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Saturday, October 29, 2016

डीएवीपी का न्यू मीडिया में भी खेल

      सतीश प्रधान    

डीएवीपी के एक निदेशक है, अनिन्दय सेनगुप्ता, जिनके पास वेबसाइट्स को सूचीबद्ध किये जाने का अधिकार के0 गणेशन, महानिदेशक डीएवीपी ने दिया है। 01 जून 2016 को उन्होंने फाइल नं0 Dir(New Media) /EAC/Websites/2014/New Media  दिनांक 01 जून 2016 से वेबसाइट्स के सूचीबद्धीकरण और उनके रेट फिक्स करने के लिए पालिसी गाइडलाइन बनाई और डीएवीपी की साइट पर अपलोड की। यहाॅं भी एक अलग स्कैण्डल तैयार हो रहा है।
उक्त गाइडलाइन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के आफिस मेमो नं/45/2011-MUC  दिनांक 25 मई 2016 के तहत जारी की गई है।इनके द्वारा जारी गाइडलाइन के प्रथम पेज को यहाॅं इसलिए स्पष्ट करना चाहता हूं कि ये अधिकारी जानबूझकर नोटिफिकेशन का गलत मतलब निकालकर मीडिया को धोखा दे रहे हैं। पालिसी के प्रथम पेज की फोटो पेस्ट की जा रही है।

इसमें सेनगुप्ता ने लिखा है कि The Policy Guidelines for Emplacement and Rate Fixation for Central Govt. Advertisements on Websites are being notified.
क्या सेनगुप्ता बतायेंगे कि इसके ड्राफट को कैबीनेट से कब पास कराया गया और इसे लोकसभा में कब प्रस्तुत किया गया? अथवा सरकार ने इसका नोटिफिकेशन कब जारी किया। 
इस नीति में इसका भी जिक्र है कि वेबसाइट को सूचीबद्ध कराने वालों के लिए अलग से प्रार्थना-पत्र आमंत्रित किये जायेंगे। वे समय-समय पर वेबसाइट को चेक करते रहें। इसमें सेनगुप्ता ने कम्पीटेन्ट अथारिटी का जिक्र किया है, लेकिन ये नहीं बताया है कि आखिरकार काम्पीटेन्ट अथारिटी है, कौन?
इस तथाकथित नीति में यूनिक यजर्स की बात की गई है। वेबसाइट सूचीबद्धता को तीन भागों में विभक्त किया गया है। ए, बी, एवं सी कैटेगरी। सी कैटेगरी के लिए न्यूनतम ढ़ाई लाख से बीस लाख यूनिक यूजर्स, बी केटेगरी के लिए बीस लाख एक से पचास लाख तक, एवं आ कैटेगरी के लिए पचास लाख प्लस यूनीक यूजर्स की शर्त रखी गई है अब इसे देखिए, ये शर्त व्यावहारिक है अथवा अव्यावहारिक।
डीएवीपी ने अपनी वेबसाइट वर्ष 2012 में बनाई है और आज दिनांक 29 अक्टूबर 2016 के दो बजकर दस मिनट तक उसकी ही वेबसाइट को क्लिक करने वालों की संख्या 1,77,75,232 (दो करोड़ सत्तर लाख पचहत्तर हजार दो सौ बत्तीस) है। जबकि हालात ये हैं कि अपने ही कम्प्यूटर पर एक के बाद, दूसरी, तीसरी,..........दसवीं विण्डो आप खोलें तो 30 सेकण्ड में ही विजिटर की संख्या 100 से भी ऊपर पहुंच जाती है। यानी ये यूनीक यूजर्स नहीं हैं।
यूजर्स तो आप अकेले ही हैं, लेकिन जितनी बार आप डीएवीपी की विण्डो  खोलेंगे उतने ही नम्बर इसके बढ़ जायेंगे। अब देखिये 2012 से इस गति  से चल रही इस वेबसाइट की हालत की इन लगभग 55 महीनों में उसकी साइट पर विजिटर्स की संख्या हुई 3,23,186 (तीन लाख तेईस हजार एक सौ छियासी) ये पेज व्यू हैं, यूनीक यूजर्स नहीं। इसके यूनिक यूज़र्स निकाले जायँ  तो ये बीस हज़ार से अधिक नहीं बैठेंगे। देखिए जब वेबसाइट सूचीबद्ध करने वाले डीएवीपी संस्थान की हालत ये है कि वो स्वंय सी  केटेगरी में नही आ रहा, तो अन्य का आना कैसे सम्भव है, जबकि डीएवीपी की वेबसाइट रोजाना खोलना तो लाखों लोगों की मजबूरी है।
Websites will get the advertisements like this.
इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि डीएवीपी के ये अधिकारी कितने नासमझ, अव्यवहारिक और वास्तविकता से दूर हैं। ये कौन सी वेबसाइट्स को सूचीबद्ध करना चाहते हैं, और डीएवीपी के फण्ड को किस तरीके से साइफन करना चाहते हैं, ये जाँच का विषय है.
सुनने में आया है कि वेबसाइट को सूचीबद्ध करने का रेट आठ लाख रूपये है। कितना विज्ञापन ये वेबसाइट पर देंगे, ये तो लेने वाले ही जानें। जैसे प्रिन्ट में लगे अधिकारी दैनिक समाचार-पत्रों की सूचीबद्धता में दो-दो लाख ले लेते हैं, उसके बाद उनका काम खत्म। अब विज्ञापन चाहिए तो उसके लिए पचास प्रतिशत अलग से लेकर विज्ञापन दिलाने वाले दलाल को पकड़िए, वही हाल इस न्यू मीडिया में सेनगुप्ता भी करने जा रहे हैं।
हालात ये हैं कि ये वेबसाइट का सूचीबद्धीकरण कर रहे हैं अथवा ठेकेदारों का। इन्होंने तो टेण्डर निकाल दिया है। जिसमें दो तरह की बिड पड़नी हैं, एक कामर्शियल और दूसरी फायनेन्सियल। डीएवीपी के ये अधिकारी लूट का धन्धा स्थापित कर रहे हैं, वो भी नरेन्द्र मोदी की सरकार में।
स्थापित की गई इस फर्जी नीति के बिन्दु-4 के द्वितीय पैरा में लिखा है कि सूचीबद्धता के लिए विण्डों को- The Window for applications for the next panel will be opened from 01 Dec. to 31 of the previous year for the panel that will come into the following year. For example, the Window for the panel that will come into effect from April 01, 2018 shall be opened from Dec 01 to 31, 2017. The first panel under these Guidelines shall be valid till March 31, 2017.

