ग के लोग बीमारी आदि के लिए कर्ज लेते हैं तथा 14 प्रतिशत लोग खेती के लिए कर्ज लेते हैं। 12 प्रतिशत मामले ऐसे भी देखने को मिले कि उन्होंने अपने सामाजिक दायित्वों की पूर्ति यथा शादी-विवाह, अंतिम संस्कार एवं रस्म के निर्वाह के लिए कर्ज लेना पड़ा है। 10 प्रतिशत लोगों ने मकान एवं जमीन के लिए कर्ज लिया तो 10 प्रतिशत ने व्यावसायिक जरूरतों की पूर्ति के लिए कर्ज लिया।
          समाज के निचले तबके को कर्ज लेने की जरूरत तो हमेशा पड़ती ही रहती है। जैसे कि बड़े लोगों एव उद्योगपतियों को पड़ती रहती है। फर्क सिर्फ इतना है कि निचला तबका जीने के लिए कर्ज के जाल में फंसता है, जबकि बड़ा तबका एवं उद्योगपति कर्ज से घी पीता है और जनता को लाभ पहुचाने का मायाजाल दिखा कर लिए गये कर्ज में से 50 प्रतिशत की फिक्स डिपाज़िट अपने परिवारीजनों के नाम बनवा लेता है। आजतक यह देखने को नहीं मिला है कि निम्न आय वाले ने स्टार होटल में खाना खाने, शापिंग-मॉल में शापिंग करने या विलासिता की चीजें खरीदने के लिए कर्ज लिया हो। अपवाद स्वरूप एक प्रतिशत मामले में दो-पहिया वाहन खरीदने के लिए कर्ज जरूर लिया गया हो सकता है।
          देश के इन निम्न आय वालों में 64 प्रतिशत लोग दिहाड़ी मज़दूर हैं, जबकि 21 प्रतिशत लोग खेती-बाड़ी, परम्परागत शिल्पकारी आदि में, 9 प्रतिशत छोटे दुकानदार तथा मात्र 4 प्रतिशत वेतनभोगी मजदूर हैं और ये भी किसी संगठित क्षेत्र में नहीं हैं, बल्कि दुकानदारों, बड़े किसानों, छोटे-मोटे व्यावसायियों के यहां नौकरी करते हैं, जहॉं इनका ना तो प्रोवीडेन्ट फण्ड कटता है ना ही कोई इनस्योरेन्श की स्कीम इन्हें उपलब्ध होती है। ना ही किसी प्रकार की छुट्टी का भुगतान मिलता है और ना ही कोई अन्य लाभ। केवल नो वर्क नो पे का सिद्धान्त ही यहां कठोरता से लागू होता है। आईआईआईएस के सर्वे के अनुसार 80 रुपये प्रतिदिन से कम पाने वालों में से जिन पॉंच लोगों ने कर्ज लिया उसमें से चार, सूदखोरों के चंगुल में जबरदस्त तरीके से फंसे हुए थे। इन साहूकारों की ब्याज दरें दस रुपये प्रतिमाह से पन्द्रह रुपये प्रतिमाह प्रति सैकडा होती हैं। वार्षिक आधार पर यदि गणना की जाये तो यह 120 प्रतिशत से 150 प्रतिशत के बीच बैठती हैं।
          120 से लेकर 150 प्रतिशत प्रतिवर्ष कमाने के इस धन्धे में साहूकारों, पुलिसवालों, गॉव के प्रभावशाली व्यक्तियों एवं बैंकों का पूरा गिरोह सक्र्रिय है और भारत की अच्छी खासी जनता को गुलाम बनाये हुए है। कईबार तो यहॉं तक देखा गया है कि सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के लिए समाज के पंच जबरदस्ती कर्ज दिलाकर बिरादरी में भोज करवा देते हैं और उसे वापस न कर पाने की स्थिति में उसकी जमीन और बहु-बेटी तक पर जबरन कब्जा कर लेते हैं,और हमारे सरदार जी का सिस्टम मौन धारण किये रहता है। कितना अच्छा सिस्टम है,हमारे यहॉं,जो जनता का गार्जियन बनी सरकार केवल अपना भला सोचती है।
इसके बाद भी हमारे यहॉं का बुद्धिजीवी वर्ग, विशेष तौर पर पत्रकार जगत, यदि किसी विदेशी ने किसी भिखमंगे को 100 डालर का नोट दे दिया तो लम्बी चौड़ी बहस चलाकर इस कृत्य को अपराध घोषित करने से नहीं चूकता है। मूर्धन्य पत्रकार रूपा सुब्रह्मण्यम देहेजिया 3 अक्टूबर 2011 के वॉल स्ट्रीट जर्नल के इकॉनॉमिक जर्नल में कॉलम लिखती हैं कि क्या भीख देना सही है? महोदया दीक्षा देते हुए यह कहती हैं कि यह भिखारियों को बढ़ावा देने का मामला है। यह सीख इस स्तम्भकार ने डब्ल्यू.एस.जे. में देखी तो तरस आया इन पत्रकार महोदया पर कि अपनी काबिलियत दिखाने के लिए उन्होंने निर्धनता के सच में झांकने के बजाय, उसके नंगेपन को बॉलीवुड के नंगेपन के बराबर समझ लिया। उन्हें शायद पता नहीं कि ये गरीब शराब के नशे में नंगे नहीं रहते हैं, ये चर्बी घटाने के लिए उपवास या अनशन नहीं करते हैं, बल्कि इस हिन्दुस्तान में ये अपने लिए तन ढंकने को कपड़ा और पेट भरने को भोजन प्राप्त नहीं कर पाते इसलिए भीख मांगने मजबूरी में उतरते हैं। इनकी बुद्धि नंगी नहीं है, बल्कि इनकी तकदीर नंगी है। रूपा सुब्रह्मण्यम देहेजिया भीख देने वाली विदेशी महिला पेरिस हिल्टन को सीख देती हैं कि उन्होंने जो नेक इरादे से दान दिया