भारतवर्ष में सरकण्डे की कलम से लेकर मिस्टर फाउण्टेन द्वारा ईजाद की गई फाउण्टेन पेन का प्रयोग मॉण्टेसरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों एवं प्रधानमंत्री कार्यालय तक बखूबी होता था, लेकिन व्यावसायिकता की अंधी दौड़ ने देशी इस्तेमाल की वस्तुओं पर ग्रहण लगा दिया और विदेशी वस्तुओं से भारत के बाजार पट ही नहीं गये, अपितु अभिजात्य वर्ग का कलम माना जाने वाला पार्कर पेन, सुपरस्टार महानायक अमिताभ बच्चन के प्रचार के कारण आम व्यक्ति का कलम ही नहीं बन गया, अपितु स्टेट्स सिम्बल भी बन गया है।
सरकण्डे की कलम तो अब ‘एन्टिक आइटम’ भी नहीं रह गई है। इसकी जगह वातानुकूलित बाजार (शॉपिंग मॉल) में बिकने वाली जेल पेन ने लिया है, लेकिन सरकण्डे की कलम और एडजेल, फ्लेयर, लक्सर, पायलट, विल्सन, रेनॉल्ड, रोटोमैक, पार्कर से लिखे गये राइट-अप का दृश्यावलोकन करें तो बाजी सरकण्डे की कलम (सस्ती पेन) ही मारेगी। लेकिन समय के बदलते चक्र में सरकण्डे की कलम महत्वहीन और आर्थिक विपन्नता की निशानी बनकर रह गई है, जबकि शर्ट की जेब में लगी एडजेल, पार्कर, फ्लेयर, लक्सर, विल्सन, पायलट, रेनॉल्ड अथवा रोटोमैक सामने देखने वाले पर ‘एरिस्टोक्रेसी’ की छाप छोड़ती है। ऐसी मानसिकता बन गई है हमारे भारत के सभ्य और सुसंस्कृत समाज की।
जबकि सच्चाई ठीक इसके विपरीत यह है, कलम की बनावट, उसके स्वरूप और चमक-दमक का कलम की धार से कोई सरोकार नहीं है। कलम तो वह है जो कसूरवार का सिर कलम करवा दे और बेकसूर को निर्दोष सिद्ध कर दे। कलम के इसी कमाल पर शायद यह कहावत प्रचलित हुई है कि-‘‘खींचो न कमान को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। यह कहावत जब बनी थी,तब इसकी धार ढ़ाल का काम नहीं करती थी, अखबार-मालिक के गलत धन्धों को बचाने के लिए भी इसका इस्तेमाल नहीं होता था। इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति विशेष की छवि जानबूझकर खराब करने अथवा सरकार को बनाने और बिगाड़ने में भी नहीं होता था। अखबार का मतलब चिकने ग्लेज्ड़ कागज पर बिपाशा बसु, मल्लिका शेरावत, मर्लिन मुनरो और राखी सावंत की रंगीन फोटो छापने वाले अखबार से भी नहीं है। इसका मतलब स्क्रीन, स्टार डस्ट, डेबोनियर, प्लेब्वाय, पेन्ट हाऊस अथवा ऊई से भी नहीं है।
कलम का मतलब गांधी जी के स्वराज टाइम्स, गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘दैनिक गणेश,बालक गंगाधर तिलक तथा विष्णुकृष्ण चिपलोंकर के ‘केसरी’, गोपाल गणेश अगरक के ‘सुधाकर’,लाला लाजपत राय के वन्देमातरम, वीरेन्द्र कुमार घोष के युगान्तर, राघव चारी के ‘हिन्दू’,से है। अलावा इसके ब्लाक एवं जिलों से छपने वाले उन छोटे-छोटे गिने-चुने समाचार-पत्रों से भी है जो अपनी प्रमुख खबर ग्राम व जिले स्तर की समस्या को बनाते हैं ना कि इंग्लैण्ड में आयोजित होने वाले फैशन शो अथवा विश्व बैंक की विदेश नीति को।
