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Tuesday, October 4, 2011

भारत के इण्डिया गेट पर स्पीड स्ट्रीट शो


          दिल्ली स्थित, भारत के राष्ट्रपति भवन और इण्डिया गेट के बीच का रास्ता, भारत की सत्ता का रेड कारपेट एरिया है। इस पथ पर 1 अक्टूबर 2011 को फॉर्मूला-1 रेस चैम्पियन टीम, रेड बुल के स्पीड स्ट्रीट शो का आयोजन हुआ। आयोजन से पूर्व सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये गये। राजपथ के दोनों ओर करीब साढ़े चार फुट ऊंची रेलिंग लगाई गई, जिसके पीछे खड़े होकर रफ्तार का लुत्फ उठाया जाना था। रेस में भले ही हमारे जीन्स ब्रिटिशर्स के विपरीत हों, लेकिन अपनी धरती पर हम यह दिखाने की भरपूर कोशिश करते हैं कि हमारी मानसिकता अपने ही भारतीयों के प्रति ब्रिटिर्शस से कम नहीं है। इसीलिए राजपथ के एक ओर आम लोगों के लिए और दूसरी ओर खास लोगों के लिए व्यवस्था की गई। दोनों ओर के प्रवेश द्वार पर मैटल डिटेक्टर भी लगाये गये।
          01अक्टूबर 2011 की दोपहर 12 बजे से ही राजपथ के दोनों ओर दर्शक एकत्र होने शुरू हो गये थे, जिनमें बच्चे, बूढ़े और नौजवान युवक- युवतियों की भरमार थी, जिनके चेहरों की चमक से ही इस शुरू के आयोजन का रोमांच साफ दिखाई दे रहा था। हजारों की भीड़ इसलिए भी एकत्र थी, क्योंकि उनमें से 90 प्रतिशत दर्शक 30 अक्टूबर को आयोजित होने वाली इण्डियन ग्राण्ड प्रिक्स, फॉर्मूला-1 रेस को टिकट लेकर देखने में समर्थ नहीं थे। चूंकि प्रिन्ट और इलैक्ट्रानिक मीडिया ने इस आयोजन को इतना प्रचारित कर दिया था कि सारी जनता को यह पता चल चुका था कि हिन्दुस्तान में फॉर्मूला-1 रेस, ग्रेटर नोएडा में पहली बार आयोजित होने जा रही है, जो इससे पूर्व विदेश में ही आयोजित हुआ करती थी।

शो दिन के 2 बजे शुरू हुआ। पहले मोटरसाइकिल सवारों और उसके बाद कार सवारों ने तेज रफ्तार के साथ कुछ हैरतअंगेज स्टंट भी दिखाए, फिर हिस्पेनिया टीम के आस्ट्रेलियाई ड्राइवर डेनियल रिकॉर्डो जलवा दिखाने मैदान पर उतरे। इन्हें झण्डी दिखाई भारत के केन्द्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकान्त सहाय ने। टोरो रोसो और रेड बुल के ड्राइवर डेनियल ने जैसे ही कार को स्पीड दी लोगों के रोमांच को भी स्पीड पकड़ते देर न लगी। देखते ही देखते डेनियल ने लगभग 270 से 280 किलोमीटर प्रतिघन्टे की स्पीड थाम कर दर्शकों के रोमांच को सिरहन में तब्दील कर दिया। इस आयोजन में रेड बुल का इवेन्ट पार्टनर भारत से प्रकाशित होने वाला एक हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र भी था।
सतीश प्रधान