इसके बाद भी इस फर्जी नीति के तहत अभी से आवेदन-पत्र कैसे मांग लिए गये। इतनी जल्दी सेनगुप्ता को कयों हुई? किसका दबाव था, समय से पूर्व आवेदन पत्र आमंत्रित करने की? ये गणेशन के आदेश पर हुआ अथवा सूचना सचिव श्री अजय मित्तल का वर्तमान में खोली गई विंण्डो पर फायनेन्सियल बिड़ की अन्तिम तिथि बढ़ाये जाने के बाद 10 नवम्बर 2016 है। अब जिस वेबसाइट वाले को एक वर्ष 10 नवम्बर को पूरा हो रहा है, उसका तो सेनगुप्ता ने हक़ मार ही दिया, वो भी भ्रष्टाचार के इटरेस्ट में। 
वेबसाइट के टेण्डर में भाग लेने वाले सावधान रहें, और आठ लाख रुपया कतई ना दें, क्यों कि कुछ लोग न्यायालय में जा रहे हैं। और मामला स्टे हो गया तो कब खुलेगा, पता नहीं। तबतक डीएवीपी के इन अधिकारियों पर क्या गाज गिरती है, पता नहीं।
कुछ पत्रकारों का कहना है कि इसमें से कुछ अधिकारियों ने अपना कालाधन विदेश में रखा हुआ है। और कुछ ने अभी-अभी 40 प्रतिशत देकर सफेद किया है। इनका काला धन खोजने में सी0बी0आई को भी पसीने आ जायेंगे।
सेनगुप्ता जी  वेबसाइट के लिए आवेदन की तिथि को 31 दिसम्बर 2016 तक बढ़ा दें, अन्यथा आप भी जानबूझकर लोगों को गुमराह करने, सूचना मंत्रालय को धोखे में रखने तथा वेबसाइट वालों को गुमराह करने के दाषी पाये जायेंगे। गणेशन,  नाम रख लेने मात्र से गणेश जी नहीं बचायेंगे। ऐसा ही हाल डीएवीपी के प्रकाशन विंग का भी है, जिसकी  कहानी आपको आगे बताई जाएगी। साथ ही ये भी बताया जायेगा की डीएवीपी का उक्त प्रिंटिंग प्रेस से कैसा एग्रीमेंट है। क्या वैसा ही एग्रीमेंट है, जैसा प्रोफॉर्मा उसने हम प्रकाशकों को जारी किया है. क्या उसका एग्रीमेंट भी वैसा ही नहीं होना चाहिए जैसा उसने प्रकाशकों के लिए जारी किया है।.

Thursday, October 27, 2016

डीएवीपी को तोड़ दिया जाये, काम विदेशी ऐजेन्सी को दिया जाये

 
DAVP, a unit of I&B Ministry, havily destroying
 the public image of Prime Minister of India in the Media
        