कलम को बिकते तो हम ता जमाने से देखते आ रहे हैं, लेकिन उसकी लिखावट बिकते नहीं देखी थी। इसकी शुरूआत भी पश्चिमी जगत से हुई है, वे कलम और कलम की लिखावट दोनों को खरीदने और बेचने का काम करते हैं। आप देख सकते हैं कि रूश्दी की कलम किस हद तक खरीदी गई। किस तरह एक मुस्लिम (रूश्दी)की कलम पूरे मुस्लिम समुदाय के विरूद्ध इस्तेमाल की गई। अंग्रेज सब कुछ बेचता-खरीदता है, लेकिन अपना वतन नहीं बेचता, बल्कि वतन के लिए स्वयं को बेचने को तैयार रहता है, जबकि भारत का व्यक्ति सबसे पहले अपना वतन बेचता है। यह अन्तर है हम में और अंग्रेज में। भारत में कलम बिकने की शुरूआत विज्ञापन की आयतित तकनीक के साथ शुरू हुई थी। कलम के धनी लोगों ने विज्ञापन का ‘कापी-राइट’ लिखना शुरू कर दिया, जिसके बदले उन्हें इतना पैसा मिलने लगा कि यदि वह किसी अखबार में पूरे वर्ष सम्पादकीय लिखते तो भी नहीं पाते। यही वजह है कि ब्लिट्ज के प्रकाशक एवं सम्पादक, श्री आर0के0 करंजिया अखबार को दर किनार कर विज्ञापन की दुनिया में ही समा गये और फिर पता ही नहीं लगा कि कहां चले गये। वर्तमान में तो हालत यह है कि अब टाइम्स आफ इण्डिया जैसे अखबार अपने यहॉं एडीटर की जगह एडीटर लखनऊ मार्केट रखते हैं। अब अख़बार सोशल रिफार्म की जगह मार्केट एक्सप्लोर करने का प्रोडक्ट होकर रह गये है।
अखबार को अभिजात्य वर्ग का ‘ब्रेक-फास्ट’ समझने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव वर्ष 1990 में यह कहते नहीं अघाते थे कि उनका मतदाता बिना पढ़ा-लिखा है, गॉंव में रहता है, गरीब है और अखबार नहीं पढ़ता, इसलिए अखबार वाले जो मर्जी आये छापें उनकी सेहत पर काई असर नहीं पड़ता। उसी मुख्यमंत्री ने 1991 में सत्ता से हटने के बाद और पुनः सत्ता प्राप्त करने के मध्य व्यतीत समय में अखबारों के महत्व को इतना जाना-पहचाना कि दोबारा सत्ता में आते ही बडे़-बड़े अखबार मालिकों को खरीदने के साथ-साथ दसियों अखबारों के सम्पादक, सैकड़ों संवाददाताओं और फोटोग्राफरों, और तो और हाकरों तक को खरीद डाला, और उनका पेट इतना भर दिया कि खाते-खाते उन्हें अपच हो गई। उनका सारा शरीर गन्दा और मन कुचैला हो गया, जिसकी गन्दगी का दाग शायद वह इस जिन्दगी तो ना ही छुड़ा पायें। पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने विवेकाधीन कोष का ऐसा बेजोड़ इस्तेमाल किया जो केवल अंग्रेज बहादुर ही करता था।
अंग्रेज बहादुर भी जब भारत में राज करता था तो उन हिन्दुस्तानियों को सरकारी खजाने से ‘मानदेय’ देता था जो अपने भाई हिन्दुस्तानियों के साथ गद्दारी करते थे। मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से वितरित की गई करोड़ों की धनराशि उसी मानदेय की विकृत ‘रिफाइण्ड तस्वीर’ है। पूर्व मुख्यमंत्री ने सबसे अधिक धन जिस दलाल को दिया, उसे वर्तमान में पत्रकार कहा जाता है, दूसरी तरफ जिन पत्रकारों को लाखों की धनराशि विवेकाधीन कोष से दी उसे अब दलाल कहा जाता है। लखनऊ के एक अखबार के मालिक को अलग, उसकी पत्नी को अलग और उसके संस्थान को अलग धन दिया गया। विवेकाधीन कोष से केवल इसी पत्रकार को करीब एक करोड़ रूपये से ऊपर की धनराशि दी गई, जबकि उसके पास न तो रामनाथ गोयनका की कलम थी, ना ही अरूण शौरी, अथवा अश्वनी कुमार की कलम। एक दूसरे प्रधान सम्पादक, अब दिवंगत, को भी पचास लाख की धनराशि दी गई, जबकि उन साहब की कलम पर तो प्रदेश के भूतपूर्व शक्तिशाली मंत्री रहे डा0 सजय सिंह ने उन्हें लात मारकर विक्रमादित्य मार्ग स्थित बंगले से बाहर कर दिया था और वह बेचारे कुछ भी नहीं कर पाये थे।