बेल बॉण्ड के अभाव में लाखों बन्द हैं जेल में




          यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय जेलों में बंद कैदियों की संख्या का एक बड़ा हिस्सा उन कैदियों का है, जो सिर्फ इस कारण सलाखों के पीछे है क्योंकि वे अदालतों द्वारा निर्धारित जमानत की राशि का बॉण्ड भरने में सक्षम नहीं हैं। उनके अपराध की प्रकृति उन्हें समाज में वापस जाने की अनुमति देने के साथ ही उन्हें अपराध साबित होने तक अदालत सामान्य जीवन-बसर करने की इजाजत देती है, लेकिन वे कभी इस योग्य हो ही नहीं पाते कि अदालत द्वारा निर्धारित जमानत की राशि बॉण्ड के रूप में जमा करा सकें। नतीजतन वर्षों से सलाखों के पीछे वे अपने बेगुनाह होने का इंतजार ही करते रहते हैं, जबकि अमीर व सुविधा संपन्न व्यक्ति बड़े से बड़ा गुनाह करने के बाद भी बडे आराम से खुले में विचरण करता नज़र आता है। 
          ऐसा ही उदाहरण देखने को मिला, दिल्ली स्थित तिहाड़ जेल में, जहॉं 2-जी स्पैक्ट्रम के आरोपी भारत के निवर्तमान केन्द्रीयमंत्री ए.राजा बन्द हैं। उन्हें एक ऐसा कैदी मिला जो पिछले कई सालों से मात्र 20 हजार रुपये बॉण्ड के लिए न हो पाने के कारण जेल से मुक्त नहीं हो पा रहा था। राजा ने जब सुना कि उसकी प्रजा मात्र 20 हजार रुपये के अभाव के कारण जेल में बन्द है तो उनका दिल पसीज गया और उन्होंने बीस हजार रुपये उस कैदी को दिये, और सच मानिए वह कैदी उन रुपये से बॉण्ड भरकर जेल से मुक्ति पा गया। अब इसका सबाब तो ए.राजा को ऊपर वाला निश्चित रूप से देगा ही।
          सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे ही मामलों को देखकर एक समय कहा था कि हमारे मुल्क में जमानत का प्रचलित तरीका गरीबों को सताने और उनके प्रति भेदभाव करने वाला है, क्योंकि गरीब अपनी गरीबी के कारण जमानतराशि जुटाने के काबिल ही नहीं है। इसी पर उसने एक आदेश में कहा था कि अदालतें यह भूल जाती हैं कि गरीब व अमीर को जमानत देने में उनकी हैसियत का कितना बडा रोल होता है। इन दोनों को जमानत के मामले में बराबर समझकर अदालतें गरीब व अमीर में असमानता ही पैदा नहीं कर रही हैं अपितु गरीबों के साथ एक तरह से भेदभाव और अन्याय भी कर रही हैं।
          अदालतों को चाहिए कि वे सिर्फ मुजरिम के जुर्म की संगीनता के आधार पर कोई फैसला नहीं सुनायें। वे अभियुक्त की माली हालत और उसके नाम को ध्यान में रखकर भी अपना निर्णय दें। वहीं पुलिस को जमानतियों के साथ बॉण्ड भरने पर रिहाई मंजूर करने के घिसे-पिटे तरीके को छोड़ देना चाहिए। उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि अभियुक्त समाज से जुड़ा व्यक्ति है, उसके भाग जाने का कोई खास खतरा नहीं है। उसे चाहिए कि वह गरीब लोगों को निजी बॉण्ड पर, बिना रुपए-पैसे की देनदारी पैदा किये रिहा कर दे। इससे गरीबों में कानून के प्रति न सिर्फ सम्मान बढ़ेगा बल्कि वे छोटे-मोटे अपराधों में भगोड़ा होने से भी बच जाऐंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कोई पालन आजतक होता नहीं दिखाई देता।
          गौरतलब है कि सीआरपीसी संशोधन-2005 में भगोड़ों के लिए अलग से मामला चलाये जाने का प्राविधान लाया गया है, क्योंकि यह देखा गया है कि अक्सर व्यक्ति सजा व जेल से बचने के लिए भाग जाता है। ऐसे मामले ज्यादातर गरीब व सुविधाहीन लोगों में पाये गये हैं। सुविधा सम्पन्न पैसों के बल पर अग्रिम जमानत ले लेते हैं, वह भी बडे आराम से। वहीं गरीबों में इस बात का भय होता है कि पुलिस उसे पकड कर जेल में बन्द कर देगी क्योंकि वह अग्रिम जमानत नहीं ले सकता। वह जानता है कि पुलिस के हत्थे चढ़ने के बाद मुकदमे का निर्णय आने तक वह जेल से बाहर नहीं आ सकता, इसीलिए वह भाग जाता है। यदि अदालत उन्हें सरकारी वकील दे देती हैं और वह उनकी जमानत करवा भी देता है, तो भी वे जमानत के पैसे एकत्र करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं। वहीं दूसरी ओर उनके जेल चले जाने से उनका पूरा परिवार दाने-दाने को मोहताज हो तितर-बितर हो जाता है।
           सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि भगोड़ों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करने से कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा। हाँ, यदि गरीबों में यह विश्वास पैदा कर दिया जाए कि अदालत उनमें और अमीरों में कोई भेदभाव नहीं करेंगी तो स्थिति में कुछ सुधार संभव है। विधि विशेषज्ञों ने भारतीय दंड संहिता व आपराधिक प्रक्रिया दंड संहिता में इस बात का खास ख्याल रखा था। भारतीय दंड संहिता पाठ 33 की धारा-436 से 450 तक जमानत से संबंधित है। इसमें जमानत के उद्देश्य से लेकर अपराध की प्रकृति के अनुरूप आरोपी को मिलने वाले लाभ की चर्चा की गई है। इसके अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को उस पर मुकदमें का फैसला होने तक कानूनी हिरासत से रिहा करने को जमानत कहते हैं। इसके लिए आरोपी को अदालत में एक अर्जी लगाकर गुहार लगानी पड़ती है। धारा-437(1) व 439(1) में कहा गया है कि जमानत की अर्जी पर अदालतें अपनी सूझ-बूझ पर फैसला देंगी। इसके तहत न्यायाधीष को परिस्थितियों का अध्ययन करना चाहिए जिसके कारण अपराध हुआ है। आरोपी के भागने की संभावना का ध्यान रखना चाहिए। साक्ष्य को प्रभावित करने की संभावना, मुकदमे का इतिहास एवं जांच पड़ताल की गति का अध्ययन करना चाहिए।
          यदि अपराध की प्रकृति धारा-437(2) के अनुरूप है तो उसे विशेष शर्तों पर रिहा किया जा सकता है। यह शर्त पासपोर्ट जमा करना, अदालत की इजाजत के बिना भारत से बाहर नहीं जाना और साक्ष्य को प्रभावित नहीं करना हो सकता है। वहीं धारा-442 के तहत जज अभियुक्त की रिहाई का आदेश जारी कर सकता है। जमानती मुचलके की स्थिति में अभियुक्त द्वारा पेश जमानती को अदालत मानने से कभी इंकार नहीं कर सकती बशर्ते जमानती की आयु 18 वर्ष से ऊपर हो, उसके पास स्थायी पते का साक्ष्य हो और सभी कर्जों को चुकाने के बाद वह जमानत की राशि चुका पाने के योग्य हो। साथ ही कानून में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि यदि कोई आरोपी जमानत लेने के बाद अदालत द्वारा लगाई पाबंदियों को तोड़ता है तो उसका बेल बॅाण्ड जब्त किया जा सकता है। धारा-446 के तहत उसे अदालत जुर्माना भरने को कह सकती है। धारा-446(3) के तहत अदालत जुर्माने की रकम को कम कर सकती है या उसे किस्तों में बांट सकती है।
          आरोपी से मतभेद होने पर जमानती धारा-444(1) के तहत जमानती बॉण्ड वापस लेने की अर्जी दे सकता है। ऐसी स्थिति में अदालत धारा-444(2) के तहत आरोपी को सम्मन कर सकती है और गिरफ्तारी का आदेश भी दे सकती है या धारा-446(क) के तहत नए जमानती से बॉण्ड भरवाया जा सकता है। यह अदालत के अपने विवेक पर निर्भर करता है कि वह अभियुक्त के साथ कैसा बरताव करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में इस बात को इंगित भी किया है कि उस वक्त तक कानून अपने आप में पर्याप्त नहीं है जब तक कि उसे लागू करने वाला अपने विवेक का समुचित प्रयोग न करे। उनके अनुसार कानून के महत्व को जोखिम में डाले बगैर जमानत के तरीके में मुकम्मल सुधार होना चाहिए ताकि गरीब के लिए भी यह मुमकिन हो सके कि वह मुकदमा शुरू होने से पहले अमीरों की तरह आसानी से रिहाई हासिल कर सके और भगोड़ा न बने। 
सतीश प्रधान

Saturday, October 1, 2011

पेन इज माइटर देन सोर्ड़् (Sword)