        समाचार-पत्रों  के कार्पोरेट मीडिया घरानों के प्रकाशक, (ए0बी0सी0) आडिट ब्यूरो आॅफ सर्कुलेशन, रजिस्ट्रार न्यूजपेपर्स आॅफ इण्डिया (आर0एन0आई), प्रेस काउन्सिल, प्राइवेट न्यूज ऐजेन्सियां और डीएवीपी के कमीशन खोर अधिकारियों का खेल है, प्रिन्ट मीडिया विज्ञापन नीति-2016, बगैर एक्ट, बगैर किसी रूल, बिना किसी नोटिफिकेशन के जारी की गई प्रिन्ट मीडिया विज्ञापन नीति-2016, जिसमें मीडिया के बारे में तो एक शब्द भी नहीं है, सिवाय विज्ञापन व्यवस्था को किस तरह से ऐसा बनाया जाये कि प्रतिमाह मोटी कमाई डीएवीपी के अधिकारी हड़प लें, केवल इसी का तसकरा है। देश का मीडिया जाये ऐसी-की-तैैसी में। वो परेशान होता है तो करे भाजपा और उसके नरेन्द्र मोदी को बदनाम।
Act overruled, unlawfull Print Media Advt. Policy-2016,
 framed in the regime of  the above  Minister.
.
  ये फर्जी तथाकथित नीति, भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को बदनाम करने के लिए कांग्रेसी  शासन में नियुक्त डीएवीपी के महानिदेशक के0 गणेशन एवं उनके चेले आर0सी0जोशी की देन है, जिसका कोई कानूनी आधार नहीं है, जो न्यायालय में एक मिनट भी नहीं ठहर सकती और जिसे जज महोदय एक झटके में उठाकर फेंकने के साथ ही इन अधिकारियों के खिलाफ स्ट्रक्चर पास कर सकते हैं, क्योंकि इस ड्राफ्ट को तो कैबीनेट तक में नहीं रखा गया है, और मनमानापन कर रहे हैं।
  ये देश ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की मनमर्जी एवं मनमाने तरीके से नहीं चलाया जा सकता? डीएवीपी के तो अभी अपने ही कार्यालय पूरे देश में नहीं हैं। जिन कार्यालयों के दम पर डीएवीपी अपनी वर्किंग करने की कोशिश कर रहा है, वे पी0आई0बी0 के कार्यालय हैं, पी0आई0बी0 अलग महानिदेशालय है, और उसके अलग महानिदेशक हैं। पी0आई0बी0 के अधिकारी और कर्मचारी इतने खाली हैं कि उनके पास काम नहीं है, और वे डीएवीपी का काम करने के लिए खाली हैं तो उनके कार्यालय को खत्म करके पूरी तौर पर डीएवीपी को दे देना चाहिये।
  एकदम फर्जी एवं बकवास नीति-2016 के माध्यम से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की छवि को मीडिया विरोधी घोषित करने की पुरजोर कोशिश कर रहा है, वो कतई ठीक नहीं है। इस नीति को हवा दी है, पूर्व सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने, वह भी के0 गणेशन के निर्देशन में। एक विज्ञापन बांटने वाली ऐजेन्सी डीएवीपी को मीडिया अच्छा नहीं लग रहा, क्योंकि  उसके अधिकारियों का करेक्टर लायजनिंग वाला है। उसे तो अपनी ही तरह के दलाल चाहिए। इसीलिए उसका सारा जोर ऐजेन्सियों पर ही रहता है, फिर चाहे ये विज्ञापन की हों अथवा न्यूज की।
  इस बनाई गई क्या पैदा की गई फर्जी नीति में कहीं भी न्यूज कनटेन्ट की ना तो कोई बात है, और ना ही कोई प्वाइंट। पी0आई0बी0 की खबरों, लेख और फोटोज् को छापने के लिए कुछ भी नहीं कहा गया है। कोई अखबार कितने प्रतिशत विज्ञापन छापेगा और कितना परसेन्ट उसमें न्यूज कनटेन्ट होगा, इसका भी जिक्र नहीं है। क्योंकि अखबार किसे कहते हैं, इसका तो डीएवीपी के अधिकारियों का ज्ञान ही नहीं है। बस अपनी चौधराहट दिखाने के लिए डीएवीपी वसूली ऐजेन्ट की भूमिका में कार्य कर रहा है।
  प्रेस काउन्सिल की लेवी की वसूली उसने एक झटके में करा दी। सारा अधिकार प्रेस काउन्सिल के पास होने के बाद भी वह अपनी लेवी नहीं ले पा रहा था, लेकिन डीएवीपी के एक फर्जी और अन्यायिक आदेश/नीति ने करोड़ों की वसूली करा दी। डीएवीपी ठीक उसी रोल में कार्य कर रहा है, जैसे एक माफिया/ डाॅन करता है। जो अरबपति/व्यवसायी अपने यहाॅं कार्यरत स्टाफ को उनकी उचित सेलरी तक नहीं देता, माफिया/डान की एक फोन काॅल पर करोड़ों हग ही नहीं देता है बल्कि उसके दरवाजे पर पहुंचकर अपनी और अपने परिवार के प्राणों की भीख भी मांगता है। अपना मूंह बांधकर नगद/कैश अपनी गाड़ी में रखकर अकेला डाॅन के बताये स्थान पर पहुंचाता है, सुरक्षित लौट आये तो बहुत बड़ी बात।
  छोटे एवं मझोले अखबारों के लिए डीएवीपी ऐसा ही माफिया डाॅन बना हुआ है। एक बात और है कि उस डाॅन के पीछे वहां का सरकारी तंत्र उसके साथ होता है, तभी वह ऐसा कर पाता है, वरना तो उ0प्र0 में भी श्रीप्रकाश शुक्ला जैसे माफिया डाॅन का सरकार के मुखिया ने ही एनकाउन्टर करा दिया। उसी का नहीं सारे माफियाओं /गुण्डों का यही हश्र होता है, बशर्तेे सरकार में बैठे किसी ईमानदार नेता अथवा अधिकारी को समझ में आ जाये कि इसने बहुत अत्याचार कर लिया अब बस। बस समझिये जिस दिन कायदे के ईमानदार और देशभक्त सचिव अथवा कैबीनेट सचिव को समझ में आ गया कि डीएवीपी की तो आवश्यकता ही नहीं, ये काम तो अंर्तराष्ट्रीय   स्तर की किसी संस्था से भी कराया जा सकता है, तो उसी पन्द्रह प्रतिशत के कमीशन में ही वह ऐजेन्सी डीएवीपी से अच्छा कार्य कर देगी, जिसे डीएवीपी समाचार-पत्रों को जारी किये गये विज्ञापन में से काट लेता है। वैसे डीएवीपी जैसे सफेद हांथी की इस गरीब देश में  कोई आवश्यकता नहीं है। ये संस्थान केवल भ्रष्टाचार करने के लिए बना हेै।