उससे कदाचित अच्छे के बजाय नुकसान हुआ, क्योंकि इससे इस परिवार की इस तरह की प्राप्ति की उम्मीदें बढ़ गईं। इसलिए वह सुश्री पेरिस हिल्टन को सीख देती हैं कि कृपया रुपये या फिर डॉलर दान में देने की कोई आवश्यकता नहीं है। धन्य हैं दहेजिया जी, यदि बगैर दहेज शादी हुई हो तो बताइयेगा! दान देने वाले और दान लेने वाले पर चर्चा करनी हो तो मेरे ईमेल पर सूचित करियेगा रूपा सुब्रह्मण्यम देहेजिया जी, तब आपको बताऊंगा कि क्यों कोई दान देता है और दान लेकर बड़े-बड़े मठ, और धार्मिक संस्थान क्या कर रहे हैं। आपको 100 डॅालर, एक गरीब को दिये जाने पर ही इतनी टीस हो गई। विषय से भटक न जाऊं, इसलिए अपने मूल लेख पर वापस आता हूँ।
          देश में बढ़ते शहरीकरण के कारण गॉंव-गॉंव में पैदा हो गये बिचौलिये गॉंव में आई दैवी आपदा यथा बाढ़, सूखा आदि के समय दम्पत्ति को दस-पन्द्रह हजार रुपये अग्रिम दे देते हैं तथा सितम्बर-अक्टूबर आते-आते उस दम्पत्ति को शहर ले जाते हैं और वहॉं साल-साल भर तक बिना वेतन के मजदूरी कराते हैं। यह अलग बात है कि इस दौरान उन्हें साइट पर ही मुर्गी के दड़बेनुमा वाला अस्थायी आवास और खाने के लिए राशन बिचौलिये द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। ये भी पूंर्णरुप से बंधुआ मजदूरी का ही मामला है, लेकिन किस सरकार और किस विभाग की इस पर नज़र पडी आजतक कभी दिखाई नहीं दिया। ऐसे बंधुआ मजदूरों के बच्चों के भविष्य का अंदाजा बड़ी आसानी से समझ में आ सकता है। उस पर सोने पे सुहागा यह है कि इस देश में चाइल्ड लेबर एक्ट लागू है। इससे पहले ऐसे गरीब परिवार के जिन बच्चों को मजदूरी के अच्छे पैसे मिल जाते थे, वे अब चाइल्ड लेबर एक्ट को डील करने वाले अधिकारियों के डर से कम मजदूरी में ही कार्य करने को अभिशप्त हैं, ऐसे कानून से केवल इसे लागू कराने वाले सरकारी अधिकारियों की ही मौज आई है, जिस गरीब के पास अपने परिवार को भोजन कराने के ही लाले पडे हुए हैं, वह अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ने स्कूल भेजे याकी मजदूरी कराकर पेट पाले! यह दर्द न तो मोंटेक सिंह आहलूवालिया के समझ में आ सकता है और ना ही डा0 मनमोहन सिंह एवं उनकी सरकार के।
          वैसे तो आर्थिक विष्लेषकों का कहना है कि निम्न आय वर्ग वाले व्यक्तियों का महाजनों के जाल में फंसने के पीछे गॉंवों तक बैंकिंग व्यवस्था का नहीं पहुंचना एक कारण है, पिछले 64 सालों के बाद अब उन्हें यह समस्या पता लगी है। लेकिन इस विश्लेषक का ऐसा मानना है कि यदि ऐसा है, तो इसके लिए रेसपॉन्सिबिल कौन है? दूसरी बात, जिन जगहों पर बैंकों का जाल बिछा हुआ है वहां के लोग भी कैसे साहूकारों के जाल में फंसे हुए हैं। जिन गॉंवों में सहकारी तथा ग्रामीण बैंक की शाखायें हैं वहां भी आम आदमी के लिए कर्ज पाना आसान क्यों नहीं है।
इन बैंकों के लोन देने के नियम इतने सख्त हैं कि जबतक ये बैंक स्वंय किसी को लोन देना न चाहें ग्राहक कितनी ही आर्हता पूरी क्यों न करता हो उसे लोन मिल ही नहीं सकता है। भारत सरकार की प्रधानमंत्री रोजगार योजना का भी सच यही है। इसके तहत मिलने वाली सब्सिडी बैंकवाले और जिला उद्योग केन्द्र वाले मिलकर खा जाते हैं। अब आप स्वंय अंदाजा लगा सकते हैं कि एक लाख के किसी प्रोजेक्ट में जब 20 हजार रिश्वत में ही निकल जायेंगे तो 80 हजार में वह प्रोजेक्ट कैसे चलेगा? क्योंकि यह बेरेाजगारों का प्रोजेक्ट है जिसमें वर्किंग कैपिटल उसे स्वंय अरेन्ज करनी पड़ती है, किसी टाटा, बिरला, अम्बानी या अन्य की नहीं है, जहॉं का सीएमडी करोड़ों की सेलरी पाता है तथा हजारों को रोजगार देने की बात करता है और वर्किंग कैपीटल के साथ-साथ गैसटेशन पीरीएड का भी मजा वैसे ही लेता है जैसे लोग होलीडे पीरीएड का लेते हैं।
          ऐसे उद्योगपतियों की प्रोजेक्ट कास्ट को कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है और उस पर ही बडी बडी बैंकें लोन भी पास कर देती हैं, क्योंकि उसमें बैंकों को भी एक ही ग्राहक से करोड़ों रुपये सुविधा शुल्क के नाम पर प्राप्त हो जाते हैं। उसे प्रति ग्राहक साढ़े सात हजार की दर से रिश्वत एकत्र नहीं करनी पड़ती है। बड़ी प्रोजेक्ट पास करने पर इन ओद्योगिक घरानों से दोस्ती होती है अलग से, जिसका फायदा ये बैंक वाले अपने किसी सगे सम्बन्धी को उस प्रोजेक्ट में अच्छी प्लेसमैन्ट दिलाकर प्राप्त कर लेते हैं।