भारतवर्ष में सरकण्डे की कलम से लेकर मिस्टर फाउण्टेन द्वारा ईजाद की गई फाउण्टेन पेन का प्रयोग मॉण्टेसरी स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों एवं प्रधानमंत्री कार्यालय तक बखूबी होता था, लेकिन व्यावसायिकता की अंधी दौड़ ने देशी इस्तेमाल की वस्तुओं पर ग्रहण लगा दिया और विदेशी वस्तुओं से भारत के बाजार पट ही नहीं गये, अपितु अभिजात्य वर्ग का कलम माना जाने वाला पार्कर पेन, सुपरस्टार महानायक अमिताभ बच्चन के प्रचार के कारण आम व्यक्ति का कलम ही नहीं बन गया, अपितु स्टेट्स सिम्बल भी बन गया है।
सरकण्डे की कलम तो अब ‘एन्टिक आइटम’ भी नहीं रह गई है। इसकी जगह वातानुकूलित बाजार (शॉपिंग मॉल) में बिकने वाली जेल पेन ने लिया है, लेकिन सरकण्डे की कलम और एडजेल, फ्लेयर, लक्सर, पायलट, विल्सन, रेनॉल्ड, रोटोमैक, पार्कर से लिखे गये राइट-अप का दृश्यावलोकन करें तो बाजी सरकण्डे की कलम (सस्ती पेन) ही मारेगी। लेकिन समय के बदलते चक्र में सरकण्डे की कलम महत्वहीन और आर्थिक विपन्नता की निशानी बनकर रह गई है, जबकि शर्ट की जेब में लगी एडजेल, पार्कर, फ्लेयर, लक्सर, विल्सन, पायलट, रेनॉल्ड अथवा रोटोमैक सामने देखने वाले पर ‘एरिस्टोक्रेसी’ की छाप छोड़ती है। ऐसी मानसिकता बन गई है हमारे भारत के सभ्य और सुसंस्कृत समाज की।
जबकि सच्चाई ठीक इसके विपरीत यह है, कलम की बनावट, उसके स्वरूप और चमक-दमक का कलम की धार से कोई सरोकार नहीं है। कलम तो वह है जो कसूरवार का सिर कलम करवा दे और बेकसूर को निर्दोष सिद्ध कर दे। कलम के इसी कमाल पर शायद यह कहावत प्रचलित हुई है कि-‘‘खींचो न कमान को, न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। यह कहावत जब बनी थी,तब इसकी धार ढ़ाल का काम नहीं करती थी, अखबार-मालिक के गलत धन्धों को बचाने के लिए भी इसका इस्तेमाल नहीं होता था। इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति विशेष की छवि जानबूझकर खराब करने अथवा सरकार को बनाने और बिगाड़ने में भी नहीं होता था। अखबार का मतलब चिकने ग्लेज्ड़ कागज पर बिपाशा बसु, मल्लिका शेरावत, मर्लिन मुनरो और राखी सावंत की रंगीन फोटो छापने वाले अखबार से भी नहीं है। इसका मतलब स्क्रीन, स्टार डस्ट, डेबोनियर, प्लेब्वाय, पेन्ट हाऊस अथवा ऊई से भी नहीं है।
कलम का मतलब गांधी जी के स्वराज टाइम्स, गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘दैनिक गणेश,बालक गंगाधर तिलक तथा विष्णुकृष्ण चिपलोंकर के ‘केसरी’, गोपाल गणेश अगरक के ‘सुधाकर’,लाला लाजपत राय के वन्देमातरम, वीरेन्द्र कुमार घोष के युगान्तर, राघव चारी के ‘हिन्दू’,से है। अलावा इसके ब्लाक एवं जिलों से छपने वाले उन छोटे-छोटे गिने-चुने समाचार-पत्रों से भी है जो अपनी प्रमुख खबर ग्राम व जिले स्तर की समस्या को बनाते हैं ना कि इंग्लैण्ड में आयोजित होने वाले फैशन शो अथवा विश्व बैंक की विदेश नीति को।
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कलम को बिकते तो हम ता जमाने से देखते आ रहे हैं, लेकिन उसकी लिखावट बिकते नहीं देखी थी। इसकी शुरूआत भी पश्चिमी जगत से हुई है, वे कलम और कलम की लिखावट दोनों को खरीदने और बेचने का काम करते हैं। आप देख सकते हैं कि रूश्दी की कलम किस हद तक खरीदी गई। किस तरह एक मुस्लिम (रूश्दी)की कलम पूरे मुस्लिम समुदाय के विरूद्ध इस्तेमाल की गई। अंग्रेज सब कुछ बेचता-खरीदता है, लेकिन अपना वतन नहीं बेचता, बल्कि वतन के लिए स्वयं को बेचने को तैयार रहता है, जबकि भारत का व्यक्ति सबसे पहले अपना वतन बेचता है। यह अन्तर है हम में और अंग्रेज में। भारत में कलम बिकने की शुरूआत विज्ञापन की आयतित तकनीक के साथ शुरू हुई थी। कलम के धनी लोगों ने विज्ञापन का ‘कापी-राइट’ लिखना शुरू कर दिया, जिसके बदले उन्हें इतना पैसा मिलने लगा कि यदि वह किसी अखबार में पूरे वर्ष सम्पादकीय लिखते तो भी नहीं पाते। यही वजह है कि ब्लिट्ज के प्रकाशक एवं सम्पादक, श्री आर0के0 करंजिया अखबार को दर किनार कर विज्ञापन की दुनिया में ही समा गये और फिर पता ही नहीं लगा कि कहां चले गये। वर्तमान में तो हालत यह है कि अब टाइम्स आफ इण्डिया जैसे अखबार अपने यहॉं एडीटर की जगह एडीटर लखनऊ मार्केट रखते हैं। अब अख़बार सोशल रिफार्म की जगह मार्केट एक्सप्लोर करने का प्रोडक्ट होकर रह गये है।
अखबार को अभिजात्य वर्ग का ‘ब्रेक-फास्ट’ समझने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव वर्ष 1990 में यह कहते नहीं अघाते थे कि उनका मतदाता बिना पढ़ा-लिखा है, गॉंव में रहता है, गरीब है और अखबार नहीं पढ़ता, इसलिए अखबार वाले जो मर्जी आये छापें उनकी सेहत पर काई असर नहीं पड़ता। उसी मुख्यमंत्री ने 1991 में सत्ता से हटने के बाद और पुनः सत्ता प्राप्त करने के मध्य व्यतीत समय में अखबारों के महत्व को इतना जाना-पहचाना कि दोबारा सत्ता में आते ही बडे़-बड़े अखबार मालिकों को खरीदने के साथ-साथ दसियों अखबारों के सम्पादक, सैकड़ों संवाददाताओं और फोटोग्राफरों, और तो और हाकरों तक को खरीद डाला, और उनका पेट इतना भर दिया कि खाते-खाते उन्हें अपच हो गई। उनका सारा शरीर गन्दा और मन कुचैला हो गया, जिसकी गन्दगी का दाग शायद वह इस जिन्दगी तो ना ही छुड़ा पायें। पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने विवेकाधीन कोष का ऐसा बेजोड़ इस्तेमाल किया जो केवल अंग्रेज बहादुर ही करता था।
