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Sunday, January 29, 2012
आईएसआई एजेण्ट पर आरोप तय
भारत की पूर्व राजनयिक माधुरी गुप्ता द्वारा आईएसआई को संवेदनशील दस्तावेज दिए जाने के मामले में दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट ने आरोप तय करते हुए उसके खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत दे दी है।इस मामले में अब 22 मार्च से अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान दर्ज करने की प्रक्रिया शुरू होगी। तीस हजारी कोर्ट के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश पवन कुमार जैन ने 53 वर्षीय माधुरी पर जासूसी के लिए सरकारी गोपनीयता कानून की धारा-3 और धारा-5 तथा आइपीसी की धारा-120 बी के तहत आरोप तय कर दिये हैं।
इन्हीं माधुरी गुप्ता के माध्यम से आईएसआई कनेक्शन रखने वाले एक पत्रकार के बारे में लखनऊ से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार-पत्र, उत्पीड़न की पुकार ने विस्तृत रपट अभी हाल ही में प्रकाशित की है, निश्चित तौर पर यह खबर जबरदस्त संदेह एवं सनसनाहट उत्पन्न करती है। समाचार-पत्र की प्रति एवं उसे प्रकाशित करने वाले प्रकाशक की छानबीन कर वस्तुस्थिति से अवगत होने की कोशिश की जा रही है और सत्यता का भान होते ही विस्तृत रपट पोस्ट की जायेगी। (सतीश प्रधान)
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Friday, January 27, 2012
धर्मान्तरण से दूर रहें ईसाई संगठनः जयराम रमेश
भारत के केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कड़े शब्दों में कहा है कि कैथालिक चर्च द्वारा संचालित संगठन माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास कराने में मदद करें, लेकिन लक्ष्मण रेखा का सम्मान करें और धर्मान्तरण की गतिविधियॉं नहीं चलाएं। जाहिर है एक केन्द्रीय मंत्री ने ऐसी सीख बिना वजह नहीं दी है, जरूर इसके पीछे का इतिहास संदिग्ध दिखाई देता है! ऐसी टिप्पणी से सहमत होना लाजिमी है कि कैथोलिक संगठन जरूर धर्मान्तरण के खेल में संलग्न होंगे।
जयराम रमेश ने कैथोलिक संगठन कैरिटस इण्डिया के स्वर्ण जयन्ती समारोह का उदघाटन करते हुए कहा कि मैं कैरिटस इण्डिया से धर्मान्तरण में शामिल न होने की भावना के सम्मान की उम्मीद करता हूं। यह उद्देश्य नहीं है। उन्होंने कहा कि उद्देश्य आपके जैसे संगठनों की शक्तियों को सरकार और आदिवासी समुदायों के बीच विश्वास की कमी को तोड़ने में हमारी मदद में इस्तेमाल किये जाने का है। यह हमारा उद्देश्य है।
आर्कबिशपों और बिशपों सहित कैथोलिक पादरी श्रोताओं की खचाखच भरी भीड़ को सम्बोधित करते हुए मंत्री ने कहा कि वह कैरिटस इण्डिया के बारे में कैथोलिक संगठन के रूप में नहीं, बल्कि कैथोलिक द्वारा संचालित सामाजिक संगठन के रूप में बात कर रहे हैं। माओवादियों के प्रभाव पर ध्यान केन्द्रित करते हुए जयराम रमेश ने कहा कि चुनौती यह है कि हम माओवादी हिंसा के समूचे मुद्दे से किस तरह निपटें जो आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैल रही है।
जयराम रमेश ने कहा कि उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि सभी मध्य भारतीय आदिवासी इलाके आज उस बुराई की चपेट में हैं जिसे हमारे प्रधानमंत्री हमारे देश की सबसे गम्भीर आंतरिक सुरक्षा चुनौती करार दे चुके हैं। जयराम रमेश ने कहा कि एक ऐसी विचारधारा की वजह से इन इलाकों में लोग शांति, सामान्य स्थिति और सौहार्द लाने में सक्षम नहीं हो पा रहे, जो सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को उखाड़ फेंकने पर केन्द्रित है। उन्होंने कहा कि कैरिटस इण्डिया और रामकृष्ण मिशन जैसे संगठनों को इन क्षेत्रों में महत्वपूंर्ण भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन सामाजिक संगठनों को एक लक्ष्मण रेखा का सम्मान करना चाहिए। माओवाद प्रभावित इलाकों में कैरिटस इण्डिया को शामिल किए जाने पर भाजपा शासित राज्य झारखण्ड में संभावित विरोध को देखते हुए रमेश ने कहा कि आपको इसके लिए तैयार रहना चाहिए।
जयराम रमेश ने कैथोलिक संगठन कैरिटस इण्डिया के स्वर्ण जयन्ती समारोह का उदघाटन करते हुए कहा कि मैं कैरिटस इण्डिया से धर्मान्तरण में शामिल न होने की भावना के सम्मान की उम्मीद करता हूं। यह उद्देश्य नहीं है। उन्होंने कहा कि उद्देश्य आपके जैसे संगठनों की शक्तियों को सरकार और आदिवासी समुदायों के बीच विश्वास की कमी को तोड़ने में हमारी मदद में इस्तेमाल किये जाने का है। यह हमारा उद्देश्य है।