लेकिन नौवीं लोकसभा चुनाव में लखनऊ से चुनाव लड़े डा0 दास ने तो मुलायम सिंह को भी काफी पीछे छोड़ दिया। उन्होंने तो दैनिक जागरण जैसे अखबार में एडीटोरियल के स्थान पर एडवरटोरियल छपवाना शुरू कर दिया। वह भी एक दिन नहीं कई-कई दिन। उसकी शिकायत जब चुनाव आयोग से हुई और उसने जवाब-तलब किया तो सम्पादक महोदय खुद सामने आ गये कि यह सब उन्होने स्वंय अपनी कलम से लिखा है, जबकि लिखने-पढ़ने से उन सम्पादक महोदय का दूर-दूर से भी कोई नाता नहीं था। पैसे में कितना जोर होता है यह अखबार वालों को डा0 दास ने पत्रकारिता में तो दिखा ही दिया, लेकिन वे लखनऊ की गरीब और मूर्ख जनता को नहीं खरीद पाये। डा0 दास को शायद पता नहीं कि दुनिया में हर चीज बिकाऊ नहीं है एवं जिसे वे खरीद रहे हैं वे दगे बम हैं, जो केवल फुस्स हो सकते हैं, धमाके के साथ विस्फोट नहीं कर सकते।
क्या कहा जाये यह तो खरीददार की अपनी पसन्द और बुद्धि पर निर्भर करता है कि वह क्या और कितने में खरीद सकने की हैसियत रखता है। आखिरकार जो लोग डायमण्ड नहीं खरीद सकते उन्हीं के लिए तो अमेरिकन डायमण्ड बना है। यही वजह है कि मुलायम सिंह ने अमेरिकन डायमण्ड खरीदे। वह डायमण्ड पहचान ही नहीं पाये। पैसे से आप चाटुकार खरीदेंगे तो फिर भला कहॉं से होगा। हमें भी अपनी कलम पर बहुत नाज है और इसे अच्छे दामों पर अच्छे काम के लिए, बेचना नहीं चाहते, केवल लीज पर देना चाहते हैं, जिसके लिए सीलबन्द ग्लोबल टेण्डर आमंत्रित हैं। टेण्डरर विदेशी हो तो अति उत्तम क्योंकि उसके द्वारा दिया गया धन विदेशी पूंजी निवेश माना जायेगा और उसका क्रेडिट भारत के प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह के खाते में चला जायेगा तथा प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में जिसमें अभी तक अमेरीका सीधी-सीधी घुसपैठ नहीं कर पाया है, हम जैसों की भागीदारी से सीधे घुस जायेगा।
वैसे भी वर्तमान में तो ‘विवेकाधीन कोष’ से खैरात बंटनी नहीं है। अभी तो सरकारी मान्यता के ही लाले पड़े हुए हैं। इसी को बचाने और कैंसिल कराने में जी तोड़ मेहनत, चुगली, गुटबाजी और ना जाने क्या-क्या नहीं करना पड़ रहा है। कुल मिलाकर सरकार से खफा है, मीडिया। हमारे पास वह कलम है जो कहिए तो स्व0 नेहरू को चोर सिद्ध कर दे, मृत फूलन देवी को देवी और डा0 मनमोहन सिंह को अब तक रहे समस्त प्रधानमंत्री में सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दे तथा लालकृष्ण आडवाणी को सिंध (पाकिस्तान) का एजेन्ट! हमारी कलम ठीक भारतीय पुलिस की तरह काम करती है। निर्दोष को आतंकवादी और आतंकवादी को निर्दोष करार दे दे। बलात्कार के केस में 7 साल के बच्चे को बन्द कर दे और तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार दिखाकर 95 वर्ष के बुजुर्ग को सलाखों के पीछे।
