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Friday, September 9, 2011

स्विश बैंक कस्टमर का मतलब महान अर्थशास्त्री

स्विश बैंक का कस्टमर होने का मतलब ही है कि आप बहुत बड़े अर्थशास्त्री हैं, आप उस शास्त्र
के विशेषज्ञ हैं जिसके तहत भारत के अर्थ को बहुत खूबी से विदेशी बैंकों में जमा किया जाता है। ऐसा शास्त्र भारत के बहुत से कम पढ़े-लिखे और बुद्धिहीन नेता भी भली भांति जानते हैं, क्योंकि उनके खाते भी इस बैंक में खुले हुए हैं, जो अब सुनने में आया है कि वहॉं से बन्द करके अन्य छोटे बैंकों में स्थानान्तरित किये जा रहे हैं।

तबीयत से प्रचारित किया गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक महान अर्थशास्त्री और बेदाग ईमानदार व्यक्ति हैं। भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों और इस आम धारणा के बावजूद कि वह भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं, इस मिथक के कारण ही वह अब तक पद पर बने हुए हैं और उन्हें कांग्रेस पार्टी या फिर बाहर से तगड़ी चुनौती नहीं मिली है, जबकि उनसे योग्य उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी उनके अधीन कार्य करने को मजबूर हैं। आखिरकार संसद में सरकार की गरिमा को कुछ हदतक उन्होंने ही बचाया, वरना तो सरकार के खाशुलखास पी.चिदम्बरम, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह, रेनुका चौधरी, अम्बिका सोनी ने पगड़ी उछालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। क्या प्रधानमंत्री में वास्तव में ये तमाम खूबियां हैं जो उनके प्रशंसक और कांग्रेस पार्टी एक दशक से बखान करती आ रही हैं? 
दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की पड़ताल से हमें आंकलन कर लेना चाहिए कि मनमोहन सिंह की तथाकथित व्यक्तिगत ईमानदारी और अर्थशास्त्र की उनकी समझ से देश को फायदा पहुंचने के स्थान पर अरबों-खरबों का नुकसान ही अधिक हुआ है? इस आधार पर उन्हें ईमानदारी का मेडल पहनाये रखना क्या मेडल पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता? राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की जिम्मेदारी भारत को 2003 में सौंप दी गई थी। इस प्रकार भारत सरकार और अन्य तमाम इकाइयों को खेलों के लिए ढांचागत सुविधाएं तैयार करने के लिए सात साल का समय मिला था। मई 2004 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मनमोहन सिंह पर तैयारियों पर निगरानी रखने की प्रमुख जिम्मेदारी थी, लेकिन शुरू से ही एक सोची समझी साजिश के तहत खुली लूट की छूट के लिए उसी के अनुसार कार्रवाई की गई।

सबसे पहले तो विशुद्ध भारतीय अंदाज में खेलों से जुड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए अनेक कमेटियों का गठन कर दिया गया। इस कारण खेलों के आयोजन में घालमेल हो गया, किंतु मनमोहन सिंह ने गड़बड़ियों को दूर करने के लिए कभी शीर्ष इकाई के गठन की जहमत नहीं उठाई। दूसरे, एक बार फिर खालिश भारतीय अंदाज में करार पर हस्ताक्षर के तुरंत बाद काम शुरू नहीं किया गया। शुरुआती साल टालमटोल में निकाल दिए गए, क्योंकि हर जिम्मेदार एजेंसी ने सोचा कि जब समय कम बचेगा तब तीव्रता से काम करने में बंदरबांट आसानी से और बिना किसी रोक-टोक के कर ली जायेगी! इसीलिए जानबूझकर देरी की गई।

राष्ट्रमंडल खेल के आयोजन की तैयारियों में ढ़िलाई को लेकर पॉच साल बाद वर्ष 2009 में जाकर गंभीर चिंताएं जताई गईं और तब तक अनेक काबिल व्यक्तियों द्वारा बार-बार आग्रह किए जाने के बाद भी तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री ने संकट हल करने की दिशा में कोई कदम जानबूझकर नहीं उठाया। जुलाई, 2009 में यानी खेल शुरू होने से 15 माह पहले कैग ने पहली चेतावनी जारी करते हुए केंद्र सरकार से कहा कि विभिन्न प्रकार की जटिल गतिविधियों और संगठनों के आलोक में तथा उस समय तक खेलों के आयोजन की तैयारियों की प्रगति को देखते हुए परियोजनाओं के परिचालन के तौर-तरीकों में तुरंत बदलाव की आवश्यकता है।

कैग ने चेताया कि अगर खेल समय पर आयोजित करने हैं तो अब किसी किस्म की लापरवाही और देरी की कतई गुंजाइश नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद सरकार को काम में तेजी लानी चाहिए थी, परियोजनाओं की निगरानी करनी चाहिए थी, किंतु जैसाकि देश को बाद में पता चला मनमोहन सिंह ने कैग की चेतावनी को रद्दी की टोकरी मे फेंक दिया। अब कैग ने मई 2003 में राष्ट्रमंडल खेलों के करार पर हस्ताक्षर होने से लेकर दिसंबर, 2010 तक के समूचे प्रकरण पर अपनी समग्र रिपोर्ट पेश कर दी है।

कैग की यह रिपोर्ट, सीधे-सीधे प्रधानमंत्री को ही कठघरे में खड़ा करती है, लेकिन कैट की श्रेणी में खड़े मनमोहन सिंह के सामने सबकुछ बेईमानी है। करार दस्तावेजों के अनुसार खेलों की आयोजन समिति सरकारी स्वामित्व वाली रजिस्टर्ड सोसाइटी होनी चाहिए थी, जिसका अध्यक्ष सरकार को नियुक्त करना था। हालांकि जब फरवरी 2005 में आयोजन समिति का गठन किया गया तो यह एक गैरसरकारी रजिस्टर्ड सोसाइटी थी और उसके अध्यक्ष भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी थे। हैरत की बात यह है कि आयोजन समिति के पद पर सुरेश कलमाड़ी की नियुक्ति प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर ही हुई थी। एक गैर सरकारी सोसाइटी में उसके अध्यक्ष पद पर कलमाड़ी की नियुक्ति के लिए पीएमओ कार्यालय को अनुशंसा क्यों करनी पड़ी? ये जॉंच का विषय है, पर इसकी जॉंच करेगा कौन?
कलमाड़ी की नियुक्ति के समय ईमानदार प्रधानमंत्री कार्यालय ने युवा मामले व खेल मंत्री सुनील दत्त की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया था। 2007 में तत्कालीन खेलमंत्री मणीशंकर अय्यर ने आयोजन समिति पर सरकारी नियंत्रण न होने का मामला उठाया था, किंतु ईमानदार प्रधानमंत्री ने उनको भी एक तरफ कर दिया और उनकी भी नहीं सुनी। आखिरकार जब खेलों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे थे तो ईमानदार प्रधानमंत्री ने इन पर सरकारी नियंत्रण सुनिश्चित क्यों नहीं किया? मगरूरसत्ता, जवाबदेही की अनुपस्थिति और शासन के सुस्पष्ट ढ़ांचे के अभाव के कारण खेलों के आयोजन में गड़बड़ियां पैदा हुईं या कराई गईं, यह इंटरपोल के खोज की विषय वस्तु है। 

अगस्त 2010 में जब तैयारियां पूरी होने के दावे किए गए तो विश्व मीडिया में गंदे टॉयलेट, कूड़े के ढेर, छतों से टपकते पानी की तस्वीरें प्रकाशित हुईं और भारत की दुनियाभर में खिल्ली उड़ी, वह भी एक तथाकथित ईमानदार प्रधानमंत्री के रहते? कैग रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने तैयारियों के लिए मिले सात सालों का खुलकर दुरूपयोग किया। आखिरकार इसके लिए ईमानदार कहे जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर बेईमानी का आरोप किस विषेशाधिकार के अधीन आता है?