आर्कबिशपों और बिशपों सहित कैथोलिक पादरी श्रोताओं की खचाखच भरी भीड़ को सम्बोधित करते हुए मंत्री ने कहा कि वह कैरिटस इण्डिया के बारे में कैथोलिक संगठन के रूप में नहीं, बल्कि कैथोलिक द्वारा संचालित सामाजिक संगठन के रूप में बात कर रहे हैं। माओवादियों के प्रभाव पर ध्यान केन्द्रित करते हुए जयराम रमेश ने कहा कि चुनौती यह है कि हम माओवादी हिंसा के समूचे मुद्दे से किस तरह निपटें जो आदिवासी क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैल रही है।
जयराम रमेश ने कहा कि उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि सभी मध्य भारतीय आदिवासी इलाके आज उस बुराई की चपेट में हैं जिसे हमारे प्रधानमंत्री हमारे देश की सबसे गम्भीर आंतरिक सुरक्षा चुनौती करार दे चुके हैं। जयराम रमेश ने कहा कि एक ऐसी विचारधारा की वजह से इन इलाकों में लोग शांति, सामान्य स्थिति और सौहार्द लाने में सक्षम नहीं हो पा रहे, जो सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को उखाड़ फेंकने पर केन्द्रित है। उन्होंने कहा कि कैरिटस इण्डिया और रामकृष्ण मिशन जैसे संगठनों को इन क्षेत्रों में महत्वपूंर्ण भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन सामाजिक संगठनों को एक लक्ष्मण रेखा का सम्मान करना चाहिए। माओवाद प्रभावित इलाकों में कैरिटस इण्डिया को शामिल किए जाने पर भाजपा शासित राज्य झारखण्ड में संभावित विरोध को देखते हुए रमेश ने कहा कि आपको इसके लिए तैयार रहना चाहिए।
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Wednesday, January 25, 2012
ये हस्ती हिन्दुस्तान की
नेताजी के योगदान को भुलाने की साजिश
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ऐतिहासिक योगदान की जानकारी देश के ग्रह मंत्रालय के पास नहीं है अथवा जानबूझकर मिटा दी गई है, यह जॉंच का विषय हो सकता है क्योंकि सूचना के अधिकार के तहत जब ग्रह मंत्रालय से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पर जानकारी मांगी गई तो उसने किसी जानकारी के वजूद से ही इनकार कर दिया। जानकारी मांगने वाले का इरादा चाहे जो भी रहा हो, लेकिन सुभाष चंद्र बोस को लेकर इस देश की चिंता अब इस पर सिमटकर रह गई है कि वे अभी जिंदा भी हैं अथवा जान-बूझकर भ्रम की स्थिति बनाये रखी गई है? या फिर विमान दुर्घटना में उनका निधन हुआ नहीं तो वे कहां गए? इस रहस्य में दिलचस्पी रखने वाले और देशप्रेमी लोग तो यहॉं तक कहते हैं कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अगर जिंदा होते तो देश की सूरत क्या आज ऐसी होती, जैसी दिख रही है। परन्तु उससे भी दुखद एवं आघात देने वाली बात पिछले कई दशकों से उनके नाम पर की जाने वाली अनैतिक व अनैतिहासिक राजनीति की है।
दरअसल, इसी राजनीति ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बारे में आम लोगों के बीच तमाम भ्रामक धारणाएं प्रचालित कर उनके व्यक्तित्व को विवादित बनाने की चेष्ठा की है। पहली बात, आजाद हिन्द फौज का गठन सुभाष चन्द्र बोस के जीवन की सर्वाधिक चर्चित घटना अवश्य थी, परन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण नहीं। उनकी सबसे बड़ी पहचान 1930 और 40 के दशक के युवा समाजवादी नेता के रूप में होनी चाहिए। जब सुभाश चन्द्र बोस और जवाहर लाल नेहरू ने मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मूल कार्यक्रम में मौलिक अधिकार व राष्ट्रीय आर्थिक नीति जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को शामिल कराया था।
1938 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष बने। उन्होंने एक राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया और नेहरू को उसका अध्यक्ष बनाया। यानी कांग्रेस के भीतर बिताए गए सुभाष बाबू के राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दो दशक अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तनों के वाहक थे, जिनकी पूरी तरह से उपेक्षा कर दी जाती है। ऐसा दिखाया जाता है कि उनके जीवन के आखिरी संघर्षमय दिनों का ही उनके संपूर्ण जीवन में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक योगदान है। दूसरे, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और महात्मा गांधी के आपसी सम्बन्धों को बेहद कटुतापूर्ण ढंग से बयान करना गांधीवादियों का पुराना शगल रहा है। वास्तव में गांधी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के मतभेद पूरी तरह विचारधारा के ही थे। दोनों की राजनीतिक समझ भिन्न थी, परन्तु दोनों ही शख्सियतों के आपसी सम्बन्ध अन्त तक बहुत महत्वपूर्ण बने रहे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे के बाद गांधी ने उन्हें 23 नवंबर, 1939 को लिखे एक पत्र में कहा-तुम मेरी खोई हुई भेंड़ हो। अगर मेरा प्रेम पवित्र और रास्ता सच्चा है तो एक दिन मैं पांऊगा कि तुम अपने घर वापस आ गए हो। सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस छोड़ने के बाद 9 जनवरी 1940 को गांधी जी ने ‘हरिजन’ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तुलना कस्तूरबा और अपने सबसे बड़े पुत्र के साथ करते हुए लिखा- मैंने सुभाष को हमेशा अपने पुत्र की तरह माना है।