  ए0एम0ई0 और एम0ई0, उप-निदेशक, निदेशक, अति0 महानिदेशक एवं महानिदेशक के पदों पर बैठे अधिकारियों के पाप का घड़ा अब भर गया है, जिसका फूटना अत्यंत आवश्यक है। कितने अधिकारी सी0बी0आई0 की गिरफ्त में आयेंगे, कितने सोसाइड करेंगे, इनकी गिनती किया जाना ही शेष है। देश के छोटे एवं मझोले समाचार-पत्रों को समाप्त करने के उद्देश्य से बड़े कहे जाने वाले कार्पाेरेट मीडिया घरानों के नेक्सस ने ऐसी नीति को बनाने में अपनी महत्वपूंर्ण भूमिका निभाई है। अरबों के विज्ञापन बटोरने के बाद भी उसका पेट नहीं भर रहा।
  अपने यहाॅं कार्यरत पत्रकारों को मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए उसके पास पैसा नहीं है, लेकिन नर्तकी नचाने, इवेन्ट आयोजित करने, बालीवुड में प्रोग्राम आयोजित करने और फैशन शो आयोजित करने के लिए धन की कमी नहीं है। उसने अपने संस्थान से सम्पादकीय लोगों को किनारे कर दिया है। प्रबन्ध सम्पादक और सम्पादक पद पर मालिक बैठ गया है अथवा विज्ञापन का कार्य करने वाले को बिठाकर हर तरह से सरकारी और गैर सरकारी विज्ञापन लूटने में लगा है। जिसके लिए वह कमीशन और लड़कियों का भी इस्तेमाल करता है। 
  वरना तो हालात ये हैं कि अपने को अंर्तराष्ट्रीय  स्तर का घोषित करने वाला समाचार-पत्र जिलों-जिलों से निकलता है, डाक संस्करण बताकर, जबकि प्रेस एण्ड बुक्स रजिस्ट्रेशन एक्ट में ऐसे किसी संस्करण का कोई स्थान/औचित्य नहीं है। जिलों-जिलों से संस्करण निकाल कर यह केवल छोटे एवं मझोले समाचार-पत्रों का हक ही नहीं मार रहा है, बल्कि उनके हक पर डांका डाल रहा है। ये है इथिक्स इन तथाकथित बड़े कहे जाने वाले अखबारों की। ऐसे जिलों-जिलों से छपने वाले अखबार को कैसे अंर्तराष्ट्रीय स्तर का कहा जा सकता है, आप ही समझिये। जो व्यक्ति पार्षद हो और कहे कि मैं अंर्तराष्ट्रीय स्तर का हूं तो कौन कैसे समझेगा, ये आप ही समझिए।
  खैर! ऐसे अंर्तराष्ट्रीय स्तर के समाचार-पत्र के सम्पादक, प्रबन्ध सम्पादक कम मालिकान की उसकी कोठी में घुसकर एक डीआईजी ने उसके घर की महिलाओं की जो बेइज्जती की कि क्या कहा जाये। यहाॅं तक कि महिलाओं की ......तक फाड़ डाली, लेकिन ऐसे अंर्तराष्ट्रीय अखबार का प्रबन्धतंत्र चूं तक नहीं कर पाया। एक काॅलम की खबर अपने अखबार में नहीं छाप पाया, बल्कि उस दिन तो सारे नियम कायदे तोड़ते हुए उसके अखबार में 80 प्रतिशन विज्ञापन छपा। इज्जत गई तेल लेने। इससे तो वे कमजोर और दीन-हीन महिलाएं बेहतर हैं जो अपने साथ घटी शर्मनाक घटनाओं पर एफ0आई0आर0 तो दर्ज कराती हैं।
  बहरहाल इनकी मजबूरी भी ही है, एक्शन ना लेने की, क्योंकि चोरी की प्रिन्टिंग मशीन इनके यहाॅं लगी है, एक फायनान्स कम्पनी की कई एकड़ जमीन फर्जी कागजातों पर इन्होंने कब्जाई हुई है। चीनी, वनस्पति का धंधा ये करते हैं। जाने दीजिए कुछ चीजें दबा भी देता हूॅं। वरना एक रामनाथ गोयनका जी भी थे और उनका था एक अखबार। जिसने इंदिरा गाॅंधी जैसी डिक्टेटर की हेकड़ी मिट्टी में मिला दी थी। उन्हीं की कलम के दम से खिन्न होकर इन्दिरा ने इमरजेन्सी लगाई और उसके बाद जेल भी गईं, लेकिन बहुत बड़ा व्यापार चलाने के बाद भी स्व0 श्री रामनाथ गोयनका का बाल भी टेढा नहीं कर पाई इन्दिरा गाॅंधी।
  दरअसल कलम की मार का डीएवीपी को अन्दाजा नहीं है, वो कमीशन की चकाचैंध में अन्धा होकर इतरा रहा है, उसे केवल इतना पता है कि जो ज्यादा बिकता है, प्रचार वहाॅं से मिलता है। प्रसार तो रेड लाइट एरिया का भी ज्यादा होता है। पोर्न स्टार के ग्राहक और लाइक करने वाले करोड़ों हैं, तो डीएवीपी को सरकार के प्रचार के लिए ऐसी ही जगहों पर जाना चाहिए। क्या जरूरत प्रिन्ट मीडिया में विज्ञापन देने की। उसे याद रखना चाहिए कि भारत एक कल्याणकारी राज्य है। यहाॅं सारी चीजें मात्र नफा-नुकसान के लिए ही नहीं रची जा सकतीं।
  विज्ञापन व्यवस्था को स्ट्रीम लाइन करने के नाम पर डीएवीपी ने नये धन्धे की ही शुरूआत कर दी। उसने समाचार-पत्रों के पेज को भी प्रीमियम पर विज्ञापन देने का नया धन्धा शुरू कर दिया है।
The only work of DAVP, to collect the money, either form
 Publication, Drama, Nautanki or from release  Advts.
डीएवीपी के अधिकारियों ने इतना भ्रष्टाचार कर लिया है कि या तो एक-एक अधिकारी की आय से अधिक सम्पत्ति की जांच कर ली जाये एवं इस विभाग को खत्म करते हुए इसका कार्य किसी अन्र्तराष्ट्रीय स्तर की संस्था को अधिकतम पन्द्रह प्रतिशत के कमीशन की दर पर दे दिया जाये। इससे भ्रष्टाचार भी खत्म हो जायेगा और सरकार को भी डीएवीपी केएस्टेब्लिशमेंट पर होने वाले करोड़ों रूपये की बचत होगी अलग से। वैसे भी हमें अमेरिका की नीति का पालन करते हुए अपने यहाॅं ज्यादातर चीजें प्राइवेट सेक्टर में देनी चाहिए। फिर इसकी शुरूआत डीएवीपी से ही क्यों नहीं  
सतीश  प्रधान, उपाध्यक्ष
उ0प्र0राज्यमुख्यालय मान्यताप्राप्त संवाददाता समिति (रजि0 अण्डर दी सो0 रजि0 एक्ट)