          यह देश अमीरों का है, गरीब तो उनके लिए एक रिसोर्स आइटम है, जिसका इस्तेमाल वह आउटसोर्स के रूप में भी कर लेता है। क्या भारतीय रिर्जव बैंक दावे के साथ कह सकता है कि उसने अपने उदभव काल से आजतक वाणिज्यिक बैंकों के फोकस में कभी निम्न आय वर्ग के लोगों को रखने का कोई नियम बनाया या सरकुलर जारी किया है? यह तो बात रही निम्न आय वर्ग वालों की, जबकि सत्यता तो यह है कि मध्यम आय वर्ग के 80 प्रतिशत लोग भी इन बैंकों के ग्राहक जरूर हैं, लेकिन बैंकिंग के नाम पर वो केवल अपना पैसा जमा करने, उसे चेक के माध्यम से निकालने के अलावा और कुछ नहीं जानते। इसके लिए भी वे झिड़के जाते हैं अलग से। इसी को भारत की बैंकिंग समझ लीजिए वरना तो कर्ज पाने के लिए वे भी मारे-मारे घूमते हैं।
          इन बैंको से वे ही कर्ज पाने में सफल होते हैं जो इन्हें खुश रखने की तरकीब जानते हैं, जिनकी लायजनिंग अच्छी होती है अथवा जिनकी साख नहीं बल्कि हैसियत अच्छी होती है। हैसियत अच्छी होने का मतलब है आप साम, दाम और दण्ड से सम्पन्न हों। आपकी धमक ऐसी हो कि बैंक वाला भी आपसे डरे कि यदि उसने आपको लोन नहीं दिया तो उस मैनेजर का ट्रान्सफर हो सकता है, ऐसी स्थिति में ही वह आपको घास डालेगा। वरना, कर लीजिए जो आप करना चाहें, उसकी सेहत पर फर्क पड़ने वाला नहीं। डा0 मनमोहन सिंह, वर्ष 2004 से लगातार भारत के प्रधानमंत्री बने हुए हैं। इससे तो अच्छे बम्बई के डिब्बे वाले हैं जो जाहिल गवांर हैं, लेकिन जिनकी प्रबन्धन क्षमता की तारीफ करने के लिए ब्रिटेन का प्रधानमंत्री भारत आता है। हमारे बड़े-बड़े प्रबन्धकीय संस्थान उन्हें अपने यहां आमंत्रित करते हैं, लेकिन गरीबों को अमीर बनाने का कोई उपाय नहीं सुझा पाते हैं। निम्न आय वर्ग एवं मध्यम आय वर्ग के लोगों को डेढ़ लाख प्रतिवर्ष की आय के आयकर विभाग के दायरे में लाने की जिम्मेदारी क्या सरकार की नहीं बनती है, जो इस देश की गार्जियन समझी जाती है।
          क्या कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर इस समस्या का निदान नहीं कराया जा सकता है ? हमारा योजना आयोग कुटीर उद्योगों के विकास के बारे में क्यों नहीं सोचता है, बडे़ दुख का विषय है। इस समस्या का समाधान कम से कम योजना आयोग के उपाध्यक्ष मि0 मोंटेक सिंह आहलुवालिया को तो अर्थशास्त्री की श्रेणी में ला ही सकता है, जो भारत के ग्रामीण को 26 रुपये में एवं शहरी को 32 रुपये में पूरे दिन का भोजन कराकर खुशहाल जिन्दगी जीने का प्रमाण-पत्र दे चुके हैं।
सतीश प्रधान

Tuesday, October 4, 2011

भारत के इण्डिया गेट पर स्पीड स्ट्रीट शो


          दिल्ली स्थित, भारत के राष्ट्रपति भवन और इण्डिया गेट के बीच का रास्ता, भारत की सत्ता का रेड कारपेट एरिया है। इस पथ पर 1 अक्टूबर 2011 को फॉर्मूला-1 रेस चैम्पियन टीम, रेड बुल के स्पीड स्ट्रीट शो का आयोजन हुआ। आयोजन से पूर्व सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये गये। राजपथ के दोनों ओर करीब साढ़े चार फुट ऊंची रेलिंग लगाई गई, जिसके पीछे खड़े होकर रफ्तार का लुत्फ उठाया जाना था। रेस में भले ही हमारे जीन्स ब्रिटिशर्स के विपरीत हों, लेकिन अपनी धरती पर हम यह दिखाने की भरपूर कोशिश करते हैं कि हमारी मानसिकता अपने ही भारतीयों के प्रति ब्रिटिर्शस से कम नहीं है। इसीलिए राजपथ के एक ओर आम लोगों के लिए और दूसरी ओर खास लोगों के लिए व्यवस्था की गई। दोनों ओर के प्रवेश द्वार पर मैटल डिटेक्टर भी लगाये गये।
          01अक्टूबर 2011 की दोपहर 12 बजे से ही राजपथ के दोनों ओर दर्शक एकत्र होने शुरू हो गये थे, जिनमें बच्चे, बूढ़े और नौजवान युवक- युवतियों की भरमार थी, जिनके चेहरों की चमक से ही इस शुरू के आयोजन का रोमांच साफ दिखाई दे रहा था। हजारों की भीड़ इसलिए भी एकत्र थी, क्योंकि उनमें से 90 प्रतिशत दर्शक 30 अक्टूबर को आयोजित होने वाली इण्डियन ग्राण्ड प्रिक्स, फॉर्मूला-1 रेस को टिकट लेकर देखने में समर्थ नहीं थे। चूंकि प्रिन्ट और इलैक्ट्रानिक मीडिया ने इस आयोजन को इतना प्रचारित कर दिया था कि सारी जनता को यह पता चल चुका था कि हिन्दुस्तान में फॉर्मूला-1 रेस, ग्रेटर नोएडा में पहली बार आयोजित होने जा रही है, जो इससे पूर्व विदेश में ही आयोजित हुआ करती थी।