अब खेलों की लागत पर विचार करें, तो कैग ने बताया है कि केंद्र सरकार ने खर्च का स्पष्ट और सही अनुमान नहीं लगाया। भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन ने खेलों के आयोजन पर 1200 करोड़ के खर्च का अनुमान लगाया था, किंतु आयोजन में सरकार के खजाने से 18,532 करोड़ रुपये निकाल लिए गए। इसका मतलब यह हुआ कि राष्ट्रमंडल खेलों की लागत 15 गुणा बढा दी़ गई, क्यों! ये रुपये कहॉं गये? दूसरी तरफ, आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों की लागत आय से निकल आएगी, वह दावा कहॉं गया? ये सरकारी खजाने के 17,332 करोड़ रूपये की वसूली किससे की जानी चाहिए, ये तथाकथित ईमानदार सरदार मनमोहन सिंह बतायेंगे!

कैग के अनुसार आयोजन समिति ने आय का अनुमान बढ़ा-चढ़ा कर लगाया था। उदाहरण के लिए, मार्च 2007 में आयोजन समिति ने दावा किया था कि खेलों से 900 करोड़ रुपयों की आय होगी, किंतु जुलाई 2008 में इस अनुमान को बढ़ाकर दोगुना यानी 1780 करोड़ रुपये कर दिया गया। दरअसल, आयोजन समिति ने आय के अनुमान को इसलिए बढ़ाया, क्योंकि उसे सरकार से और धन चाहिए था। खेलों के समापन के बाद पता चला कि आयोजन से मात्र 173.96 करोड़ रुपयों की ही आय हुई। खर्च 15 गुना कम और आय दस गुना अधिक बताना क्या क्रिमिनल कॉन्सप्रेसी नहीं है? इस कॉन्सप्रेसी के लिए क्या भारत का सुप्रीम कोर्ट सज्ञान लेने की स्थिति में नही है! क्या इस सबके लिए ईमानदार अनर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को कटघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिए? ये रिकवरी उनसे और अन्य जिम्मेदार लोगों से क्यों नहीं होनी चाहिए? इसका जवाब क्या निकारागुआ कि संसद देगी?सतीश प्रधान 




Thursday, September 8, 2011

संसद, जहां से दूरदर्शी सुधार और कानून निकलते ही नहीं


         राजनीतिक पार्टियों को समझ में नहीं आ रहा है कि दिल्ली के रामलीला मैदान से लेकर मुंबई के आजाद मैदान तक हवा में लहराती हजारों मुठ्ठियों ने संसद पर ही सवाल उठाये हैं। जनता के सवाल लोकतंत्र में महाप्रतापी संसद की गरिमा और सर्वोच्चता पर हैं, जनता तो संसद की स्थिति, उपयोगिता, योगदान, नेतृत्व, दूरदर्शिता, सक्रियता और मूल्यांकन पर प्रश्नचिन्ह लगाने पर मजबूर हुई है। बदहवास सरकार, जड़ों से उखड़ी कांग्रेस और मौकापरस्त विपक्ष को यह कौन बताए कि जब-जब संसदीय गरिमा का तर्क देकर संविधान दिखाते हुए पारदर्शिता रोकने की कोशिश होती है तो लोग और भड़क जाते हैं। 
        देश उस संसद से ऊब चुका है जो चलती ही नहीं है, जिसे अपने व्यक्तिगत उद्देश्य की पूर्ति के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने में आपत्ति नहीं होती लेकिन लोकपाल बिल पास करने के लिए विशेष सत्र बुलाना उसे गंवारा नहीं। वह संसद, जिसका आचरण शर्म से भर देता है, वह संसद, जहां नोट बंटवाने वाले सम्मान के साथ आराम से घूम रहे हैं, वह संसद जिसमें गम्भीर से गम्भीर मुद्दों पर बहस होने के बजाय शोर-शराबे, हल्ला-गुल्ला और सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ती है।
        वह संसद, जो उन्हें लंबे इंतजार के बावजूद भ्रष्टाचार का एक ताकतवर पहरेदार यानी लोकपाल उसके दरबार में आठ बार पेश होने के बाद भी उस निरीह जनता को आजतक नहीं दे सकी है। वह संसद, जो महिलाओं के आरक्षण पर सिर्फ सियासत करती है। वह संसद, जहां से दूरदर्शी सुधार और कानून निकलते ही नहीं। वह संसद, जो सरकार के अधिकांश खर्च पर अपना नियंत्रण खो चुकी है, ऐसी संसद से जनता खफा न हो तो और क्या उसकी आरती उतारे। जिस भारत में गरीबों को रैन बसेरा दिलाने से लेकर पुलिस को सुधारने तक और गंगा से लेकर भ्रष्टाचारियों की सफाई तक जब बहुत कुछ सुप्रीम कोर्ट ही कराता हो, तो अपनी विधायिका यानी संसद के योगदान व भूमिका पर सवाल उठाना नागरिकों की प्रथम और महत्वपूंर्ण जिम्मेदारी बनती है।
        जनलोकपाल का आंदोलन दरअसल संसद पर ही सवाल उठा रहा है, जिसके दायरे में सत्ता पक्ष व विपक्ष, दोनों आते हैं। यह एक नए किस्म का मुखर लोकतांत्रिक मोहभंग है। राजनीतिज्ञ एवं मोहल्ले-टोले की राजनीति कर रहे लोग अभी भी भाड़े की भीड़ वाली रैली छाप मानसिकता में ही जी रहे हैं, उन्हें अण्णा के आंदोलन में जुटी भीड़ तमाशाई दिखती है! अण्णा के पीछे खड़ी भीड़ आधुनिक संचार की जुबान में एक वाइज क्राउड थी, जिसे एक समझदार समूह समझना ही राजनीतिज्ञों के लिए बेहतर होगा, वैसे यह उनकी मर्जी कि वे इसे क्या समझते हैं। यह छोटा समूह जो संवाद, संदेश और असर को जानता-पहचानता है, तकनीक जिसकी उंगलियों पर है, जिसे अपनी बात कहना और समझाना आता है। जिसके पास भाषा, तथ्य, तजुर्बे और तर्क हैं।
