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Friday, December 16, 2011

भारत रत्न मेजर ध्यान चन्द को दो

         
          क्रिकेट के भगवान अब तो मुँह खोलो! खेल में पहला भारत रत्न मेजर ध्यान चन्द को ही दिया जाये, जरा अपने मुख से तो बोलो।


          ऐसा किया जाना सचिन जी,आपकी महानता को ही दर्शायेगा और भगवान में महानता ही ना हो,तो फिर तो वह साधारण इन्सान ही कहा जायेगा! भगवान के लिए कुछ तो बोलो।

Thursday, December 15, 2011

दलाईलामा और अन्ना से घबराती सरकारें

          चीन सरकार दलाईलामा की और सोनिया सरकार अन्ना की मृत्यु की कामना कर रही हैं,जिससे एक ओर जहां चीन किसी कठपुतली को अगले दलाईलामा के रूप में पेश करके अपनी मनमर्जी कर सके,वहीं दूसरी ओर मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठ रही आवाज का गला दबाकर चैन की बंशी बजा सके। और दोनों ही स्थिति में ले-देकर भारत की ही ऐसी की तैसी होनी है।
          यदि ऐसा नहीं है तो एक भिक्षु और तिब्बती धर्मगुरू दलाईलामा से पूरी चीन सरकार क्यों घबराई हुई है,और एक बुजुर्ग एवं दुर्बल समाजसेवी अन्ना हजारे से भारत सरकार क्यों गुण्डई कर रही है। जिस तरह तिब्बतीयों के लिये दलाईलामा महत्व रखते हैं,ठीक उसी तरह 120 करोड़ भारतीय जनता के लिये अन्ना हजारे का महत्व है। पिछले दो दशक से विश्व मंच पर लगातार बढ़ रहे चीनी दबदबे के आदी हो चुके लोग इस बात से हैरान-परेशान हैं कि चीन सरकार अपनी बौखलाहट और हताशा का प्रदर्शन क्यों करती है! इसी प्रकार मात्र छह माह पूर्व भ्रष्टाचार के अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे को लेकर रालेगण सिद्धी(महाराष्ट्र)से लेकर दिल्ली की ओर कूच करने वाले अन्ना हजारे से सोनिया गांधी सरकार हलकान क्यों है?
          जिस प्रकार पूरी दुनिया यह नहीं समझ पा रही है कि लगभग हर मामले में दुनिया को ठेंगा दिखाने की हिम्मत रखने वाला चीन,सत्ताहीन पूर्व शासक और एक बौद्ध भिक्षु दलाईलामा से इस कदर घबराता क्यों है,ठीक इसी प्रकार भारतीय जनता यह नहीं समझ पा रही है कि आखिरकार भारत के सारे भ्रष्ट नेता अन्ना हजारे से भयभीत क्यों है? लेकिन इस भय के बाद भी वे अपनी गुण्डई छोड़ने को कतई तैयार नहीं है,जैसे की चीन।
          पिछले दिनो बीजिंग ने ऐसी ही हायतौबा,नई दिल्ली में होने वाले विश्व बौद्ध सम्मेलन को लेकर भारत सरकार के खिलाफ मचाई। पहले तो उसने ‘सीमावार्ता’ की आड़ लेकर इस सम्मेलन को स्थगित करने की मांग की,लेकिन जब भारतीय विदेश मंत्रालय ने इंकार कर दिया तो चीन ने मांग उठाई कि दलाईलामा को इसमें भाग लेने से रोक दिया जाये। इन दोनों ही बातों को न मानने के एवज में भारत सरकार ने,इस विश्व सम्मेलन में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की उपस्थिति को गैरहाजिर कराकर चीन को संतुष्ट किया,जैसा कि अन्ना हजारे के दिल्ली स्थित रामलीला मैदान पर 13 दिनो के अनशन के बाद संसद के दबाव में आश्वासन देकर किया था।
          उधर चीन सरकार,इतने से खुश नहीं हुई और उसने गुस्से में आकर‘बीजिंग’में होने वाली प्रस्तावित सीमावार्मा को ही स्थगित कर दिया। भारत में,संसद और राष्ट्रपति के आश्वासन के बावजूद मजबूत लोकपाल बिल(एनाकौण्डा) की जगह विष-दंतहीन लोकपाल(मटमैले सांप)का मसौदा,मजबूत अभिषेक मनु सिंघवी ने  दिसम्बर 2011 के दूसरे पक्ष में संसद के समक्ष रखने का मन बनाया है। जिस प्रकार तिब्बती चीन का कुछ नहीं कर सकते सिवाय इसके कि दिन-प्रतिदिन अपनी नफरत को दिन-दूनी रात चैगुनी करते जायें,ठीक उसी प्रकार भारतीय जनता इस हठी और कमीशनखोर सरकार का आम चुनाव से पूर्व कुछ नहीं कर सकती,सिवाय इसके कि इस सरकार के प्रति अपनी नफरत को दिन-दूनी रात चैगुनी बढ़ाती जाये। दिल्ली में आयोजित बौद्ध सम्मेलन के एक दिन बाद ही चीन सरकार के कोलकाता स्थित वाणिज्य दूत ने पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार को सीधे धमकी भरी एक चिट्ठी लिख मारी और कहा कि राज्य के राज्यपाल और मुख्यमंत्री उस सभा में भाग न लें,जो मदर टेरेसा की स्मृति में कोलकाता में होने वाली थी और जिसमें दलाईलामा मुख्य अतिथि के रूप में भाग ले रहे थे।
          एक विदेशी राजदूत की इस बेजा हरकत पर कपिल सिबल, अभिषेक मनु सिंघवी, एसएम कृष्णा, प्रणव मुखर्जी,पी. चिदम्बरम,मनमोहन सिंह समेत सोनिया गांधी और राहुल गांधी को चिंता नहीं हो रही है? ये सरकार न तो देश को ठीक से चला पा रही है और न ही विदेशों में अपने सम्मान की रक्षा कर पा रही है। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने सम्मेलन में भाग लेकर और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने,अपनी गम्भीर रूप से बीमार माँ की तीमारदारी में लगी रहने के बावजूद अपने एक वरिष्ठ प्रतिनिधि को सभा में भेजकर चीनी राजदूत को उसकी हैसियत तो दिखा ही दी।
          चीनी बौखलाहट के इस सार्वजनिक प्रदर्शन की वजह से उपरोक्त दोनों सभाओं को दुनिया भर के मीडिया एवं सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इतना भरपूर समर्थन मिला कि इतना तो इसके आयोजक कई करोड़़ डालर विज्ञापन पर खर्च करके भी नहीं प्राप्त कर सकते थे। दुनिया को एक बार फिर सोचने पर मजबूर होना पड़ा कि आखिरकार क्या कारण है कि चीन जैसा विशालकाय देश दलाईलामा से इतना घबराता है। लगभग यही हालात भारत में भी विद्यमान हैं। 11 दिसम्बर को दिल्ली में अन्ना हजारे का एक दिन का सांकेतिक अनशन हुआ जिसमें सभी राजनीतिक दलों ने भाग लिया जिससे घबराकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 13 दिसम्बर को कैबिनेट की बैठक बुलाई तथा 14 दिसम्बर को सर्वदलीय बैठक का आयोजन किया गया है।
          एक तरफ जहां दलाई लामा को लेकर चीनी नेताओं की इस बौखलाहट के कई कारण हैं। इनमें सबसे बड़ा कारण चीन द्वारा पिछले सात दशक में जबरन कब्जाये गये तीन देशों यथा पूर्वी तुर्किस्तान(शिजियांग),भीतरी मंगोलिया और तिब्बत में से अकेला तिब्बत ऐसा है,जिसके स्वतंत्रता आन्दोलन को दलाईलामा जैसा अंतरराष्ट्रीय प्रभाव वाला भिक्षु नेता उपलब्ध है। 1949 में पूर्वी तुर्किस्तान के लगभग सभी नेता तब मार दिये गये थे,जब चेयरमैन माओ के निमंत्रण पर चीन की हवाई यात्रा के दौरान उनके विमान को हवा में ही विस्फोट करा दिया गया।
          भीतरी मंगोलिया में भी कडे़ चीनी नियंत्रण के कारण आज तक कोई प्रभावी नेता नहीं उभर पाया है, लेकिन 1959 में तिब्बत से भाग कर स्वतंत्र दुनिया में आने के बाद से दलाईलामा के प्रति चीन सरकार के मन में बसे खौफ का एक और बड़ा कारण यह है कि 1951 में तिब्बत पर चीनी कब्जे के बाद वाले 60 वर्ष में अपने सारे प्रयासों के बावजूद वह तिब्बती जनता का दिल जीतने में बुरी तरह नाकामयाब रहा है। इसकी भी सटीक वजह यह है कि दरअसल तिब्बती जनता को खौफजदा करने और असहाय समझने और तिब्बत पर नियंत्रण पक्का करने के इरादे से चीन सरकार ने वहां लाखों चीनी नागरिकों को बसा दिया,इसका परिणाम यह हुआ कि तिब्बती नागरिकों के मन में असुरक्षा की भावना पहले से कहीं अधिक बलवती हो गयी,जिसके कारण 1989 में राजधानी ‘ल्हासा’ और दूसरे कुछ बड़े शहरों में उठ खड़े हुए विशाल तिब्बती मुक्ति आन्दोलन ने चीनी नेताओं को हैरान कर दिया।
          दलाईलामा के समर्थन वाले लोकप्रिय नारों के बल पर तिब्बत की आजादी के लिये चले आन्दोलन को तत्कालीन तिब्बती गवर्नर हूं जिंताओ ने टैंकों और बख्तरबन्द गाड़ियों की मदद से कुचल तो दिया,लेकिन इस आन्दोलन ने तिब्बती जनता के मन की ज्वाला को और हवा दे दी। इसके एक साल बाद ही चीन सरकार ने यह निश्चय किया कि तिब्बती धर्म का दमन करने की नीति को छोड़कर तिब्बती जनता का दिल जीतने का प्रयत्न किया जाये। इसी उद्देश्य से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एक ‘अवतार खोजी कमेटी’ ने धार्मिक नेता करमापा के नये अवतार को खोजा,जिसे दलाईलामा ने भी अपनी स्वीकृति दे दी।
          ठीक इसी प्रकार भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन करने वाले बाबा रामदेव को पुलिसिया तांडव से भयभीत कराकर उनके आन्दोलन को तो कुचल दिया,लेकिन भारतीय जनमानस के मन में यह छाप छोड़ दी कि यह सरकार गुण्डों की है। वहीं दूसरी ओर अन्ना हजारे को आन्दोलन करने से पूर्व ही उन्हें सुबह-सुबह गिरफ्तार किरके जेल में बन्द कर देने पर वह मुसीबत में आ गयी,आखिरकार 12 दिनो के उनके जबरदस्त आन्दोलन से हारी सरकार ने एक दांव खेला‘स्टैंडिंग कमेटी’ का जिसने खोजकर निकाला है,बाबा राहुल गांधी जैसा मजबूत लोकप्रिय लोकपाल।
          उधर 1995 में तिब्बत में दूसरे नम्बर के धार्मिक धर्मगुरू पंजेन लामा की खोज की गयी,लेकिन उसके लिये खोजे गये 6 वर्षीय बालक गेदुन नीमा को जब दलाई लामा ने अपनी स्वीकृति दे दी तो चीन भड़क गया और उसने उस 6 वर्षीय मासूम,उसके माता-पिता को हिरासत में लेकर अपनी पसन्द के एक लड़के ग्यालसेन नोरबू को असली ‘पंचेन लामा घोषित कर दिया। इस सारी कवायद का मकसद वर्तमान दलाईलामा के बाद अपनी सुविधा के अनुसार किसी बच्चे को ‘असली दलाईलामा’ के रूप में घोषित करने का है। लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहा है कि यदि दलाई लामा ने घोषणा कर दी कि उनके न रहने के सातवें दिन जो बच्चा चीन में पैदा होगा,वह तिब्बत को स्वतंत्र कर देगा,तब चीन की सरकार कितने चीनी बच्चों का कत्ल करायेगी?

