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Friday, September 23, 2011

ख्वाब माल्या का, पूरा किया जे0पी0 ने

                                       
          यू0बी0 समूह के चेयरमैन विजय माल्या, भारत में फॉर्मूला-1 रेस का ख्वाब देखने वाले उन चंद लोगों में से हैं, जिन्होंने इसके लिए शुरूआती कोशिशें की हैं। लेकिन उनके ख्वाब को उत्तर प्रदेश की सरजमीं, ग्रेटर नोएडा स्थित बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट पर उतारने के लिए रोज़ाना 20 घन्टे की कड़ी मेहनत और करोड़ों रूपया पानी की तरह बहाने वाले जे0पी0एस0आई0एल0 के अध्यक्ष श्री मनोज  गौण  एवं प्रबन्ध निदेशक श्री समीर गौण इस अनूठे आयोजन से बहुत ही रोमांचित हैं। निःसन्देह औद्योगिक घरानों में हाथी की भूमिका रखने वाले जे0पी0ग्रुप के ही बूते की बात है कि उसने इस आयोजन को भारत में आयोजित कराने के लिए जो दिलचस्पी, भाग-दौड़, और विशेष रूप से अपना ध्यान दूसरी प्रोजेक्ट से हटाकर इस प्रोजेक्ट पर लगाया है, काबिले तारीफ है। इससे इण्डिया का नाम खेल जगत में अवश्य शीर्ष पर पहुंचेगा। इसके लिए श्री मनोज  गौण  एवं  श्री समीर गौण ने वर्ष 2010 में भारत में पहली फॉर्मूला-1 रेस की मेजवानी के लिए एफओए के साथ एमओयू पर साइन किया था.

          श्री समीर गौण ने निःसन्देह अपना, अपने भ्राताश्री मनोज गौड़ एवं अपने पिताश्री जयप्रकाश गौण (जिनके दम पर सारा जे0पी0ग्रुप खड़ा है),एवं अपने परिवार सहित सिद्धान्त एवं शुभंकर के भी अरमानों को पंख लगाये हैंमृदुभाषी,कर्मठ,जोशीले एवं फुर्तीले समीर गौण वे वीर हैं जिन्होंने अपने अदभुत एवं चुनौती भरे कार्यों से अपना एवं अपने पिताश्री का नाम निश्चित रूप से अमर कर लिया है। यद्यपि ये ऊपर से प्रचंड, कठोर एवं विस्फोटक नज़र आते हैं, लेकिन अन्दर से उतने ही कोमल भी हैं। यह उनका एक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, जिसने उनके नाम के साथ-साथ हिन्दुस्तान और उत्तर प्रदेश का नाम भी ऊंचा किया है। उ0प्र0 की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के लिए भी यह गौरवान्वित होने का विषय है, क्योंकि उनके ही शासनकाल में यह शुरू हुआ और इस पर 30 अक्टूबर 2011 को उनके ही मुख्यमंत्रित्वकाल में 17वीं इण्डियन ग्रांड प्रिक्स रेस भी होने जा रही है। इस प्रोजेक्ट ने जितना रोमांचित श्री समीर गौण को किया है, उससे कम रोमांचित इस देश को भी नहीं किया है। इसी के साथ अधिकतम रोमांचित होने वालों में भारत की पहली फॉर्मूला-1 टीम के एरिस्टोक्रैट मालिक श्री विजय माल्या और निडर ड्राइवर कार्तिकेयन भी हैं, जो अति उत्साहित हैं। इस आयोजन ने भारत का नाम विश्व पटल पर स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया है। इसे अभी आमजन को समझने में वक्त लगेगा, लेकिन आने वाला समय बतायेगा कि भारत को अपार विदेशी मुद्रा दिलाने में यह किसी भी मायने में आगरा के ताजमहल से कम नहीं होगा।

          जैसे-जैसे इण्डियन ग्रांड प्रिक्स का समय आ रहा है, इण्डिया फैक्टर भी जोर मार रहा है। भारत के पहले फॅार्मूला-1 निडर ड्राइवर नरेन कार्तिकेयन भी इण्डियन ग्रांड प्रिक्स में अपनी हिस्पेनिया टीम का प्रतिनिधित्व करने के लिए खासे रोमांचित हैं। दुनियाभर की 12 टीमें, उनके मालिक और कुल 24 निडर ड्राइवर इस समय सिंगापुर ग्रांड प्रिक्स पर नजरें गड़ाये हुए हैं जो 23 से 25 सितम्बर तक चलेगी। ध्यान रहे इस सत्र में कुल 19 रेस ही होनी है। इनमें से 13 हो चुकी हैं। 9 से 11 सितम्बर को इटली के मोंजा में हुई रेस 13वीं थी, जिसके साथ यूरोप का सफर पूरा हो गया है। अब एशिया का सफर शुरू हो रहा है। एशियाई चैलेंज का आगाज सिंगापुर ग्रांड प्रिक्स से होगा। इसके बाद जापान, कोरिया, इण्डिया (28 से 30 अक्टूबर को ग्रेटर नोएडा के बुद्ध इण्टरनेशनल सर्किट)में, अबुधाबी एवं अन्त में 19वीं रेस 25 से 27 नवम्बर को ब्राजील के साओ पाउलो में समपन्न होगी।