        भ्रष्टाचार पूरे देश के पोर-पोर में भिदा है इसलिए अण्णा की आवाज से वह गरीब ग्रामीण भी जुड़ जाता है, जिसने बेटे की लाश के लिए पोस्टमार्टम हाउस को रिश्वत दी और वह बैंकर भी सड़क पर आ जाता है जो कलमाड़ी व राजा की कालिख से भारत की ग्रोथ स्टोरी को दागदार होता देखकर गुस्साया है। जनलोकपाल की रोशनी में जनता यह तलाशने की कोशिश कर रही है कि आखिर पिछले तीन दशक में उसे संसद से क्या मिला है? वैसे तो इस सवाल पर जोरदार सार्वजनिक बहस होनी चाहिए थी, लेकिन इसके लिए ये नेता तैयार नहीं हैं। 15 लोकसभाएं बना चुके इस मुल्क के पास अब इतिहास, तथ्य व अनुभवों की कमी नहीं रह गई है।
        अगर ग्रेटर नोएडा के किसान हिंसा पर न उतरते तो संसद को यह सुध नहीं आती कि उसे सौ साल पुराना जमीन अधिग्रहण कानून बदलना भी है, बड़ी मुष्किल से उसने इसे बदला तो है, लेकिन मात्र दिखावे के लिए। अगर सुप्रीम कोर्ट आदेश (विनीत नारायण केस) न देता तो सीबीआई, प्रधानमंत्री के दरवाजे बंधी रहती और केंद्रीय सतर्कता आयोग के मातहत शायद न आई होती। दलबदल ने जब लोकतंत्र को चैराहे पर खड़ा कर दिया तब संसद को कानून बनाने की सुध आई। आर्थिक सुधारों के लिए संकट क्यों जरूरी था? नक्सलवाद जब जानलेवा हो गया तब संसद को महसूस हुआ कि आदिवासियों के भी कुछ कानूनी हक हैं। वित्तीय कानून बदलने के लिए सरकार ने शेयर बाजारों में घोटालों की प्रतीक्षा की। ऐसी परिस्थितियों के बावजूद क्या संसद से जनता का मोहभंग होना नाजायज करार दिया जायेगा?
        भारतीय संसद की कानून रचना और क्षमता भयानक रूप से संदिग्ध है। एक युवा देश आधुनिक कानूनों के तहत जीना चाहता है, मगर भारतीय विधायिका के पास हंगामे का तो वक्त है, कानून बनाने का नहीं। सांसद खुले रूप में संसद में यह वकतव्य देने के लिए स्वतंत्र हैं कि उन्हें खूब आता है, इसकी टोपी उसके सिर और फिर उसकी टोपी इसके सिर करना इसे कोई उन्हें ना सिखाये। उनका दिन भर का काम ही यही है। कानून बनाने में जानबूझकर देरी किया जाना अच्छे कानून बनाने की गारंटी नहीं है, बल्कि यह साबित करता है कि विधायिका गंभीर नहीं है। हमारी संसद न तो वक्त पर कानून दे पाती और ना ही कानूनों की गुणवत्ता ऐसी होती है जिससे विवाद रहित व्यवस्था खड़ी हो सके।
        जनलोकपाल के लिए सड़क पर खड़े तमाम लोगों के पास कार्यपालिका के भ्रष्टाचार के करोड़ों व्यक्तिगत अनुभव हैं। संविधान ने विधायिका यानी संसद को पूरे प्रशासन तंत्र (कार्यपालिका) की निगरानी का काम भी दिया था। संसद यह भूमिका गंवा चुकी है, या राजनीति को सौंप चुकी है, यह भी शोध की विषय वस्तु है। अदालतें इंसाफ ही नहीं कर  रही हैं बल्कि लोगों को रोटी और शिक्षा तक दिला रही हैं, तो लोग महसूस करते हैं कि संसद प्रभावहीन हो गई एवं कुछ करना भी नहीं चाहती है। इसलिए न्यायपालिका को आधारभूत ढांचे की तरफ लौटना पड़ा, जिसके तहत संविधान के बुनियादी मूल्यों को बचाना भी अदालत की जिम्मेदारी है (गोलकनाथ केस-1967)।
         नेता जब अदालतों पर गुस्साते हैं या संवैधानिक संस्थाओं को उनकी सीमाएं बताते हैं तो लोगों का आक्रोश और भडक जाता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का अंतरराष्ट्रीय इतिहास जनता और स्वयंसेवी संस्थाओं ने ही बनाया है। सरकारें दबाव के बाद ही बदलती हैं। इन जन आंदोलनों की बदौलत ही आज भ्रष्टाचार के तमाम अंतरराष्ट्रीय पहरेदार हमारे पास हैं। यह पहला मौका नहीं है जब जनता विधायिका को राह दिखा रही है। 2002 में निकारागुआ में पांच लाख लोगों ने एक जन याचिका के जरिए संसद को इस बात पर बाध्य कर दिया था कि भ्रष्ट राष्ट्रपति अर्नाल्डो अलेमान पर मुकदमा चलाया जाए। संसद की सर्वोच्चता पर किसे शक होगा, मगर इसके क्षरण पर अफसोस पूरी जनता को है।
         जनता, अदूरदर्शी, दागी और निष्प्रभावी संसद से गुस्से में है। वह संसद को उसकी संवैधानिक साख लौटाना चाहती है। कानून तो संसद ही बनाएगी, लेकिन इससे अच्छा लोकतंत्र क्या होगा कि जनता मांगे और संसद कानून बनाए। जनलोकपाल की कोशिश को संसद की गरिमा बढ़ाने वाले अनोखे लोकतांत्रिक प्रयास के तौर पर देखा जाना क्या 125 करोड़ की जनता का अभिवादन करने जैसा नहीं है, और इस पर क्या संसद को ईमानदारी से सेाचना नहीं चाहिए कि अब वक्त आ गया है जब संसद को जनता की आवाज बिना किसी लाग-लपट और चू-चपड़ के चुपचाप शराफत से सुन लेनी चाहिए। सतीश प्रधान