अंग्रेज बहादुर भी जब भारत में राज करता था तो उन हिन्दुस्तानियों को सरकारी खजाने से ‘मानदेय’ देता था जो अपने भाई हिन्दुस्तानियों के साथ गद्दारी करते थे। मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से वितरित की गई करोड़ों की धनराशि उसी मानदेय की विकृत ‘रिफाइण्ड तस्वीर’ है। पूर्व मुख्यमंत्री ने सबसे अधिक धन जिस दलाल को दिया, उसे वर्तमान में पत्रकार कहा जाता है, दूसरी तरफ जिन पत्रकारों को लाखों की धनराशि विवेकाधीन कोष से दी उसे अब दलाल कहा जाता है। लखनऊ के एक अखबार के मालिक को अलग, उसकी पत्नी को अलग और उसके संस्थान को अलग धन दिया गया। विवेकाधीन कोष से केवल इसी पत्रकार को करीब एक करोड़ रूपये से ऊपर की धनराशि दी गई, जबकि उसके पास न तो रामनाथ गोयनका की कलम थी, ना ही अरूण शौरी, अथवा अश्वनी कुमार की कलम। एक दूसरे प्रधान सम्पादक, अब दिवंगत, को भी पचास लाख की धनराशि दी गई, जबकि उन साहब की कलम पर तो प्रदेश के भूतपूर्व शक्तिशाली मंत्री रहे डा0 सजय सिंह ने उन्हें लात मारकर विक्रमादित्य मार्ग स्थित बंगले से बाहर कर दिया था और वह बेचारे कुछ भी नहीं कर पाये थे।
लेकिन नौवीं लोकसभा चुनाव में लखनऊ से चुनाव लड़े डा0 दास ने तो मुलायम सिंह को भी काफी पीछे छोड़ दिया। उन्होंने तो दैनिक जागरण जैसे अखबार में एडीटोरियल के स्थान पर एडवरटोरियल छपवाना शुरू कर दिया। वह भी एक दिन नहीं कई-कई दिन। उसकी शिकायत जब चुनाव आयोग से हुई और उसने जवाब-तलब किया तो सम्पादक महोदय खुद सामने आ गये कि यह सब उन्होने स्वंय अपनी कलम से लिखा है, जबकि लिखने-पढ़ने से उन सम्पादक महोदय का दूर-दूर से भी कोई नाता नहीं था। पैसे में कितना जोर होता है यह अखबार वालों को डा0 दास ने पत्रकारिता में तो दिखा ही दिया, लेकिन वे लखनऊ की गरीब और मूर्ख जनता को नहीं खरीद पाये। डा0 दास को शायद पता नहीं कि दुनिया में हर चीज बिकाऊ नहीं है एवं जिसे वे खरीद रहे हैं वे दगे बम हैं, जो केवल फुस्स हो सकते हैं, धमाके के साथ विस्फोट नहीं कर सकते।
क्या कहा जाये यह तो खरीददार की अपनी पसन्द और बुद्धि पर निर्भर करता है कि वह क्या और कितने में खरीद सकने की हैसियत रखता है। आखिरकार जो लोग डायमण्ड नहीं खरीद सकते उन्हीं के लिए तो अमेरिकन डायमण्ड बना है। यही वजह है कि मुलायम सिंह ने अमेरिकन डायमण्ड खरीदे। वह डायमण्ड पहचान ही नहीं पाये। पैसे से आप चाटुकार खरीदेंगे तो फिर भला कहॉं से होगा। हमें भी अपनी कलम पर बहुत नाज है और इसे अच्छे दामों पर अच्छे काम के लिए, बेचना नहीं चाहते, केवल लीज पर देना चाहते हैं, जिसके लिए सीलबन्द ग्लोबल टेण्डर आमंत्रित हैं। टेण्डरर विदेशी हो तो अति उत्तम क्योंकि उसके द्वारा दिया गया धन विदेशी पूंजी निवेश माना जायेगा और उसका क्रेडिट भारत के प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह के खाते में चला जायेगा तथा प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में जिसमें अभी तक अमेरीका सीधी-सीधी घुसपैठ नहीं कर पाया है, हम जैसों की भागीदारी से सीधे घुस जायेगा।
वैसे भी वर्तमान में तो ‘विवेकाधीन कोष’ से खैरात बंटनी नहीं है। अभी तो सरकारी मान्यता के ही लाले पड़े हुए हैं। इसी को बचाने और कैंसिल कराने में जी तोड़ मेहनत, चुगली, गुटबाजी और ना जाने क्या-क्या नहीं करना पड़ रहा है। कुल मिलाकर सरकार से खफा है, मीडिया। हमारे पास वह कलम है जो कहिए तो स्व0 नेहरू को चोर सिद्ध कर दे, मृत फूलन देवी को देवी और डा0 मनमोहन सिंह को अब तक रहे समस्त प्रधानमंत्री में सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दे तथा लालकृष्ण आडवाणी को सिंध (पाकिस्तान) का एजेन्ट! हमारी कलम ठीक भारतीय पुलिस की तरह काम करती है। निर्दोष को आतंकवादी और आतंकवादी को निर्दोष करार दे दे। बलात्कार के केस में 7 साल के बच्चे को बन्द कर दे और तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार दिखाकर 95 वर्ष के बुजुर्ग को सलाखों के पीछे।
हम इसी दस रूपये की कलम से डा0 मनमोहन सिंह को महान देशभक्त बता सकते हैं और इसी से वर्ल्ड बैंक का एजेन्ट। इसी कलम से ‘वर्ल्ड बैंक’ को विश्व की विकास रूपी रेलगाड़ी का इंजन बता सकते हैं और इसी से विश्व का ‘कैक्टस’ सिद्ध कर सकते हैं। हॉं, तो जनाब इस दस रूपये की कलम को लीज पर लेना चाहते हैं तो सम्पर्क कीजिए। हम भी महलों में रहना चाहते हैं ‘‘रायल्स रायस फैण्टम’ पर घूमना चाहते हैं, लुफ्ताहांसा से नदी नाले पहाड़ देखना चाहते हैं, फाइव स्टार होटल में रुकना और मजा करना चाहते हैं। फाइव स्टार ‘होटल ताज’ में खाना खाने का शौक तो मा0 मुख्यमंत्री मायावती जी ने पूरा करा ही दिया है। यह बात अलग है कि उन्होंने ‘प्रेस कान्फ्रेन्स’ ताज में आयोजित कर प्रेस को कईएक बार भोजन तो कराया, लेकिन प्रेस वालों के साथ भोजन कभी नहीं किया। हम लोगों ने कुत्तों की ही तरह खाना खाया होगा। वैसे भी हमारी बिरादरी को ‘‘वाच डॉग’’ कहा जाता है और ‘वाच’ वाली स्थिति न्यायालय द्वारा डीएनए जॉंच के लिए ब्लड सेम्पिल देने से इन्कार करने वाले एवं उ0प्र0 राज्य के तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहने वाले पंडित नारायण दत्त तिवारी ने ‘प्रेस क्लब’ में ‘सब्सीडाइज्ड रेट’ पर बिरयानी और पैग उपलब्ध कराकर समाप्त कर ही दी थी।
उसी परम्परा को अन्त तक अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के मित्र एवं उ0प्र0 के तीन बार मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भी जारी रखा। बल्कि उन्होंने तो ‘सब्सिडी’ की जगह पूरा का पूरा अनुदान देने की ही व्यवस्था कर दी, वह भी लाखों और करोडों में। इसके बाद कैसा वाच?  अब तो केवल डाग बचा है और डाग को अगर कुत्ते की तरह ना खिलाया जाये तो क्या किया जाये। इसमें उ0प्र0 की मुख्यमंत्री मायावती का काई दोष नहीं है जिस मीडिया ने हमेशा देशी कुते की भॉंति उनके ऊपर भूंका ही भूंका है, तो उसे भोज दिया जाता है, यही बहुत बड़ी बात है।
क्या रखा है इस दस़ रुपये की कलम में, जिसे वर्तमान युग में विपन्नता की निशानी माना जाता है। इससे जिन्दगी केवल ‘डाग’ की तरह ही गुजर सकती है। वैसे भी आजकल ‘वाच डाग’ की जरूरत किसे है? और केवल डाग की तरह जीने से फायदा ही क्या? इससे तो बेहतर है ‘शो-डाग’ की तरह ही हम भी जियें, जो भूंकते भी हैं तो लगता है कि मुर्गे की आवाज वाली कॅालबेल बज रही है। वैसे अब तो इसकी जगह भी अमेरीका से आयतित ‘एण्टी बर्गलरी एलार्म बेल’ ने ले ली है।