          तिब्बती आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा ने कहा है कि गुस्सा नुकसानदायक है और करूणा खुशहाली लाती है। पांचवें पेंग्विन व्याखान में लोगों के प्रश्नों का जवाब देते हुए दलाई लामा ने कहा कि वर्ष 2008 के संकट के दौरान मेरी इच्छा थी कि मैं चीनी अधिकारियों की नाराजगी और भय ले सकूं और उन्हें अपनी करूणा दे दूं। करूणा आपके मस्तिष्क को शांत रखने में मदद करता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2008 में तिब्बत में दंगे भड़क गये थे, यहॉं तक कि भिक्षू भी विद्रोह करने में शामिल हुए और दंगे स्वायत्त क्षेत्र के बाहर बौद्ध मठों तक पहुंच गये थे।
          पिछले कुछ वर्षों से चीन,भारत की क्षेत्रीय अखण्डता की खिल्ली उड़ा रहा है,जबकि भारत अपने तिब्बत रुख में कोई बदलाव करने का इच्छुक ही नहीं दिखाई दे रहा। दरअसल सरदार मनमोहन सिंह के दब्बूपने से बीजिंग की दबंगई बढ़ गयी है। अगर ऐसे ही हालात रहे तो चीन,जिसने भारत का 1,35,000 वर्ग किलोमीटर भू-भाग दबा रखा है, तिब्बत पर किये गये कब्जे का विस्तार अरुणाचल को दक्षिण तिब्बत बताकर वहां तक करने की चेष्ठा करेगा। 2006 से बीजिंग अरुणाचल प्रदेश के तिब्बत से सम्बन्धों के आधार पर इस पर दावा करता आ रहा है। वह तमाम सेक्टरों में सैन्य भिड़न्त के लिये तत्पर दिखता है,जबकि नई दिल्ली सीमा वार्ताओं अथवा वार्ताओं से ही किसी को मूर्ख बनाने का भ्रम पाले हुए है।
          वार्ताओं के दौर से न तो ड्रैगन को बेवकूफ बनाया जा सकता है और न ही अन्ना हजारे और इस देश को। वार्ताओं के दौर जारी रखकर मनमोहन सिंह,पी.चिदम्बरम,कपिल सिब्बल,सलमान खुर्शीद,अभिषेक मनु सिंघवी,दिग्विजय सिंह,मनीष तिवारी,नारायण सामी आदि नेताओं के माध्यम से राहुल गांधी और सोनिया गांधी की तो लुटिया डुबो सकते हैं लेकिन दलाईलामा का साथ देकर ‘तिब्बत’ में विकास के माध्यम से कुछ करने की हिम्मत नहीं जुटा सकते। वैसे भी एसएम कृष्णा के जाने का नम्बर आ गया है, विदेश मंत्रालय कपिल सिब्बल को दे दिया जाये,तो कुछ न कुछ तो हो ही जायेगा। वर्तमान माहौल में स्व.लाल बहादुर शास्त्री की याद आती है,क्योंकि सरदार जी में तो सरदार वाले एक भी गुण दिखाई नहीं देते और जो दिखाई दे रहे हैं,वे सरदार के तो नहीं हैं। (सतीश प्रधान)