अभूतपूर्व लोकतांत्रिक प्रयास

        अन्ना हजारे के आंदोलन ने इस देश की जनता को एक अभूतपूर्व जगह पर ला खड़ा किया है, जो रास्ता देश को दुनिया के शिखर पर ले जा सकता है, वहीं दूसरी ओर वही पुराना रास्ता है, जो उसे एक अन्तहीन खाई में डुबोने को तैयार है। दूसरे रास्ते पर सरकार है, संसद है, उसके सदस्यों का विशेषअधिकार है, भ्रष्टाचार है, अनाचार है और सभी प्रकार का दुव्र्यवहार है। अब सरकार ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक पार्टियों के साथ -साथ अन्य बुद्धिजीवियों पर भी निर्भर करेगा कि वे देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं । पूरे प्रकरण को समझने के लिए यह जानना होगा कि इस पूरे आंदोलन की प्रकृति क्या है, स्वरूप क्या है, इसकी दिशा क्या है, इसके व्यापक उद्देश्य क्या हैं और इससे क्या सबक लिए जा सकते हैं? आजादी के बाद यह एक ऐसा देशव्यापी आंदोलन है जिसका नेतृत्व राजनेताओं के हाथ में न होकर आम नागरिक एवं उसके मसीहा माननीय अण्णा हजारे जी के पास है। इससे पूर्व के कुछ आंदोलन जिन्होंने पूरे देश को अपने आगोश में ले लिया था उनमें जेपी का 74 का आंदोलन, मंदिर आंदोलन और फिर मंडल कमीशन के आंदोलन को शामिल किया जा सकता है। लेकिन अन्य सारे आन्दोलनों की प्रकृति एवं अण्णा हजारे के आन्दोलन की प्रकृति में जमीन-आसमान का फर्क अपने आप समझ में आता है।
          मंदिर आंदोलन से जहां मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध आदि धर्मावलंबी और हिंदुओं का सेक्युलर तबका अलग था, तो मंडल आंदोलन से सवर्ण एकदम से बाहर थे। इनमें जेपी का आंदोलन एकबारगी ऐसा आंदोलन समझा जा सकता है, जिससे जनता जुड़ी तो थी पर उसमें राजनीति से जुड़े लोग ही थे जिसका नेतृत्व राजनेताओं के पास था और जिनका उद्देश्य संपूर्ण क्रांति कम सत्ता परिवर्तन अधिक था। अण्णा का आंदोलन नेतृत्व-भागीदारी से लेकर उद्देश्य तक आम जनता का ही आंदोलन है और इसका तात्कालिक लक्ष्य भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक सशक्त जनलोकपाल कानून को लाना है, हालांकि इसके देशहितकारी अन्य दूरगामी परिणाम भी निश्चित हैं।
          अनेक राजनीतिक चिंतक, जिनके दिमाग में राजनीति को पोषित करने की चिंता ज्यादा है, इस आंदोलन को संसदीय लोकतंत्र या दलगत राजनीति के लिए एक खतरा बताते हैं, लेकिन इस सवाल का वे जवाब नहीं देते कि इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार कौन है। कठघरे में सिर्फ कांग्रेस ही नहीं खड़ी है, बल्कि भाजपा, कम्युनिस्ट पार्टियां और अन्य अधिकांश दल भी शामिल हैं। वरना क्या कारण है कि आज किसी राजनेता या दल में वह नैतिक साहस नहीं है कि वह किसी मुद्दे पर खड़े हों और पूरा देश उनके पीछे आ जाए। इसके लिए क्या अन्ना या भारत की गाय समान जनता जिम्मेदार है? जी हॉं, एक मायने में है भी।
          64 सालों से जब अनाचार, अत्याचार, जबरदस्त मंहगाई, अपने धन की जबरदस्त लूट, नेताओं द्वारा मूर्ख बनाने के बाद भी वह चुप बैठी है, तो वह कैसे जिम्मेदार न मानी जाये? लोग संसद को अपने घर की तरह चला रहे हैं। जनता ने अपना प्रतिनिधि उन्हें क्या बना दिया वे मालिक बन बैठे। इस देश का वही हाल इन राजनेताओं ने कर रखा है, जैसे कोई नाबालिग लड़की,अपनी सुरक्षा के लिए किसी व्यक्ति को सुरक्षा में रख ले, इसके बाद वह सुरक्षाकर्मी उसके हर मूवमेन्ट पर अपनी पकड़ मजबूत कर ले एवं इसके बाद वह उसी की इज्जत से भी खेले तो वह क्या कर सकती है? कहीं आवाज उठाने की कोशिश करे तो वह सुरक्षाकर्मी बोले कि अरे इसने तो मुझे ताजिन्दगी का ठेका दिया हुआ है कि वह उसकी सुरक्षा करेगा, अब इसे कुछ भी बोलने-कहने का अधिकार नहीं है। इसका माई-बाप तो मैं हूं। वही हाल इस देश की जनता का इन राजनेताओं ने किया हुआ है। पांच साल के लिए चुन क्या दिया! ये जनता के गार्जियन हो गये। चाहे जनता का धन लूटकर विदेशी खाते में जमा करें या पशुओं का सारा चारा ही खा जायें! सारा माल इनका, इनके बाप का, जनता तो इनकी गुलाम है।
          इस आंदोलन की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि इतना बड़ा, देशव्यापी और स्वतःस्फूर्त आन्दोलन होने के बावजूद, यह पूरी तरह से अहिंसक रहा है और यही इस आंदोलन की शक्ति भी रही, क्योंकि सरकार को जरा भी मौका मिलता तो इसे कुचलने में वह किंचित मात्र भी विलम्ब नहीं करती। अहिंसक होने से ही इसे व्यापक जनसमर्थन मिलता चला गया। यह अनायास नहीं है कि पूरी दुनिया के मीडिया ने इस आंदोलन को प्रमुखता से कवरेज देते हुए इसकी सफलता का गुणगान किया।और तो और पाकिस्तान जैसे सैन्य तानाशाही वाले देश या खूनी संघर्ष से उथल-पुथल हो रहे अरब देशों में अण्णा हजारे से प्रेरणा लेने की बात होने लगी है। इस आंदोलन के स्वरूप पर आरोप लगाते हुए सरकार, राजनीतिक दल और सरकारी प्रतिनिधियों के साथ ही सरकार द्वारा पोषित कुछ मीडियाकर्मीयों ने भी, जिनमें नई दुनिया के आलोक मेहता प्रमुख हैं, इसे मीडिया हाइप की संज्ञा से नवाजा और मीडिया मैनेज्ड,  आरआरएस द्वारा प्रायोजित एवं अमेरिकी सरकार द्वारा समर्थित बता दिया।