दूसरी ओर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की सरकार की घोषणा करते हुए उसे बेहद भावपूर्ण तरीके से अपने ‘राष्ट्रपिता’ को समर्पित किया। उन्होंने अपने सैनिकों से कहा- मैं सिर्फ तब तक तुम्हारा नेता हॅू, जब तक हम भारत की धरती पर कदम नहीं रख लेते। उसके बाद हम सबके सर्वोच्च और एकमात्र नेता राष्ट्रपिता होंगे। यहां तक कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के बाद उनके भाई शरतचन्द्र बोस, गांधी जी के अनुयायी बने रहे। गांधी के सबसे संकटपूर्ण समय में नोआखाली में भी वे उनके साथ थे।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा पट्टाभि सीतारमैया की पराजय के बाद गांधीजी के बयान को परिप्रेक्ष्य से काटकर प्रस्तुत किया जाता है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने वह चुनाव वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ के मुद्दे पर लड़ा था। दक्षिणपंथी धड़े में अधिकांश निष्ठावान गांधीवादी नेता आते थे। इसलिए स्वाभाविक रूप से सीतारमैया को गांधीजी का आशीर्वाद प्राप्त था। इसी संदर्भ में गांधी जी ने उपरोक्त बयान दिया था। परन्तु इसी बयान में उन्होंने सुभाष बाबू को उनकी जीत पर बधाई देते हुए उन्हें पूरी तरह वामपंथी कांग्रेस कार्यकारिणी के निर्माण का न्यौता भी दिया था। चुनाव प्रचार के दौरान यह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रमुख मांग थी। हालांकि गलतफहमियों के चलते गतिरोध गहराता गया और अंततः 29 अप्रैल, 1939 को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने पूरी गरिमा के साथ कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का मानना था कि यदि वे इस देश के सर्वोच्च नेता का विश्वास हासिल न कर सके तो उनकी विजय का कोई अर्थ नहीं है।
आजादी के बाद काफी लम्बे समय तक नेताजी के जीवित होने सम्ंबन्धी अफवाहें आम जनता के बीच खूब प्रचारित एवं प्रचालित की गई, जिनका फायदा ढपोरशंखी साधुओं ने खुद को नेताजी बताकर उठाने की खूब कोशिशें भी कीं, जिनमें टाट वाले बाबा का नाम लिया जाना प्रासंगिक ही होगा। यह कितना खेदजनक है कि लोग मानते हैं कि नेताजी अपनी गिरफ्तारी के बाद ब्रिटेन को सौंपे जाने के डर से भूमिगत रहे। जो व्यक्ति दुनिया के सबसे ताकतवर साम्राज्य से टकराने का साहस रखता हो, वह देश में अपने ही लोगों के सामने आने की ताकत नहीं जुटा सकेगा क्या ऐसा एहसास दिलाया जाना कटुतापूंर्ण नहीं है? और ऐसा मानना नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अदम्य साहसी व्यक्तित्व का सबसे बड़ा अपमान नहीं है।
नेताजी की मृत्यु की घटना की जांच के लिए बने शाहनवाज कमीशन पर नेहरू की इच्छा के दबाव में गलत रिपोर्ट देने का आरोप लगाया जाता है। बताया जाता है कि नेहरू, नेताजी की लोकप्रियता से घबराते थे और इसलिए उन्होंने ब्रिटेन के साथ नेताजी की गिरफ्तारी का गुप्त समझौता कर लिया था। ध्यान देने वाली बात यह है कि शाहनवाज आईएनए (आजाद हिन्द फौज) के उन तीन शीर्ष कमाण्डरों में से एक थे, जिन्हें गिरफ्तार कर लाल किले का प्रसिद्ध मुकदमा चलाया गया था। नेहरू ने उन्हें पाकिस्तान से बुलाकर जांच आयोग का अध्यक्ष बनाया था। कैप्टन शाहनवाज एवं जवाहरलाल नेहरू की संदेहास्पद भूमिका का कोई सबूत नि उपलब्ध होते हुए भी अगर यह आरोप बार-बार सामने आता है, तो कुछ तो ऐसा है ही जो सन्देह के घेरे में है। यानी सुभाषचन्द्र बोस के ऐतिहासिक योगदान और उनकी व्यक्तिगत गरिमा को ठेस पहुंचाने का काम गृह मंत्रालय ने कोई अनजाने में नहीं किया है। यह काम तो पिछले काफी समय से एक सोची समझी राणनीति के तहत किया जाता रहा है। लोगों के बीच नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आधी-अधूरी तस्वीर जानबूझकर एक षडयंत्र के तहत पेश की जाती रही है।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को राष्ट्रीय आंदोलन की मूल धारा से साजिशन काटकर अलगा कर दिया गया है। एक महान राजनीतिक व्यक्तित्व, जिसने अपना सम्पूंर्ण जीवन प्रगतिशील और धर्म-निरपेक्षता के संघर्ष में समर्पित कर दिया, उसकी आत्मा को सुखद एहसास दिलाने में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस असफल रही तो उनकी तस्वीर राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ ने अपने कार्यालयों में लगाने की हिम्मत और दरियादिली दिखाई। आखिरकार धर्म-निरपेक्षता की परिभाषा किससे सीखी जाये? कांग्रेस से अथवा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से!