          अबतक के चरण में कुल 36 अंको के साथ छठे पायदान पर मौजूद अपनी टीम फोर्स इण्डिया के प्रदर्शन से विजय माल्या अभिभूत हैं और उन्हें सिंगापुर ग्रांड प्रिक्स सहित आगामी रेसों में खासकर इण्डियन ग्रांड प्रिक्स तक अपने जर्मन निडर ड्राइवर एडियन सुटिल ओैर ब्रिटिश पॉल डि रेस्टा से काफी उम्मीदें हैं। श्री विजय माल्या को भारतीय समर्थकों के साथ की विशेष दरकार है। उनका मानना है कि अपनों का साथ हौसला बढ़ाने में उत्प्ररेक का काम करता है। उन्हें भारत में ही नहीं अपितु सिंगापुर में भी फायदा मिलने की उम्मीद है, क्योंकि सिंगापुर में भारतीयों की तादाद अत्यधिक है। इण्डियन ग्रांड प्रिक्स, फॅार्मूला-1 रेस में भाग लेने आ रही 12 टीमों के निडर ड्राइवर और फॅार्मूला-1 व एफओए के वीवीआईपी अधिकारी 25 से 30 अक्टूबर तक ग्रेटर नोएडा स्थित जे0पी0गोल्फ रिर्सोट में ठहरेंगे। रेस तो 30 अक्टूबर को होनी है, जबकि 28 और 29 अक्टूबर को पोजीशन के लिए अभ्यास रेस होगी।
25 अक्टूबर तक टीमें यहाँ पहुच जाएंगी। रेस के आयोजक जे0पी0एस0आई0एल0 को टीमों की सुरक्षा की भी बड़ी जिम्मेदारी संभालनी है। टीमों को ठहराने और रेस सत्र के दौरान तीन दिन तक लाने-ले-जाने के लिए
जेपीएसआईएल ने फूल प्रूफ प्लान तैयार किया है। जे0पी0 गोल्फ रिर्सोट को, सर्किट के नजदीक होने के कारण सुरक्षा के लिहाज से सर्वश्रेष्ठ माना गया है। जे0पी0 समूह के स्वामित्व में होने के कारण यहाँ किसी पाँच सितारा होटल की अपेक्षा सुरक्षा बन्दोबस्त और भी पुख्ता तरीके से किये जाने के संकेत मिले हैं। मालूम हो कि जे0पी0 समूह पाँच सितारा होटल चेन का भी बखूबी संचालन करता है। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री परवेज मुशरर्फ, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेई से वार्ता करने जब आगरा आये थे तो आगरा के जे0पी0 पैलेस होटल में ही ठहरे थे। इसी एकमात्र तथ्य से जे0पी0 के होटल की हैसियत का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
          फरारी मर्सिडीज, रेड बुल रेनां, मैकलारेन, हिस्पेनिया और फोर्स इण्डिया सहित कुल 12 टीमों और उनके अधिकारियों के रूकने का प्रबन्ध जे0पी0गोल्फ रिर्सोट में ही किया गया है। इन प्रत्येक टीमों के साथ दो मुख्य निडर ड्राइवर, टीम के मालिकान, प्रबन्धक, फॉर्मूला-1 और एफओए के शीर्ष अधिकारी भी मौजूद होंगे। सात बार के चैम्पियन माइकल शूमाकर, फर्नाडो ओलांसो, सेबेस्टियन विटेल, जेसन बटन, लुइस हेमिल्टन, फेलिप मासा और मार्क बेवर जैसे स्टार निडर ड्राइवर, अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर बेहद लोकप्रिय हैं। जे0पी0एस0आई0एल0 के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा है कि उसकी जिम्मेदारी केवल टीम और अधिकारियों को ठहराने व सुरक्षा देने तक ही सीमित है, जबकि रेस देखने के लिए आने वाले करीब 50 से 60 हजार विदेशी, करीब 20 हजार वीवीआईपी दर्शक और अंर्तराष्ट्रीय मीडिया के लोग अपने ठहरने के स्थल का चयन अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार स्वंय करने के लिए स्वतन्त्र हैं। भारतीय दर्शकों को फॅार्मूला-1 रेस देखकर तुरन्त एहसास होगा कि अरे ऐसी पहली रेस तो हमारे भारतीय हीरो फिरोजखान कई वर्ष पहले जीत चुके हैं। यह बात अलग है कि उन्होंने यह रेस फिल्म अपराध में जीती,जिसमें उनकी हीरोइन मुमताज थीं।


सतीश प्रधान

Friday, September 9, 2011

स्विश बैंक कस्टमर का मतलब महान अर्थशास्त्री

स्विश बैंक का कस्टमर होने का मतलब ही है कि आप बहुत बड़े अर्थशास्त्री हैं, आप उस शास्त्र
के विशेषज्ञ हैं जिसके तहत भारत के अर्थ को बहुत खूबी से विदेशी बैंकों में जमा किया जाता है। ऐसा शास्त्र भारत के बहुत से कम पढ़े-लिखे और बुद्धिहीन नेता भी भली भांति जानते हैं, क्योंकि उनके खाते भी इस बैंक में खुले हुए हैं, जो अब सुनने में आया है कि वहॉं से बन्द करके अन्य छोटे बैंकों में स्थानान्तरित किये जा रहे हैं।

तबीयत से प्रचारित किया गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक महान अर्थशास्त्री और बेदाग ईमानदार व्यक्ति हैं। भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों और इस आम धारणा के बावजूद कि वह भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं, इस मिथक के कारण ही वह अब तक पद पर बने हुए हैं और उन्हें कांग्रेस पार्टी या फिर बाहर से तगड़ी चुनौती नहीं मिली है, जबकि उनसे योग्य उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी उनके अधीन कार्य करने को मजबूर हैं। आखिरकार संसद में सरकार की गरिमा को कुछ हदतक उन्होंने ही बचाया, वरना तो सरकार के खाशुलखास पी.चिदम्बरम, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह, रेनुका चौधरी, अम्बिका सोनी ने पगड़ी उछालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। क्या प्रधानमंत्री में वास्तव में ये तमाम खूबियां हैं जो उनके प्रशंसक और कांग्रेस पार्टी एक दशक से बखान करती आ रही हैं? 
दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की पड़ताल से हमें आंकलन कर लेना चाहिए कि मनमोहन सिंह की तथाकथित व्यक्तिगत ईमानदारी और अर्थशास्त्र की उनकी समझ से देश को फायदा पहुंचने के स्थान पर अरबों-खरबों का नुकसान ही अधिक हुआ है? इस आधार पर उन्हें ईमानदारी का मेडल पहनाये रखना क्या मेडल पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता? राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की जिम्मेदारी भारत को 2003 में सौंप दी गई थी। इस प्रकार भारत सरकार और अन्य तमाम इकाइयों को खेलों के लिए ढांचागत सुविधाएं तैयार करने के लिए सात साल का समय मिला था। मई 2004 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मनमोहन सिंह पर तैयारियों पर निगरानी रखने की प्रमुख जिम्मेदारी थी, लेकिन शुरू से ही एक सोची समझी साजिश के तहत खुली लूट की छूट के लिए उसी के अनुसार कार्रवाई की गई।

सबसे पहले तो विशुद्ध भारतीय अंदाज में खेलों से जुड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए अनेक कमेटियों का गठन कर दिया गया। इस कारण खेलों के आयोजन में घालमेल हो गया, किंतु मनमोहन सिंह ने गड़बड़ियों को दूर करने के लिए कभी शीर्ष इकाई के गठन की जहमत नहीं उठाई। दूसरे, एक बार फिर खालिश भारतीय अंदाज में करार पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद काम शुरू नहीं किया गया। शुरुआती साल टालमटोल में निकाल दिए गए, क्योंकि हर जिम्मेदार एजेंसी ने सोचा कि जब समय कम बचेगा तब तीव्रता से काम करने में बंदरबांट आसानी से और बिना किसी रोक-टोक के कर ली जायेगी! इसीलिए जानबूझकर देरी की गई।

राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन की तैयारियों में ढ़िलाई को लेकर पॉच साल बाद वर्ष 2009 में जाकर गंभीर चिंताएं जताई गईं और तब तक अनेक काबिल व्यक्तियों द्वारा बार-बार आग्रह किए जाने के बाद भी तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री ने संकट हल करने की दिशा में कोई कदम जानबूझकर नहीं उठाया। जुलाई, 2009 में यानी खेल शुरू होने से 15 माह पहले कैग ने पहली चेतावनी जारी करते हुए केंद्र सरकार से कहा कि विभिन्न प्रकार की जटिल गतिविधियों और संगठनों के आलोक में तथा उस समय तक खेलों के आयोजन की तैयारियों की प्रगति को देखते हुए परियोजनाओं के परिचालन के तौर-तरीकों में तुरंत बदलाव की आवश्यकता है।

कैग ने चेताया कि अगर खेल समय पर आयोजित करने हैं तो अब किसी किस्म की लापरवाही और देरी की कतई गुंजाइश नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद सरकार को काम में तेजी लानी चाहिए थी, परियोजनाओं की निगरानी करनी चाहिए थी, किंतु जैसाकि देश को बाद में पता चला मनमोहन सिंह ने कैग की चेतावनी को रद्दी की टोकरी मे फेंक दिया। अब कैग ने मई 2003 में राष्ट्रमंडल खेलों के करार पर हस्ताक्षर होने से लेकर दिसंबर, 2010 तक के समूचे प्रकरण पर अपनी समग्र रिपोर्ट पेश कर दी है।

कैग की यह रिपोर्ट, सीधे-सीधे प्रधानमंत्री को ही कठघरे में खड़ा करती है, लेकिन कैट की श्रेणी में खड़े मनमोहन सिंह के सामने सबकुछ बेईमानी है। करार दस्तावेजों के अनुसार खेलों की आयोजन समिति सरकारी स्वामित्व वाली रजिस्टर्ड सोसाइटी होनी चाहिए थी, जिसका अध्यक्ष सरकार को नियुक्त करना था। हालांकि जब फरवरी 2005 में आयोजन समिति का गठन किया गया तो यह एक गैरसरकारी रजिस्टर्ड सोसाइटी थी और उसके अध्यक्ष भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी थे। हैरत की बात यह है कि आयोजन समिति के पद पर सुरेश कलमाड़ी की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर ही हुई थी। एक गैर सरकारी सोसाइटी में उसके अध्यक्ष पद पर कलमाड़ी की नियुक्ति के लिए पीएमओ कार्यालय को अनुशंसा क्यों करनी पड़ी? ये जॉंच का विषय है, पर इसकी जॉंच करेगा कौन?
कलमाड़ी की नियुक्ति के समय ईमानदार प्रधानमंत्री कार्यालय ने युवा मामले व खेल मंत्री सुनील दत्त की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया था। 2007 में तत्कालीन खेलमंत्री मणीशंकर अय्यर ने आयोजन समिति पर सरकारी नियंत्रण न होने का मामला उठाया था, किंतु ईमानदार प्रधानमंत्री ने उनको भी एक तरफ कर दिया और उनकी भी नहीं सुनी। आखिरकार जब खेलों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे थे तो ईमानदार प्रधानमंत्री ने इन पर सरकारी नियंत्रण सुनिश्चित क्यों नहीं किया? मगरूरसत्ता, जवाबदेही की अनुपस्थिति और शासन के सुस्पष्ट ढ़ांचे के अभाव के कारण खेलों के आयोजन में गड़बड़ियां पैदा हुईं या कराई गईं, यह इंटरपोल के खोज की विषय वस्तु है। 

अगस्त 2010 में जब तैयारियां पूरी होने के दावे किए गए तो विश्व मीडिया में गंदे टॉयलेट, कूड़े के ढेर, छतों से टपकते पानी की तस्वीरें प्रकाशित हुईं और भारत की दुनियाभर में खिल्ली उड़ी, वह भी एक तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री के रहते? कैग रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने तैयारियों के लिए मिले सात सालों का खुलकर दुरूपयोग किया। आखिरकार इसके लिए ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बेईमानी का आरोप किस विषेशाधिकार के अधीन आता है?

अब खेलों की लागत पर विचार करें, तो कैग ने बताया है कि केंद्र सरकार ने खर्च का स्पष्ट और सही अनुमान नहीं लगाया। भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन ने खेलों के आयोजन पर 1200 करोड़ के खर्च का अनुमान लगाया था, किंतु आयोजन में सरकार के खजाने से 18,532 करोड़ रुपये निकाल लिए गए। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रमंडल खेलों की लागत 15 गुणा बढा दी़ गई, क्यों! ये रुपये कहॉं गये? दूसरी तरफ, आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों की लागत आय से निकल आएगी, वह दावा कहॉं गया? ये सरकारी खजाने के 17,332 करोड़ रूपये की वसूली किससे की जानी चाहिए, ये तथाकथित ईमानदार सरदार मनमोहन सिंह बतायेंगे!

कैग के अनुसार आयोजन समिति ने आय का अनुमान बढ़ा-चढ़ा कर लगाया था। उदाहरण के लिए, मार्च 2007 में आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों से 900 करोड़ रुपयों की आय होगी, किंतु जुलाई 2008 में इस अनुमान को बढ़ाकर दोगुना यानी 1780 करोड़ रुपये कर दिया गया। दरअसल, आयोजन समिति ने आय के अनुमान को इसलिए बढ़ाया, क्योंकि उसे सरकार से और धन चाहिए था। खेलों के समापन के बाद पता चला कि आयोजन से मात्र 173.96 करोड़ रुपयों की ही आय हुई। खर्च 15 गुना कम और आय दस गुना अधिक बताना क्या क्रिमिनल कॉन्सप्रेसी नहीं है? इस कॉन्सप्रेसी के लिए क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट सज्ञान लेने की स्थिति में नही है! क्या इस सबके लिए ईमानदार अनर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को कटघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिए? ये रिकवरी उनसे और अन्य जिम्मेदार लोगों से क्यों नहीं होनी चाहिए? इसका जवाब क्या निकारागुआ कि संसद देगी?सतीश प्रधान 