           अरे मनमोहन सिंह के अमेरिका परस्त होने के बावजूद उल्टा इलजाम सिविल सोसाइटी पर? सरकार में मंत्री रेणुका चौधरी ने तो आईबीएन-7 वालों पर पीपली लाइव की तरह बर्ताव करने वाला करार दिया। उसी तरह कुछ विश्लेषक इसे सवर्णवादी, अभिजन वादी, कारर्पारेटवादी बता रहे थे, लेकिन सच इनसे कोसों दूररहा। यह सही है कि आंदोलन को मीडिया ने खासा कवरेज दिया, लेकिन सिर्फ मीडिया के सहारे कोई आंदोलन नहीं चल सकता जब तक उसके पीछे कोई ठोस सामाजिक-आर्थिक कारण न हो। अगर ऐसा होता तो मीडिया वाले स्वंय अपने लिए विधायकों और सांसदों की तरह सुविधा-सम्पन्न न हो जाते! अथवा वे भी सांसद विधायक ना हो जाते।
            यह अनायास नहीं था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जो देश की मुस्लिम राजनीति को एक बौद्धिक दिशा देता है, के शिक्षकों और छात्रों ने अण्णा के समर्थन में उदघोष किया। उसी तरह यह भी गलत है कि यह आंदोलन सवर्णवादी, अभिजनवादी है। वैसे भी निम्न वर्ग के लोग पूरे समाज के आन्दोलन की न तो बात करते है और ना ही ऐसी सोच उनकी है। उन्हें तो हर स्थान पर बिना कुछ किये अपनी भागीदारी ही सुनिश्चित कराने के लिए झंडा उठाने की बात ही ध्यान में रहती है। यह ठीक है कि इसका नेतृत्व अभी सवर्ण और अभिजन कर रहे हैं, लेकिन आंदोलन से सबसे अधिक फायदा समाज के निम्न वर्ग के लोगों को ही होगा, जिनके बुनियादी हक को भ्रष्टाचार का दानव हड़प और हजम किए जा रहा है। इस रूप में यह आंदोलन दलितों, पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के लिए सबसे अधिक हितकारी है। अनेक दलित और पिछड़ी जातियों के बुद्धिजीवियों ने बताया है कि वे पूरी तरह से अण्णा के साथ हैं।
             इस आंदोलन की सबसे बड़ी शक्ति युवा वर्ग है, जो समाज के सभी धर्म-जाति-वर्ग-क्षेत्र के हैं और जिनकी संख्या 25 करोड़ से ज्यादा है। यह युवा वर्ग पहले के किसी भी भारतीय आंदोलनों की अपेक्षा ज्यादा शिक्षित, ज्यादा सूचनाओं से लैस और ज्यादा जागरूक और समझदार है। सबसे बड़ी बात यह है कि दिग्भ्रमित कहे जाने वाली इस युवा पीढ़ी की ऊर्जा अभूतपूर्व रूप से जाग गई है जिसकी आकांक्षाओं को ज्यादा दबाया नहीं जा सकता। वैसे तो युवा नेतृत्व के नाम पर धुरन्धर राजनेताओं के ही पुत्र-पुत्रियों को राजनीति में लाने की साजिश रची जा रही थी, और कांग्रेस के युवराज लला राहुल ने अपनी टीम ऐसे ही लोगों की बनाई हुई है, लेकिन उनकी सोच भी उनके पुरखों से भिन्न कतई नहीं है।
     सरकार, कांग्रेस, भाजपा या अन्य सभी राजनीतिक दलों को समझ लेना चाहिए कि उनका कोई भी गलत अथवा दम्भ भरा कदम राजनेताओं और राजनीति पर पहले से ही गहरे अविश्वास को और मजबूत ही करेगा जिसके जिम्मेदार वे स्वयं होंगे। सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा आंदोलन को अमेरिका पोषित कहना या इसे भ्रष्ट बताते हुए यह कहना कि कहां से आंदोलन के लिए पैसा आ रहा है, सच्चाई को ठुकराने वाली बात है। अण्णा में लोगों का इतना विश्वास है कि उनके आंदोलन को धन की कमी ना है और न रहेगी। आरोप लगाने वाले यह भी सोच लें कि यह पैसा स्विस बैंक से तो कतई नहीं आ रहा है। एक सरल गणित को समझ लें कि देश के एक करोड़ लोग इतने सक्षम तो हैं ही कि हर कोई अण्णा को सिर्फ सौ-सौ रुपये भी दे तो यह राशि सौ करोड़ हो जाती है। हालांकि अण्णा के आंदोलन का कुल खर्च अब तक एक करोड़ का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाया है।
              आज अन्ना का समर्थन करने के बावजूद जनलोकपाल बिल से अन्य राजनीतिक पार्टियां भी पूरी तरह से सहमत नहीं हैं, लेकिन क्या इसमें उनका स्वार्थ आड़े नहीं आ रहा है! या सचमुच इसके दूरगामी दुष्परिणाम भी उन्हें ही भुगतने पड़ सकते हैं इसका अन्दाजा लगाने का उनमें माद्दा ही नहीं है। राजनीतिक पार्टियों को समझ लेना चाहिए कि न तो उनको इतिहास माफ करेगा, न ही भविष्य स्वीकारेगा और वर्तमान तो उनके सामने है, जो उन्हें कतई माफ करने को तैयार नहीं है क्योंकि वह अपनी विश्वसनीयता ही खो चुके हैं। 
सतीश प्रधान