(सतीश प्रधान)
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Tuesday, January 17, 2012
अमेरिका को अश्वेत और भारत को श्वेत राष्ट्रनायक की ही जरूरत
कहा जा सकता है कि लम्बे समय के बाद दुनियाभर में बहुसंख्यक कामकाजी आबादी अल्पसंख्यक पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़ी हुई है। अमरीका में यह एक प्रतिशत अमीरों के खिलाफ निन्नयानवे प्रतिशत आम लोगों का जबरदस्त गुस्सा है। लोगों का कहना है कि अमेरिका में कंजरवेटिज्म ने घटिया पूंजीवाद को मनमानी करने दी और उसे आला मुकाम दे दिया। बड़े अमेरिकी कार्पोरेट घरानों ने अपने अल्पकालिक लाभ के लिए उन मूल्यों और संस्कारों को त्याग दिया जिसके लिए कभी अमेरिका को उस पर नाज था।
पटरी पर से उतरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था को काफी हद तक वे ही पटरी पर लाये हैं और अब भी जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं कि किसी तरह से उसे बचाया जाये। इसीलिए उन्होंने कहा है कि अब समय आउटसोर्सिंग के बजाय इनसोर्सिंग का है। उन्होंने रोजगार के अवसर देश से बाहर भेजने के बजाय देश के भीतर ही रोजगार देने पर जोर दिया। ओबामा ने कहा है कि आने वाले दिनों में वे ऐसी नीतियां बनाएंगे जो आऊटसोर्सिंग को हतोत्साहित करेंगी तथा विदेशों से रोजगार वापस लाने वाली कम्पनियों को प्रोत्साहन देंगी। देश को अपने साप्ताहिक सम्बोधन में उन्होंने कहा कि आपने आऊटसोर्सिंग के बार में सुना था, अब इनसोर्सिंग की बात कीजिए।
इस सम्बोधन का वीडियो व्हाइट हाऊस की वेबसाइट पर उपलब्ध है जिसमें ओबामा ने मेड इन अमरीका उत्पादों को दिखाया है। ओबामा ने कहा कि ये उत्पाद आमतौर पर नहीं दिखते हों, लेकिन वे तीन गर्वित करने वाले शब्दों से बंधे हैं, मेड इन अमरीका। अमेरिकी श्रमिकों ने इन्हें अमरीकी कारखानों में बनाया और इन्हें देश के अन्दर और दुनिया भर के ग्राहकों को भेजा। उन्होंने कहा कि इन उत्पादों को बनाने वाली कम्पनियां एक उम्मीद बढ़ाने वाले क्रम का हिस्सा हैं, जो विदेशों से नौकरियां वापस ला रही हैं।
ओबामा ने कहा कि रोजगारों की इनसोर्सिंग करने वाले कारोबारी अधिकारियों को उन्होंने इसी सप्ताह व्हाइट हाऊस में एक मंच में बुलाया था। राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि मैंने उन सीईओ से वही बात कही जो मैं किसी भी उद्योगपति से कहना चाहूंगाः कि आप और अधिक रोजगार देश में लाने के लिए क्या कर सकते हैं, और मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि आपके साथ ऐसी सरकार होगी जो आपकी सफलता के लिए हर सम्भव कदम उठायेगी।
ओबामा ने कहा कि इसीलिए अगले कुछ सप्ताह में मैं नए कर प्रस्ताव पेश करूंगा जो रोजगार वापस लाने तथा अमेरिका में निवेश करने वाली कम्पनियों को पुरस्कृत करेंगे। इनमें उन कम्पनियों के लिए कर छूट समाप्त की जाएगी जो रोजगार विदेश भेजती हैं। ओबामा ने अमरीकी सरकार के ढ़ांचे तथा कार्य परिचालन को भी चुस्त दुरूस्त बनाने का आह्वान किया ताकि यह 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था के अनुरूप बन सके, इसी के साथ यह लिखने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि उन्होंने अमेरिकी राष्ट्र को सुरक्षित भी बनाया है।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया है, जबकि वे डा0 मनमोहन सिंह जैसे अनर्थशास्त्री नहीं हैं, लेकिन वे अपने देश की मुद्रा को (स्टैण्डर्ड एण्ड पूअर्स संस्था द्वारा क्रेडिट रेटिंग ट्रिपल ए से डबल ए पर गिराने के बाद भी) मजबूती प्रदान कराना जानते हैं। अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग जब घटी थी तो तथाकथित मजबूत अनर्थशास्त्री डा0 मनमोहन सिंह के देश में एक डॉलर 43 रूपये का था, जो आज की तारीख में 52 रूपये है। इसका सीधा मतलब है कि किसी अर्थशास्त्री को देश के प्रधानमंत्री के पद पर बैठाना उस देश की मुद्रा की ऐसी की तैसी कराने के अलावा और कुछ भी नहीं है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि देश की बागडोर किसी अर्थशास्त्री को सौंपा जाना, देश को कुएं में धकेलने जैसा है।