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हमारी इस दस रुपये की कलम से आप क्या-क्या कमाल चाहते हैं ? हम अपनी कलम का इस्तेमाल ए0के0-47 की तरह भी कर सकते हैं और मक्खन-मलाई की तरह भी। इसी कलम से हम पाकिस्तान में अमेरिका द्वारा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मारे जाने का दावा करने वाले प्रेसीडेन्ट ओबामा का भरपूर साथ भी दे सकते हैं और इसी कलम से यह भी सिद्ध कर सकते हैं कि यह एक फर्जी एनकाउन्टर था, तथा विश्व के सबसे बड़े एनकाउन्टर स्पेशलिस्ट ओबामा ही हैं, जो अमेरिका स्थित व्हाइट हाऊस में बैठे लादेन के लाइव एनकाउन्टर का मजा़ ले रहे थे। ऐसी खूबी किसी दूसरी चीज में आपको कहां से मिलेगी?
सतीश प्रधान

Thursday, September 29, 2011

चलिए भारत सरकार का ठप्पा तो लगा

आईसीसीएमआरटी ऑडीटोरियम में आयोजित सेमिनार
               मीडिया का एक वर्ग जो हमेशा सरकारी मान्यता, सरकारी आवास, सरकारी भूखण्ड, सरकारी अनुदान (मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री विवेकाधीन कोष से वितरित राशि) सरकारी बख्शीश या कहिए सरकारी न्यौते की जुगाड़ में ही रहता है,  उसे खुश होना चाहिए कि जिस तरह से भारत सरकार ने देश के चुनिन्दा दिखने वाले एवं क्षद्म पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को, आय से अधिक सम्पत्ति रखने वाले आरोपी बालाकृष्णनन के मानवाधिकार आयोग के मीडिया एवं मानवाधिकार ग्रुप का सदस्य बनाया है,  उसी के नक्शे-कदम पर चलकर प्रदेश की सरकारें भी ऐसा ही कदम उठाने पर मजबूर होंगी। लेकिन ध्यान रहे सरकार उन्हीं पत्रकारों को इस योग्य मानती है,  जिन्होंने ऊपर वर्णित सभी में से कम से कम एक सुविधा का भरपूर उपयोग किया हो अथवा कर रहा हो, वही सरकार की निगाह में सबसे बड़ा पत्रकार होता है। वर्तमान में ऐसे पत्रकार,  ग्रुप/झुण्ड में पाये जाते हैं। झुण्ड में रहने की प्रवृत्ति ही सिद्ध करती है कि या तो वे दहशत में हैं, अथवा समाज के किसी दूसरे प्राणी को दहशत में रखना चाहते हैं। जिस भी व्यक्ति के अन्दर समाज की टीस होगी वह एकला चलो की राह पर ही चलता दिखाई देगा, क्योंकि ना तो वह अपने ऊपर किसी का खतरा समझता है और ना ही वह किसी दूसरे के लिए खतरा होता है।
               भारत की दीन-हीन लेकिन 26 रुपये प्रतिदिन में भरपेट भोजन करके मजे में जीवन व्यतीत कर रही देश की 96 करोड़ खुशहाल जनता को सोते से जगाने वाले 74 वर्ष के एक बुजुर्ग नौजवान श्री अण्णा हजारे के 12 दिन के अनशन से देश अथवा देश की जनता को जो मिला, इसका आंकलन बडे़-बडे़ समझदार लोग नहीं कर सकते। लेकिन इस आन्दोलन की कवरेज करने वाली मीडिया बिरादरी के 12 पत्रकारों को आखिरकार सरकार ने उपकृत करते हुए मीडिया एवं मानवाधिकार ग्रुप का सदस्य बना ही दिया। श्री अण्णा हजारे के आन्दोलन को दिये गये मीडिया कवरेज से खीज़ी सरकार ने वह काम कर दिखाया जो कोल्ड ब्लडेड (Cold Blooded) अंग्रेज भी नहीं कर पाया था।
               अभी हाल ही में लखनऊ के आईसीसीएमआरटी ऑडीटोरियम में आयोजित एक सेमिनार में इलैक्ट्रानिक मीडिया के एक पुरोधा ने उवाच किया कि अण्णा हज़ारे नाम के 74 वर्षीय बुजुर्ग से भारत सरकार नहीं घबराई थी, यह तो इलैक्ट्रानिक मीडिया की दहशत थी कि रामलीला मैदान पर 40 चैनलों की ओ0बी0वैन से सरकार डर गई, वरना कौन पूछ रहा है, अण्णा हजारे को! एक दूसरे चैनल के हेड, जिसने अपने कार्यक्रम में आलोक मेहता जैसे लोगों को मंच पर आसीन किया,जिन्होंने बड़ी चालाकी से सरकार का बचाव ही नहीं किया अपितू अण्णा हज़ारे और सिविल सोसाइटी को उसकी सीमा बताते हुए मूल मुद्दे से जनता को भटकाने की हरसम्भव कोशिश की। अतिरिक्त इसके चैनल हेड ने यह भी बताया कि किस तरह से उनके चैनल ने कई करोड़ के विज्ञापनों की हानि उठाकर लगातार अण्णा हज़ारे के अनशन की कवरेज की और देश पर एहसान किया।
               मैं नाम नहीं लेना चाहता था, लेकिन बगैर नाम लिए किसी भी तथ्य को समझने में परेशानी होती है, इसीलिए लिखना अपरिहार्य है कि-सीएसडीएस के विपुल मुदगल ने बड़े दम्भ के साथ उदघाटित किया कि भारत की सरकार अण्णा हजारे से नहीं घबराई थी, बल्कि हम इलैक्ट्रानिक चैनल वालों द्वारा दी जा रही कवरेज से घबराई थी। यदि रामलीला मैदान पर अण्णा हजारे के आन्दोलन की कवरेज इलैक्ट्रानिक मीडिया नहीं कर रहा होता तो कौन पूछता अण्णा हजारे को? मेरा मानना है कि यह एक प्रकार का नशा है जो खून में सरकारी नमक की अत्यधिक मात्रा होने के कारण परिलक्षित होता है। वैसे तो उन्होंने पत्रकारों को अपने दम्भ में न रहने की हिदायत भी दी, लेकिन अपना दम्भ दिखाने से कतई बाज नहीं आये।
               मुदगल जैसे लोग यह भूले हुए हैं कि ये ही चालीस कैमरे बाबा रामदेव के मंच के चारों ओर भी लगे थे, लेकिन सरकार न तो कैमरों से घबराई थी, ना ही बाबा रामदेव से। उसने ऐसा नंगा नाच किया कि उसे इन्हीं चालीस कैमरों ने कवर भी किया था, फिर भी सरकार ने इन कैमरों की परवाह नहीं की, एवं सारी कवरेज करने के बाद भी असली रिकार्डिग को दिखाने की किसी भी चैनल की हिम्मत नही हुई अथवा यह समझा जाये कि उस रिकार्डिंग से सौदेबाजी कर ली गई।। चालीसों कैमरों का जमघट, उ0प्र0 में भी लगा रहता है, बहुत सी घटनाओं की उल-जुलूल कवरेज करता है लेकिन प्रदेश सरकार तो कभी भी विचलित होती नहीं दिखाई देती। मंच पर उन्हीं के बगल बैठे धुआंधार चैनल के ब्यूरो प्रमुख के साथ उ0प्र0 की पुलिस ने क्या किया, क्या नहीं किया यह सच्चाई तो सारा मीडिया जानता है, लेकिन उन पुलिस अधिकारियों को निलंबित कराने के लिए पूरा मीडिया (विशेष तौर पर प्रिन्ट) जुट गया, यह जाने बगैर कि माज़रा क्या है। यह सत्ता की मीडिया पर दहशत थी अथवा मीडिया ने सत्ता को दहशत में लेने की कोशिश की, 21वें पैनल डिस्कशन के बाद निकल कर आये तो नीचे दिये ईमेल पते पर ईमेल कीजिएगा।
               आज के समय में जब इलैक्ट्रानिक मीडिया अपनी दहशत बनाने की कोशिश में है तो सरकारें यदि दहशत कायम किये हुए हैं तो क्या गलत है। सत्ता का मतलब ही है अपना इकबाल कायम रखना, और इकबाल बगैर दहशत के कायम हो ही नहीं सकता। सत्ता, दहशत और मीडिया के पैनल डिस्कशन में श्री मुदगल ने बहुत ही चतुराई से उपस्थित लोगों का मूंह सच्चाई से उलट फेरने की असफल कोशिश की और वे भूल गये कि वहां उपस्थित सारी ऑडीयेन्स, आईसीसीएमआरटी की स्टूडेन्ट नहीं थी। वे पत्रकार भी थे जो गली-कूचे की पत्रकारिता तो करते हैं,  लेकिन उनके अपने आंगन हैं, वे किसी दूसरे की गोदी में बैठकर नहीं खेल रहे हैं।  मंच पर भाषण दे रहे मि0 मुदगल किसे बेवकूफ समझ रहे थे,  कालचक्र के विनीत नारायण को, कोबरा पोस्ट के अनिरूद्ध बहल को, आईबीएन-7 के आशुतोष को,  द वीक के उप्रेती को अथवा कैनबिज टाइम्स के प्रभात रंजन दीन को। अथवा उन्हें वे पत्रकार बेवकूफ नज़र आये जो दुर्भाग्यवश उनका भाषण सुनने किसी की विनती पर पहुंच गये थे। 
               धुरन्धर पत्रकारों की पारदर्शिता की हालत यह है कि आमंत्रण-पत्र पर प्रिन्ट, फाउन्डेशन फॅार मीडिया प्रोफेशनल की वेबसाइट, माइक्रोफाइंग ग्लास से देखने के बाद बड़ी मुश्किल से नज़र आई, ठीक उसी तरह जैसे टाइम्स ऑफ इण्डिया अपनी इम्प्रिंट लाइन छापता है, वह भी सण्डे टाइम्स में। दरअसल ऐसा करना उसकी मजबूरी है, क्योंकि सण्डे में टाइम्स ऑफ इण्डिया छपता ही नहीं बल्कि सण्डे टाइम्स छपता है जो एक वीकली अखबार है। इम्प्रिंट लाइन में छपा वर्ष और अंक पाठक को पढ़ने में ही न आये तो अच्छा है। यही हाल एमएफपी का दिखाई देता है, वरना क्या कारण है कि इतने छोटे अक्षरों में वेबऐड्रेस डाला गया जो साधारण ऑखों से दिखता ही नहीं। जब इस संस्था का पार्टनर FREIDRICH EBERT STIFTUNG है तो निश्चित रूप से इसके भी अपने निहितार्थ होंगे। यदि इस स्तम्भ को पढ़ने के बाद कोई आईएसआई संस्था द्वारा संचालित कश्मीर अमेरिकन काउन्सिल के पैनल पर दर्ज पत्रकारों की लिस्ट ईमेल करदे तो इस देश पर और मुझपर बहुत एहसान होगा। कम से उसे जानकारी तो मिलेगी कि जनता की आवाज को सरकार तक पहुचाने का दावा करने वाला, दरअसल मुखौटा ओढ़े पाकिस्तानी खुफिया ऐजेन्सी आईएसआई की आवाज बना हुआ है, वह भी बगैर किसी अतिरिक्त भुगतान के।