शो दिन के 2 बजे शुरू हुआ। पहले मोटरसाइकिल सवारों और उसके बाद कार सवारों ने तेज रफ्तार के साथ कुछ हैरतअंगेज स्टंट भी दिखाए, फिर हिस्पेनिया टीम के आस्ट्रेलियाई ड्राइवर डेनियल रिकॉर्डो जलवा दिखाने मैदान पर उतरे। इन्हें झण्डी दिखाई भारत के केन्द्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकान्त सहाय ने। टोरो रोसो और रेड बुल के ड्राइवर डेनियल ने जैसे ही कार को स्पीड दी लोगों के रोमांच को भी स्पीड पकड़ते देर न लगी। देखते ही देखते डेनियल ने लगभग 270 से 280 किलोमीटर प्रतिघन्टे की स्पीड थाम कर दर्शकों के रोमांच को सिरहन में तब्दील कर दिया। इस आयोजन में रेड बुल का इवेन्ट पार्टनर भारत से प्रकाशित होने वाला एक हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र भी था।
सतीश प्रधान

बेल बॉण्ड के अभाव में लाखों बन्द हैं जेल में




          यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय जेलों में बंद कैदियों की संख्या का एक बड़ा हिस्सा उन कैदियों का है, जो सिर्फ इस कारण सलाखों के पीछे है क्योंकि वे अदालतों द्वारा निर्धारित जमानत की राशि का बॉण्ड भरने में सक्षम नहीं हैं। उनके अपराध की प्रकृति उन्हें समाज में वापस जाने की अनुमति देने के साथ ही उन्हें अपराध साबित होने तक अदालत सामान्य जीवन-बसर करने की इजाजत देती है, लेकिन वे कभी इस योग्य हो ही नहीं पाते कि अदालत द्वारा निर्धारित जमानत की राशि बॉण्ड के रूप में जमा करा सकें। नतीजतन वर्षों से सलाखों के पीछे वे अपने बेगुनाह होने का इंतजार ही करते रहते हैं, जबकि अमीर व सुविधा संपन्न व्यक्ति बड़े से बड़ा गुनाह करने के बाद भी बडे आराम से खुले में विचरण करता नज़र आता है। 
          ऐसा ही उदाहरण देखने को मिला, दिल्ली स्थित तिहाड़ जेल में, जहॉं 2-जी स्पैक्ट्रम के आरोपी भारत के निवर्तमान केन्द्रीयमंत्री ए.राजा बन्द हैं। उन्हें एक ऐसा कैदी मिला जो पिछले कई सालों से मात्र 20 हजार रुपये बॉण्ड के लिए न हो पाने के कारण जेल से मुक्त नहीं हो पा रहा था। राजा ने जब सुना कि उसकी प्रजा मात्र 20 हजार रुपये के अभाव के कारण जेल में बन्द है तो उनका दिल पसीज गया और उन्होंने बीस हजार रुपये उस कैदी को दिये, और सच मानिए वह कैदी उन रुपये से बॉण्ड भरकर जेल से मुक्ति पा गया। अब इसका सबाब तो ए.राजा को ऊपर वाला निश्चित रूप से देगा ही।
          सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे ही मामलों को देखकर एक समय कहा था कि हमारे मुल्क में जमानत का प्रचलित तरीका गरीबों को सताने और उनके प्रति भेदभाव करने वाला है, क्योंकि गरीब अपनी गरीबी के कारण जमानतराशि जुटाने के काबिल ही नहीं है। इसी पर उसने एक आदेश में कहा था कि अदालतें यह भूल जाती हैं कि गरीब व अमीर को जमानत देने में उनकी हैसियत का कितना बडा रोल होता है। इन दोनों को जमानत के मामले में बराबर समझकर अदालतें गरीब व अमीर में असमानता ही पैदा नहीं कर रही हैं अपितु गरीबों के साथ एक तरह से भेदभाव और अन्याय भी कर रही हैं।
          अदालतों को चाहिए कि वे सिर्फ मुजरिम के जुर्म की संगीनता के आधार पर कोई फैसला नहीं सुनायें। वे अभियुक्त की माली हालत और उसके नाम को ध्यान में रखकर भी अपना निर्णय दें। वहीं पुलिस को जमानतियों के साथ बॉण्ड भरने पर रिहाई मंजूर करने के घिसे-पिटे तरीके को छोड़ देना चाहिए। उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि अभियुक्त समाज से जुड़ा व्यक्ति है, उसके भाग जाने का कोई खास खतरा नहीं है। उसे चाहिए कि वह गरीब लोगों को निजी बॉण्ड पर, बिना रुपए-पैसे की देनदारी पैदा किये रिहा कर दे। इससे गरीबों में कानून के प्रति न सिर्फ सम्मान बढ़ेगा बल्कि वे छोटे-मोटे अपराधों में भगोड़ा होने से भी बच जाऐंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कोई पालन आजतक होता नहीं दिखाई देता।