Tuesday, December 6, 2011

खेल से कोसों दूर हैं खेल फेडरेशन

          सिडनी ओलम्पिक की कांस्य पदक विजेता और इंडियन वेटलिफ्टिंग फेडरेशन की वाइस प्रेसिडेन्ट पदमश्री कर्णम मल्लेश्वरी के  त्यागपत्र देने से पूरा खेल जगत और खेलप्रेमी स्तब्ध हैं। पदमश्री कर्णम मल्लेश्वरी ने इस्तीफा देने की वजह फेडरेशन में खेल की समझ न रखने वालों का बोलबाला और खेल की बजाय राजनीति का हावी होना बताया है।
          दरअसल फेडरेशन, खिलाड़ियों के लिए काम ही नहीं कर रही है। इण्डियन वेटलिफ्टिंग फेडरेशन के प्रेसीडेन्ट बी0पी0वैश्य को खेल की नाम मात्र की भी समझ नहीं है,इसके बावजूद फेडरेशन में उन्ही की तूती बोलती है। सीनियर व दिग्गज खिलाड़ी कह रहे हैं कि किसी भी खेल का नेशनल फेडरेशन अच्छे खिलाड़ियों को किसी पद पर देख ही नहीं सकता। एक न एक दिन ऐसी नौबत आनी ही थी। उधर,मल्लेश्वरी कह रहीं हैं कि फेडरेशन में उनका दम घुट रहा था। वहीं वेटलिफ्टिंग फेडरेशन के सचिव कह रहे हैं कि फेडरेशन ठीक से काम कर रहा है। उनका कहना है कि मल्लेश्वरी ने इस्तीफा दिया है, यह उनकी मर्जी है। किसी ने इस्तीफे के लिए उन पर दबाव नहीं बनाया है, इसका सीधा मतलब है कि उनकी फेडरेशन में दबाव भी बनाया जाता है।
          पदमश्री कर्णम मल्लेश्वरी का कहना है कि पहले यही फेडरेशन वाले गुजारिश कर रहे थे कि वह फेडरेशन में आएं, जिससे उनके अनुभव का फायदा फेडरेशन और देश के उभरते हुए वेटलिफ्टरों को मिल सके। वर्ष 2009 में वह उपाध्यक्ष के रूप में फेडरेशन से जुड़ भी गईं,लेकिन बाद में फेडरेशन ने उनकी एक न सुनी। उन्होंने जब भी फेडरेशन के पदाधिकारियों की कार्यशैली पर अंगुलि उठाई तो वे उनसे नाराज होने लगे। पिछले दो सालों में इन पदाधिकारियों ने ऐसा माहौल तैयार कर दिया कि उन्हें मजबूरन फेडरेशन से अपने को अलग करना पड़ा। उन्होंने कहा कि यहॉं चाहकर भी खिलाड़ियों का भला नहीं किया जा सकता। उन्होंने कई बार खेल की बेहतरी के लिए सुझाव दिये, लेकिन उन्हें दरकिनार कर दिया गया। उनका कहना है कि फेडरेशन के अधिकारियों ने अन्य महिला वेट लिफ्टरों पर दबाव बनाया कि वे मल्लेश्वरी से नाता न रखें। नाता रखने वालों का कैरियर खराब किये जाने की धमकी भी दी जाती थी। ऐसी परिस्थितियों में कैसे कोई काम कर सकता है,इससे बेहतर था कि इस्तीफा दे दिया जाये और मैंने अपना इस्तीफा खेल मंत्री, और फेडरेशन को दे दिया है।
          वहीं फेडरेशन के सचिव सहदेव सिंह आरोप लगाते हैं कि कोई चाहे जितना बड़ा खिलाड़ी हो लेकिन जब वह किसी संगठन में रहेगा तो उसे उसके कायदे-कानून भी मानने पड़ेंगे। सहदेव सिंह का आरोप है कि मल्लेश्वरी न तो फेडरेशन की बैठकों में हिस्सा लेती थीं और न ही वेटलिफ्टिंग के सुधार के लिए कोई सुझाव देती थीं। शायद सहदेव सिंह को भी क्रिकेट एसोसियेशन के राजीव शुक्ला की तरह झूंठ बोलने की आदत पड़ गई है,इसीलिए वह कह रहे हैं कि कर्णम,फेडरेशन की बैठक में हिस्सा नहीं लेती थीं। यदि कर्णम बैठकों में हिस्सा न लेती होतीं तो उन्हें इस्तीफा देने की जरूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि तब तो फेडरेशन उन्हें बड़ी आसानी से बाहर का रास्ता दिखा सकता था। तब उसके पास कहने को भी होता कि बैठकों में भाग न लेने के कारण कर्णम को बर्खास्त कर दिया गया है।
          सहदेव सिंह का कहना है कि यही नहीं फेडरेशन ने पिछले कुछ माह में जो कदम उठाए हैं उनसे भी मल्लेश्वरी खुश नहीं थीं। आखिरकार खेल संघों में कौन से ऐसे कदम उठाये जा रहे हैं जिनसे खिलाड़ी ही खुश और संतुष्ट नहीं हो पा रहे हैं? यदि वास्तव में ऐसा है तो ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता ही क्या है? 400मी. हर्डल के पूर्व राष्ट्रीय रिकार्डधारी भुवन सिंह कहते हैं कि फेडरेशन में ऐसे-ऐसे लोग हैं जिनके साथ खिलाड़ियों का काम करना मुश्किल है। नब्बे के दशक के आखिरी सालों में ऑल इंग्लैण्ड चैम्पियन बैडमिंटन खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण उस समय के बैडमिंटन संघ की कार्यशैली से खिन्न थे। उन्होंने नया संघ बनाया लेकिन अंततः उन्हें उस समय के बैडमिंटन संघ के सामने हथियार डालने पड़े। इसी तरह हॉकी खिलाड़ी गुरबक्श सिंह व परगट सिंह या कई बड़े एथलीटों को राष्ट्रीय संघों ने जगह नहीं दी।
          पादुकोण की कहानी ठीक उ0प्र0 के आगरा क्रिकेट संघ से मिलती जुलती है,जिसके सर्वेसर्वा मि0 जी0डी0शर्मा बने हुए हैं,जो राजीव शुक्ला के चेले हैं एवं हुण्डई की डीलरशिप ब्रज हुण्डई के नाम से लिए हुए हैं और उसमें भी हुण्डई वाहनों की सर्विस के नाम पर स्पेयर पार्टस के उल्टे-सीधे बिल बनाकर कस्टमर को ठगते हैं। आगरा क्रिकेट संघ में कोई भी खिलाड़ी न होकर इनके भाई-बिरादर यू0डी0शर्मा और इनके वर्कशाप में काम करने वाले कर्मचारी ही हैं। इन्होंने न तो स्वयं आगरा की क्रिकेट के लिए कुछ किया और ना ही किसी दूसरे को कुछ करने दिया।
          इनके नकारेपन से खीझकर कुछ क्रिकेट खिलाड़ियों ने सात-आठ वर्ष पूर्व आगरा क्रिकेट समिति का गठन किया जिसके अध्यक्ष थे आगरा कालेज के कैप्टन रहे समीर चतुर्वेदी और सचिव थे मधुसूदन मिश्रा, जिन्होंने आगरा में कईएक टूर्नामेन्ट आयोजित कराये। आगरा में क्रिकेट को प्रोत्साहित करने के लिए इस समिति का सह्योग दिया रणजी प्लेयर सर्वेश भटनागर,जो कि रेलवे की टीम से खेलते थे, के साथ रेलवे की टीम के नेगी, धीरज शर्मा, रमन दीक्षित, जीत सिंह, और रेलवे रणजी टाफी के कोच, के0के0शर्मा ने। यह जानकारी जब मि0 जी0डी0शर्मा को हुई तो उन्होंने वकील के माध्यम से रेलवे को इन खिलाड़ियों के खिलाफ शिकायत करवा दी और रेलवे से शो काज़ नोटिस इन खिलाड़ियों को भिजवा दिया कि क्यों न रेलवे से अन्यत्र किसी और टीम में खेलने के लिए उनके खिलाफ कार्रवाई की जाये?
          खिलाड़ी तो बेचारे ठहरे खिलाड़ी! वे क्या जानें गुणा-भाग का खेल,वे डर गये और उन्होंने आगरा क्रिकेट समिति की ओर से खेलना छोड़ दिया। किसी तरह से वह समिति सात-आठ साल तक सरवाइव कर पाई क्योंकि उसे ना तो यू0पी0सी0ए0 ने कोई तवज्जो दी ना ही किसी प्रकार की आर्थिक मदद। जी0डी0शर्मा गैंग के ही कैलाश नाथ टण्डन जो कि चालीस वर्षो से आगरा क्रिकेट संघ में सचिव के पद पर कब्जा जमाये थे अब यू0पी0सी0ए0 के उपाध्यक्ष बना दिये गये हैं। ये सारे वे पदाधिकारी हैं,जिन्हें क्रिकेट का बल्ला भी ठीक से पकड़ना नहीं आता और ना ही क्रिकेट की ए0बी0सी0डी0 आती है,लेकिन राजीव शुक्ला,ज्योति बाजपेई,मि0 पाठक और उघोगपति सिंहानिया की बदौलत क्रिकेट संघों पर मकड़ी की तरह कब्जा जमाये बैठे हैं।
          ध्यान रहे मि0 जी0डी0शर्मा ने यू0पी0सी0ए0 के राजीव शुक्ला को हुण्डई की एक सेडान कार गिफ्ट की है और यहॉं भी वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आये। एक अन्य व्यापारी को इन्होंने यह कहकर फंसाया कि भाई तू एक कार शुक्ला जी को गिफ्ट करदे, तेरा काम उनसे करा दूंगा! कार अपने शोरूम से दे देता हूँ जो ज्यादा से ज्यादा छूट दे सकता हूँ दे दूंगा। यानी कार गिफ्ट की खुद और ठग लिया दूसरे व्यापारी को। वापस आता हूँ पदमश्री कर्णम मल्लेश्वरी के इस्तीफे पर प्रगट की गई प्रतिक्रिया पर, इनकी कहानी क्रिकेट के इतिहास में प्रगट करूंगा।

‘‘यदि मल्लेश्वरी ने अपने पद से इस्तीफा दिया है तो कहीं न कहीं कोई सच्चाई जरूर होगी। सहदेव सिंह मनमर्जी करता होगा। इतने बड़े वेटलिफ्टर का संघ से अलग होना दुःख की बात है।
.....हरभजन सिंह,पूर्व अध्यक्ष,आई.डब्ल्यू.एल.एफ.

‘‘मैं यह नहीं कह सकता कि कौन गलत है और कौन सही। लेकिन पदमश्री कर्णम मल्लेश्वरी के फेडरेशन से हटने का एक गलत संदेश देश भर में जाएगा,जिससे वेटलिफ्टिंग का ही नुकसान होगा।
.....ललित पटेल, लक्ष्मण पुरस्कार विजेता
          इस स्तम्भकार का कहना है कि भारत के खेल मंत्री अजय माकन को इस ओर देखना चाहिए और अपने मंत्रालय को प्रभावी बनाना चाहिए वरना सारे फेडरेशन बीसीसीआई की राह पर चल निकलेंगे,जिससे खेल की तो ऐसी की तैसी ही हो जायेगी। देखा जाना चाहिए कि किस फेडरेशन को कितना अनुदान भारत सरकार का खेल मंत्रालय देता है और उसका इस्तेमाल किस मद में,कैसे और कौन कर रहा है। (सतीश प्रधान)