               जिन 12 पत्रकारों को आय से अधिक सम्पत्ति रखने के आरोपी एवं पाक ईमानदार, महान्यायाधिपति बालाकृष्णनन के मानवाधिकार आयोग में एक ग्रुप का सदस्य बनाया गया है, उनमें इलैक्ट्रानिक मीडिया का एक पत्रकार भी सम्मलित किया गया है। इसमें हैं, दैनिक जागरण के पुश्तैनी पत्रकार-कम-मालिक संजय गुप्त, जो वैसे तो कभी कभार ही सरकार के खिलाफ कुछ छाप पाते हैं, लेकिन जब सरकार विज्ञापन बन्द कर देती है तो माफी मांगकर पुनः विज्ञापन शुरू किये जाने की चिरौरी भी करते हैं। इनका अखबार एक अन्य गुनाह का भी भागीदार है, जिसे अभी यहॉं अंकित किये जाने का सही वक्त नहीं है। एच.टी. मीडिया लि0 के हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों अखबारों के क्रमशः शशी शेखर त्रिपाठी एवं संजीव नारायण। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इण्डिया (सरकारी स्वामित्व की एक पब्लिक लि0 कम्पनी) के एम.के.राजदान, आजतक इलैक्ट्रानिक चैनल के कमर वाहिद नकवी, द वीक पत्रिका के दिल्ली स्थानीय सम्पादक के.एस.सच्चिदानन्द मूर्ति एवं नई दुनिया के सरकारी सम्पादक आलोक मेहता। ये सब रहेंगे बालाकृष्णनन के चाबुक के नीचे ही, क्योंकि इस ग्रुप का अध्यक्ष भी बालाकृष्णनन को ही बनाया गया है।  आय से अधिक सम्पत्ति रखने के आरोपी के ग्रुप में इन 12 पत्रकारों को इसीलिए रखा गया है कि बालाकृष्णनन को भी खबरों से राहत मिले और पत्रकारों को आय से अधिक सम्पत्ति छिपाने की तरकीब बालाकृष्णनन इन्हें सिखायें। इसका सीधा मतलब है कि भारत सरकार ने इन लोगों को भरपेट खाने के लिए चारे का इंतजाम कर दिया है। आप यह सोचकर घबराईयेगा नहीं कि हमारे इन पत्रकार बन्धुओं को दिनभर के खाने के लिए केवल 32 रूपये ही मिलेंगे। इन्हें अब खाने-पीने की कोई कमी नहीं रहेगी। ये बिल्कुल कपिल सिबल, पी.चिदम्बरम, और अन्य मंत्रियों की तरह ही खा-पी सकेंगे। बस इनको यह सुविधा नहीं मिलेगी कि ये हवा में (2-जी स्पैक्ट्रम से) पैसे बना पायें। 
               इन पत्रकारों को आप कहॉं पकड़ पायेंगे? किसी को यदि किसी अपराध में पकड़ा जाता है तो उसकी भरपूर पब्लिसिटी तो यही करते हैं। जब ये ही कमाने लगेंगे तो खबर गई तेल लेने! कोई भी खबर हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान टाइम्स के किसी भी संस्करण में छपने से रही। दैनिक जागरण के पूरे भारत में किसी भी संस्करण में छपने से रही। पूरे हिन्दुस्तान भर में आजतक पर दिखाई देने से रही। द वीक में छपे न छपे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। पी0टी0आई0 तो पहले से ही सरकारी भोंपू है। कुल मिलाकर सरकार ने 40 भोंपुओं के एवज में एक खेप में 12 पत्रकारों को खपा कर एक ही झटके में 30 प्रतिशत खबरों पर जबरदस्त कब्जा कर लिया है। 30 प्रतिशत मामलों पर उसने कब्जा दिलीप पडगॉवकर, बरखा दत्त, वीर सिंघवी, कुलदीप नैय्यर, कमल मित्र शिनाय, रीता मनचन्दा, हरिन्दर बावेजा, गौतम नवलखा, और राजिन्दर सच्चर जैसे पत्रकारों की कलम पर पहले से ही बनाया हुआ है। बचे हुए 40 प्रतिशत की खेप को किसी दूसरे अन्य आयोग में खपाने की जुगत सरकार चला रही है। बस चालीसों चैनल को उपकृत करके सरकार आराम से बंशी बजाते हुए सो सकती है। अगर इतना सरकार कर लेती है तो समझिये सरकार ने बाजी मार ली। फिर बकौल मि0 मुदगल कौन पूछ रहा है, अण्णा हजारे को, तब क्या जरूरत है इस देश की अनपढ़, गरीब और लाचार जनता के बारे में सोचने की, कुछ करने की?
               इससे तो यही लगता है कि अगर सरकार सुधरना चाहे तो भी, हमारी बिरादरी, तथाकथित वकील से मंत्री बने नेता एवं अन्य बुद्धिमान लोग उसे सुधरने नहीं देंगे। यदि सरकार सुधर गई तो उनकी दाल-रोटी कैसे चलेगी! अब इन्हें कौन समझाये कि जब इस देश के लोगों ने देश को स्वतन्त्र कराने की लड़ाई लड़ी थी तो इस देश में इलैक्ट्रानिक चैनल नाम का कोई तंत्र नहीं था। दैनिक जागरण नामक प्रोडक्ट भी नहीं था, सरकारी ऐजेन्सी पी0टी0आई0 और यू0एन0आई0 भी नहीं थी, अगर होती तो भी उसका चरित्र वही होता जो आज है, यानी सरकारी भोंपू। मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार जिन समाचार-पत्रों ने देश को स्वतन्त्र कराने में अग्रणी भूमिका निभाई उनमें से ज्यादातर अब बन्द हो चुके हैं, क्योंकि उस समय के अखबारों में एक तो मार्केटिंग नहीं हुआ करती थी, जिनमें कुछ प्रतिशत थी भी तो वे बन्दे एडीटोरियल हेड के अधीन कार्य किया करते थे। आज की तरह नहीं कि एडीटर, मार्केटिंग हेड के अधीन कार्य करता है, क्योंकि इलैक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया अब एक प्रोडक्ट हो गये हैं, उनमें एक ब्राण्ड मैनेजर और प्रोडक्ट मैनेजर होता है, और इसी के अधीन सबकुछ होता है। फिर चाहे इसे सम्पादक समझिये अथवा महाप्रबन्धक। सम्पादन का हुनर रखने वाला तो अनपढ़ों/कम पढ़े लिखों की बायोग्राफी लिख गुमनामी के अंधेरे में ही जीने को विवश है। 
               सरकार के कान में यह कौन डालेगा कि मीडिया का वह हिस्सा जो उसके आस-पास दिखाई दे रहा है, अब उसके हांथ में कुछ नहीं बचा है। अण्णा हजारे की आवाज अब गॉंव-गॉंव पहुंच गई है एवं उसके साथ में वह मीडिया भी है, जिसे सरकारें दीन-हीन और देशी कुत्ता समझती हैं, लेकिन ये भूल जाती हैं कि कुत्ता काट भी तो सकता है। और ऐसा कुत्ता जिसे एण्टी रैबीज़ का सरकारी इंजैक्शन नहीं लग रहा है, काटेगा तो जान बचाने के लिए 14 इंजैक्शन तो लगवाने ही पड़ेंगे। बावजूद इसके गारन्टी नहीं कि आप बच ही जायें। आज अण्णा हजारे के साथ वैसा ही मीडिया है, जैसा देश को स्वतन्त्र कराने के लिए उन देशभक्तों के साथ था। उनके साथ वे मीडिया के बन्धु हैं, जो स्वंय में मालिक, सम्पादक, विज्ञापन प्रबन्धक, प्रसार प्रबन्धक, रिर्पोटर और चपरासी सबकुछ वही हैं। वह भी 32 रूपये का दिनभर में खाना खाकर,खुशहाल एवं तन्दरूस्त हैं। ऐसे इस देश में कितने करोड़ लोग हैं, सरकार को आंकड़ा निकलवाना पड़ेगा, जो दिल, दिमाग और शरीर से अण्णा के साथ हैं। तभी तो ये नारा बुलन्द हुआ है कि तू भी अण्णा, मैं भी अण्णा, अब तो सारा देश है अण्णा। इन कई करोड़ लोगों को सरकार किसी भी और कितने ही आयोग में खपा नहीं सकती, क्योंकि उसकी नीयत ही ऐसी नहीं है। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए सरकार को अब दिखावा नहीं अपितू वह कार्य करना चाहिए जो जनता, अण्णा हज़ारे जी के माध्यम से मॉंग रही है।
               यदि अब भी सरकार को लगता है कि दिल्ली के इण्डिया गेट पर आइसक्रीम खाने वाली भीड़, अण्णा के रामलीला मैदान पर फिल्म का प्रीमीयर देखने चली गई थी, वह भी छोटे-छोटे, नन्हे-नन्हे बच्चों को लेकर, तो फिर अल्लाह ही मालिक है ऐसी सरकार का! जब इस देश की 543 रियासतों को अर्श से फर्श पर आने में 24 घन्टे का वक्त नहीं लगा तो फिर इन डुप्लीकेट राजाओं को जो फर्श से ही अर्श पर पहुंचे हैं, फर्श पर आने में कितना वक्त लगेगा, इस अर्थमेटिक को तो सरकार का प्लानिंग कमीशन बगैर कमीशन के हल कर सकता है। यह देश तो सोने की चिड़िया था, है,और रहेगा, जो इसे अपना ना समझे, वह जितनी तबीयत करे लूटे, लेकिन डकैतों का क्या हश्र होता है, किसे बताने की जरूरत है। यह तो वह देश है, जिसे 700 वर्ष तक मुगलों ने लूटा और 300 वर्ष तक अंग्रेजों ने तबीयत से लूटा, अब चोरों के सरदार लूट रहे हैं, लेकिन क्या फर्क पड़ता है! हिन्दुस्तान कल भी सोने की चिड़िया था,आज भी सोने की चिड़िया ही है एवं आगे भी सोने की चिड़िया ही रहेगा, ये मेरा दावा है।
सतीश प्रधान