Monday, October 24, 2016

अलोकतांत्रिक और डेकोइट संस्थान बना, डीएवीपी

सतीश प्रधान, उपाध्यक्ष
उ0प्र0राज्य मुख्यालय मान्यताप्राप्त संवाददाता समिति 
(रजिस्टर्ड अण्डर दी सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट)

           लखनऊ-भारत में सामाजिक परिवर्तन लाने और आर्थिक ग्रोथ को बढ़ाने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए मल्टी मीडिया एडवरटाइजिंग एजेंसी के रूप में खड़े किये गये डीएवीपी (द्र्श्य प्रचार एव विज्ञापन निदेशालय) को समझना अब अपरिहार्य हो गया है। डीएवीपी एक सर्विस एजेंसी है, जिसका कार्य विभिन्न केन्द्रीय मंत्रालय की ओर से उक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार द्वारा ग्रासरूट तक पहुंचाना है, लेकिन यह तो ग्रासरूट तक पहुचने के बजाय पंचसितारा होटल तक पहुच गया है। डीएवीपी की खोज वल्र्ड वॉर द्वितीय से करते हैं। द्वितीय विव युद्ध खत्म होने के बाद तत्कालीन सरकार ने एक मुख्य मीडिया सलाहकार (चीफ प्रेस एडवाइजर) की नियुक्ति करके, एडवरटाइजिंग का दायित्व सौंपा।
       जून 1941 में उसी चीफ प्रेस एडवाइजर केअधीन एक एडवरटाइजिंग कनसलटेन्ट की नियुक्ति की गयी। डीएवीपी की भूमिका यहीं से बननी शुरू हो गयी। 01 मार्च 1942 को एडवरटाइजिंग कनसलटेन्ट को कार्य करने के लिए एक कक्ष सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में ही दे दिया गया। 01 अक्टूबर 1955 को उस एडवरटाइजिंग कनसलटेन्ट के कार्यालय का नाम डीएवीपी कर दिया गया। इसके बाद 04 अप्रैल 1959 को उसे एक हेड ऑफ डिपार्टमेन्ट की मान्यता देते हुए, भारत सरकार ने उस संस्था को वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार भी हस्तांतरित कर दिये। 
              भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों के कितने रिश्तेदार, नातेदार, अक्षम ,अपंग एवं नकारे उस संस्थान में नियुक्ति पाये होंगे इसका अंदाजा आप नही लगा सकते। बस तभी से डीएवीपी के कर्मचारी नशे में आ गये हैं और विज्ञापन जारी करने के नाम पर उस मीडिया का खून चूसने लगे हैं, जो समाज की सेवा में लगा हुआ है। 
              वर्तमान में हालात यहाँ तक पहुच गये हैं कि अधिकारी कहे जाने वाले बाबू स्तर के ए,एम,ई (असिस्टेन्ट मीडिया एग्जीक्युटिव) उन समाचार पत्र प्रकाशकों के साथ बदतमीजी करते हैं जो उन जैसे ए,एम,ई को नौकरी पर रखलें। ऐसा ये इसलिए करते हैं, क्योंकि ऐसे प्रकाशक, भूले -भटके ही उनके पास पहुँचते हैं और उनको ये पता नही होता कि ये ए,एम,ई केवल एजेंटों (दलालों) के माध्यम से आने वाले प्रकाशकों/प्रतिनिधियों से ही ठीक से बात करते है, बाकी के लिए उनके पास ना तो वक्त होता है, ना ही तमीज। 
            ये केवल ऐसे प्रकाशको के ही साथ रहते है जो विज्ञापन का फिफ्टी प्रतिशत उन्हें सौपने के साथ ही उनकी शामें भी रंगीन बनाये। ये ऐसे समाचार पत्र वाले है, जिनको ना तो लिखना आता है ना पढ़ना। ये उस कैटेगरी के प्रेस वाले हैं जो आपके कपड़ों पर प्रेस करते हैं। हालात यहां तक पहुच गए है कि कम्पोजीटर और मशीनमैन के साथ-साथ अण्डा बेचने वाले और समाचार-पत्र के हॉकर भी अखबार निकालने लगे हैं और मालिक एवं प्रकाशक हो गये हैं। ऐसे ही तथाकथित प्रकाशक औैर मालिक इनके साॅफ्ट टारगेट हैं।
            आपको आश्चर्य होगा कि जिस देश का प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी जैसे व्यक्तित्व वाला शक्स हो, जिसके दरवाजे इस संचारक्रान्ति के युग में आम जनता के लिए खुले हुए हों, उन्हीं के सूचना मंत्रालय के अधीन डीएवीपी के मुखिया ने अपनी ईमेल आई0डी0 अपने प्राइवेट सेक्रेटरी के नाम से बनवाई हुई है, जो है (psdg.davp@nic.in) लेकिन जिसपर भेजे जाने वाले सारे ईमेल बाउन्स हो जाते हों, तो ऐसे डी,जी, को क्या एक मिनट भी उस पद पर बनाये रखे जाने का कोई औचित्य है?
Contact List of DAVP without email