Tuesday, November 22, 2011

क्यों चुप हैं क्रिकेट के भगवान


काम्बली सच्चा, अजहर झूंठा
लेकिन मजबूत, अजहर का खूंटा


          1996 के विश्वकप सेमी फाइनल का वह मुकाबला जो कोलकाता के ईडन गार्डेन स्टेडियम पर श्रीलंका और भारत के बीच खेला गया,किसी ड्रामे से कम नहीं था, जिस पर वहां मौजूद क्रिकेट प्रेमियों ने कोल्ड ड्रिंक की बोतलें फेंकी, जूते-चप्पलों की बौछार करते हुए जबरदस्त हंगामा काटा एवं आग लगाकर उसका जबरदस्त विरोध प्रदर्षित किया, जिसके कारण मैच को बीच में ही रोकना पड़ा। इसके बाद जब मैच शरू किया गया तो पुनः जोरदार हंगामा होने लगा और अन्ततः जब विरोध प्रदर्शन ने थमने का नाम नहीं लिया तो 35 ओवर की समाप्ति पर मैच समाप्ति की घोषणा करते हुए,स्थापित नियमों के आधार पर परीक्षणोपरान्त श्रीलंका की टीम को विजयी घोषित कर दिया गया।
          उस समय दूरदर्शन पर मैच देख रहे करोड़ों लोगों के जेहन में दबकर रह गये सारे प्रश्न अब फिर से जीवन्त हो उठे हैं। उस समय के सीन को उन्होंने अब जब अपनी आंखों के सामने से गुजरते हुए देखा कि कैसे विनोद काम्बली रोते हुए क्रिकेट के मैदान से भागते हुए पैवेलियन आये थे,और अब जब उन्होंने स्टार न्यूज चैनल पर इसका रहस्योदघाटन किया है तो किस प्रकार से रो पड़े हैं,तो क्रिकेट प्रेमियों का खून खौल रहा है।
             मैच फिक्सिंग के इस करिश्माई करतब,जो पन्द्रह वर्ष पहले घटित हुआ,को दबाने की कोशिश में जो भी लोग लगे हैं,वे सब किसी न किसी प्रकार से उस मैच फिक्सिंग को आर्मी की कनात में दबाने की भरपूर कोशिश ही नहीं कर रहे हैं अपितू आगे भी यह इसी स्वरूप में जारी रहे,इसकी भी पटकथा लिख रहे हैंयदि विनोद काम्बली के रहस्योदघाटन में दम नहीं है तो अजीत वाडेकर,कपिल देव,राजीव शुक्ला,शरद पवार, मदन लाल,   ....... आदि ये सब बतायें कि विश्वकप सेमी फाइनल में आखिरकार वे क्या कारण थे कि स्टेडियम में मौजूद सारे क्रिकेट प्रेमियों ने अपना आपा ही नहीं खोया,अपितू जूते-चप्पलों और कोल्ड ड्रिंक की बोतलों की बौछार की? दर्शकों ने पागलपन की हद तक हंगामा क्यों काटा? क्यों नहीं वे दोबारा मैच देखने के लिए शांत हुए? हंगामें में किसी भी प्रकार की कमी ना आने की संभानाओं के कारण ही मैच को बीच में समाप्त कर रिजल्ट की घोषणा करनी पड़ी थी।

          अलावा इसके टी0वी0 पर मैच देख रहे करोड़ों लोग गुस्से में क्यों आ गये थे? कुछ ने तो अपने टी0वी0 ही फोड़ डाले थे,यह कहते हुए कि साले फिक्स करके मैच खेलते हैं! क्या सारे क्रिकेट प्रेमी जो मैदान पर थे या टी0वी0 देख रहे थे,सिरफिरे और पागल थे? जैसा कि विनोद काम्बली को अजहरूद्दीन घोषित करने की कोशिश कर रहे हैं। केवलमात्र अजहरूद्दीन और उनका साथ देने वाले ही स्वस्थ्य, दुरूस्त एवं मेडीकली फिट हैं,बाकी का पूरा हिन्दुस्तान पागल है! इस देश का हर वो इन्सान पागल है,चरित्रहीन है,सिरफिरा है, जो किसी सत्य को उदघाटित करता है अथवा करना चाहता है। एकदम दुरूस्त हालात में अजहरूद्दीन जैसे लोग ही रहते हैं जो इस देश की इज्जत को तार-तार कर रहे हैं एवं अच्छे-खासे इन्सान को पागल करार दिये जाने की साजिश रच रहे हैं। दिग्विजय सिंह जैसे लोगों के बयान उनके पक्ष में आने का मतलब यह नहीं है कि वे पाक-साफ हैं। इस बयान के बाद तो अजहरूद्दीन का कथन और भी संदेहों से घिर गया है,क्योंकि दिग्विजय सिंह कभी भी, कहीं भी, किसी भी साफ सुथरे इन्सान का बचाव करते ही नहीं। उनके पास तो वह पंजा है,कि जिसकी पीठ पर लगा देंगे वहीं दाग लग जायेगा।
          कुछ का तो कहना है कि सारा विश्व जानता है कि 1996 को तो कीजिए दरकिनार बल्कि 1990 के बाद से होने वाले ज्यादातर मैचों में मैच फिक्सिंग या स्पॉट फिक्सिंग एक अनवरत चली आ रही प्रक्रिया है,जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन क्रिकेट के जानकार कुछ लोगों का कहना है कि ऐसे समय में विनोद काम्बली से ऐसे रहस्योदघाटन की वजह भी एक साजिश है जो अजहरूद्दीन को फिर से कटघरे में खड़ा कर रही है,जब वे इस आरोप से बरी होने वाले हैं। कुरेदने पर पता चला कि अजहरूद्दीन,दरअसल अदालत से पाक-साफ बरी होने वाले हैं। मतलब यहॉं भी फिक्सिंग की संभावनाए प्रबल हैं,तभी तो कहा जा रहा है कि वे बेदाग बरी होने वाले हैं।
          काम्बली के रहस्यदोघाटन के जो भी कारण हों,वे एक तरफ हैं,लेकिन देश की अस्मिता से जुड़ा मैच फिक्सिंग का यह प्रश्न अंगद के पैर की तरह अपनी जगह पर जड़ता से खड़ा है,और देशद्रोहियों से जबाव मांग रहा है। इसके विरोध में इस सफाई के कोई मायने नहीं कि- विनोद काम्बली ने यह बात 1996 में ही क्यों नहीं उठाई! सभी को पता है कि जिन्न सालों-साल बोतल में बन्द रहता है,कोई फर्क नहीं पड़ता,लेकिन जब भी बोतल से बाहर आता है तो बवंडर मचना लाजिमी है,और तब सबकुछ तहस-नहस हो जाता है।
         1996 की मैच फिक्सिंग का वह जिन्न अब बोतल से बाहर आ चुका है। अब इस बात के कोई मायने नहीं कि 15 सालों बाद उस बोतल का ढ़क्कन खोलकर,मैच फिक्सिंग के जिन्न को विनोद काम्बली ने बाहर क्यों निकाला! अब जबकि मैच फिक्सिंग का जिन्न बाहर आ ही गया है तो यह साफ हो ही जाना चाहिए कि क्रिकेट के ये जादूगर, क्रिकेट प्रेमियों को कितने सालों से बेवकूफ बना रहे हैं। यह क्रिकेट खेल के असतित्व से भी जुड़ा प्रश्न है और इसी के साथ करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों की आस्था से भी जुड़ा है,जिसकी बिना पर सचिन तेंदुलकर को भगवान घोषित कराये जाने की जबरदस्त हूक उठी है।