          गौरतलब है कि सीआरपीसी संशोधन-2005 में भगोड़ों के लिए अलग से मामला चलाये जाने का प्राविधान लाया गया है, क्योंकि यह देखा गया है कि अक्सर व्यक्ति सजा व जेल से बचने के लिए भाग जाता है। ऐसे मामले ज्यादातर गरीब व सुविधाहीन लोगों में पाये गये हैं। सुविधा सम्पन्न पैसों के बल पर अग्रिम जमानत ले लेते हैं, वह भी बडे आराम से। वहीं गरीबों में इस बात का भय होता है कि पुलिस उसे पकड कर जेल में बन्द कर देगी क्योंकि वह अग्रिम जमानत नहीं ले सकता। वह जानता है कि पुलिस के हत्थे चढ़ने के बाद मुकदमे का निर्णय आने तक वह जेल से बाहर नहीं आ सकता, इसीलिए वह भाग जाता है। यदि अदालत उन्हें सरकारी वकील दे देती हैं और वह उनकी जमानत करवा भी देता है, तो भी वे जमानत के पैसे एकत्र करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। वहीं दूसरी ओर उनके जेल चले जाने से उनका पूरा परिवार दाने-दाने को मोहताज हो तितर-बितर हो जाता है।
           सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि भगोड़ों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने से कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा। हाँ, यदि गरीबों में यह विश्वास पैदा कर दिया जाए कि अदालत उनमें और अमीरों में कोई भेदभाव नहीं करेंगी तो स्थिति में कुछ सुधार संभव है। विधि विशेषज्ञों ने भारतीय दंड संहिता व आपराधिक प्रक्रिया दंड संहिता में इस बात का खास ख्याल रखा था। भारतीय दंड संहिता पाठ 33 की धारा-436 से 450 तक जमानत से संबंधित है। इसमें जमानत के उद्देश्य से लेकर अपराध की प्रकृति के अनुरूप आरोपी को मिलने वाले लाभ की चर्चा की गई है। इसके अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को उस पर मुकदमें का फैसला होने तक कानूनी हिरासत से रिहा करने को जमानत कहते हैं। इसके लिए आरोपी को अदालत में एक अर्जी लगाकर गुहार लगानी पड़ती है। धारा-437(1) व 439(1) में कहा गया है कि जमानत की अर्जी पर अदालतें अपनी सूझ-बूझ पर फैसला देंगी। इसके तहत न्यायाधीष को परिस्थितियों का अध्ययन करना चाहिए जिसके कारण अपराध हुआ है। आरोपी के भागने की संभावना का ध्यान रखना चाहिए। साक्ष्य को प्रभावित करने की संभावना, मुकदमे का इतिहास एवं जांच पड़ताल की गति का अध्ययन करना चाहिए।
          यदि अपराध की प्रकृति धारा-437(2) के अनुरूप है तो उसे विशेष शर्तों पर रिहा किया जा सकता है। यह शर्त पासपोर्ट जमा करना, अदालत की इजाजत के बिना भारत से बाहर नहीं जाना और साक्ष्य को प्रभावित नहीं करना हो सकता है। वहीं धारा-442 के तहत जज अभियुक्त की रिहाई का आदेश जारी कर सकता है। जमानती मुचलके की स्थिति में अभियुक्त द्वारा पेश जमानती को अदालत मानने से कभी इंकार नहीं कर सकती बशर्ते जमानती की आयु 18 वर्ष से ऊपर हो, उसके पास स्थायी पते का साक्ष्य हो और सभी कर्जों को चुकाने के बाद वह जमानत की राशि चुका पाने के योग्य हो। साथ ही कानून में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि यदि कोई आरोपी जमानत लेने के बाद अदालत द्वारा लगाई पाबंदियों को तोड़ता है तो उसका बेल बॅाण्ड जब्त किया जा सकता है। धारा-446 के तहत उसे अदालत जुर्माना भरने को कह सकती है। धारा-446(3) के तहत अदालत जुर्माने की रकम को कम कर सकती है या उसे किस्तों में बांट सकती है।
          आरोपी से मतभेद होने पर जमानती धारा-444(1) के तहत जमानती बॉण्ड वापस लेने की अर्जी दे सकता है। ऐसी स्थिति में अदालत धारा-444(2) के तहत आरोपी को सम्मन कर सकती है और गिरफ्तारी का आदेश भी दे सकती है या धारा-446(क) के तहत नए जमानती से बॉण्ड भरवाया जा सकता है। यह अदालत के अपने विवेक पर निर्भर करता है कि वह अभियुक्त के साथ कैसा बरताव करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में इस बात को इंगित भी किया है कि उस वक्त तक कानून अपने आप में पर्याप्त नहीं है जब तक कि उसे लागू करने वाला अपने विवेक का समुचित प्रयोग न करे। उनके अनुसार कानून के महत्व को जोखिम में डाले बगैर जमानत के तरीके में मुकम्मल सुधार होना चाहिए ताकि गरीब के लिए भी यह मुमकिन हो सके कि वह मुकदमा शुरू होने से पहले अमीरों की तरह आसानी से रिहाई हासिल कर सके और भगोड़ा न बने। 
सतीश प्रधान

Saturday, October 1, 2011