Friday, September 23, 2011

ख्वाब माल्या का, पूरा किया जे0पी0 ने

                                       
          यू0बी0 समूह के चेयरमैन विजय माल्या, भारत में फॉर्मूला-1 रेस का ख्वाब देखने वाले उन चंद लोगों में से हैं, जिन्होंने इसके लिए शुरूआती कोशिशें की हैं। लेकिन उनके ख्वाब को उत्तर प्रदेश की सरजमीं, ग्रेटर नोएडा स्थित बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट पर उतारने के लिए रोज़ाना 20 घन्टे की कड़ी मेहनत और करोड़ों रूपया पानी की तरह बहाने वाले जे0पी0एस0आई0एल0 के अध्यक्ष श्री मनोज  गौण  एवं प्रबन्ध निदेशक श्री समीर गौण इस अनूठे आयोजन से बहुत ही रोमांचित हैं। निःसन्देह औद्योगिक घरानों में हाथी की भूमिका रखने वाले जे0पी0ग्रुप के ही बूते की बात है कि उसने इस आयोजन को भारत में आयोजित कराने के लिए जो दिलचस्पी, भाग-दौड़, और विशेष रूप से अपना ध्यान दूसरी प्रोजेक्ट से हटाकर इस प्रोजेक्ट पर लगाया है, काबिले तारीफ है। इससे इण्डिया का नाम खेल जगत में अवश्य शीर्ष पर पहुंचेगा। इसके लिए श्री मनोज  गौण  एवं  श्री समीर गौण ने वर्ष 2010 में भारत में पहली फॉर्मूला-1 रेस की मेजवानी के लिए एफओए के साथ एमओयू पर साइन किया था.