          देश क्या पूरे क्रिकेट जगत में इतना भयंकर तूफान आया हुआ है लेकिन क्रिकेट का यह भगवान मुंह में ताला लगाये खड़ा है। इस पृथ्वी पर जब भी अराजकता फैलती है, अत्याचार चरम पर पहुचता है,लोग त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगते हैं तो भगवान ही अवतार लेते हैं और शत्रुओं का नाश करके भोली-भाली जनता को शत्रुओं से मुक्ति दिलाते हैं,लेकिन भारत की इस धरती पर जिन्दा खड़ा क्रिकेट का यह भगवान जो 1996 के उस विश्व कप सेमी फाइनल का जीता जागता उदाहरण भी है,जिसने सारा नजा़रा अपनी आंखों के सामने होते हुए देखा ही नहीं है अपितु उसका एक हिस्सा भी रहा है,मुंह बन्द किये क्यों खड़ा है? देश को पहली बार पता लगा है कि भारत की धरती पर क्रिकेट के क्षेत्र में जन्मा क्रिकेट का यह भगवान किसी सही बात को स्वीकार करने या अस्वीकार करने की स्थिति में गूंगा हो जाता है,एवं बोलने की स्थिति में नहीं रहता।
          इस भगवान को एक योजना के तहत,भारत सरकार से भारत रत्न दिलवाने की मुहिम हो अथवा मैच फिक्सिंग का इतना बड़ा और गम्भीर संकट, जिसमें भारत की प्रतिष्ठा को जबरदस्त धक्का लग रहा है,एवं भारत का नाम भी बदनाम हो रहा है,इसमें से किसी भी विषय पर क्रिकेट के भगवान घोषित किये गये इस शख्स ने अपनी जुबान नहीं खोली है। क्या कारण है कि सचिन को सभी क्रिकेट प्रेमी भगवान मानते हैं और कहते हैं लेकिन उन्होंने कभी भी इसका खण्डन नहीं किया,इसका मतलब है कि वे भी मानते हैं कि वे भगवान हैं। इसीलिए उन्हें भारत रत्न देने की मांग पुरजोर पकड़ती जा रही है। 
          जबकि सदी के महानायक श्री अमिताभ बच्चन के लिए स्वर कोकिला लता मंगेश्कर ने भारत रत्न देने की मांग की तो महानायक ने यह कहकर कि-मैं इतने बड़े सम्मान का अधिकारी नहीं  हूँ, अपने को इस योग्यता से कमतर आंका। इसी से महानता का पता चलता है। यही वजह है कि देश की करोड़ों करोड़ जनता उन्हें सदी का महानायक पुकार कर उनसे ज्यादा खुद को प्रफुल्लित करती है,जबकि क्रिकेट के ये भगवान तो वर्तमान में संकट और सवालों के घेरे में खड़े हैं।
         दो दर्जन जुबानों पर एक सा सवाल है कि विनोद काम्बली 15 सालों से चुप क्यों रहे,तब क्यों नहीं बोले? 15 सालों से करोड़ों क्रिकेट प्रेमी जनता चुप है अथवा काम्बली चुप रहे तो गुनाहगार हैं और आप दो दर्जन भर लोग, जिसमें अजहरूद्दीन,अजय जडेजा,अजय शर्मा,मनोज प्रभाकर मैच से प्रतिबन्धित किये गये,तब भी आप गुनाहगार नहीं हैं और हेकडी दिखाकर काम्बली का ही मुंह बन्द करने की कोशिश कर रहे हैं। खुले मैदान सत्य का गला घोटने का इससे बड़ा उदाहरण और कहां देखा जा सकता है! ऐसे औचित्यहीन कुतर्कों से काम्बली को निरूत्साहित किया जा सकता है,लेकिन क्रिकेट के दुनियाभर में मौजूद क्रिकेट प्रेमियों का मुंह बन्द नहीं किया जा सकता। क्रिकेट प्रेमियों की आस्था के साथ इतना बड़ा विश्वासघात किसी भयंकर कुठाराघात से कम नहीं है। यह दर्शकों की पीठ में छुरा घुसाने वाला अपराध है।
          भारत सरकार,भारत के उच्चतम न्यायालय,देश के विभिन्न प्रदेशों में गठित राज्य एवं जिला स्तरीय क्रिकेट एसोसियेशन तथा क्रिकेट से अन्यत्र खेलों के खिलाड़ियों को भी इस मैच फिक्सिंग से पर्दा उठाने के लिए अपने-अपने स्तर से तीव्र प्रयास करने चाहिए,और यदि काम्बली के बयान में सच्चाई न निकले तो उन्हें दण्डित किया जाना चाहिए वरना समस्त दोषियों को दण्डित करने के साथ-साथ उनसे आर्थिक जुर्माना वसूल कर काम्बली को दिया जाना चाहिए। वैसे मैच फिक्सिंग का यह मामला प्रथम दृष्टया ही भरपूर सम्भावनाओं से ओत-प्रोत है(जिसकी पूरी पृष्ठभूमि स्पष्ट और उज्जवल है)। पन्द्रह साल पूर्व की घटना कोई बहुत पुरानी नहीं है,सिवाय इस तथ्य के की पन्द्रह वर्ष पूर्व विनोद काम्बली, सचिन तेंदुलकर से ज्यादा जाना पहचाना नाम था। भारत में तो वयस्कता की उम्र ही 18 वर्ष है। 15 साल वाले को उसके किये गलत कार्यों की यदि सजा मिलती है तो बाल अधिनियम के तहत ही मिलती है। उस हिसाब से भी मैच फिक्सिंग की यह दुघर्टना तो अभी इलाज किये जाने के काबिल है।
          इसलिए मूल सवाल आज भी वहीं खड़ा है कि आखिरकार अजहरूद्दीन और अजय जडेजा को 4 साल बाद ही सही फिक्सिंग के कारण ही प्रतिबन्धित किया गया है। उनके खिलाफ आज भी अदालत में मामला विचाराधीन है। यदि मैच फिक्सिंग के आरोप गलत हैं तो उन्हें क्रिकेट से प्रतिबन्धित क्यों किया गया? ऐसी विषम परिस्थितियों में विनोद काम्बली के रहस्योदघाटन को खारिज किया जाना और अजहरूद्दीन की बात पर यकीन किया जाना दुर्भाग्यपूर्णं होगा,जबकि सीबीआई के एक अधिकारी को दिये गये बयान में वे स्वयं कबूल कर चुके हैं कि उन्हें दस लाख रुपये दिये गये,और वह अकेले ही नहीं हैं बल्कि अजय जड़ेजा और नयन मोंगिया भी शामिल थे। इसके अलावा जो अन्य मैच फिक्स थे,उसका भी उन्होंने खुलासा किया था।
          वैसे भी यदि इससे किसी सच्चाई का पता चलता है तो वह सामने आनी ही चाहिए। यदि इस सच्चाई को सामने लाना गड़े मुर्दे उखाड़ने वाली बात है तो आज पच्चीस साल बाद इकबाल मिर्ची को भारत लाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। तब तो सभी अपराधियों को क्लीन चिट दे देनी चाहिए! क्यों भाई दिग्विजय सिंह जी, फिर इकबाल मिर्ची की वकालत क्यों नहीं करते?
          कपिल देव का कहना है कि काम्बली 15 वर्ष पूर्व बोलता। क्या कपिल देव विश्वकप जीतने की घटना को भूल गये हैं,क्या आज पच्चीस सालों के बाद वे इसका उल्लेख कहीं नहीं करते हैं? सम्भवतः वह आज भी उन यादों को ऐसे संजोए होंगे जैसे यह कल की ही बात हो। इतने वरिष्ठ खिलाड़ी से ऐसे वकतव्य की उम्मीद किसी भी क्रिकेट प्रेमी को कतई नहीं थी। जिस प्रकार उनके लिए 25 वर्ष पूर्व विश्वकप की जीत आज भी खुशी का अनुभव देती हैठीक उसी प्रकार विनोद काम्बली के लिए पन्द्रह वर्ष पूर्व की वह मनहूस घड़ी आज भी दुख की टीस देती है,जिसके कारण उसका कैरियर तबाह हो गया। पन्द्रह साल बाद मुंह खोलने का मतलब यह कतई नहीं है कि अपराध पुराना हो गया,इसलिए अब इसकी जांच का कोई मतलब नहीं एवं अपराधी को ना पकड़े जाने का लाइसेन्स मिल गया है।
          1996 में की गई मैच फिक्सिंग आज के दिन में वो हवन है,जिसमें यदि कोई जानबूझकर हवन सामग्री की जगह पानी डालने की कोशिश करेगा तो पानी पैट्रोल का काम करेगा तथा आग और भडकेगी। इस आग की शान्ति और हवन का आयोजन तभी सफल होगा जब इसमें हवन सामग्री डाली जायेगी,और हवन की सामग्री है,उस समय की भारतीय टीम के खिलाड़ी। इस हवन सामग्री रूपी टीम को भी बड़ी बारीकी से जांचा-परखा जाना होगा कि इसके कनटेन्ट सही और शुद्ध हैं कि नहीं। राजनीति की चाह में क्रिकेट में राजनीति करने वाले खिलाड़ियों और धन अर्जित करने की चाह में क्रिकेट एसोसियेशन के माध्यम से क्रिकेट में घुसे ज्यादातर राजनीतिज्ञों ने भारत के इस सबसे बड़े खेल को मृत्यु के मुहाने पर ला खड़ा किया है,जिसका स्पष्ट गवाह है वर्तमान में हो रहे मैचों के दौरान खाली पड़े क्रिकेट के स्टेडियम।