Wednesday, August 31, 2011

देश को मिल गया मसीहा



          भारत गणराज्य के वर्तमान प्रधानमंत्री किसी समस्या का राजनीतिक समाधान तलाशने में एकदम असमर्थ हैं। जनलोकपाल के प्रति पहले ही सहानुभूति पूर्वक विचार के लिए तैयार हो जाते तो एक 75 वर्षीय बुजुर्ग मा0 अण्णा हजारे जी को इतने दिनों तक अनशन पर नहीं रहना पड़ता,  इसलिए उनकी जगह पर कांग्रेस को प्रणव दा को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। मनमोहन को सार्वजनिक-राजनीतिक जीवन में सबकुछ मिल चुका है। सात वर्ष से वह लगातार प्रधानमंत्री पद पर हैं। यह साधारण उपलब्धि नहीं कही जायेगी, क्योंकि ऐसा सिर्फ हिन्दुस्तान में ही सम्भव है, वरना देखिए गद्दाफी लुका-छिपा घूम रहा है। ईमानदारी के सिरमौर बनने वाले सरदार जी  को अब राष्ट्रहित में स्वंय ही प्रधानमंत्री पद से मुक्ति पा लेनी चाहिए, वरना आगे क्या हो कौन जाने। इस देश को वास्तव में मसीहा मिल गया है।
      अण्णा के मामले में सरकार ने असंवेदना, अपरिपक्वता, अदूरदर्शिता का परिचय ही नहीं दिया अपितु एक नेक आन्दोलन को सिब्बल के जरिए स्वामी अग्निवेष जैसे एजेन्ट को अण्णा टीम में घुसाने और उसे बदनाम करने की पूरी कोशिश की। तभी तो मनीष जैसे लोगों से गाली दिलवाई गई, और बाद में वक्त की नजाकत को देखते हुए उससे माफी भी मंगवाई। ऐसे को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया, क्योंकि पता नहीं ये खोटे सिक्के कब काम आ जायें। जो निर्णय प्रारम्भ में हो सकता था,  उसके लिए देश आन्दोलित हुआ, लेकिन अच्छा हुआ। वयोवृद्ध अण्णा को अनशन करना पड़ा, क्योंकि भगवान ऐसा चाहते थे। इस अवधि में ज्ञात हुआ कि सरकार अपना इकबाल पूरी तरह समाप्त कर  चुकी है। बेशक वह बहुमत में होगी,  लेकिन अण्णा ने पूरी दुनिया के सामने सिद्ध कर दिया  कि असल में जनता उनके साथ है।
      प्रधानमंत्री और उनकी टीम ने अण्णा के आन्दोलन को असंवैधानिक बताया, संविधान, प्रजातंत्र और संसद की सर्वोच्चता के बेतुके तर्क रखे । वस्तुतः मनमोहन सिंह राजनीतिक रूप से किसी समस्या को समाधान की स्थिति तक पहुंचाने में सक्षम नहीं हैं। यह उनकी नियुक्ति से जुड़ा मसला  है। वह प्रजातंत्र की बात करते हैं लेकिन उनको इस पद पर आसीन करने में प्रजा की इच्छा बिल्कुल शामिल नहीं है। इसलिए महत्वपूर्ण पद पर होने के बाद भी वह आठ दिन तक राजनीतिक पहल करने की स्थिति में नहीं थे। गनीमत यहीं तक नहीं थी, उन्होंने कपिल सिब्बल और पी. चिदम्बरम जैसे सहयोगियों को आगे रखा, सोचा कि उनकी वकालत लोकपाल पर भारी पड़ जायेगी।
      कपिल भी उन्हीं की तरह निकले,  जिनका राजनीति में आना घटना प्रधान है। वह जमीनी पृष्ठभूमि से राजनीति में नहीं है। केवल इतना अन्तर है कि कपिल सिब्बल संयोग कहिए या जनता की गलतफहमी कि वह लोकसभा चुनाव जीत गए। मनमोहन को चुनाव जीतना अभीतक नसीब    नहीं हुआ है। लेकिन जमीन से इनकी भी दूरी में ज्यादा फर्क नहीं है। इसलिए ये मनीष तिवारी या दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को किनारे करने की बजाय इनकी छिछली हरकत पर इतराते रहे।   इनको ए राजा, कलमाड़ी आदि नेता सिर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबे नजर नहीं आये,       जो शब्द उन्होंने अण्णा के लिए प्रयुक्त करवाये। सरकार और पार्टी खामोश रही। इस    प्रकार सरकार और पार्टी  दोनों का नजरिया जाहिर हुआ। उसकी नजर में भ्रष्ट किसे माना जाता     है, यह पता चला। प्रधानमंत्री प्रभावशून्य और कठपुतली ही दिखाई दिए, या समझिये वह अपने को कठपुतली ही दिखाना चाहते हों।
      संप्रग सरकार संवेदनहीनता का परिचय शुरू से ही देती रही, उसे खाद्यान्न का सड़ जाना मंजूर हुआ, लेकिन भारत के सुप्रीम कोर्ट के निर्देष के बावजूद, निर्धनों में उस अनाज को बांटना मंजूर नहीं हुआ। मंहगाई रोकने के प्रयास नहीं किए गये। सामान्य जनता को होने  वाली कठिनाई के प्रति उसने कभी संवेदना नहीं दिखाई। पछहत्तर वर्षीय अण्णा हजारे के अनशन का सातवां दिन था। मनमोहन सिंह इस गम्भीर मसले पर विचार विमर्श करने के बजाय कोलकाता की एक दिवसीय यात्रा पर चले गये। यह ठीक है कि उनका कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था। वहां आई.आई.एम. में गाउन ओढ़कर उन्हें लिखित भाषण पढ़ना था। प्रधानमंत्री पद के दायित्व और मानवीय संवेदना का तकाजा यह था कि मनमोहन सिंह इस कार्यक्रम में शामिल होने का कार्यक्रम स्थगित कर देते। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि वहां के लोग मनमोहन सिंह को देखने-सुनने के लिए एकदम व्याकुल थे। वह सुसज्जित बन्द हॉल में भाषण पढ़ रहे थे। बाहर कोलकाता के नागरिक उनकी यात्रा का विरोध कर रहे थे, और अन्दर मेधावी छात्र उनसे डिग्री न लेने के लिए काली पट्टी बांधकर विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि अण्णा के अनशन का समाधान निकालने के लिए प्रधानमंत्री को नईदिल्ली में ही रहना चाहिए था। वापस लौटने के दो दिन बाद रायता फैलाने के लिए सरदार जी ने सर्वदलीय बैठक रखी। तब तक अन्ना की सेहत बिगड़ती रही।
     किसी को खुली लूट की छूट देना, उसका बचाव करना, आरोपों को जानबूझ कर नजरअंदाज   करना ईमानदारी का लक्षण नहीं है। एक ईमानदार प्रधानमंत्री की सुख-सुविधा, सुरक्षा, आवास आदि पर सरकारी खजाने से बहुत बड़ी धनराशि खर्च की जाती है। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद अनेक खर्चीली सुविधाओं की गारण्टी मिलती है। ऐसे में निजी ईमानदारी पर आत्ममुग्ध होना,  कोई उदाहरण पेश नहीं करता है। उन्हें अपने सहयोगियों व प्रशासन को ईमानदार रहने के लिए बाध्य करना चाहिए था। अन्यथा उनकी निजी ईमानदारी भी भ्रष्टाचार के साथ समझौते के दायरे में ही आती है। वैभवशाली प्रधानमंत्री पद के लिए बेईमानी से समझौता करना किस आक्सफोर्ड की डिक्शनरी में ईमानदारी के अंतर्गत आता है।
      वैसे यहॉं कि जनता को इस पर भी विचार करना चाहिए कि इतने बड़े लोकतांत्रिक देश,      भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठे सरदार मनमोहन सिंह के कितने ही अरमान मन में ही धरे रह   जाते हैं। बतौर प्रधानमंत्री समय-समय पर दिखने वाले उनके अरमानों पर नजर डालिए, वह मंहगाई रोकना चाहते है, वह भ्रष्टाचार समाप्त करना चाहते हैं, वह आतंकी हमले रोकना चाहते हैं,वह दोषियों को कड़ी सजा दिलाना चाहते है, पर विडम्बना देखिए उनके भाग्य की कि वह कुछ कर नहीं पाते। अपनी दुरदशा पर दृश्टिपात करते हुए ही उन्होंने कहा कि वह अब हर हालत में शक्तिशाली लोकपाल चाहते  हैं। साथ ही कहीं जनता यह न समझ ले कि वह तुरन्त अपने से तगडे लोकपाल की नियुक्ति न कर दें, यह भी जोड़ दिया कि संसदीय प्रक्रिया में समय लगता है, इसलिए अभी इंतजार कीजिए।
     क्या मनमोहन सिंह के इस वक्तव्य पर विश्वास किया जा सकता है। क्या मजबूत और प्रभावी लोकपाल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से देश निश्चिंत हो सकता है। कठिनाई यह है कि भारत गणराज्य के वर्तमान प्रधानमंत्री किसी समस्या का राजनीतिक समाधान तलाशने की स्थिति में ही नहीं हैं। इस महत्वपूर्ण पद पर वह जनता की पसन्द से नहीं हैं। शायद इसीलिए वह जनभावना को समझने में समय गवांना नहीं चाहते हैं। शायद इसीलिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सलाह पर कानून बनाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती है, और ना ही उस पर सर्वदलीय बैठक की आवष्यकता ही वह महसूस करते है। सोनिया जी का, अमेरिका का हांथ उनके सिर पर है, इसलिए वह जो चाहेंगे करेंगे, आप क्या कर लेंगे। बाकी उनके किये पर ताली बजाने के लिए पूरी कांग्रेस उनके साथ है।
     ताजा उदाहरण देखिए! स्पोर्ट्स बिल पर सर्वदलीय बैठक बुलाने की जरूरत इसके लिए नही समझी गई, क्योंकि उसकी कैबिनेट में मंत्री पदपर विराजमान बहुत से मंत्री प्रदेशीय क्रिकेट एसोसियेशन के अध्यक्ष हैं, और उन्होंने ही इसका विरोध किया। सशक्त लोकपाल के प्रति पहले ही ईमानदारी से उसमें प्राविधान कराकर बिल रख देते तो ऐसे लेने के देने तो न पड़ते। मेरा तो मानना है कि अब भी कुछ करने की जरूरत नहीं है। फिर से पूरे हिन्दुस्तान को बेवकूफ बना सकते हैं। मा0 अण्णा जी को जो पत्र पहुंचाया है, उसे सिंघवी, अमर सिंह और लालू यादव से खारिज करा दें, बस हो गया काम हिन्दुस्तान का। मनमोहन सिंह अपने को कितना ही ईमानदार दिखाने का नाटक करें,   वह मा0 अण्णा हजारे जी की हद की दिवानगी का अनुभव इस जिन्दगी में तो कदापि नहीं कर सकते। इसके लिए उनको दूसरी जिन्दगी लेनी पडेगी और अण्णा बनना पड़ेगा, जो इस जिन्दगी में किसी भी तरीके से सम्भव नहीं है। मनमोहन को तो सार्वजनिक, राजनीतिक जीवन में बहुत कुछ मिल गया है, लेकिन उन्होने इस भगत सिंह के देश को क्या दिया, इसको वह बिस्तर पर सोते जाते वक्त सोचें? शायद उनके अन्तरमन से कोई आवाज आये और उनको कुछ अच्छा करने के लिए झकझोरे। अब इस देश की जनता को ईमानदारी की परिभाषा पर नये सिरे से विचार- विमर्श करने की तीव्र आवश्यकता आन पड़ी है।   सतीश प्रधान  