Thursday, September 8, 2011

संसद, जहां से दूरदर्शी सुधार और कानून निकलते ही नहीं


         राजनीतिक पार्टियों को समझ में नहीं आ रहा है कि दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर मुंबई के आजाद मैदान तक हवा में लहराती हजारों मुठ्ठियों ने संसद पर ही सवाल उठाये हैं। जनता के सवाल लोकतंत्र में महाप्रतापी संसद की गरिमा और सर्वोच्चता पर हैं, जनता तो संसद की स्थिति, उपयोगिता, योगदान, नेतृत्व, दूरदर्शिता, सक्रियता और मूल्यांकन पर प्रश्नचिन्ह लगाने पर मजबूर हुई है। बदहवास सरकार, जड़ों से उखड़ी कांग्रेस और मौकापरस्त विपक्ष को यह कौन बताए कि जब-जब संसदीय गरिमा का तर्क देकर संविधान दिखाते हुए पारदर्शिता रोकने की कोशिश होती है तो लोग और भड़क जाते हैं। 
        देश उस संसद से ऊब चुका है जो चलती ही नहीं है, जिसे अपने व्यक्तिगत उद्देश्य की पूर्ति के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने में आपत्ति नहीं होती लेकिन लोकपाल बिल पास करने के लिए विशेष सत्र बुलाना उसे गंवारा नहीं। वह संसद, जिसका आचरण शर्म से भर देता है, वह संसद, जहां नोट बंटवाने वाले सम्मान के साथ आराम से घूम रहे हैं, वह संसद जिसमें गम्भीर से गम्भीर मुद्दों पर बहस होने के बजाय शोर-शराबे, हल्ला-गुल्ला और सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ती है।
        वह संसद, जो उन्हें लंबे इंतजार के बावजूद भ्रष्टाचार का एक ताकतवर पहरेदार यानी लोकपाल उसके दरबार में आठ बार पेश होने के बाद भी उस निरीह जनता को आजतक नहीं दे सकी है। वह संसद, जो महिलाओं के आरक्षण पर सिर्फ सियासत करती है। वह संसद, जहां से दूरदर्शी सुधार और कानून निकलते ही नहीं। वह संसद, जो सरकार के अधिकांश खर्च पर अपना नियंत्रण खो चुकी है, ऐसी संसद से जनता खफा न हो तो और क्या उसकी आरती उतारे। जिस भारत में गरीबों को रैन बसेरा दिलाने से लेकर पुलिस को सुधारने तक और गंगा से लेकर भ्रष्टाचारियों की सफाई तक जब बहुत कुछ सुप्रीम कोर्ट ही कराता हो, तो अपनी विधायिका यानी संसद के योगदान व भूमिका पर सवाल उठाना नागरिकों की प्रथम और महत्वपूंर्ण जिम्मेदारी बनती है।
        जनलोकपाल का आंदोलन दरअसल संसद पर ही सवाल उठा रहा है, जिसके दायरे में सत्ता पक्ष व विपक्ष, दोनों आते हैं। यह एक नए किस्म का मुखर लोकतांत्रिक मोहभंग है। राजनीतिज्ञ एवं मोहल्ले-टोले की राजनीति कर रहे लोग अभी भी भाड़े की भीड़ वाली रैली छाप मानसिकता में ही जी रहे हैं, उन्हें अण्णा के आंदोलन में जुटी भीड़ तमाशाई दिखती है! अण्णा के पीछे खड़ी भीड़ आधुनिक संचार की जुबान में एक वाइज क्राउड थी, जिसे एक समझदार समूह समझना ही राजनीतिज्ञों के लिए बेहतर होगा, वैसे यह उनकी मर्जी कि वे इसे क्या समझते हैं। यह छोटा समूह जो संवाद, संदेश और असर को जानता-पहचानता है, तकनीक जिसकी उंगलियों पर है, जिसे अपनी बात कहना और समझाना आता है। जिसके पास भाषा, तथ्य, तजुर्बे और तर्क हैं।
        भ्रष्टाचार पूरे देश के पोर-पोर में भिदा है इसलिए अण्णा की आवाज से वह गरीब ग्रामीण भी जुड़ जाता है, जिसने बेटे की लाश के लिए पोस्टमार्टम हाउस को रिश्वत दी और वह बैंकर भी सड़क पर आ जाता है जो कलमाड़ी व राजा की कालिख से भारत की ग्रोथ स्टोरी को दागदार होता देखकर गुस्साया है। जनलोकपाल की रोशनी में जनता यह तलाशने की कोशिश कर रही है कि आखिर पिछले तीन दशक में उसे संसद से क्या मिला है? वैसे तो इस सवाल पर जोरदार सार्वजनिक बहस होनी चाहिए थी, लेकिन इसके लिए ये नेता तैयार नहीं हैं। 15 लोकसभाएं बना चुके इस मुल्क के पास अब इतिहास, तथ्य व अनुभवों की कमी नहीं रह गई है।
        अगर ग्रेटर नोएडा के किसान हिंसा पर न उतरते तो संसद को यह सुध नहीं आती कि उसे सौ साल पुराना जमीन अधिग्रहण कानून बदलना भी है, बड़ी मुष्किल से उसने इसे बदला तो है, लेकिन मात्र दिखावे के लिए। अगर सुप्रीम कोर्ट आदेश (विनीत नारायण केस) न देता तो सीबीआई, प्रधानमंत्री के दरवाजे बंधी रहती और केंद्रीय सतर्कता आयोग के मातहत शायद न आई होती। दलबदल ने जब लोकतंत्र को चैराहे पर खड़ा कर दिया तब संसद को कानून बनाने की सुध आई। आर्थिक सुधारों के लिए संकट क्यों जरूरी था? नक्सलवाद जब जानलेवा हो गया तब संसद को महसूस हुआ कि आदिवासियों के भी कुछ कानूनी हक हैं। वित्तीय कानून बदलने के लिए सरकार ने शेयर बाजारों में घोटालों की प्रतीक्षा की। ऐसी परिस्थितियों के बावजूद क्या संसद से जनता का मोहभंग होना नाजायज करार दिया जायेगा?
        भारतीय संसद की कानून रचना और क्षमता भयानक रूप से संदिग्ध है। एक युवा देश आधुनिक कानूनों के तहत जीना चाहता है, मगर भारतीय विधायिका के पास हंगामे का तो वक्त है, कानून बनाने का नहीं। सांसद खुले रूप में संसद में यह वकतव्य देने के लिए स्वतंत्र हैं कि उन्हें खूब आता है, इसकी टोपी उसके सिर और फिर उसकी टोपी इसके सिर करना इसे कोई उन्हें ना सिखाये। उनका दिन भर का काम ही यही है। कानून बनाने में जानबूझकर देरी किया जाना अच्छे कानून बनाने की गारंटी नहीं है, बल्कि यह साबित करता है कि विधायिका गंभीर नहीं है। हमारी संसद न तो वक्त पर कानून दे पाती और ना ही कानूनों की गुणवत्ता ऐसी होती है जिससे विवाद रहित व्यवस्था खड़ी हो सके।
        जनलोकपाल के लिए सड़क पर खड़े तमाम लोगों के पास कार्यपालिका के भ्रष्टाचार के करोड़ों व्यक्तिगत अनुभव हैं। संविधान ने विधायिका यानी संसद को पूरे प्रशासन तंत्र (कार्यपालिका) की निगरानी का काम भी दिया था। संसद यह भूमिका गंवा चुकी है, या राजनीति को सौंप चुकी है, यह भी शोध की विषय वस्तु है। अदालतें इंसाफ ही नहीं कर  रही हैं बल्कि लोगों को रोटी और शिक्षा तक दिला रही हैं, तो लोग महसूस करते हैं कि संसद प्रभावहीन हो गई एवं कुछ करना भी नहीं चाहती है। इसलिए न्यायपालिका को आधारभूत ढांचे की तरफ लौटना पड़ा, जिसके तहत संविधान के बुनियादी मूल्यों को बचाना भी अदालत की जिम्मेदारी है (गोलकनाथ केस-1967)।
         नेता जब अदालतों पर गुस्साते हैं या संवैधानिक संस्थाओं को उनकी सीमाएं बताते हैं तो लोगों का आक्रोश और भडक जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का अंतरराष्ट्रीय इतिहास जनता और स्वयंसेवी संस्थाओं ने ही बनाया है। सरकारें दबाव के बाद ही बदलती हैं। इन जन आंदोलनों की बदौलत ही आज भ्रष्टाचार के तमाम अंतरराष्ट्रीय पहरेदार हमारे पास हैं। यह पहला मौका नहीं है जब जनता विधायिका को राह दिखा रही है। 2002 में निकारागुआ में पांच लाख लोगों ने एक जन याचिका के जरिए संसद को इस बात पर बाध्य कर दिया था कि भ्रष्ट राष्ट्रपति अर्नाल्डो अलेमान पर मुकदमा चलाया जाए। संसद की सर्वोच्चता पर किसे शक होगा, मगर इसके क्षरण पर अफसोस पूरी जनता को है।
         जनता, अदूरदर्शी, दागी और निष्प्रभावी संसद से गुस्से में है। वह संसद को उसकी संवैधानिक साख लौटाना चाहती है। कानून तो संसद ही बनाएगी, लेकिन इससे अच्छा लोकतंत्र क्या होगा कि जनता मांगे और संसद कानून बनाए। जनलोकपाल की कोशिश को संसद की गरिमा बढ़ाने वाले अनोखे लोकतांत्रिक प्रयास के तौर पर देखा जाना क्या 125 करोड़ की जनता का अभिवादन करने जैसा नहीं है, और इस पर क्या संसद को ईमानदारी से सेाचना नहीं चाहिए कि अब वक्त आ गया है जब संसद को जनता की आवाज बिना किसी लाग-लपट और चू-चपड़ के चुपचाप शराफत से सुन लेनी चाहिए। सतीश प्रधान