पेन इज माइटर देन सोर्ड़् (Sword)



भारतवर्ष में सरकण्डे की कलम से लेकर मिस्टर फाउण्टेन द्वारा ईजाद की गई फाउण्टेन पेन का प्रयोग मॉण्टेसरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों एवं प्रधानमंत्री कार्यालय तक बखूबी होता था, लेकिन व्यावसायिकता की अंधी दौड़ ने देशी इस्तेमाल की वस्तुओं पर ग्रहण लगा दिया और विदेशी वस्तुओं से भारत के बाजार पट ही नहीं गये, अपितु अभिजात्य वर्ग का कलम माना जाने वाला पार्कर पेन, सुपरस्टार महानायक अमिताभ बच्चन के प्रचार के कारण आम व्यक्ति का कलम ही नहीं बन गया, अपितु स्टेट्स सिम्बल भी बन गया है।
सरकण्डे की कलम तो अब ‘एन्टिक आइटम’ भी नहीं रह गई है। इसकी जगह वातानुकूलित बाजार (शॉपिंग मॉल) में बिकने वाली जेल पेन ने लिया है, लेकिन सरकण्डे की कलम और एडजेल, फ्लेयर, लक्सर, पायलट, विल्सन, रेनॉल्ड, रोटोमैक, पार्कर से लिखे गये राइट-अप का दृश्यावलोकन करें तो बाजी सरकण्डे की कलम (सस्ती पेन) ही मारेगी। लेकिन समय के बदलते चक्र में सरकण्डे की कलम महत्वहीन और आर्थिक विपन्नता की निशानी बनकर रह गई है, जबकि शर्ट की जेब में लगी एडजेल, पार्कर, फ्लेयर, लक्सर, विल्सन, पायलट, रेनॉल्ड अथवा रोटोमैक सामने देखने वाले पर ‘एरिस्टोक्रेसी’ की छाप छोड़ती है। ऐसी मानसिकता बन गई है हमारे भारत के सभ्य और सुसंस्कृत समाज की।
जबकि सच्चाई ठीक इसके विपरीत यह है, कलम की बनावट, उसके स्वरूप और चमक-दमक का कलम की धार से कोई सरोकार नहीं है। कलम तो वह है जो कसूरवार का सिर कलम करवा दे और बेकसूर को निर्दोष सिद्ध कर दे। कलम के इसी कमाल पर शायद यह कहावत प्रचलित हुई है कि-‘‘खींचो न कमान को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। यह कहावत जब बनी थी,तब इसकी धार ढ़ाल का काम नहीं करती थी, अखबार-मालिक के गलत धन्धों को बचाने के लिए भी इसका इस्तेमाल नहीं होता था। इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति विशेष की छवि जानबूझकर खराब करने अथवा सरकार को बनाने और बिगाड़ने में भी नहीं होता था। अखबार का मतलब चिकने ग्लेज्ड़ कागज पर बिपाशा बसु, मल्लिका शेरावत, मर्लिन मुनरो और राखी सावंत की रंगीन फोटो छापने वाले अखबार से भी नहीं है। इसका मतलब स्क्रीन, स्टार डस्ट, डेबोनियर, प्लेब्वाय, पेन्ट हाऊस अथवा ऊई से भी नहीं है।
कलम का मतलब गांधी जी के स्वराज टाइम्स, गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘दैनिक गणेश,बालक गंगाधर तिलक तथा विष्णुकृष्ण चिपलोंकर के ‘केसरी’, गोपाल गणेश अगरक के ‘सुधाकर’,लाला लाजपत राय के वन्देमातरम, वीरेन्द्र कुमार घोष के युगान्तर, राघव चारी के ‘हिन्दू’,से है। अलावा इसके ब्लाक एवं जिलों से छपने वाले उन छोटे-छोटे गिने-चुने समाचार-पत्रों से भी है जो अपनी प्रमुख खबर ग्राम व जिले स्तर की समस्या को बनाते हैं ना कि इंग्लैण्ड में आयोजित होने वाले फैशन शो अथवा विश्व बैंक की विदेश नीति को।
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कलम को बिकते तो हम ता जमाने से देखते आ रहे हैं, लेकिन उसकी लिखावट बिकते नहीं देखी थी। इसकी शुरूआत भी पश्चिमी जगत से हुई है, वे कलम और कलम की लिखावट दोनों को खरीदने और बेचने का काम करते हैं। आप देख सकते हैं कि रूश्दी की कलम किस हद तक खरीदी गई। किस तरह एक मुस्लिम (रूश्दी)की कलम पूरे मुस्लिम समुदाय के विरूद्ध इस्तेमाल की गई। अंग्रेज सब कुछ बेचता-खरीदता है, लेकिन अपना वतन नहीं बेचता, बल्कि वतन के लिए स्वयं को बेचने को तैयार रहता है, जबकि भारत का व्यक्ति सबसे पहले अपना वतन बेचता है। यह अन्तर है हम में और अंग्रेज में। भारत में कलम बिकने की शुरूआत विज्ञापन की आयतित तकनीक के साथ शुरू हुई थी। कलम के धनी लोगों ने विज्ञापन का ‘कापी-राइट’ लिखना शुरू कर दिया, जिसके बदले उन्हें इतना पैसा मिलने लगा कि यदि वह किसी अखबार में पूरे वर्ष सम्पादकीय लिखते तो भी नहीं पाते। यही वजह है कि ब्लिट्ज के प्रकाशक एवं सम्पादक, श्री आर0के0 करंजिया अखबार को दर किनार कर विज्ञापन की दुनिया में ही समा गये और फिर पता ही नहीं लगा कि कहां चले गये। वर्तमान में तो हालत यह है कि अब टाइम्स आफ इण्डिया जैसे अखबार अपने यहॉं एडीटर की जगह एडीटर लखनऊ मार्केट रखते हैं। अब अख़बार सोशल रिफार्म की जगह मार्केट एक्सप्लोर करने का प्रोडक्ट होकर रह गये है।