Sunday, August 21, 2011

अपने पतन से घबराई सरकार को हुई जनता की दरकार


      अन्ना हजारे को असंवैधानिक और गैरकानूनी रूप से उनके आवास से अनशन करने से पूर्व ही गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेजने वाली मास्टरमाइण्ड मनमोहन सरकार अनतत्वोगत्वा एक दिन के आन्दोलन पर ही मजबूत पैरों से घुटने के बल आ गई और जन्तर मन्तर पर रामदेव की गिरफ्तारी और उनके सह्योगियों को आतंकियों जैसे व्यवहार से टेरराइज करने वाली सरकार के जरूरत से ज्यादा काबिल, कपिल सिब्बल, पी.चिदम्बरम, दिग्विजय, अभिषेक सिंघवी जैसों की पीठ थपाथपाने लगी। उसे यह गलत फहमी हो गई कि जनता को अथवा जनता से जुड़े मुद्दों को उठाने वाले किसी भी व्यक्ति को सत्ता की शक्ति से आसानी से कुचला जा सकता है।
      मनमोहन सरकार को बाबा रामदेव का आन्दोलन भी भारी पड़ता यदि बाबा रामदेव लेडीज सलवार-कमीज पहनकर भागे न होते! अनशन करने आये थे, तो अनशन के हिसाब से चलते। करना था अनशन और इजाजत मांगी योग शिविर लगाने की। जब योग शिविर लगाने की इजाजत ही दो दिन की मिली, एवं लिखकर पहले ही दे आये कि दो दिन में रामलीला मैदान खाली कर देंगे तो फिर उस पर अनशन का आसन क्यों लगा लिया? योग कराने के बहाने अनशन स्थल पर जम जाने और फिर नंगी पुलिसिया कार्रवाई से भयभीत होने की उनकी कार्यशैली ने ही उन्हें कमजोर करके नेपथ्य में छोड़ दिया। रामदेव की डरपोक कार्य शैली से ही केन्द्र सरकार के इरादे आक्रामक हो गये। अपनी इस उपलब्धि पर पगलाई सरकार को यह गुमान हो गया कि वह इस देश में जो चाहे, जैसा चाहे कर सकती है। वकालती दिमाग पर सरदारी दिमाग मात खा गया। वह भूल गया कि अंग्रेज बहादुर उससे बड़ा गुण्डा था, लेकिन सभी प्रकार के दमन में महारत हासिल रखने वाला भी महात्मा गॉंधी को गोली नहीं मार पाया। दुर्भाग्य देखिए इस देश का कि उन्हें अपने ही देश के काले हिन्दुस्तानी ने गोली मार दी। गोली मारी अथवा मरवा दी गई, अभी भी यह खोज का ही विषय है।
      लगभग ऐसी ही मानसिकता के बहुत से लोग मीडिया में भी हैं जो एनआरएचएम के डा0 सचान के साथ घटी घटना को अण्णा के साथ दोहराने की बात कर रहे थे। आठवॉं और दसवॉं पास अपने ही समाचार-पत्र के स्वयंभू ब्यूरो प्रमुख बनने के बाद, ऐसे तथाकथित पत्रकारों को यह भ्रम हो गया कि वे भी बुद्धिजीवी हैं। वे संविधान और संसद की व्याखा करने लगे और पागलों की तरह कहने लगे कि अण्णा संसद से उपर नहीं हैं। क्या अण्णा को किसी ने कहते सुना कि उन्होंने कहा हो कि वे संसद से ऊपर हैं? जब ऐसा कहा ही नहीं गया तो फर्जी नगाड़ा पीटने का क्या औचित्य? संसद में अपने प्रधानमंत्री ने भी रिजर्व बैंक के पूर्व अनुभव के आधार पर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की अपनी पुरानी शैली का प्रयोग करते हुए कहा कि संविधान और संसद से बड़ा कोई नहीं। अरे आज पूरा हिन्दुस्तान देख रहा है कि संसद से ऊपर उनके कपिल सिब्बल और संविधान से ऊपर स्वंय मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ही है।
      क्या समय आ गया है कि भ्रष्टाचार पर बहस वह कर रहा है, जिसका दाना-पानी भ्रष्टाचार के दम पर टिका है। जनता की आकस्मिक और आपातकालीन जरुरतों के लिए बनाये गये मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से लाखों करोड़ों पी जाने वाले व्यक्ति अण्णा के खिलाफ आग उगल रहे हैं। भूतपूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से करोड़ों रुपया पाये महोदय उनका साथ छोड़कर अब कांग्रेस के यहॉं हाजिरी लगा रहे हैं और दिखावा ऐसा कि गोया सारी केन्द्र सरकार उनकी मर्जी से चल रही है। बाकी फिर कभी...............
      अहंकार और नशे में धुत्त सरकार को अण्णा के आन्दोलन की जो रफ्तार दिखाई दी उससे उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे एक नहीं लाखों अण्णा हजारे दिखाई देने लगे। ठीक रामदेव के विपरीत हुआ। तब पुलिसिया कार्रवाई से रामदेव हदस में आये थे, लेकिन अबकी बार पूरी की पूरी सरकार ही हदस में आ गई। जनता की ताकत सरकारों को तब दिखाई देती है, जब वह मूंह के बल गिरने के कगार पर होती है। भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठा जो सरदार लाल किले की प्राचीर से एवं संसद में अपने हेकड़ी भरे अन्दाज में यह कह रहा था कि कोई भी व्यक्ति संविधान और संसद से बड़ा नहीं है, उसी सरदार ने अण्णा की गिरफ्तारी से लेकर उनकी रिहाई तक के बीच की गई कार्रवाई से संवैधानिक व्यवस्था का ऐसा चीर हरण किया कि उसे इतिहास में दर्ज कर लिया गया है।
       सुबह-सुबह गिरफ्तारी, फिर तिहाड़ जेल, तदउपरान्त रात्रि को रिहाई ने सिद्ध कर दिया कि संविधान के एक मात्र ज्ञाता कपिल सिब्बल, पी चिदम्बरम और सरदार जी ही हैं। इस देश में खुशवन्त सिंह के बाप शोभा सिंह जैसे लोगों की तादाद बहुत बढ़ गई है। भ्रष्टाचार की असली देन कांग्रेस पार्टी ही है। अंग्रेज ऐसे लोगों के हांथ भारत की सत्ता सौंप कर गया जो स्वंय भारतीय मानसिकता के नहीं थे। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान उसी मानसिकता की देन है। भारत के सिर पर जबरदस्ती बैठे प्रधानमंत्री सरदार जी का यह स्पष्टीकरण किसके गले उतरने वाला था कि अण्णा के खिलाफ दिल्ली पुलिस की कार्रवाई से केन्द्र सरकार का लेना-देना नहीं। अब कहॉं नेपथ्य में चली गई दिल्ली सरकार और जान बचाने सामने आ गई केन्द्र सरकार! अब तो दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का सांसद बेटा ही कह रहा है कि सरकार ने केवल प्रशासनिक दृष्टिकोण ही देखा, इसे राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से नहीं देखा तथा अण्णा हजारे को गिरफ्तार करने की भूल की गई। अण्णा के पत्र का भारत का प्रधानमंत्री जवाब देता है कि अण्णा दिल्ली पुलिस के पास जायें। प्रधानमंत्री कार्यालय का इससे कोई लेना-देना नहीं। अब क्यों केन्द्रीय मंत्रियों को दिल्ली पुलिस का प्रवक्ता बनना पड़ रहा है?
      यह वही सरकार है जो दिल्ली पुलिस को आगे करके पीछे से सारे नाटक का मंचन कर रही थी। यह वही मनमोहन की सरकार है जिसकी नाक के नीचे प्रदर्शनकारी रेलवे ट्रैक पर कब्जा जमाये बैठे थे, और वह चैन की बंसी बजा रही थी। जनता की परेशानियों को देखते हुए जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना चाबुक चलाया तब जाकर सरकार हरकत में आई थी। तमाम और खास लोगों को अण्णा की गिरफ्तारी से आपातकाल का एहसास हुआ तो कोई गलत नहीं है। अण्णा हजारे से निपटने या निपटाने की रणनीति कांग्रेस को सरकार से जिन्दगी भर के लिए दूर करने वास्ते काफी है। बहुत से अपरिपक्व लोगों का कहना है कि यह कार्पोरेट घरानों का खेल है। लेकिन क्या कार्पोरेट घराना कांग्रेस के साथ नहीं है? अण्णा हजारे के साथ है! देखिए बाक्स में।