          जबकि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के पास अपनी बात उनके ट्वीटर एकाउन्ट, फेसबुक एकाउन्ट, इन्स्टाग्राम, पिनट्रेस्ट अथवा ऑफिसियल से लेकर प्राईवेट वेबसाइट तक पर पहुचाने के लिए आम जनता को आसानी से सुलभ है, जबकि डीएवीपी जो कि मीडिया संस्थानों के लिए ही बना है, उसके हाल ये हैं। आप ना तो डीजी का टवीटर एकाउन्ट जान सकते हैं, ना ही फेसबुक एकाउन्ट ना ही मोबाइल नं0। डी0जी0 हैं अथवा लोकतंत्रिक देश में एक तानाशाह। डीएवीपी एकदम बद्त्तर और डेकोइट संस्थान बन गया है। 
     इस महानिदेशालय में बस दो ईमेल mediarate@gmail.com और mediarate1@gmail.com..ही टनाटन काम करते हैं। जिसे डीएवीपी के अधिकारियो ने नियमविरुद्ध तरीके से बनाया हुआ है। इसे gmail.com  पर किस अधिकारी ने स्थापित करने की अनुमति दी और किस ऑफिस मेमो के तहत ? इसकी गहनता से जांच होनी चाहिए।
Contact List of I&B Ministry with Email ID's and Address of the Officials
               यदि सरकारी कार्य किया जा रहा है तो उसे @nic.in  अथवा @gov.in  पर बना होना चाहिए। डीएवीपी बहुत बड़ा भ्रष्टाचार इस ईमेल के माध्यम से कर रहा है जिसमें कपतमबजवत (डत्ब्) का उल्लेख रहता है। gmail.com पर बने ये पते धन वसूली के काम आ रहे हैं। इन ईमेल पर म्उचंदमसउमदज के व्इरमबजपवद डालकर प्रकाशकों को बुलाया जाता है, वह भी ...... और घिसे-पिटे ऑबजेक्शन लगाकर। 
                  एम्पेनलमेंट के लिए फाइल लगी फरवरी 2016 में उसका परिणाम सितम्बर 16 में निकाला गया। एम्पेनलमेंट, एप्रूव होने के तुरन्त बाद mediarate@gmail.com से दो माह के अखबार पुनः मांगे जाते हैं। ये कौन सा एप्रूवल हुआ? जब कमी थी तो एप्रूवल क्यों हुआ? और नहीं है तो डायरेक्टर (एम0आर0सी0) द्वारा (mediarate@gmail.com) से अखबार की  प्रतियां क्यों मांगी जा रही हैं?
                @gmail.com पर बने ये पते धन वसूली के काम आ रहे हैं। इन ईमेल पर एम्पेनलमेन्ट के आॅब्जेक्शन डालकर प्रकाशकों को बुलाया जाता है, वह भी प्रोटोटाइप और घिसे-पिटे आॅब्जेक्शन लगाकर। प्रकाशकों को परेशान करने और एकदम चूस लेने की व्यवस्था डीएवीपी ने की हुई है। इतना बड़ा खेल चल रहा है, और डीएवीपी के निदेशक एवं महानिदेशक को पता नहीं हो, ऐसा कैसे समझा जा सकता है। यदि डीजी, डीएवीपी पाक साफ हैं तो सी0बी0आई0 जांच की संस्तुति सूचना मंत्रालय से करें, यदि वे ऐसा नहीं करते हैं तो निश्चित रूप से वे भी इस खेल में सम्मलित हैं।
भरपूर पैसा कमाने के लिए डीएवीपी ने बिना किसी एक्ट-रूल के फर्जी प्रिन्ट मीडिया विज्ञापन नीति-2016 को लागू कर दिया है, जिसके माध्यम से प्वाइन्ट सिस्टम लागू करते हुए विज्ञापनों को प्रीमियम दरों पर जारी किये जाने की व्यवस्था की ली है। यह नया तरीका बेशक बड़े (कार्पोरेट मीडिया घरानों) ग्रुप की मिलीभगत का ही परिणाम है।
क्या कर्मचारियों और अधिकारियों का वेतन सिस्टम एक सा है? क्या दोनों को एक सी सुविधायें सरकार देती है? नहीं। फिर किस तरह से लघु, मध्यम, एवं बड़े समाचार-पत्रों के लिए एक सी नीति रखी गई? जब डीएवीपी के बजट में लघु, मध्यम एवं बड़े ग्रुप के लिए अलग-अलग बंटवारा किया गया है तो उनके लिए बनाई गई पालिसी भी अलग-अलग होनी चाहिए।
तीनों का अलग बजट और अलग-अलग, नियम होने चाहिए। बड़े ग्रुप को प्रिंटिग मशीन लगाना उसकी मजबूरी है, जबकि यही शर्त लघु दर्जे के अखबार वाले के लिए जबरिया थोपी गई शर्तें हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं हैं। यदि वह भी मशीन लगाने की हैसियत में हो तो वह लघु वर्ग में क्यों रहेगा। समाचार ऐजेन्सी की सेवा लेना बड़े ग्रुप की मजबूरी है, जबकि लघु ग्रुप वाले के तो परिवार के ही तीन-चार लोग अखबार के काम में लगे रहते हैं। क्यों लें वे सड़ी-गली ऐजेन्सियों की सेवा, जिनके यहाॅं मात्र तीन हजार पर रखे गये टाइपिस्ट खबरें भेजते हैं।
लघु, मध्यम और बड़े ग्रुप का वर्गीकरण भी डीएवीपी ने जायज तरीके से नहीं किया है। ये इस प्रकार से होना चाहिए। लघु ग्रुप में 0001 से लेकर 15,000 तक। मध्यम ग्रुप में 15,001 से लेकर 50,000 तक एवं बड़े ग्रुप मे 50,001 से लेकर अधिकतम जो भी हो।
                   समाचार-पत्र अपनी प्रेस में छप रहे हैं अथवा काॅन्ट्रैक्ट पर दूसरी प्रेस में इससे डीएवीपी का क्या लेना देना? समाचार-पत्र अपने संवाददाताओं तथा फ्री की न्यूज ऐजेन्सी द्वारा निकाले जा रहे हैं अथवा पेड न्यूज ऐजेन्सी से, इससे भी डीएवीपी का क्या मतलब? समाचार-पत्रों ने प्रेस काउन्सिल की लेवी दी या नहीं दी इससे भी डीएवीपी का क्या मतलब? क्या डीएवीपी ने सबकी दुकान चलाने का ठेका लिया हुआ है। या वो माफिया के रूप में उभरना चाह रहा है। 
यदि हम हांथ से लिखकर फोटोकाॅपी कराकर अखबार निकालें तो क्या डीएवीपी रोक सकता है? पैम्फलेट छापकर जब अंग्रेज भारत से भगाये जा सकते हैं तो फिर ये तो डीएवीपी में बैठे काले अंग्रेज हैं, जिनके भ्रष्टाचार/कारनामों की एक हजार पैम्फलेट छापकर इनकी कालोनियों में वितरित कर दी जाये तो इसके लिए किस ऐम्पेनेलमेन्ट की आवश्यकता है। इसके लिए भी क्या अपनी प्रेस होना जरूरी है। या इसके लिए किसी ऐजेन्सी की सेवा जरूरी है। किसी की भी आवश्यकता नहीं है।
सूचना सचिव, श्री अजय मिततल को डीएवीपी द्वारा अवैध कमाई के लिए चलाये जा रहे ईमेल (mediarate@gmail.com) और (mediarate1@gmail.com) की पूरी रिर्पाेट google के CEO लैरी पेज से मंगानी चाहिए कि ये कब बना, किसने बनाया और इसके इनबाॅक्स, सेन्ट मेल, स्पैम, ट्रैस, ड्राफ्ट आदि में क्या-क्या है। इसी से डीएवीपी में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा हो जायेगा। मेरे हिसाब से इसे वर्षों से एक ही पद 
पर बैठे मीडिया एग्जीक्यूटिव बी0पी0 मीना द्वारा संचालित किया जा रहा है। इसी के साथ बी0पी0 मीना के मोबाइल नं0 की भी जांच होनी चाहिए।