इस स्तम्भकार का विश्लेषण यही कहता है कि अमेरिकी जनता के हित में यही है कि एक मौका और बराक ओबामा को प्रदान करे, और पूरी जिन्दगी इसका विश्लेष्ण करे कि एक अश्वेत ओबामा जिसने दो टर्म इस देश की कमान संभाली, अमेरिकी नागरिकों को क्या दिया और उसके अलावा बने रहे श्वेत राष्ट्रपतियों की लीडरशिप में उन्हें क्या मिला? अमेरिका में राष्ट्रपति का एक टर्म कोई बहुत बड़ा मायने नहीं रखता, इसलिए राष्ट्रपति बराक ओबामा को एक और टर्म प्रदान कर प्रयोग किया जाना ही चाहिए कि एक अश्वेत राष्ट्रपति ने अमेरिका को क्या दिया।
राष्ट्रपति का पद पाने के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिक सांटोराम का अमेरिकी जनता से यह वादा करना कि अगर वे राष्ट्रपति बनते हैं तो औरान परमाणु संयंत्र पर हमला करवा देंगे, निहायत ही मूर्खतापूर्णं वादा है। ऐसा वादा अथवा बयान एक सनक से अधिक कुछ और नहीं है, जो अमेरिकी नागरिकों को फायदे के अलावा नुकसान अधिक पहुंचायेगा।
एक तरफ रणनीतिक कौशल देखिए ओबामा का कि उन्होंने अमेरिका के अपने व्हाइट हाऊस में बैठे-बैठे पाकिस्तान में आराम से सो रहे कुख्यात आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को ढे़र करा दिया और एक भी पाकिस्तानी जनता हताहत नहीं हुई, ना ही अमेरिकी फौज का कोई रखवाला हताहत हुआ। इससे उनके रण कौशल की रणनीति का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस आपरेशन से पाकिस्तान की जनता भी खुश हुई और अमेरिकी जनता के तो कहने ही क्या! इसके विपरीत यदि यह मान लिया जाये कि रिक सांटोराम राष्ट्रपति बन गये और उन्होंने अपने वादे के अनुसार औरान के परमाणु संयंत्र पर हमला करा भी दिया तो इससे अमेरिकी नागरिकों को क्या मिलेगा? क्या गारन्टी है कि हवाई हमला कराने के दौरान अमेरिकी फौज के जाबांज हताहत नहीं होंगे! क्या इससे परमाणु युद्ध की शुरूआत नहीं होगी? ऐसे कितने ही प्रश्न तब उभरकर सामने आयेंगे जब ऐसा हमला कराया जायेगा।
औरान में लाखों निरीह लोग मारे जायेंगे, विकिरण फैलने से लाखों लोग अन्धे, विकलांग और जाने क्या-क्या नहीं होगे। क्या उस देश की पुस्त दर पुस्त अपाहिज पैदा नहीं होगी? इस सबका कलंक क्या अमेरिकी जनता के सिर नहीं पड़ेगा? ऐसे कृत्य किसका भला करेंगे? अमेरिका के प्रति जबरदस्त नफरत फैलाकर रिक सांटोराम अमेरिकी नागरिकों को क्या मुहैय्या करायेंगे? मेरी राय में तो रिपब्लिकन पार्टी को ऐसे सनक मिजाज मानसिकता वाले नेता को कोई भी बड़ी जिम्मेदारी नहीं सौंपनी चाहिए।
इस स्तम्भकार का विश्लेषण यही कहता है कि अमेरिकी जनता के हित में यही है कि एक मौका और बराक ओबामा को प्रदान करे, और पूरी जिन्दगी इसका विश्लेष्ण करे कि एक अश्वेत ओबामा जिसने दो टर्म इस देश की कमान संभाली, अमेरिकी नागरिकों को क्या दिया और उसके अलावा बने रहे श्वेत राष्ट्रपतियों की लीडरशिप में उन्हें क्या मिला? अमेरिका में राष्ट्रपति का एक टर्म कोई बहुत बड़ा मायने नहीं रखता, इसलिए राष्ट्रपति बराक ओबामा को एक और टर्म प्रदान कर प्रयोग किया जाना ही चाहिए कि एक अश्वेत राष्ट्रपति ने अमेरिका को क्या दिया।
औरान में लाखों निरीह लोग मारे जायेंगे, विकिरण फैलने से लाखों लोग अन्धे, विकलांग और जाने क्या-क्या नहीं होगे। क्या उस देश की पुस्त दर पुस्त अपाहिज पैदा नहीं होगी? इस सबका कलंक क्या अमेरिकी जनता के सिर नहीं पड़ेगा? ऐसे कृत्य किसका भला करेंगे? अमेरिका के प्रति जबरदस्त नफरत फैलाकर रिक सांटोराम अमेरिकी नागरिकों को क्या मुहैय्या करायेंगे? मेरी राय में तो रिपब्लिकन पार्टी को ऐसे सनक मिजाज मानसिकता वाले नेता को कोई भी बड़ी जिम्मेदारी नहीं सौंपनी चाहिए।