          श्री समीर गौण ने निःसन्देह अपना, अपने भ्राताश्री मनोज गौड़ एवं अपने पिताश्री जयप्रकाश गौण (जिनके दम पर सारा जे0पी0ग्रुप खड़ा है),एवं अपने परिवार सहित सिद्धान्त एवं शुभंकर के भी अरमानों को पंख लगाये हैंमृदुभाषी,कर्मठ,जोशीले एवं फुर्तीले समीर गौण वे वीर हैं जिन्होंने अपने अदभुत एवं चुनौती भरे कार्यों से अपना एवं अपने पिताश्री का नाम निश्चित रूप से अमर कर लिया है। यद्यपि ये ऊपर से प्रचंड, कठोर एवं विस्फोटक नज़र आते हैं, लेकिन अन्दर से उतने ही कोमल भी हैं। यह उनका एक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, जिसने उनके नाम के साथ-साथ हिन्दुस्तान और उत्तर प्रदेश का नाम भी ऊंचा किया है। उ0प्र0 की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के लिए भी यह गौरवान्वित होने का विषय है, क्योंकि उनके ही शासनकाल में यह शुरू हुआ और इस पर 30 अक्टूबर 2011 को उनके ही मुख्यमंत्रित्वकाल में 17वीं इण्डियन ग्रांड प्रिक्स रेस भी होने जा रही है। इस प्रोजेक्ट ने जितना रोमांचित श्री समीर गौण को किया है, उससे कम रोमांचित इस देश को भी नहीं किया है। इसी के साथ अधिकतम रोमांचित होने वालों में भारत की पहली फॉर्मूला-1 टीम के एरिस्टोक्रैट मालिक श्री विजय माल्या और निडर ड्राइवर कार्तिकेयन भी हैं, जो अति उत्साहित हैं। इस आयोजन ने भारत का नाम विश्व पटल पर स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया है। इसे अभी आमजन को समझने में वक्त लगेगा, लेकिन आने वाला समय बतायेगा कि भारत को अपार विदेशी मुद्रा दिलाने में यह किसी भी मायने में आगरा के ताजमहल से कम नहीं होगा।

          जैसे-जैसे इण्डियन ग्रांड प्रिक्स का समय आ रहा है, इण्डिया फैक्टर भी जोर मार रहा है। भारत के पहले फॅार्मूला-1 निडर ड्राइवर नरेन कार्तिकेयन भी इण्डियन ग्रांड प्रिक्स में अपनी हिस्पेनिया टीम का प्रतिनिधित्व करने के लिए खासे रोमांचित हैं। दुनियाभर की 12 टीमें, उनके मालिक और कुल 24 निडर ड्राइवर इस समय सिंगापुर ग्रांड प्रिक्स पर नजरें गड़ाये हुए हैं जो 23 से 25 सितम्बर तक चलेगी। ध्यान रहे इस सत्र में कुल 19 रेस ही होनी है। इनमें से 13 हो चुकी हैं। 9 से 11 सितम्बर को इटली के मोंजा में हुई रेस 13वीं थी, जिसके साथ यूरोप का सफर पूरा हो गया है। अब एशिया का सफर शुरू हो रहा है। एशियाई चैलेंज का आगाज सिंगापुर ग्रांड प्रिक्स से होगा। इसके बाद जापान, कोरिया, इण्डिया (28 से 30 अक्टूबर को ग्रेटर नोएडा के बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट)में, अबुधाबी एवं अन्त में 19वीं रेस 25 से 27 नवम्बर को ब्राजील के साओ पाउलो में समपन्न होगी।

          अबतक के चरण में कुल 36 अंको के साथ छठे पायदान पर मौजूद अपनी टीम फोर्स इण्डिया के प्रदर्शन से विजय माल्या अभिभूत हैं और उन्हें सिंगापुर ग्रांड प्रिक्स सहित आगामी रेसों में खासकर इण्डियन ग्रांड प्रिक्स तक अपने जर्मन निडर ड्राइवर एडियन सुटिल ओैर ब्रिटिश पॉल डि रेस्टा से काफी उम्मीदें हैं। श्री विजय माल्या को भारतीय समर्थकों के साथ की विशेष दरकार है। उनका मानना है कि अपनों का साथ हौसला बढ़ाने में उत्प्ररेक का काम करता है। उन्हें भारत में ही नहीं अपितु सिंगापुर में भी फायदा मिलने की उम्मीद है, क्योंकि सिंगापुर में भारतीयों की तादाद अत्यधिक है। इण्डियन ग्रांड प्रिक्स, फॅार्मूला-1 रेस में भाग लेने आ रही 12 टीमों के निडर ड्राइवर और फॅार्मूला-1 व एफओए के वीवीआईपी अधिकारी 25 से 30 अक्टूबर तक ग्रेटर नोएडा स्थित जे0पी0गोल्फ रिर्सोट में ठहरेंगे। रेस तो 30 अक्टूबर को होनी है, जबकि 28 और 29 अक्टूबर को पोजीशन के लिए अभ्यास रेस होगी।
25 अक्टूबर तक टीमें यहाँ पहुच जाएंगी। रेस के आयोजक जे0पी0एस0आई0एल0 को टीमों की सुरक्षा की भी बड़ी जिम्मेदारी संभालनी है। टीमों को ठहराने और रेस सत्र के दौरान तीन दिन तक लाने-ले-जाने के लिए
जेपीएसआईएल ने फूल प्रूफ प्लान तैयार किया है। जे0पी0 गोल्फ रिर्सोट को, सर्किट के नजदीक होने के कारण सुरक्षा के लिहाज से सर्वश्रेष्ठ माना गया है। जे0पी0 समूह के स्वामित्व में होने के कारण यहाँ किसी पाँच सितारा होटल की अपेक्षा सुरक्षा बन्दोबस्त और भी पुख्ता तरीके से किये जाने के संकेत मिले हैं। मालूम हो कि जे0पी0 समूह पाँच सितारा होटल चेन का भी बखूबी संचालन करता है। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री परवेज मुशरर्फ, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेई से वार्ता करने जब आगरा आये थे तो आगरा के जे0पी0 पैलेस होटल में ही ठहरे थे। इसी एकमात्र तथ्य से जे0पी0 के होटल की हैसियत का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
          फरारी मर्सिडीज, रेड बुल रेनां, मैकलारेन, हिस्पेनिया और फोर्स इण्डिया सहित कुल 12 टीमों और उनके अधिकारियों के रूकने का प्रबन्ध जे0पी0गोल्फ रिर्सोट में ही किया गया है। इन प्रत्येक टीमों के साथ दो मुख्य निडर ड्राइवर, टीम के मालिकान, प्रबन्धक, फॉर्मूला-1 और एफओए के शीर्ष अधिकारी भी मौजूद होंगे। सात बार के चैम्पियन माइकल शूमाकर, फर्नाडो ओलांसो, सेबेस्टियन विटेल, जेसन बटन, लुइस हेमिल्टन, फेलिप मासा और मार्क बेवर जैसे स्टार निडर ड्राइवर, अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर बेहद लोकप्रिय हैं। जे0पी0एस0आई0एल0 के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा है कि उसकी जिम्मेदारी केवल टीम और अधिकारियों को ठहराने व सुरक्षा देने तक ही सीमित है, जबकि रेस देखने के लिए आने वाले करीब 50 से 60 हजार विदेशी, करीब 20 हजार वीवीआईपी दर्शक और अंर्तराष्ट्रीय मीडिया के लोग अपने ठहरने के स्थल का चयन अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार स्वंय करने के लिए स्वतन्त्र हैं। भारतीय दर्शकों को फॅार्मूला-1 रेस देखकर तुरन्त एहसास होगा कि अरे ऐसी पहली रेस तो हमारे भारतीय हीरो फिरोजखान कई वर्ष पहले जीत चुके हैं। यह बात अलग है कि उन्होंने यह रेस फिल्म अपराध में जीती,जिसमें उनकी हीरोइन मुमताज थीं।


सतीश प्रधान