अखबार को अभिजात्य वर्ग का ‘ब्रेक-फास्ट’ समझने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव वर्ष 1990 में यह कहते नहीं अघाते थे कि उनका मतदाता बिना पढ़ा-लिखा है, गॉंव में रहता है, गरीब है और अखबार नहीं पढ़ता, इसलिए अखबार वाले जो मर्जी आये छापें उनकी सेहत पर काई असर नहीं पड़ता। उसी मुख्यमंत्री ने 1991 में सत्ता से हटने के बाद और पुनः सत्ता प्राप्त करने के मध्य व्यतीत समय में अखबारों के महत्व को इतना जाना-पहचाना कि दोबारा सत्ता में आते ही बडे़-बड़े अखबार मालिकों को खरीदने के साथ-साथ दसियों अखबारों के सम्पादक, सैकड़ों संवाददाताओं और फोटोग्राफरों, और तो और हाकरों तक को खरीद डाला, और उनका पेट इतना भर दिया कि खाते-खाते उन्हें अपच हो गई। उनका सारा शरीर गन्दा और मन कुचैला हो गया, जिसकी गन्दगी का दाग शायद वह इस जिन्दगी तो ना ही छुड़ा पायें। पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने विवेकाधीन कोष का ऐसा बेजोड़ इस्तेमाल किया जो केवल अंग्रेज बहादुर ही करता था।
अंग्रेज बहादुर भी जब भारत में राज करता था तो उन हिन्दुस्तानियों को सरकारी खजाने से ‘मानदेय’ देता था जो अपने भाई हिन्दुस्तानियों के साथ गद्दारी करते थे। मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से वितरित की गई करोड़ों की धनराशि उसी मानदेय की विकृत ‘रिफाइण्ड तस्वीर’ है। पूर्व मुख्यमंत्री ने सबसे अधिक धन जिस दलाल को दिया, उसे वर्तमान में पत्रकार कहा जाता है, दूसरी तरफ जिन पत्रकारों को लाखों की धनराशि विवेकाधीन कोष से दी उसे अब दलाल कहा जाता है। लखनऊ के एक अखबार के मालिक को अलग, उसकी पत्नी को अलग और उसके संस्थान को अलग धन दिया गया। विवेकाधीन कोष से केवल इसी पत्रकार को करीब एक करोड़ रूपये से ऊपर की धनराशि दी गई, जबकि उसके पास न तो रामनाथ गोयनका की कलम थी, ना ही अरूण शौरी, अथवा अश्वनी कुमार की कलम। एक दूसरे प्रधान सम्पादक, अब दिवंगत, को भी पचास लाख की धनराशि दी गई, जबकि उन साहब की कलम पर तो प्रदेश के भूतपूर्व शक्तिशाली मंत्री रहे डा0 सजय सिंह ने उन्हें लात मारकर विक्रमादित्य मार्ग स्थित बंगले से बाहर कर दिया था और वह बेचारे कुछ भी नहीं कर पाये थे।
लेकिन नौवीं लोकसभा चुनाव में लखनऊ से चुनाव लड़े डा0 दास ने तो मुलायम सिंह को भी काफी पीछे छोड़ दिया। उन्होंने तो दैनिक जागरण जैसे अखबार में एडीटोरियल के स्थान पर एडवरटोरियल छपवाना शुरू कर दिया। वह भी एक दिन नहीं कई-कई दिन। उसकी शिकायत जब चुनाव आयोग से हुई और उसने जवाब-तलब किया तो सम्पादक महोदय खुद सामने आ गये कि यह सब उन्होने स्वंय अपनी कलम से लिखा है, जबकि लिखने-पढ़ने से उन सम्पादक महोदय का दूर-दूर से भी कोई नाता नहीं था। पैसे में कितना जोर होता है यह अखबार वालों को डा0 दास ने पत्रकारिता में तो दिखा ही दिया, लेकिन वे लखनऊ की गरीब और मूर्ख जनता को नहीं खरीद पाये। डा0 दास को शायद पता नहीं कि दुनिया में हर चीज बिकाऊ नहीं है एवं जिसे वे खरीद रहे हैं वे दगे बम हैं, जो केवल फुस्स हो सकते हैं, धमाके के साथ विस्फोट नहीं कर सकते।
क्या कहा जाये यह तो खरीददार की अपनी पसन्द और बुद्धि पर निर्भर करता है कि वह क्या और कितने में खरीद सकने की हैसियत रखता है। आखिरकार जो लोग डायमण्ड नहीं खरीद सकते उन्हीं के लिए तो अमेरिकन डायमण्ड बना है। यही वजह है कि मुलायम सिंह ने अमेरिकन डायमण्ड खरीदे। वह डायमण्ड पहचान ही नहीं पाये। पैसे से आप चाटुकार खरीदेंगे तो फिर भला कहॉं से होगा। हमें भी अपनी कलम पर बहुत नाज है और इसे अच्छे दामों पर अच्छे काम के लिए, बेचना नहीं चाहते, केवल लीज पर देना चाहते हैं, जिसके लिए सीलबन्द ग्लोबल टेण्डर आमंत्रित हैं। टेण्डरर विदेशी हो तो अति उत्तम क्योंकि उसके द्वारा दिया गया धन विदेशी पूंजी निवेश माना जायेगा और उसका क्रेडिट भारत के प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह के खाते में चला जायेगा तथा प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में जिसमें अभी तक अमेरीका सीधी-सीधी घुसपैठ नहीं कर पाया है, हम जैसों की भागीदारी से सीधे घुस जायेगा।