अभूतपूर्व लोकतांत्रिक प्रयास

        अन्ना हजारे के आंदोलन ने इस देश की जनता को एक अभूतपूर्व जगह पर ला खड़ा किया है, जो रास्ता देश को दुनिया के शिखर पर ले जा सकता है, वहीं दूसरी ओर वही पुराना रास्ता है, जो उसे एक अन्तहीन खाई में डुबोने को तैयार है। दूसरे रास्ते पर सरकार है, संसद है, उसके सदस्यों का विशेषअधिकार है, भ्रष्टाचार है, अनाचार है और सभी प्रकार का दुव्र्यवहार है। अब सरकार ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक पार्टियों के साथ -साथ अन्य बुद्धिजीवियों पर भी निर्भर करेगा कि वे देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं । पूरे प्रकरण को समझने के लिए यह जानना होगा कि इस पूरे आंदोलन की प्रकृति क्या है, स्वरूप क्या है, इसकी दिशा क्या है, इसके व्यापक उद्देश्य क्या हैं और इससे क्या सबक लिए जा सकते हैं? आजादी के बाद यह एक ऐसा देशव्यापी आंदोलन है जिसका नेतृत्व राजनेताओं के हाथ में न होकर आम नागरिक एवं उसके मसीहा माननीय अण्णा हजारे जी के पास है। इससे पूर्व के कुछ आंदोलन जिन्होंने पूरे देश को अपने आगोश में ले लिया था उनमें जेपी का 74 का आंदोलन, मंदिर आंदोलन और फिर मंडल कमीशन के आंदोलन को शामिल किया जा सकता है। लेकिन अन्य सारे आन्दोलनों की प्रकृति एवं अण्णा हजारे के आन्दोलन की प्रकृति में जमीन-आसमान का फर्क अपने आप समझ में आता है।
          मंदिर आंदोलन से जहां मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध आदि धर्मावलंबी और हिंदुओं का सेक्युलर तबका अलग था, तो मंडल आंदोलन से सवर्ण एकदम से बाहर थे। इनमें जेपी का आंदोलन एकबारगी ऐसा आंदोलन समझा जा सकता है, जिससे जनता जुड़ी तो थी पर उसमें राजनीति से जुड़े लोग ही थे जिसका नेतृत्व राजनेताओं के पास था और जिनका उद्देश्य संपूर्ण क्रांति कम सत्ता परिवर्तन अधिक था। अण्णा का आंदोलन नेतृत्व-भागीदारी से लेकर उद्देश्य तक आम जनता का ही आंदोलन है और इसका तात्कालिक लक्ष्य भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक सशक्त जनलोकपाल कानून को लाना है, हालांकि इसके देशहितकारी अन्य दूरगामी परिणाम भी निश्चित हैं।
          अनेक राजनीतिक चिंतक, जिनके दिमाग में राजनीति को पोषित करने की चिंता ज्यादा है, इस आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र या दलगत राजनीति के लिए एक खतरा बताते हैं, लेकिन इस सवाल का वे जवाब नहीं देते कि इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार कौन है। कठघरे में सिर्फ कांग्रेस ही नहीं खड़ी है, बल्कि भाजपा, कम्युनिस्ट पार्टियां और अन्य अधिकांश दल भी शामिल हैं। वरना क्या कारण है कि आज किसी राजनेता या दल में वह नैतिक साहस नहीं है कि वह किसी मुद्दे पर खड़े हों और पूरा देश उनके पीछे आ जाए। इसके लिए क्या अन्ना या भारत की गाय समान जनता जिम्मेदार है? जी हॉं, एक मायने में है भी।
          64 सालों से जब अनाचार, अत्याचार, जबरदस्त मंहगाई, अपने धन की जबरदस्त लूट, नेताओं द्वारा मूर्ख बनाने के बाद भी वह चुप बैठी है, तो वह कैसे जिम्मेदार न मानी जाये? लोग संसद को अपने घर की तरह चला रहे हैं। जनता ने अपना प्रतिनिधि उन्हें क्या बना दिया वे मालिक बन बैठे। इस देश का वही हाल इन राजनेताओं ने कर रखा है, जैसे कोई नाबालिग लड़की,अपनी सुरक्षा के लिए किसी व्यक्ति को सुरक्षा में रख ले, इसके बाद वह सुरक्षाकर्मी उसके हर मूवमेन्ट पर अपनी पकड़ मजबूत कर ले एवं इसके बाद वह उसी की इज्जत से भी खेले तो वह क्या कर सकती है? कहीं आवाज उठाने की कोशिश करे तो वह सुरक्षाकर्मी बोले कि अरे इसने तो मुझे ताजिन्दगी का ठेका दिया हुआ है कि वह उसकी सुरक्षा करेगा, अब इसे कुछ भी बोलने-कहने का अधिकार नहीं है। इसका माई-बाप तो मैं हूं। वही हाल इस देश की जनता का इन राजनेताओं ने किया हुआ है। पांच साल के लिए चुन क्या दिया! ये जनता के गार्जियन हो गये। चाहे जनता का धन लूटकर विदेशी खाते में जमा करें या पशुओं का सारा चारा ही खा जायें! सारा माल इनका, इनके बाप का, जनता तो इनकी गुलाम है।