हम इसी दस रूपये की कलम से डा0 मनमोहन सिंह को महान देशभक्त बता सकते हैं और इसी से वर्ल्ड बैंक का एजेन्ट। इसी कलम से ‘वर्ल्ड बैंक’ को विश्व की विकास रूपी रेलगाड़ी का इंजन बता सकते हैं और इसी से विश्व का ‘कैक्टस’ सिद्ध कर सकते हैं। हॉं, तो जनाब इस दस रूपये की कलम को लीज पर लेना चाहते हैं तो सम्पर्क कीजिए। हम भी महलों में रहना चाहते हैं ‘‘रायल्स रायस फैण्टम’ पर घूमना चाहते हैं, लुफ्ताहांसा से नदी नाले पहाड़ देखना चाहते हैं, फाइव स्टार होटल में रुकना और मजा करना चाहते हैं। फाइव स्टार ‘होटल ताज’ में खाना खाने का शौक तो मा0 मुख्यमंत्री मायावती जी ने पूरा करा ही दिया है। यह बात अलग है कि उन्होंने ‘प्रेस कान्फ्रेन्स’ ताज में आयोजित कर प्रेस को कईएक बार भोजन तो कराया, लेकिन प्रेस वालों के साथ भोजन कभी नहीं किया। हम लोगों ने कुत्तों की ही तरह खाना खाया होगा। वैसे भी हमारी बिरादरी को ‘‘वाच डॉग’’ कहा जाता है और ‘वाच’ वाली स्थिति न्यायालय द्वारा डीएनए जॉंच के लिए ब्लड सेम्पिल देने से इन्कार करने वाले एवं उ0प्र0 राज्य के तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहने वाले पंडित नारायण दत्त तिवारी ने ‘प्रेस क्लब’ में ‘सब्सीडाइज्ड रेट’ पर बिरयानी और पैग उपलब्ध कराकर समाप्त कर ही दी थी।
उसी परम्परा को अन्त तक अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के मित्र एवं उ0प्र0 के तीन बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भी जारी रखा। बल्कि उन्होंने तो ‘सब्सिडी’ की जगह पूरा का पूरा अनुदान देने की ही व्यवस्था कर दी, वह भी लाखों और करोडों में। इसके बाद कैसा वाच? अब तो केवल डाग बचा है और डाग को अगर कुत्ते की तरह ना खिलाया जाये तो क्या किया जाये। इसमें उ0प्र0 की मुख्यमंत्री मायावती का काई दोष नहीं है जिस मीडिया ने हमेशा देशी कुते की भॉंति उनके ऊपर भूंका ही भूंका है, तो उसे भोज दिया जाता है, यही बहुत बड़ी बात है।
क्या रखा है इस दस़ रुपये की कलम में, जिसे वर्तमान युग में विपन्नता की निशानी माना जाता है। इससे जिन्दगी केवल ‘डाग’ की तरह ही गुजर सकती है। वैसे भी आजकल ‘वाच डाग’ की जरूरत किसे है? और केवल डाग की तरह जीने से फायदा ही क्या? इससे तो बेहतर है ‘शो-डाग’ की तरह ही हम भी जियें, जो भूंकते भी हैं तो लगता है कि मुर्गे की आवाज वाली कॅालबेल बज रही है। वैसे अब तो इसकी जगह भी अमेरीका से आयतित ‘एण्टी बर्गलरी एलार्म बेल’ ने ले ली है।
हमारी इस दस रुपये की कलम से आप क्या-क्या कमाल चाहते हैं ? हम अपनी कलम का इस्तेमाल ए0के0-47 की तरह भी कर सकते हैं और मक्खन-मलाई की तरह भी। इसी कलम से हम पाकिस्तान में अमेरिका द्वारा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मारे जाने का दावा करने वाले प्रेसीडेन्ट ओबामा का भरपूर साथ भी दे सकते हैं और इसी कलम से यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि यह एक फर्जी एनकाउन्टर था, तथा विश्व के सबसे बड़े एनकाउन्टर स्पेशलिस्ट ओबामा ही हैं, जो अमेरिका स्थित व्हाइट हाऊस में बैठे लादेन के लाइव एनकाउन्टर का मजा़ ले रहे थे। ऐसी खूबी किसी दूसरी चीज में आपको कहां से मिलेगी?
सतीश प्रधान