वैसे भी वर्तमान में तो ‘विवेकाधीन कोष’ से खैरात बंटनी नहीं है। अभी तो सरकारी मान्यता के ही लाले पड़े हुए हैं। इसी को बचाने और कैंसिल कराने में जी तोड़ मेहनत, चुगली, गुटबाजी और ना जाने क्या-क्या नहीं करना पड़ रहा है। कुल मिलाकर सरकार से खफा है, मीडिया। हमारे पास वह कलम है जो कहिए तो स्व0 नेहरू को चोर सिद्ध कर दे, मृत फूलन देवी को देवी और डा0 मनमोहन सिंह को अब तक रहे समस्त प्रधानमंत्री में सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दे तथा लालकृष्ण आडवाणी को सिंध (पाकिस्तान) का एजेन्ट! हमारी कलम ठीक भारतीय पुलिस की तरह काम करती है। निर्दोष को आतंकवादी और आतंकवादी को निर्दोष करार दे दे। बलात्कार के केस में 7 साल के बच्चे को बन्द कर दे और तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार दिखाकर 95 वर्ष के बुजुर्ग को सलाखों के पीछे।
हम इसी दस रूपये की कलम से डा0 मनमोहन सिंह को महान देशभक्त बता सकते हैं और इसी से वर्ल्ड बैंक का एजेन्ट। इसी कलम से ‘वर्ल्ड बैंक’ को विश्व की विकास रूपी रेलगाड़ी का इंजन बता सकते हैं और इसी से विश्व का ‘कैक्टस’ सिद्ध कर सकते हैं। हॉं, तो जनाब इस दस रूपये की कलम को लीज पर लेना चाहते हैं तो सम्पर्क कीजिए। हम भी महलों में रहना चाहते हैं ‘‘रायल्स रायस फैण्टम’ पर घूमना चाहते हैं, लुफ्ताहांसा से नदी नाले पहाड़ देखना चाहते हैं, फाइव स्टार होटल में रुकना और मजा करना चाहते हैं। फाइव स्टार ‘होटल ताज’ में खाना खाने का शौक तो मा0 मुख्यमंत्री मायावती जी ने पूरा करा ही दिया है। यह बात अलग है कि उन्होंने ‘प्रेस कान्फ्रेन्स’ ताज में आयोजित कर प्रेस को कईएक बार भोजन तो कराया, लेकिन प्रेस वालों के साथ भोजन कभी नहीं किया। हम लोगों ने कुत्तों की ही तरह खाना खाया होगा। वैसे भी हमारी बिरादरी को ‘‘वाच डॉग’’ कहा जाता है और ‘वाच’ वाली स्थिति न्यायालय द्वारा डीएनए जॉंच के लिए ब्लड सेम्पिल देने से इन्कार करने वाले एवं उ0प्र0 राज्य के तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहने वाले पंडित नारायण दत्त तिवारी ने ‘प्रेस क्लब’ में ‘सब्सीडाइज्ड रेट’ पर बिरयानी और पैग उपलब्ध कराकर समाप्त कर ही दी थी।
उसी परम्परा को अन्त तक अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के मित्र एवं उ0प्र0 के तीन बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भी जारी रखा। बल्कि उन्होंने तो ‘सब्सिडी’ की जगह पूरा का पूरा अनुदान देने की ही व्यवस्था कर दी, वह भी लाखों और करोडों में। इसके बाद कैसा वाच?  अब तो केवल डाग बचा है और डाग को अगर कुत्ते की तरह ना खिलाया जाये तो क्या किया जाये। इसमें उ0प्र0 की मुख्यमंत्री मायावती का काई दोष नहीं है जिस मीडिया ने हमेशा देशी कुते की भॉंति उनके ऊपर भूंका ही भूंका है, तो उसे भोज दिया जाता है, यही बहुत बड़ी बात है।
क्या रखा है इस दस़ रुपये की कलम में, जिसे वर्तमान युग में विपन्नता की निशानी माना जाता है। इससे जिन्दगी केवल ‘डाग’ की तरह ही गुजर सकती है। वैसे भी आजकल ‘वाच डाग’ की जरूरत किसे है? और केवल डाग की तरह जीने से फायदा ही क्या? इससे तो बेहतर है ‘शो-डाग’ की तरह ही हम भी जियें, जो भूंकते भी हैं तो लगता है कि मुर्गे की आवाज वाली कॅालबेल बज रही है। वैसे अब तो इसकी जगह भी अमेरीका से आयतित ‘एण्टी बर्गलरी एलार्म बेल’ ने ले ली है।


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हमारी इस दस रुपये की कलम से आप क्या-क्या कमाल चाहते हैं ? हम अपनी कलम का इस्तेमाल ए0के0-47 की तरह भी कर सकते हैं और मक्खन-मलाई की तरह भी। इसी कलम से हम पाकिस्तान में अमेरिका द्वारा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मारे जाने का दावा करने वाले प्रेसीडेन्ट ओबामा का भरपूर साथ भी दे सकते हैं और इसी कलम से यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि यह एक फर्जी एनकाउन्टर था, तथा विश्व के सबसे बड़े एनकाउन्टर स्पेशलिस्ट ओबामा ही हैं, जो अमेरिका स्थित व्हाइट हाऊस में बैठे लादेन के लाइव एनकाउन्टर का मजा़ ले रहे थे। ऐसी खूबी किसी दूसरी चीज में आपको कहां से मिलेगी?
सतीश प्रधान