यह स्तम्भकार निश्चित रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि अमेरिकी नागरिकों के हित में यही है कि अगला राष्ट्रपति भी अश्वेत बराक ओबामा को ही बनायें, और उस श्वेत लीडर को भारत भेज दें, जिसे वे बहुत पसन्द करते हैं। वह हिन्दुस्तान सुधार देगा और ओबामा अमेरिका। अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति ओबामा ने जितने भी निर्णय लिए हैं, निश्चित रूप से वे अमेरिका के हित में ही रहे हैं। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, इसलिए यह वह समय है जब अमेरिकी जनता को उनका साथ अपनी कन्ट्री के हित में देना चाहिए, बाकी रही उनकी मर्जी, उनका देश। मेरा स्पष्ट मत है कि अमेरिकी जनता अपने मत का प्रयोग बराक ओबामा के ही पक्ष में करके उन्हें नवम्बर 2012 में होने वाले चुनाव में पुनः एक और टर्म के लिए अमेरिका का राष्ट्रपति बनायेगी।
अमेरिका जैसे प्रभावशाली राष्ट्र का पुनः नेतृत्व संभालने की शुभकामनाओं के साथ अग्रिम बधाई। (सतीश प्रधान)
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Thursday, January 12, 2012
वेटिकन सिटी के स्कैनर पर इण्डिया
इस देश का अपना अलग कानून, अपनी राजभाषा, यहॉं तक की अपनी करेन्सी, अपना पोस्ट आफिस और अपना रेडियो स्टेशन भी है। वास्तव में यह ईसाइ धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय रोमन कैथोलिक चर्च का केन्द्र (सेन्टर) है, जिसकी सत्ता और सम्पूंर्ण शक्ति इस सम्प्रदाय के सर्वोच्चाधीष धर्मगुरू पोप के हांथों में रहती है। 1929 से इसे एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में मान्यता मिली हुई है। वेटिकन सिटी अपने खुद के पासर्पोट भी जारी करता है, जो पोप, पादरियों, कॉर्डिनल्स और स्विस गार्ड के सदस्यों (जो वेटिकन सिटी में सैन्य बल के रूप में कार्यरत हैं) को दिये जाते हैं। वेटिकन सिटी सारे विश्व में फैले कैथोलिक सम्प्रदाय के अनुयायियों की आस्था का केन्द्रबिन्दु है। इसकी मुख्य पहचान इसके सेन्टर में स्थित सैन पियेत्रो नाम के भव्य हॉल से है, जहॉं लाखों की संख्या में ईसाइ समुदाय के लोग एकत्र होकर अपने सर्वोच्चाधीष धर्मगुरू पोप का विशेष अवसरों पर दिया जाने वाला उपदेश ग्रहण करते हैं।
कैथोलिक चर्च की सारी गतिविधियॉं रोम स्थित रोमन कैथोलिक चर्च के निर्देश पर ही संचालित की जाती हैं। पोप इसके प्रमुख एवं सर्वोच्चाधीष हैं। चर्च के नियमानुसार धर्मप्रान्त क्षेत्र स्तर पर प्रत्येक बिशप का कार्यकाल उनकी 75 वर्ष की उम्र तक ही होता है, इसके बाद उन्हें रिटायर होना पड़ता है। चूंकि बिशप एंथोनी फर्नांडिस को इसी वर्ष रिटायर होना है, इसी नाते बरेली धर्मप्रान्त के लिए नये बिशप को लेकर सरगर्मियां भी तेज हैं और पूरे धर्मप्रान्त पर वेटिकन सिटी का स्कैनर लगा हुआ है।
कहा जाता है कि कैथोलिक बिशप के चयन में इलेक्शन की प्रक्रिया नहीं है। नियमानुसार प्रत्येक धर्मप्रान्त के बिशप का चयन रीजन के सभी बिशप मिलकर सर्वानुमति से करते हैं। बरेली रीजन में दस धर्मप्रान्त हैं। उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और राजस्थान को मिलाकर बरेली एक रीजन है। इस बरेली रीजन में दस धर्मप्रान्त हैं इन सभी धर्मप्रान्तों के बिशप, बरेली धर्मप्रान्त रीजन के बिशप का चयन करेंगे। इसी वर्ष यह प्रक्रिया शुरू होनी है, जिसके बाद ये सारे बिशप किसी एक के नाम पर अपनी सहमति रोमन कैथोलिक चर्च के दिल्ली स्थित प्रतिनिधियों के जरिए पोप को भेजेंगे। अन्त में जब सर्वोच्चाधीष पोप उस नाम पर अपनी मुहर लगा देंगे, तभी नये बिशप का नाम घोषित कर दिया जायेगा।
(सतीश प्रधान)
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Monday, January 9, 2012
दवा कम्पनियों का स्लॉटर हाऊस है हिन्दुस्तान
Kidney cancer patients denied life-saving drugs by NHS rationing body NICE
Read more: http://www.dailymail.co.uk/health/article-1174592/Kidney-cancer-patients-denied-life-saving-drugs-NHS-rationing-body-NICE.html#ixzz1iYxBL22X