          अजहरूद्दीन,काम्बली को पागल,चरित्रहीन और ना जाने क्या-क्या नहीं बता रहे हैं,जो वास्तव में अजहरूद्दीन के दिमाग को सेन्टर से हट जाने (एसेन्ट्रिक होने) का ही संकेत देते हैं। जिस प्रकार अजहरूद्दीन की पूरी गैंग काम्बली से सुबूत पेश करने की बात कर रही है,वे बतायें,स्वंय उनके या उनकी मण्डली के पास क्या सुबूत हैं कि वो मैच फिक्स नहीं था? जबकि उस मैच फिक्सिंग की सारी संभावनायें आजतक मौजूद हैं। अजहरूद्दीन केवल मात्र टीम बैठक का हवाला देकर,मैच फिक्सिंग के सत्य पर पर्दा डालना चाह रहे हैं। टीम का कैप्टन उन्हें इसलिए नही बनाया गया था कि सर्वसम्मति का फैसला दिखाकर मैच फिक्स करें। उनका व्यंगात्मक लहजे में कहना कि जब पूरी टीम फैसला ले रही थी तो काम्बली सो रहे थे। क्या वे सिद्ध कर सकते हैं कि टीम ने पहले फील्डिंग करने का फैसला लिया था और मीटिंग में काम्बली सो रहे थे। है उनके पास कोई सुबूत? क्या वे कोई वीडियो क्लिपिंग दिखा सकते हैं जिसमें मीटिंग चल रही हो तथा लालू यादव एवं देवेगौणा की तरह काम्बली सो रहे थे।
          बहरहाल इस बेचैनी भरे माहैाल में उस टीम के अन्य खिलाडी़ अपनी जुबान नहीं खोल रहे हैं,और उनमें से मात्र सचिन को छोड़कर सारे के सारे क्रिकेट से अलविदा हो चुके हैं, इनमें मनेाज प्रभाकर, अजय शर्मा, अजय जड़ेजा, नवजोत सिंह सिद्धू, प्रमुख हैं। इन खिलाड़ियों को आगे बढ़कर सत्य को स्वीकार करना चाहिए,जिससे वर्तमान और भविष्य में उन जैसे यंग रहे खिलाड़ियों का भविष्य बर्वाद न हो, जैसा उनका हुआ है।
          उस समय के तेज गेंदबाज वेंकटपति राजू का उदाहरण अहम है। राजू ने खुलकर कह दिया है कि उस टीम बैठक में सिद्धू जैसे कुछ बल्लेबाज इस बात से सहमत नहीं थे कि टीम को पहले क्षेत्ररक्षण करना चाहिए। वेंकटपति राजू द्वारा खोले गये इस राज की भाजपा सांसद सिद्धू को पुष्टि करनी चाहिए। उन्हें सांसद होने के नाते अपने हम बिरादर दूसरे सांसद का बचाव नहीं करना चाहिए। यह उनकी क्रेडेबिलिटी का भी सवाल है। मूल सवाल,क्रिकेट,क्रिकेट प्रेमियों और देश की अस्मिता से जुड़ा है,इसलिए ऐसा नहीं है कि सिद्धू मुंह नहीं खोलेंगे और अजहरूद्दीन का साथ देंगे तो सही करार दिये जायेंगे। वैसे तो सिद्धू किसी भी बात को कहने के लिए बहुत बड़ा मुंह खोलते हैं और किसी भी विषय पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए उनके पास मुहावरों एवं लोकोक्तियों की कमी नहीं रहती है। फिर अब क्या हो गया गुरू! कहां छिपे हो गुरू? सामने क्यों नहीं आते गुरूरू............सच स्वीकार करना तो सीखो गुरू,वरना कामेडियन बनकर ही रह जाओगे गुरू।
          क्रिकेट से जुड़ा बहुत बड़ा जनमानस आज यह जान चुका है कि 1996 का वह मैच सौ प्रतिशत फिक्स था, फिर भी खिलाड़ियों को ईमानदारी के तराजू में तौलना चाहता है। विनोद काम्बली के रहस्योदघाटन की पुष्टि श्रीलंका टीम के मैनेजर श्री समीर दास गुप्ता,हैन्सी क्रोनिए,पूर्व क्यूरेटर प्रवीर मुखर्जी,पूर्व क्यूरेटर कल्याण मित्रा (मैं, कप्तान होता तो पहले बल्लेबाजी करता) के बयान कर रहे हैं। 1996 विश्वकप टीम के सलेक्टर सबरन मुखर्जी का कहना है कि, वे तो सरप्राइज ही हो गये जब सुना कि टॉस जीतकर इण्डियन टीम बोलिंग करने जा रही है। ये सारे बयान इस ओर स्पष्ट इशारा करते हैं कि 1996 का विश्वकप सेमीफाइनल में अनहोना हुआ,जिसे नहीं होना चाहिए था।
          आज ऐसा समय आ गया है कि सभी वरिष्ठ खिलाड़ियों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। जिन खिलाड़ियों पर हम गर्व करते हैं या भगवान की तरह पूजते हैं,वह सचिन हों या कपिल,सुनील गवास्कर,दिलीप वेंगसरकर,श्रीकान्त या फिर रवि शास्त्री,अगर आगे नहीं आते हैं तो कहीं ऐसा ना हो कि आगे आना वाला समय उन्हें माफ ना करे और उन्हें उनके प्यारे दर्शकों की निगाह में गिराकर अर्श से फर्श पर पहुचा दे। क्योंकि ये सभी वरिष्ठ खिलाड़ी 90 के दशक से मैदान पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़े रहे हैं।
          इसकी जॉंच का तरीका केवल एक बचा है कि उस समय के समस्त खिलाड़ियों को एक साथ बुलाने की बजाय अकेले-अकेले बुलाकर यू0पी0पुलिस से इंटेरोगेट कराया जाये तथा इसका मुकदमा ब्रिटेन स्थित साउथवर्क कोर्ट के जस्टिस कुक के हवाले कर देना चाहिए जिसने सलमान बट, मोहम्मद आसिफ और मोहम्मद आमेर को सजा सुनाई। ऐसे में भारत के खेलमंत्री श्री अजय माकन का यह बयान देश की प्रतिष्ठा के हित में दिखाई देता है कि -काम्बली के दावों की बीसीसीआई को जांच करनी चाहिए। उन्होने कहा कि यदि क्रिकेट बोर्ड जांच नहीं करता है तो उनका मंत्रालय दखल दे सकता है। माकन ने कहा कि जब टीम का कोई खिलाड़ी आरोप लगाता है तो उसकी पूरी जॉंच होनी ही चाहिए। खिलाड़ी के आरोप सही हों या गलत लोगों को सच जानने का अधिकार है, इसकी पूरी जॉंच होनी चाहिए और यदि कुछ गलत हुआ है तो दोषियों को सजा भी मिलनी चाहिए।
          इस स्तम्भकार का स्पष्ट मत है कि खेलमंत्री को ही इसमें दखल देना चाहिए, क्योंकि यह दो देशों के बीच का मामला है। मैच फिक्सिंग से फायदा श्रीलंका की टीम को ही ज्यादा हुआ। श्रीलंका की टीम को जब पता चला कि वह टॉस हार गई है तो उनकी टीम में मायूसी छा गई थी,क्योंकि उनकी टीम का भी डिसीजन यही था कि टॉस जीतने पर पहले बैटिंग करेंगे,लेकिन जैसे ही पता चलाकि अजहरूद्दीन ने पहले फील्डिंग करने का निर्णय लिया है,उनकी टीम के खिलाड़ी उछल पड़े,मानो उनकी जीत उसी समय पक्की हो गई थी। इसलिए निशाने पर उसको भी रखा जाना चाहिए,क्योंकि यह मात्र भारतीय टीम का ही मामला नहीं है,जो बीसीसीआई जांच करे और इतिश्री हो जाये, वह तो पहले ही चार खिलाड़ियों को खेल से प्रतिबंन्धित कर इस मैच फिक्सिंग की इतिश्री कर चुका है।
=         देश से बड़ा इस देश में कोई नहीं है,इसलिए राष्ट्रहित में मैच फिक्सिंग की इस घटना की जॉंच के लिए खेल मंत्री को अपने स्तर से आईसीसी से जांच किये जाने के लिए पत्र लिखना चाहिए, अथवा उच्चतम न्यायालय को इसकी जॉच के लिए एसआईटी का गठन कराना चाहिए,यदि इसके लिए किसी पीआईएल की आवश्यकता उच्चतम न्यायालय महसूस करता है तो इस लेख पर ही सज्ञान लिये जाने के लिए यह स्तम्भकार स्वीकृति प्रदान करता है। (सतीश प्रधान)