Saturday, October 22, 2016

भ्रष्टाचार की रेलम-पेल, गणेशन पास, मित्तल फेल

सतीश प्रधान 

उ0प्र0 राज्य मुख्यालय मान्यताप्राप्त संवाददाता समिति

लखनऊ। डीएवीपी (डायरेक्टोरेट आफ एडवरटाइजिंग एण्ड वीज्यूल पब्लिसिटी) में भ्रष्टाचार, इस कदर हावी है कि सूचना सचिव, श्री अजय मित्तल जो कि कुछ माह पूर्व ही हिमांचल प्रदेश से दिल्ली आये हैं, कुछ भी करने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं, और उनके नाम की आड़ में डीएवीपी भ्रष्टाचार मचाये हुआ है। उन्हीं का नाम लेकर समाचार-पत्रों को प्वांट सिस्टम में बांधने और लघु एवं मध्यम समाचारपत्रों को तबाह करने का खेल खेला जा रहा है। डीएवीपी के अधिकारी खुलेआम कह रहे हैं कि जो कुछ भी डीएवीपी में हो रहा है, वह सारा कुछ सूचना मंत्रालय के निर्देश पर ही हो रहा है। मित्तल जी हिमांचल में भी पी0आर0 देखते रहे हैं और साराकुछ उन्हीं के निर्देशन पर हो रहा है, इसमें हम कुछ नहीं कर सकते हैं।
Ajay Mittal, Secretary, Information & Broadcasting, Govt. of India