रिसर्च प्रोजेक्ट के नाम पर दवा कम्पनियॉं उन्हें परीक्षण के लिए नई-नई दवायें देती हैं। इसके बदले में वे चिकित्सकों को विदेश घुमाती हैं और मोटा आर्थिक पैकेज देती हैं अलग से। इन दवा कम्पनियों में ज्यादातर ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोपीय देश की हैं। यद्यपि इन्हें लेकर ना तो कोई निश्चित आंकड़े उपलब्ध हैं,और ना ही उपलब्ध हो सकते हैं,फिर भी यह अरबों रूपयों का करोबार है,जो बड़े चैन से हिन्दुस्तान में निर्बाध गति से चल रहा है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 2007 से 2010 के बीच हिन्दुस्तान में इन दवा परीक्षणों से 1730 लोगों की मृत्यु हो गई वह भी बिल्कुल मुफ्त में। पिछले वर्ष 670 हिन्दुस्तानियों की दवा परीक्षण से मौत हुई है, जिनमें बड़ी मुश्किल से 8 लोगों को इंस्योरेन्स की राशि दवा कम्पनियों द्वारा दी गई, जबकि दवा कम्पनियों ने नई दवा को मार्केट में हिट कराने के लिए 3600 करोड़ रूपये खर्च किये।
Whose Testing Animals we are?
Last year in India, 670 Indians lost their lives in medical experiments, But only 8 got the insurance amount from the pharmaceutical companies. Drug Controller General of India (DCGI), Dr. Surinder Singh seeking an explanation from the 9 drug companies for this incident. After his letter was exposed in the media, The drug companies promised to settle the insurance amounts to all victims. But there are more to be fixed in this problem.
भोपाल का गैस हादसा भी एक परीक्षण ही था, जिसमें हजारों लोगों की जान चली गई,लाखों लोग अपंग और अपाहिज हो गये तथा पीढी दर पीढी विकलांग पैदा होने को मजबूर है। सुविज्ञ सूत्रों ने बताया है कि वैसे तो ये परीक्षण ज्यादातर अनपढ़,गरीब और आदिवासियों पर किये जाते हैं, लेकिन पैसों के लिए अन्धे हो रहे डॉक्टर इसका परीक्षण किस पर न कर लें, कोई भरोसा नहीं। जाहिर है परीक्षण उसी पर होगा जो इन रिसर्च-कम-मेडिकल हॉस्पिटल में जा रहा होगा और डॉक्टर्स को भगवान मान रहा होगा। ध्यान रखिए भगवान केवल एक है, जो आपको दिखाई नहीं दे सकता और जो सशरीर दिख रहा है वह भगवान नहीं है।- Pharmacy is a booming industry, and trillions of money are involved in this business(Business!?). Pharmaceutical companies spending nearly Rs. 3600 Crores for a new medicine to hit the market. They have to cross many stages of research for that and The very important stage of the research is Human Testing. Without proving that the medicine doesn't harm the human, the drug can't hit the market.
- There are tough laws in rich countries for human testing, The company has to assure the safety of the human and they should take care of all the expenses of that person. It's too expensive in those countries, If they do the same in poor countries it costs 60% less. So Pharmaceutical companies target emerging countries like India.
- In 2005, there were only 100 experiments conducted in India, But today at least 1000. There were 100 casualties before 3 years but now the number hits 670.
- The drug companies target only poor and ignorant people. In Andra(Khammam District), 14,000 scheduled tribe girls were used for an Oral Cancer medical experiment. The girls and their parents did not even know that this kind of experiment going on. During the investigation, 6 girls have died. Then only the whole experiment thing came to light.
- The apex medical research institution of India AIIMS(All India Institute of Medical Science) also not spare for this testing thing. It is hard to say 49 babies were killed in an experiment last year. 4142 babies were used in that experiment, in that, 2728 babies were under the age of 1.
- "For research and testing use the Indian Babies," said the US Govt. That means all the drug companies got OK from their end. So, Indian babies are going to be Testing animals in the coming days.