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Thursday, November 17, 2011

मार्कण्डेय काट्जू जी, पूरा इंडियन मीडिया आपके खिलाफ नहीं है।

 Justice Markandey Katju, Chairman, Press Council of India
        सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश रहे और वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष नियुक्त हुए जस्टिस काट्जू ने एक टी0वी0 कार्यक्रम में कहा था कि मीडिया के लोगों के बारे में मेरी राय अच्छी नहीं है। मीडिया देश को साम्प्रदायिक आधार पर बांटने का काम करता है। उन्होंने कहा कि उन्हें आर्थिक नीतियों, राजनीतिक सिद्धान्तों, साहित्य और दर्शनशास्त्र की जानकारी नहीं होती है।
          श्री काट्जू के इस बयान से गिरोहबन्द मीडिया का उद्वेलित होना लाजमी था,और हुआ भी ठीक वैसा ही। पत्रकारों के कुछ संगठनों द्वारा काट्जू के बयानों पर गहरी आपत्ति दर्ज कराई गईइनमें एडिटर्स गिल्ड ऑफ इण्डिया, ब्रॉडकॉस्ट एडिटर्स एसोसियेशन(बीईए),न्यूज ब्रॉडकास्ट एसोसियेशन एण्ड प्रेस एसोसियेशन में काफी रोष है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इण्डिया की महासचिव कूमी कपूर ने तो यहां तक कह दिया कि काट्जू उन लोगों के लिए बहुत ही अपमानजनक रवैय्या अपना रहे हैं जिनके साथ उन्हें अगले तीन वर्षों तक कार्य करना है। कूमी कपूर का कथन पूरे मीडिया जगत का नहीं है,और हो सकता है, यह केवल उन्हीं की आवाज हो जिसे वे इस संगठन के बैनर से बुलन्द करना चाह रही हैं।
Coomi Kapoor, General Secretary , Editors Guild of India
          कूमी कपूर के इस वकतव्य से यह स्तम्भकार भी अचंम्भित है कि कूमी कपूर का यह बयान धमकी वाला है अथवा यह प्रदर्शित कर रहा है कि यदि कोई किसी संस्था का अध्यक्ष बनाया जाये तो वह उससे जुड़े लोगों की संख्या और उनके कृत्य को देखकर उनसे डर-सहम कर टिप्पणी करे। इस देश के पत्रकार यदि अपने को इतने ही ताकतवर समझने की हद तक पहुंच चुके हैं तो उन्होंने वेतनबोर्ड के फैसले का विरोध कर रहे आईएनएस के वक्तव्य पर टिप्पणी करने की जहमत क्यों नहीं उठाई। अगर जस्टिस काट्जू को प्रेस काउन्सिल के अध्यक्ष के रूप में कार्य करना है तो इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि वे पत्रकार संगठनों से सांठ-गांठ करके अपना कार्यकाल पूरा करें।
          इस देश में कितने ही तथाकथित नामी गिरामी पत्रकार संगठन हैं जिनमें दशकों से चुनाव नहीं हुए हैं। 70 से 90 वर्ष के बुजुर्ग कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं, तथा संगठन को पान की दुकान की तरह चला रहे हैं। ये पत्रकारों के संगठन कम, पत्रकार पैदा करने वाले जनाना हास्पिटल ज्यादा हो गये हैं। पत्रकारिता के नाम पर उन्हें ऐसा बन्दा चाहिए जो लिखना-पढ़ना भले ही ना जाने लेकिन उसे खिदमत करना अवश्य आता हो। भले ही वह विज्ञापन एकत्र करने का कार्य करता हो अथवा अखबार की प्रतियां वितरित करने का कार्य करता हो, उसे पत्रकार घोषित करने का कार्य ये मीडिया संगठन बखूबी करते हैं। यहॉं तक कि सत्ता को............ सप्लाई करने वाले कितने ही लोगों को ये पत्रकार ही नहीं बनाते हैं अपितू अपने साथ-साथ घुमाकर उसे बड़ा दिखाने और वास्तविक पत्रकार को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि-हमारी सेवा नहीं करोगे तो पत्रकार नहीं कहे जाओगे,और हमारी चरण वन्दना करोगे तो भले ही तुम्हारी परचून की दुकान हो या आतंकी संगठन को सूचना पहुंचाना तुम्हारा काम हो,हम तुम्हारी पैठ ग्रह मन्त्रालय तक में करा देंगे।
Ghulam Nabi Fai, ISI Agent & Director, Kashmir American Council.
          यदि ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारण है कि पाकिस्तानी खुफिया ऐजेन्सी आई0एस0आई0 के एजेण्ट गुलाम नबी फई द्वारा संचालित कश्मीर अमेरिकन काउन्सिल के बैनर तले सेमीनार और कान्फ्रेन्स अटैण्ड करने वाले पत्रकारों के नाम इन ब्रॉडकॉस्ट की एसोसियेशनों ने ब्रॉडकॉस्ट नहीं किये? अथवा बड़े कहे जाने का दम्भ भरने वाले किसी भारी भरकम समाचार-पत्र ने इन मूर्धन्य पत्रकारों के नामों की लिस्ट क्यों नहीं छापी?
          ए0राजा को मंत्री बनाने में कार्पेारेट लाबीस्ट नीरा राडिया,जो नामी-गिरामी वकील आर0के0आनन्द को भी बेवकूफ बनाकर उनका मेहनताना खा गई, उसका साथ हिन्दुस्तान टाइम्स के वीर संघवी और एनडीटीवी की एंकर बरखा दत्त क्यों दे रही थीं? इन संगठनों ने बरखा दत्त, वीर संघवी, इत्यादि पत्रकारों को आईना दिखाने में बढ़-चढ़कर भूमिका क्यों नहीं दिखाई। आज देश का हर नागरिक देख रहा है कि किस तरह इलैक्ट्रानिक चैनल पर सरकार के पक्ष में ग्रुप डिस्कसन कराये जाते हैं। कैस एक पत्रकार बाकायदा वकील की भूमिका में सरकार का पक्ष मजबूत करने में लगा रहता है। कैसे अण्णा हजारे की रणनीति को उनकी टीम के मूंह में हांथ डालकर निकालने की कोशिश होती है। सरकार का एजेण्ट बनकर पत्रकारिता करने वालों में आलोक मेहता प्रमुख हैं।
          यह स्तम्भकार जस्टिस मार्कण्डेय काट्जू के कथन से हूबहू इत्तेफाक रखता है कि इस मीडिया को अपने अन्दर भी झांककर देखना चाहिए। जस्टिस मार्कण्डेय काट्जू के कथन पर मीडिया संगठनों के पदाधिकारियों का विरोध इसलिए आवश्यक हुआ कि यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी दुकानदारी पर आंच आ रही है, जबकि विरोध करके वे अपनी शक्ति दिखाने के अलावा अपनी महत्ता भी प्रदर्षित करना चाह रहे हैं। ये सारे संगठन जेबी संगठन हैं, जिनमें मात्र दस-बारह लोगों के जेब में ही सत्ता रहती है। जितने देश में पत्रकार नहीं उससे कई गुना इन संगठनों की सदस्य संख्या है। किसी भी प्रकार का और कभी भी पत्रकारों का मेला लगाने के लिए ये संगठन उन छोटे-छोटे कहे जाने वाले अखबारों के प्रतिनिधियों के बल पर ही प्रदर्शन कर पाते हैं, जो इनके पास अपनी पत्रकार मान्यता अथवा विज्ञापन पाने के लिए इनके तलुये चाटते हैं। इस देश में मीडिया एक रैकेट की तरह कार्य कर रहा है, यह कहने में मुझे तनिक भी झिझक नहीं है।
          एक दैनिक समाचार-पत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर छपी ब्राडकॉस्ट एडीटर्स एसोसियेशन के महासचिव श्री एन0के0सिंह की उस टिप्पणी को देख रहा था, जिसमें उन्होंने (उस आरोप कि- जिस देश का 80 प्रतिशत भाग अभाव में जी रहा हो, उस देश में मीडिया एक फिल्म अभिनेता की पत्नी को एक बच्चा होगा अथवा जुड़वा होगा, यह दिखा रहा है) पर सफाई दी कि भारतीय मीडिया अगर गरीबी को न दिखा रहा होता तो शायद समाज के सुविधाभोगी वर्ग को इसका पता भी नहीं चलता कि इस देश में गरीबी है। शायद इसी तर्ज पर मि0 सिंह यह जस्टिफ़ाय करने की कोशिश कर रहे हैं कि अभिनेत्री ऐश्वर्या राय के बच्चा होने को दिखाना इसीलिए आवश्यक था कि इस देश का गरीब तबका यह जान ले कि ऐश्वर्या राय मॉं बनने वाली हैं, वरना उसकी गरीबी दूर नहीं हो पायेगी।
          मि0 सिंह को यह पता नहीं कि जब इस देश में इलैक्ट्रानिक चैनल नहीं थे तब भी गरीबी कितनी है और कहॉं है सभी को पता थी। हो सकता है मि0 सिंह की अमीरी का किसी को पता ना हो लेकिन भारत की मीडिया का बहुत बड़ा वर्ग गरीबी में जी रहा है, इसे हर वह पत्रकार जानता है जो सत्ता से चिपक कर उसका आनन्द नहीं ले रहा है। मि0 सिंह का जवाब बिल्कुल कपिल सिब्बल के जवाब जैसा है कि यदि मंत्री बन गये तो सत्ता उनकी जेब में और वकालत करने लगे तो सुप्रीम कोर्ट उनकी जेब में।