तो क्या ये समझा जाये कि डीएवीपी के अधिकारियों को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस, सूचना मंत्रालय ने जारी कर दिया है। डीएवीपी के निदेशक, आर0सी0 जोशी, महानिदेशक श्री के0 गणेशन, मीडिया एग्जीक्यूटिव, बी0पी0 मीना और सहा0 मीडिया एग्जीक्यूटिव्स का एक कॉकस बना हुआ है, जो करोड़ों के भ्रष्टाचार में लिप्त है और माननीय नरेन्द्र मोदी की सरकार को ठेंगे पर रखे हुये है। या ये समझा जाये कि डीएवीपी के अधिकारी भ्रष्टाचार से कमाई जा रही रकम का कुछ हिस्सा ऊपर भी पंहुचा रहे हैं।
                एक हकीकत पेश करता हूं। अत्तर प्रदेश के एक छोटे से जनपद इटावा के लिए डीएवीपी द्वारा 01 अप्रैल, 2016 से 19 अक्टूबर 2016 तक जारी किये गये विज्ञापनों की कम्परेटिव लिस्ट, जो मेरुदण्ड विहीन समाचार-पत्र मालिकों की चेतना को जाग्रत कर पाये तो उन्हीं के हित में है।
K.Ganeshan,Director General of DAVP
उ0प्र0 के जनपद इटावा से प्रकाशित डीएवीपी में जिन हिन्दी दै0 को विज्ञापन जारी किये गये हैं, वो हैं सात। इनमें 13:49 प्रतिवर्ग से0मी0 की दर से लेकर रु28.44 प्रतिवर्ग से0मी0 की दर तक के समाचार-पत्र हैं, लेकिन सबसे अधिक 46 विज्ञापन जिस समाचार-पत्र को दिये गये हैं उसका नाम है, आज का विचार, राष्ट्रीय विचार (इसकी दर है रु 20.68 प्रतिवर्ग से0मी0) जिसे 26 हजार 421 वर्ग से0मी0 के विज्ञापन जारी किये गये हैं, जो सेटिंग-गेटिंग का मास्टर है।
          ताज्जुब इस बात का है कि समाचार-पत्र, ब्लैक एण्ड व्हाइट ही छपता है और उसी में रजिस्टर्ड फिर भी है, फिर भी सारे के सारे विज्ञापन उसे रंगीन ही जारी किये गये हैं, जिसकी कुल धनराशि रुपये छह लाख, चालीस हजार बयालिस रुपये है। डीएवीपी के मीडिया एग्जीक्यूटिव बी0 पी0 मीना ने इसके एवज में रू0 तीन लाख बीस हजार रूपये वसूले हैं। जाहिर है, ये विज्ञापन एडीजी स्तर से ही पास हुए होंगे, इसलिए ये कैसे समझा जा सकता है कि ये कारनामा केवल मीना का ही है।
          इटावा से प्रकाशित देशधर्म, हिन्दी दै0 को कुल 4083.00 वर्ग से0मी0 के मात्र सात विज्ञापन दिये गये हैं, जबकि उसकी दरें, इससे कहीं अधिक रू0 24.03 प्रतिवर्ग से0मी0 हैं। इसी तरह दै0 सबेरा को कुल 10,002 वर्ग से0मी0 के विज्ञापन जारी किये गये हैं जबकि उसकी दरें रू0 28.44 प्रतिवर्ग से0मी0 हैं तथा मूल्य बना है मात्र दो लाख इकतालिस हजार। इसी प्रकार हिन्दी दै0 दिन-रात को मात्र एक लाख ग्यारह हजार के कुल 6338 से0मी0 के 11 विज्ञापन जारी किये गये हैं, जबकि दर उसकी भी रू0 20.68 ही है। माधव सन्देश हिन्दी दै0 को एक लाख छह हजार रूपये के 5135 से0मी0 के 8 विज्ञापन ही जारी किये गये।
         सबसे दुखदायी और विडम्बना वाली बात यह है कि इटावा से प्रकाशित होने वाले दोनों उर्दू दैनिक समाचार-पत्र यथा पैगाम-ए-अजीज और जमीनी आवाज को इस दौरान एक धेले का भी विज्ञापन जारी नहीं किया गया है, जबकि उनकी दरें भी क्रमशः रू0 17.12 एवं रू0 13.49 प्रति वर्ग से0मी0 हैं।
छयालिस विज्ञापन वो भी छब्बीस हजार चार सौ इक्कीस से0मी0 के तो लखनऊ से प्रकाशित होने वाले नामी-गिरामी अखबारों को भी नहीं जारी किये गये, जबकि उनकी हैसियत, आज का विचार, राष्ट्रीय विचार से कहीं अधिक है। इनमें हैं, दै0 आज, जिसे कुल 19,295 से0मी0 के 25 विज्ञापन ही मिले हैं। नवभारत टाइम्स (दिल्ली) को 22,025 से0मी0 के मात्र 30 विज्ञापन, स्वतंत्र भारत को 15, जनसत्ता को 12, वायस आफ लखनऊ को 6, नार्थ इण्डिया स्टेट्समैन को 8टेलीग्राफ इण्डिया को 7, अवधनामा को 13, प्रभात को 11 वहीं इसके दूसरी तरफ स्पष्ट वक्ता को 22, स्वतंत्रता चेतना को 16, तरूण मित्र को 15यूनाइटेड भारत को 27, वायस आफ मूवमेन्ट को 17 विज्ञापन जारी किये गये हैं, और इनमें भी बड़ा खेल किया गया है। लखनऊ के लिए जारी किये गये विज्ञापनों की समीक्षा अगली बार की जायेगी। नागराज दर्पण ने भी किस तरह से डीएवीपी को अपने कब्जे में लिया हुआ है, इसकी स्टोरी भी आगे दी जायेगी।
हम आपको इसी तरह प्रत्येक जनपद की समीक्षात्मक रिर्पाेट प्रस्तुत करेंगे और इसके बाद मा0 न्यायालय में रिट फाइल की जायेगी, यदि इन तथ्यों पर सूचना सचिव श्री अजय मित्तल जी कोई कार्रवाई नहीं करते हैं तो।

Sunday, October 16, 2016