          इस आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि इतना बड़ा, देशव्यापी और स्वतःस्फूर्त आन्दोलन होने के बावजूद, यह पूरी तरह से अहिंसक रहा है और यही इस आंदोलन की शक्ति भी रही, क्योंकि सरकार को जरा भी मौका मिलता तो इसे कुचलने में वह किंचित मात्र भी विलम्ब नहीं करती। अहिंसक होने से ही इसे व्यापक जनसमर्थन मिलता चला गया। यह अनायास नहीं है कि पूरी दुनिया के मीडिया ने इस आंदोलन को प्रमुखता से कवरेज देते हुए इसकी सफलता का गुणगान किया।और तो और पाकिस्तान जैसे सैन्य तानाशाही वाले देश या खूनी संघर्ष से उथल-पुथल हो रहे अरब देशों में अण्णा हजारे से प्रेरणा लेने की बात होने लगी है। इस आंदोलन के स्वरूप पर आरोप लगाते हुए सरकार, राजनीतिक दल और सरकारी प्रतिनिधियों के साथ ही सरकार द्वारा पोषित कुछ मीडियाकर्मीयों ने भी, जिनमें नई दुनिया के आलोक मेहता प्रमुख हैं, इसे मीडिया हाइप की संज्ञा से नवाजा और मीडिया मैनेज्ड,  आरआरएस द्वारा प्रायोजित एवं अमेरिकी सरकार द्वारा समर्थित बता दिया।
           अरे मनमोहन सिंह के अमेरिका परस्त होने के बावजूद उल्टा इलजाम सिविल सोसाइटी पर? सरकार में मंत्री रेणुका चौधरी ने तो आईबीएन-7 वालों पर पीपली लाइव की तरह बर्ताव करने वाला करार दिया। उसी तरह कुछ विश्लेषक इसे सवर्णवादी, अभिजन वादी, कारर्पारेटवादी बता रहे थे, लेकिन सच इनसे कोसों दूररहा। यह सही है कि आंदोलन को मीडिया ने खासा कवरेज दिया, लेकिन सिर्फ मीडिया के सहारे कोई आंदोलन नहीं चल सकता जब तक उसके पीछे कोई ठोस सामाजिक-आर्थिक कारण न हो। अगर ऐसा होता तो मीडिया वाले स्वंय अपने लिए विधायकों और सांसदों की तरह सुविधा-सम्पन्न न हो जाते! अथवा वे भी सांसद विधायक ना हो जाते।
            यह अनायास नहीं था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जो देश की मुस्लिम राजनीति को एक बौद्धिक दिशा देता है, के शिक्षकों और छात्रों ने अण्णा के समर्थन में उदघोष किया। उसी तरह यह भी गलत है कि यह आंदोलन सवर्णवादी, अभिजनवादी है। वैसे भी निम्न वर्ग के लोग पूरे समाज के आन्दोलन की न तो बात करते है और ना ही ऐसी सोच उनकी है। उन्हें तो हर स्थान पर बिना कुछ किये अपनी भागीदारी ही सुनिश्चित कराने के लिए झंडा उठाने की बात ही ध्यान में रहती है। यह ठीक है कि इसका नेतृत्व अभी सवर्ण और अभिजन कर रहे हैं, लेकिन आंदोलन से सबसे अधिक फायदा समाज के निम्न वर्ग के लोगों को ही होगा, जिनके बुनियादी हक को भ्रष्टाचार का दानव हड़प और हजम किए जा रहा है। इस रूप में यह आंदोलन दलितों, पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के लिए सबसे अधिक हितकारी है। अनेक दलित और पिछड़ी जातियों के बुद्धिजीवियों ने बताया है कि वे पूरी तरह से अण्णा के साथ हैं।
             इस आंदोलन की सबसे बड़ी शक्ति युवा वर्ग है, जो समाज के सभी धर्म-जाति-वर्ग-क्षेत्र के हैं और जिनकी संख्या 25 करोड़ से ज्यादा है। यह युवा वर्ग पहले के किसी भी भारतीय आंदोलनों की अपेक्षा ज्यादा शिक्षित, ज्यादा सूचनाओं से लैस और ज्यादा जागरूक और समझदार है। सबसे बड़ी बात यह है कि दिग्भ्रमित कहे जाने वाली इस युवा पीढ़ी की ऊर्जा अभूतपूर्व रूप से जाग गई है जिसकी आकांक्षाओं को ज्यादा दबाया नहीं जा सकता। वैसे तो युवा नेतृत्व के नाम पर धुरन्धर राजनेताओं के ही पुत्र-पुत्रियों को राजनीति में लाने की साजिश रची जा रही थी, और कांग्रेस के युवराज लला राहुल ने अपनी टीम ऐसे ही लोगों की बनाई हुई है, लेकिन उनकी सोच भी उनके पुरखों से भिन्न कतई नहीं है।
     सरकार, कांग्रेस, भाजपा या अन्य सभी राजनीतिक दलों को समझ लेना चाहिए कि उनका कोई भी गलत अथवा दम्भ भरा कदम राजनेताओं और राजनीति पर पहले से ही गहरे अविश्वास को और मजबूत ही करेगा जिसके जिम्मेदार वे स्वयं होंगे। सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा आंदोलन को अमेरिका पोषित कहना या इसे भ्रष्ट बताते हुए यह कहना कि कहां से आंदोलन के लिए पैसा आ रहा है, सच्चाई को ठुकराने वाली बात है। अण्णा में लोगों का इतना विश्वास है कि उनके आंदोलन को धन की कमी ना है और न रहेगी। आरोप लगाने वाले यह भी सोच लें कि यह पैसा स्विस बैंक से तो कतई नहीं आ रहा है। एक सरल गणित को समझ लें कि देश के एक करोड़ लोग इतने सक्षम तो हैं ही कि हर कोई अण्णा को सिर्फ सौ-सौ रुपये भी दे तो यह राशि सौ करोड़ हो जाती है। हालांकि अण्णा के आंदोलन का कुल खर्च अब तक एक करोड़ का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाया है।
              आज अन्ना का समर्थन करने के बावजूद जनलोकपाल बिल से अन्य राजनीतिक पार्टियां भी पूरी तरह से सहमत नहीं हैं, लेकिन क्या इसमें उनका स्वार्थ आड़े नहीं आ रहा है! या सचमुच इसके दूरगामी दुष्परिणाम भी उन्हें ही भुगतने पड़ सकते हैं इसका अन्दाजा लगाने का उनमें माद्दा ही नहीं है। राजनीतिक पार्टियों को समझ लेना चाहिए कि न तो उनको इतिहास माफ करेगा, न ही भविष्य स्वीकारेगा और वर्तमान तो उनके सामने है, जो उन्हें कतई माफ करने को तैयार नहीं है क्योंकि वह अपनी विश्वसनीयता ही खो चुके हैं। 
सतीश प्रधान