          सिंह साहब यदि इस देश की गरीबी अथवा गरीब की बात आप कर रहे है तो कोई एहसान नहीं कर रहे हैं, लेकिन नाग-नागिन का खेल दिखा कर, स्वर्ग की सीधी सीढ़ी दिखा कर, बिग बॉस जैसे फूहड़ आइटम दिखा कर, कमेडी के नाम पर फूहड़ता परोस कर इस भारत देश और इसकी जनता के साथ अन्याय करने के साथ-साथ, इस देश के कल्चर, इसकी पवित्रता को भ्रष्ट जरूर कर रहे हैं। आप वो नहीं दिखा रहे हैं जो जनता चाह रही है, बल्कि आप जो दिखा रहे हैं, वह जनता मजबूरी में देख रही है। इससे यदि आपकी टीआरपी बढ़ रही है तो इसका यह कतई मतलब नहीं है कि दर्शक इसे बहुत पसन्द कर रहे हैं। रेड लाइट एरिया को बीच चौराहे स्थान दे दीजिए तो भीड तो वहॉं सबसे पहले लग जायेगी लेकिन इसे आप सार्वजनिक स्थान घोषित नहीं कर सकते। इसलिए यदि आप फूहडता दिखा रहे हैं तो यूनीवर्सल श्रेणी में रखा जाये अथवा एडल्ट्स में इसका नियमन तो होना ही चाहिए, और इसके लिए आप पर(आपसे तात्पर्य फूहड़ता दिखाने और देश को तोड़ने वाली बहस चलाने वाले चैनलों से है)।
          मि0सिंह ने, लगने वाले अंकुश पर खूब किन्तु-परन्तु किया है,लेकिन वह यह क्यों नही बताते कि ऐसा न होने की दशा में भी मीडिया संस्थान बहुतों को ब्लैक मेल कर रहे हैं। इसे समझने के लिए नीचे दिये गये लेख पर क्लिक करें, उसमें मंच से ही पत्रकार प्रभात रंजन दीन ने इलैक्ट्रानिक चैनल की कथनी और करनी का खुलासा किया था, जिसे मंच पर उपस्थित विनीत नारायण सहित मुदगल और आशुतोष सहन नहीं कर पाये थे, और मि0 विनीत नारायण ने तो प्रभात रंजन दीन को समय की कमी का बहाना बनाते हुए जल्द से जल्द अपना भाषण खत्म करने का आदेश सुना दिया। दूसरों को सीख देनी बड़ी आसान है,किन्तु जब अपने पर आती है तो बाजा बजने लगता है। आखिरकार कौन सा ऐसा कारण है कि मीडिया पर अंकुश नहीं लगना चाहिए।
          कितने चैनलों और समाचार-पत्रों के मालिकान साफ सुथरे हैं, कितने ही पत्रकारों के नाम यह स्तम्भकार दे सकता है जो पत्रकारिता के कार्ड का इस्तेमाल अपने संस्थान के मालिक की चीनी मिल, वनस्पति मिल आदि के कायों के लिए करते हैं। अपने लेख के अन्त में उन्होंने दावा किया है कि पिछले वषों में विशेषकर इलैक्ट्रानिक मीडिया ने जो उपलब्धि हासिल की है,उससे स्पष्ट है कि भारतीय इलैक्ट्रानिक मीडिया आने वाले समय में विश्व के लिए एक उदाहरण पेश कर सकता है। उनकी इस बात में कितना दम है,उसे समझने के लिए उन्हीं से यह पूछा जाना चाहिए कि लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी का आचरण उसके अपने देश की जनता के प्रति कैसा था, इस तथ्य को नज़रअन्दाज करके मीडिया ने केवल उसी पक्ष को प्रचारित किया जिसे अमेरिका प्रचारित कराना चाहता था।
क्या एन0के0सिंह को पता है कि लीबिया के उस तानाशाह के शासन में निम्न सुविधायें वहॉं की जनता के पास थीं।
1) लीबिया में जनता को बिजली का बिल माफ़ रहता था,वहॉं लोगों को बाकी मुल्कों की तरह बिजली का बिल जमा नहीं करना पड़ता था (इसका भुगतान सरकार करती थी)।
2) लीबिया सरकार(गद्दाफी शासन)आपने नागरिकों को दिए गए ऋण(लोन)पर ब्याज नहीं वसूलता था। मानें आपको इंटरेस्ट फ्री लोन बड़ी आसानी से मिलता था और चुकाना केवल मूलधन पड़ता था।
3) लीबिया में ‘घर’ मानव अधिकार की श्रेणी में थे। लीबिया के प्रत्येक व्यक्ति को उसका खुद का घर देना सरकारी जिम्मेदारी थी। आपको बाते दें कि गद्दाफी ने कसम खाई थी कि जब तक लीबिया के प्रत्येक नागरिक को उसका खुद का घर नहीं मिलता वह अपने माता पिता के लिए भी घर नहीं बनवाएगा यही कारण था कि गद्दाफी की मां और पत्नी आज भी टेंट में ही रहती हैं।
4) लीबिया में शादी करने वाले प्रत्येक जोड़े को गद्दाफी कि तरफ से 50 हज़ार डॉलर की राशी दी जाती थी।(दुनिया में शायद ही कोई सरकार या शासक ऐसा करता हो)।
5) लीबिया में समस्त नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएँ पूरी तरह से फ्री थीं। जी हां लीबियाई नागरिकों द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर आने वाला सारा खर्चा गद्दाफी सरकार खुद वहन करती थी।
Dr.Ved Pratap Vaidik
          अब आते हैं दूसरे अलम्बरदार वेद प्रताप वैदिक के पास। इनका कहना है कि पता नहीं क्यों भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काट्जू रोज ही बर्र के छत्ते में हांथ डाल देते हैं। मीडिया को बर्र का छत्ता बताने में वेद प्रताप वैदिक गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं लेकिन वे भूल रहे हैं कि बर्र का छत्ता उसका घर होता है, और जब कोई किसी का घर तोड़ने की कोशिश करता है तो हर वह प्राणी अपने घर को बचाने के लिए आखिरी दम तक जद्दोजहद करता है,उसे बचाने की,इसी वजह से बर्र किसी को काटती है,वरना किसी के घर में घुसकर वह हमला नहीं करती है। वैदिक जी मीडिया आपका अपना घर नहीं है। हिन्दुस्तान भर के पत्रकारों को मिलाकर इण्डियन मीडिया कहा जाता है,जिसके अकेले ठेकेदार न तो वैदिक हैं,ना ही एन0के0सिंह और ना ही  कूमी कपूर!
 मीडिया प्रोफेशन की तुलना बर्र के छत्ते से करना पूरी मीडिया बिरादरी की तौहीन करने के बराबर है,इसके लिए मि0 वैदिक को माफी मांगनी चाहिए। मीडिया उनके विरासत की वस्तु नहीं है कि खतौनी में उनके नाम चढ़ा दी गई हो। वैदिक जी को ऐसी कोई शक्ति न तो संविधान से मिली है और ना ही ऊपर वाले ने दी है कि पत्रकारों के संगठन के नाम पर वे जो चाहें,जैसा चाहें,जब चाहें,किसी को भी धमकाने की कोशिश करें। वैदिक जी पत्रकारिता एक मिशन है,इसे मशीनगन से चलाने की कोशिश मत कीजिए,नहीं तो आप अपने साथ पूरी पत्रकार कौम की ऐसी की तैसी करा देंगे। स्वतन्त्रता को स्वच्छन्दता में बदलने की हिमाकत मत कीजिए। चूंकी स्वतन्त्रता,स्वच्छन्दता में तब्दील हो रही है इसीलिए नियमन की जरूरत महसूस की जा रही है।
जस्टिस काट्जू का एक-एक वाक्य सही एवं खरा-खरा है, इसीलिए वैदिक जी को अखर रहा है और वे धमकी दे रहे हैं,प्रेस परिषद के अध्यक्ष को, कि वे जज का चोला उतारकर प्रेस परिषद का हैट पहनें। ये अध्यक्ष को हैट कब से पहना दिया,इस मीडिया ने? क्या मीडिया के ये बुजुर्ग अभीतक अंग्रेजों की गुलामी से अपने को मुक्त नहीं कर पाये हैं। अपने लेख में वेद प्रताप वैदिक ने उसी तीव्रता और दम्भी भाषा का प्रयोग किया है,जिस भाषा का प्रयोग दिवंगत प्रभाष जोशी जी करते थे, लेकिन तब जब उन्हें वह बात व्यक्तिगत तौर पर बुरी लगती थी।
आत्म संयम के नाम पर स्वच्छन्द रहने की प्रवत्ति को यदि अनुशासन के दायरे में लाया जाये तो गलत कैसे हो सकता है? क्या ऐसा तर्क देकर कोई अपने गुनाह को माफ करवा सकता है कि अमुक व्यक्ति तो चार खून करके भी खुला घूम रहा है,मैंने तो अभी पहला ही कत्ल किया है और जज साहब आप मुझे फांसी की सजा सुना रहे हो। यदि इस देश के एक भी जज ने अपने को लोकपाल के दायरे में आने की वकालत नहीं की तो इसका मतलब यह तो नहीं कि इस बिना पर हर वर्ग इससे छूट पाने का अधिकारी हो गया। मीडिया का जो काम है वह करिये। आप जस्टीफाई कीजीए की जज को भी लोकपाल के दायरे में होना चाहिए। आप इसे कैसे जस्टिफ़ाय कर सकते हैं कि जब जज, प्रधानमंत्री आदि लोकपाल के दायरे में नहीं हैं तो मीडिया कैसे!
          वैदिक जी अपनी बची ऊर्जा का इस्तेमाल जजों को,प्रधानमंत्री को, राजनीतिज्ञों को, कार्पोरेट घरानों के साथ-साथ मीडिया को भी लोकपाल के दायरे में लाने का जस्टीफिकेशन बताने में करिये, ना कि राहुल गॉंधी की तरह कि-लोकपाल को तो कोई सौ करोड़ में खरीद लेगा। इसका मतलब तो आपको अच्छी तरह पता है कि कौन कितने में खरीदा गया है। आप केवल खरीदने बेचने का ही धन्धा कर रहे हैं।
यदि मीडिया को नियम कायदे में लाने के लिए कैबिनेट ने गलत नियम बनाये हैं तो उन नियमों का विरोध कीजिए, बजाय इसके कि आप पूरी नीति का ही विरोध करने पर उतारू हो जायें। आप और आपके पत्रकार संगठनों को स्वंय बताना चाहिए कि नियमन किस प्रकार से किया जाये। प्रोग्राम संहिता के उल्लंघन पर क्या कार्रवाई की जानी चाहिए इसे आप,मि0 एन0के0सिंह, कूमी  कपूर इत्यादि सरकार को सुझा सकते हैं,और सुझाना चाहिये।
सतीश प्रधान




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