- How come the Indian Govt and officials letting these things happen, Corruption?. What state of morality this is?, Whose testing animals are we?.
- The safety laws differ from state to state in India, So the companies easily escape from the laws
इसी प्रकार से चूहों पर भी विभिन्न प्रकार के प्रयोग और परीक्षण किये जाते हैं। ध्यान रहे कि स्पेस में सबसे पहले कुत्ते-बिल्ली और चूहे ही बतौर परीक्षण भेजे जाते हैं। इसी व्यवस्था के तहत जिन देशों के इंसान को ये दवा कम्पनियां कुत्ता, बिल्ली, मेढ़क, खरगोश और चूहा समझते हैं, उन देशों में नई दवाओं का परीक्षण ये उन देशों के चिकित्सकों को अवैध धन देकर बड़े आराम से कराते हैं। यानि इंसान को पशु से अधिक कुछ नहीं समझा जाता। चीन, इण्डोनेशिया और थाईलैंण्ड भी उन देशों में शुमार है जहॉं ये परीक्षण किये जाते हैं। इन देशों में होने वाले प्रयोगों और आंकड़ों के आधार पर ही युरोपीय ड्रग कन्ट्रोलर के पास दवा कम्पनियां अपनी दवाओं को बाजार में उतारने की अनुमति मांगती हैं।
आन्ध्रा प्रदेश के कम्माम जिले में अनुसूचित जनजाति की 14,000 लड़कियों पर ओरल कैन्सर मेडीकल प्रयोग किया गया। इन लड़कियों के माता पिता को पता ही नहीं था कि उनके बच्चों के ऊपर दवाओं का प्रयोग किया जा रहा है। परीक्षण के दौरान ही जब 6 लड़कियों की मृत्यु हो गई तब इस बात का पता लगा कि डॉक्टर इन 14,000 लड़कियों पर दवा का प्रयोग कर रहे थे। ऐसे डॉक्टरों को तो सरेआम कोड़े लगाने चाहिए जो बगैर उनकी इच्छा के उन्हें मूर्ख बनाकर,अपने व्यक्गित फायदे के लिए उनपर दवाओं का परीक्षण कर रहे थे।
हिन्दुस्तान में मेडीकल का शीर्ष संस्थान एम्स भी ऐसे परीक्षणों से पीछे नहीं है। पिछले वर्ष 49 बच्चे एक परीक्षण में काल के गाल में समा गये। 4142 बच्चों पर ये परीक्षण किये जा रहे थे, जिसमें से 2728 बच्चों की उम्र मात्र एक वर्ष से भी कम थी।
इन दवा कम्पनियों के खिलाफ सक्रिय दिल्ली के डॉ0 चन्द्र गुलाटी बताते हैं कि हिन्दुस्तान में दवा परीक्षणों को लेकर पारदर्शिता नहीं बरती जाती है। डॉक्टर लापरवाही करते हैं, वे ना तो नैतिक मूल्यों की परवाह करते हैं और ना ही किसी तरह की इंसानियत दिखाते हैं। हिन्दुस्तान में जान की कीमत बहुत ही सस्ती है। संसद में स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नवी आजाद ने भी स्वीकार किया है कि 2010 में दवा परीक्षणों में मारे गये 22 लोगों के परिवारीजनों को विदेशी कम्पनियों ने मात्र 2 लाख 38 रूपये प्रतिव्यक्ति की दर से भुगतान किया। इसे कन्वर्ट करिए डालर में तो यह हुआ 4500 डालर। अब किसी अमेरिकन से पूछिए क्या वह 4,50,000 डालर में ही सही अपना शरीर इन दवा कम्पनियों को बतौर परीक्षण देने को तैयार होगा। कदापि नहीं! इसीलिए इन दवा कम्पनियों को अपनी दवा के परीक्षण के लिए भारत,चीन,इंडोनेशिया और थाईलैण्ड स्वर्ग नज़र आते हैं।
डॉ0 गुलाटी का कहना है कि विदेशी कम्पनियां महंगी दवाओं का बाज़ार तैयार करने के लिए भारतीयों का इस्तेमाल बिल्कुल चूहे,बिल्ली,मेंढ़क और खरगोश के तर्ज पर एकदम सस्ते में कर लेती हैं। हिन्दुस्तान के ज्यादातर मरीजों को पता ही नहीं होता कि उनका इलाज हो रहा है अथवा उनपर परीक्षण। वे सिर्फ डॉक्टर को भगवान मानकर जो वो कहता है वे दवाएं लेने को राजी हो जाते हैं,जो अभी परीक्षण के स्तर पर ही होती हैं,क्योंकि डॉक्टर उन्हें बताता ही नहीं कि उसे ये दवाईयां बतौर परीक्षण दी जा रही हैं। देश में आये दिन महल के रूप में खडे़ होते डॉक्टर के बंगले इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं। (सतीश प्रधान)
Crude Experiments
on Innocent People
A Personal Commentary
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Medical Research,
Medicinal experiments
Sunday, January 8, 2012
असली लोकतंत्र अमेरिका में है, भारत में नहीं
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