Wednesday, August 31, 2011

देश को मिल गया मसीहा



          भारत गणराज्य के वर्तमान प्रधानमंत्री किसी समस्या का राजनीतिक समाधान तलाशने में एकदम असमर्थ हैं। जनलोकपाल के प्रति पहले ही सहानुभूति पूर्वक विचार के लिए तैयार हो जाते तो एक 75 वर्षीय बुजुर्ग मा0 अण्णा हजारे जी को इतने दिनों तक अनशन पर नहीं रहना पड़ता,  इसलिए उनकी जगह पर कांग्रेस को प्रणव दा को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। मनमोहन को सार्वजनिक-राजनीतिक जीवन में सबकुछ मिल चुका है। सात वर्ष से वह लगातार प्रधानमंत्री पद पर हैं। यह साधारण उपलब्धि नहीं कही जायेगी, क्योंकि ऐसा सिर्फ हिन्दुस्तान में ही सम्भव है, वरना देखिए गद्दाफी लुका-छिपा घूम रहा है। ईमानदारी के सिरमौर बनने वाले सरदार जी  को अब राष्ट्रहित में स्वंय ही प्रधानमंत्री पद से मुक्ति पा लेनी चाहिए, वरना आगे क्या हो कौन जाने। इस देश को वास्तव में मसीहा मिल गया है।
      अण्णा के मामले में सरकार ने असंवेदना, अपरिपक्वता, अदूरदर्शिता का परिचय ही नहीं दिया अपितु एक नेक आन्दोलन को सिब्बल के जरिए स्वामी अग्निवेष जैसे एजेन्ट को अण्णा टीम में घुसाने और उसे बदनाम करने की पूरी कोशिश की। तभी तो मनीष जैसे लोगों से गाली दिलवाई गई, और बाद में वक्त की नजाकत को देखते हुए उससे माफी भी मंगवाई। ऐसे को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया, क्योंकि पता नहीं ये खोटे सिक्के कब काम आ जायें। जो निर्णय प्रारम्भ में हो सकता था,  उसके लिए देश आन्दोलित हुआ, लेकिन अच्छा हुआ। वयोवृद्ध अण्णा को अनशन करना पड़ा, क्योंकि भगवान ऐसा चाहते थे। इस अवधि में ज्ञात हुआ कि सरकार अपना इकबाल पूरी तरह समाप्त कर  चुकी है। बेशक वह बहुमत में होगी,  लेकिन अण्णा ने पूरी दुनिया के सामने सिद्ध कर दिया  कि असल में जनता उनके साथ है।
      प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने अण्णा के आन्दोलन को असंवैधानिक बताया, संविधान, प्रजातंत्र और संसद की सर्वोच्चता के बेतुके तर्क रखे । वस्तुतः मनमोहन सिंह राजनीतिक रूप से किसी समस्या को समाधान की स्थिति तक पहुंचाने में सक्षम नहीं हैं। यह उनकी नियुक्ति से जुड़ा मसला  है। वह प्रजातंत्र की बात करते हैं लेकिन उनको इस पद पर आसीन करने में प्रजा की इच्छा बिल्कुल शामिल नहीं है। इसलिए महत्वपूर्ण पद पर होने के बाद भी वह आठ दिन तक राजनीतिक पहल करने की स्थिति में नहीं थे। गनीमत यहीं तक नहीं थी, उन्होंने कपिल सिब्बल और पी. चिदम्बरम जैसे सहयोगियों को आगे रखा, सोचा कि उनकी वकालत लोकपाल पर भारी पड़ जायेगी।
      कपिल भी उन्हीं की तरह निकले,  जिनका राजनीति में आना घटना प्रधान है। वह जमीनी पृष्ठभूमि से राजनीति में नहीं है। केवल इतना अन्तर है कि कपिल सिब्बल संयोग कहिए या जनता की गलतफहमी कि वह लोकसभा चुनाव जीत गए। मनमोहन को चुनाव जीतना अभीतक नसीब    नहीं हुआ है। लेकिन जमीन से इनकी भी दूरी में ज्यादा फर्क नहीं है। इसलिए ये मनीष तिवारी या दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को किनारे करने की बजाय इनकी छिछली हरकत पर इतराते रहे।   इनको ए राजा, कलमाड़ी आदि नेता सिर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबे नजर नहीं आये,       जो शब्द उन्होंने अण्णा के लिए प्रयुक्त करवाये। सरकार और पार्टी खामोश रही। इस    प्रकार सरकार और पार्टी  दोनों का नजरिया जाहिर हुआ। उसकी नजर में भ्रष्ट किसे माना जाता     है, यह पता चला। प्रधानमंत्री प्रभावशून्य और कठपुतली ही दिखाई दिए, या समझिये वह अपने को कठपुतली ही दिखाना चाहते हों।
      संप्रग सरकार संवेदनहीनता का परिचय शुरू से ही देती रही, उसे खाद्यान्न का सड़ जाना मंजूर हुआ, लेकिन भारत के सुप्रीम कोर्ट के निर्देष के बावजूद, निर्धनों में उस अनाज को बांटना मंजूर नहीं हुआ। मंहगाई रोकने के प्रयास नहीं किए गये। सामान्य जनता को होने  वाली कठिनाई के प्रति उसने कभी संवेदना नहीं दिखाई। पछहत्तर वर्षीय अण्णा हजारे के अनशन का सातवां दिन था। मनमोहन सिंह इस गम्भीर मसले पर विचार विमर्श करने के बजाय कोलकाता की एक दिवसीय यात्रा पर चले गये। यह ठीक है कि उनका कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था। वहां आई.आई.एम. में गाउन ओढ़कर उन्हें लिखित भाषण पढ़ना था। प्रधानमंत्री पद के दायित्व और मानवीय संवेदना का तकाजा यह था कि मनमोहन सिंह इस कार्यक्रम में शामिल होने का कार्यक्रम स्थगित कर देते। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वहां के लोग मनमोहन सिंह को देखने-सुनने के लिए एकदम व्याकुल थे। वह सुसज्जित बन्द हॉल में भाषण पढ़ रहे थे। बाहर कोलकाता के नागरिक उनकी यात्रा का विरोध कर रहे थे, और अन्दर मेधावी छात्र उनसे डिग्री न लेने के लिए काली पट्टी बांधकर विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि अण्णा के अनशन का समाधान निकालने के लिए प्रधानमंत्री को नईदिल्ली में ही रहना चाहिए था। वापस लौटने के दो दिन बाद रायता फैलाने के लिए सरदार जी ने सर्वदलीय बैठक रखी। तब तक अन्ना की सेहत बिगड़ती रही।
     किसी को खुली लूट की छूट देना, उसका बचाव करना, आरोपों को जानबूझ कर नजरअंदाज   करना ईमानदारी का लक्षण नहीं है। एक ईमानदार प्रधानमंत्री की सुख-सुविधा, सुरक्षा, आवास आदि पर सरकारी खजाने से बहुत बड़ी धनराशि खर्च की जाती है। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद अनेक खर्चीली सुविधाओं की गारण्टी मिलती है। ऐसे में निजी ईमानदारी पर आत्ममुग्ध होना,  कोई उदाहरण पेश नहीं करता है। उन्हें अपने सहयोगियों व प्रशासन को ईमानदार रहने के लिए बाध्य करना चाहिए था। अन्यथा उनकी निजी ईमानदारी भी भ्रष्टाचार के साथ समझौते के दायरे में ही आती है। वैभवशाली प्रधानमंत्री पद के लिए बेईमानी से समझौता करना किस आक्सफोर्ड की डिक्शनरी में ईमानदारी के अंतर्गत आता है।
      वैसे यहॉं कि जनता को इस पर भी विचार करना चाहिए कि इतने बड़े लोकतांत्रिक देश,      भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठे सरदार मनमोहन सिंह के कितने ही अरमान मन में ही धरे रह   जाते हैं। बतौर प्रधानमंत्री समय-समय पर दिखने वाले उनके अरमानों पर नजर डालिए, वह मंहगाई रोकना चाहते है, वह भ्रष्टाचार समाप्त करना चाहते हैं, वह आतंकी हमले रोकना चाहते हैं,वह दोषियों को कड़ी सजा दिलाना चाहते है, पर विडम्बना देखिए उनके भाग्य की कि वह कुछ कर नहीं पाते। अपनी दुरदशा पर दृश्टिपात करते हुए ही उन्होंने कहा कि वह अब हर हालत में शक्तिशाली लोकपाल चाहते  हैं। साथ ही कहीं जनता यह न समझ ले कि वह तुरन्त अपने से तगडे लोकपाल की नियुक्ति न कर दें, यह भी जोड़ दिया कि संसदीय प्रक्रिया में समय लगता है, इसलिए अभी इंतजार कीजिए।
     क्या मनमोहन सिंह के इस वक्तव्य पर विश्वास किया जा सकता है। क्या मजबूत और प्रभावी लोकपाल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से देश निश्चिंत हो सकता है। कठिनाई यह है कि भारत गणराज्य के वर्तमान प्रधानमंत्री किसी समस्या का राजनीतिक समाधान तलाशने की स्थिति में ही नहीं हैं। इस महत्वपूर्ण पद पर वह जनता की पसन्द से नहीं हैं। शायद इसीलिए वह जनभावना को समझने में समय गवांना नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सलाह पर कानून बनाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती है, और ना ही उस पर सर्वदलीय बैठक की आवष्यकता ही वह महसूस करते है। सोनिया जी का, अमेरिका का हांथ उनके सिर पर है, इसलिए वह जो चाहेंगे करेंगे, आप क्या कर लेंगे। बाकी उनके किये पर ताली बजाने के लिए पूरी कांग्रेस उनके साथ है।
     ताजा उदाहरण देखिए! स्पोर्ट्स बिल पर सर्वदलीय बैठक बुलाने की जरूरत इसके लिए नही समझी गई, क्योंकि उसकी कैबिनेट में मंत्री पदपर विराजमान बहुत से मंत्री प्रदेशीय क्रिकेट एसोसियेशन के अध्यक्ष हैं, और उन्होंने ही इसका विरोध किया। सशक्त लोकपाल के प्रति पहले ही ईमानदारी से उसमें प्राविधान कराकर बिल रख देते तो ऐसे लेने के देने तो न पड़ते। मेरा तो मानना है कि अब भी कुछ करने की जरूरत नहीं है। फिर से पूरे हिन्दुस्तान को बेवकूफ बना सकते हैं। मा0 अण्णा जी को जो पत्र पहुंचाया है, उसे सिंघवी, अमर सिंह और लालू यादव से खारिज करा दें, बस हो गया काम हिन्दुस्तान का। मनमोहन सिंह अपने को कितना ही ईमानदार दिखाने का नाटक करें,   वह मा0 अण्णा हजारे जी की हद की दिवानगी का अनुभव इस जिन्दगी में तो कदापि नहीं कर सकते। इसके लिए उनको दूसरी जिन्दगी लेनी पडेगी और अण्णा बनना पड़ेगा, जो इस जिन्दगी में किसी भी तरीके से सम्भव नहीं है। मनमोहन को तो सार्वजनिक, राजनीतिक जीवन में बहुत कुछ मिल गया है, लेकिन उन्होने इस भगत सिंह के देश को क्या दिया, इसको वह बिस्तर पर सोते जाते वक्त सोचें? शायद उनके अन्तरमन से कोई आवाज आये और उनको कुछ अच्छा करने के लिए झकझोरे। अब इस देश की जनता को ईमानदारी की परिभाषा पर नये सिरे से विचार- विमर्श करने की तीव्र आवश्यकता आन पड़ी है।   सतीश प्रधान