          अण्णा के साथ नहीं है, कार्पोरेट घराना
        भले ही पूरा देश अण्णा के साथ हो और देशभर में इस आन्दोलन को फैलाने का जज्बा रखता हो लेकिन उघोग जगत जिसे इंडिया इंक के नाम से जाना जाता है सरदार मनमोहन की कृपा से इस बार अण्णा हजारे के साथ नहीं है। पांच माह पहले जब अण्णा ने पहली बार भूख हड़ताल की थी, तब पूरा उघोग जगत उनके साथ था, जिसे सरदार जी ने अपने दबाब में लेकर अपने साथ कर लिया। देश के दो सबसे बड़े और प्रमुख उघोग चेम्बर फिक्की और सीआईआई ने अण्णा की गिरफ्तारी पर सरकार समर्थित बयान जारी किया। ये दोनों संगठन इस वजह से भी नाराज हो गये, क्योंकि अण्णा हजारे ने 15 अगस्त के संवाददाता सम्मेलन में कई बार कहा कि यह सरकार उघोगपतियों की है और उद्योगपतियों के इशारे पर आम आदमी को नुकसान पहुंचा रही है। एक प्रमुख उद्योगपति ने कहा भी कि अण्णा का बयान 1960 और 1970 के दशक की याद दिला गया जब देश में हर गडबड़ी के लिए उघोग जगत को दोषी ठहराया जाता था। 
       कांग्रेस के साथ तो नेशनल छोड़िये मल्टी-नेशनल्स के मालिकान जुडे हुए हैं। वैसे भी कांग्रेस किस मल्टी-नेशनल से कम है। वह तो अपने आप में एक घराना है। कार्पोरेट घराना तो पक्ष-विपक्ष, विधायक-सांसद, प्रिन्ट मीडिया-इलैक्टानिक मीडिया, उसमें कार्य करने वाले और तेज-तर्रार बोलने वाले, मन्दिर-मस्जिद, गिरजा-गुरूद्वारा, राजनीतिक पार्टियों-माफियाओं, शासन-प्रशासन, रंगमंच वालों, नर्तकियों-कवियों और ना जाने किन-किन को चन्दा, अनुदान और माहवारी देता है। तो क्या सब भ्रष्ट हो गये। उसकी नियति ही है चन्दा देना। अगर किरण बेदी की किसी संस्था को चन्दा, अनुदान अथवा कोई प्रोजेक्ट मिलता है तो क्या इसी बिना पर आप उन्हें करप्ट घोषित कर देंगे! जिस सरकार ने अपनी सारी ऐजेन्सी भ्रष्टाचारियों के पीछे न लगाकर, अण्णा हजारे के पीछे लगा दी हो कि जाओ कुछ भी ढूंढ कर लाओ! जिसका प्रवक्ता मनीष तिवारी प्रेस कान्फ्रेन्स में श्री अण्णा हजारे को भारतीय आर्मी का भगोड़ा बताता हो और भारतीय आर्मी ने यह प्रमाण दिया हो कि अण्णा को ससम्मान सेवानिवृति देने के साथ ही कई पदक भी उन्हें प्रदान किय गये थे, तो एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रवक्ता की गलत बयानी का क्या अर्थ निकाला जाये! बावजूद इसके कुछ भी गलत न निकलने पर भी उसके प्रवक्ता मनीष तिवारी ने प्रलाप लगाया कि अण्णा हजारे तो ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में सना है।
        मनीष तिवारी जैसों को शर्म नहीं आती कि किस मुंह से अण्णा को जेल से बाहर निकाला ? मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, चिदम्बरम, अम्बिका सोनी जैसे बददिमाग लोगों की जब तक कांग्रेस बलि नहीं लेगी उसके सोचने समझने की शक्ति वापस नहीं आ सकती। कांग्रेस ने यह जो बड़बोले और दम्भी नेताओं की फौज इक्ठ्ठी कर रखी है, वही उसके पतन का कारण भी बनेगी। भारत वह देश है जहॉं के लोग माता सीता पर भी आरोप लगाने से नहीं चूके तो ये तो अण्णा हजारे हैं। यह देश लोटा चोरी में जेल गये लेागों को स्वतंत्रता सेनानी बताता है और स्वतंत्रता सेनानी की मुखबिरी एवं उसके खिलाफ गवाही देने वाले को प्रधानमंत्री का पद देता है। उसके नाम के आगे सर की उपाधि लगाता है, उसके नाम पर तिराहे, चैराहे और सड़क का नामकरण किया जाता है। दरअसल ऐसा करता वही है जो स्वंय मुखौटा ओढ़े भारतीय जनता को बेवकूफ बना रहा होता है। ऐसी मानसिकता के लेाग जब इस देश पर अब भी शासन कर रहे हैं तो कैसे यकीन किया जाये कि इस देश में गोरे राज नहीं कर रहे हैं? इस देश में देशी मुखौटे में अंग्रेजी मानसिकता के काले भुसण्ड लोग ही आज भी सत्ता में विराजमान हैं।
        मंहगाई, भ्रष्टाचार, हताशा और निराशा में पनपे अनशनों के दौर ने देश के आमलोगों को उद्वेलित कर दिया है। बाबा रामदेव के आन्दोलन पर पुलिसिया अत्याचार और स्वामी निगमानन्द के मौन अनशन से दुर्भाग्यपूर्णं निधन की खबर ने देश को झकझोर कर रख दिया है। स्वामी निगमानन्द गंगा में प्रदूषण के विरोध में आमरण अनशन कर रहे थे, किन्तु किसी ने भी उनकी मौत होने तक उनपर ध्यान नहीं दिया। सरकार के खिलाफ अनशन करना किसी भी अत्याचारी सरकार को नहीं सुहाता। वह खाकी वर्दी को अपना गुलाम समझकर उनसे अनशन कुचलवाने का ही प्रयास करती है। वह नशे में भूल जाती है कि खाकी वर्दी का जन्म जनता के जान-माल की रक्षा के लिए किया गया है, लेकिन ठीक इसके विपरीत वह जनता की जान और माल इस खाकी वर्दी की ठोकर पर रख देती है। कितनों को पता है कि इसी उ0प्र0 में एकबार पीएसी रिवोल्ट कर चुकी है, तब यहॉं की सरकार को ही जान के लाले पड़ गये थे। भगवान करे ऐसा पूरे देश में ना हो इसीलिए भारत सरकार को सलाह दी जाती है कि नशे को किनारे रखकर सड़क पर धीरे-धीरे आ रही जनता के मिजाज को भांपकर उसके अनुरुप कार्रवाई करे।
        64 सालों से जनता लॉली पॉप ही खा रही है। अब वह जो मांगने निकली है, उसे शराफत से नहीं मिला तो उसके परिणाम की जिम्मेदार मनमोहन सरकार की होगी। समस्या पर किसी समझदारी का परिचय देते हुए भ्रष्टाचार पर तुरन्त अंकुश लगाया जाये तथा तुरन्त कडा जनलोकपाल अधिनियम बनाया जाये। मनमोहन मण्डली ने इस देश को बहुत लूट लिया। इस देश में पैदा होने का कुछ तो धर्म निभायें। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि अब उनकी नेकनामी और बदनामी केवल उनतक ही सिमट कर नहीं रह पायेगी, बल्कि पूरे सरदारों के नाम पर गिनी जायेगी। अण्णा का यह अनशन भारत में राजनीतिक अनशन के इतिहास पर एक नज़र डालने का सही समय है।
        विनम्र विरोध के इस अदभुत हथियार का प्रयोग करने वाले सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति महात्मा गॉंधी थे, लेकिन ऐसा नहीं है कि अकेले वही ऐसे व्यक्ति थे। कुछ और लोगों ने भी इसका इस्तेमाल किया, जिन्हें आज जानबूझकर भुला दिया गया है। महात्मा गॉंधी अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के भी रोल मॉडल हैं, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह महात्मा गॉंधी हो गये। इसी प्रकार अण्णा हजारे भी महात्मा गॉंधी के अहिंसक आन्दोलन से प्रेरित हैं तो वह भी महात्मा गाँधी न तो हो गये और ना ही उन्होंने कभी ऐसा कहा। उनका तो कहना है कि यदि महात्मा गाँधी की भाषा सरकार नहीं समझेगी तो वह वीर शिवाजी की भाषा भी जानते हैं। वर्तमान का क्षणिक समय, सरकारी पागलखाने की भीड़ द्वारा एक सामान्य चित्त व्यक्ति को पागल और बेवकूफ बनाने का चल रहा है।
          जिन और लोगों ने अहिंसक आन्दोलन का सहारा लिया उनमें और अन्यानेक लोग भी थे। लाखों कोलकातावासियों के लिए जतिन दास का नाम महज एक सुविधाजनक मैट्रो स्टेशन है, जहॉं से वे दक्षिण कोलकाता के व्यस्त चौराहे हाजरा तक जाने के लिए उतरते हैं। भीड़ में ऐसे इक्का-दुक्का ही मिलेंगे जो यह बता सकें कि इस मैट्रो स्टेशन और इससे सटे पार्क का नाम जतिन दास क्यों है? जतिन दास ब्रिटिश राज में भारतीय जेलों में राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार के विरोध में 64 दिन तक अनशन करने के बाद शहीद हो गये थे। जतिन ने लाहौर जेल में 13 जुलाई 1929 को अन्य बन्दियों के साथ अनशन शुरू किया था। अंग्रेजों ने उनका अनशन तुड़वाने के लिए तमाम हथकण्डे अपनाये किन्तु जतिन दास को भोजन लेने के लिए मजबूर नहीं कर पाये।
          जतिन दास प्रसिद्ध हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य थे। लाहौर जेल में बन्द उनके तीन साथियों- भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई, जबकि जतिनदास 13 सितम्बर 1929 को ही शहीद हो गये थे। पूरी दुनिया में भारत के अलावा आयरलैण्ड ही ऐसा देश है जहॉं भूख हड़ताल विरोध का एक नियमित माध्यम है। अण्णा हजारे और बाबा रामदेव से पहले इस देश के राजनीतिक प्रतिष्ठान को हिला देने वाला और हमेशा के लिए भारत का नक्शा बदल देने वाला आमरण अनशन 1952 में हुआ था।
    19 अक्टूबर 1952 को श्रीरामलू अलग आन्ध्रा प्रदेश की मांग पर मद्रास के बीचों-बीच आमरण अनशन पर बैठ गये थे। इससे पूर्व उन्होंने आजादी से पहले 1946 में भी मन्दिरों में निम्न जातियों के प्रवेश के लिए आमरण अनशन किया था। 1952 में केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार थी, जो भाषा के आधार पर नए राज्यों के गठन के खिलाफ थी। श्रीरामलू अनशन पर थे, और उनकी हालत बिगड़ने के बावजूद नेहरू इससे विचलित नहीं हुए, जैसे सरदार जी नहीं हो रहे हैं। नेहरू ने घोषणा भी कर दी कि वह अनशन से विचलित होने वाले नहीं हैं। प्रधानमंत्री के अविचलित रहने के बावजूद आन्ध्र समर्थक श्रीरामलू के पक्ष में लोग लामबन्द होते गये और मद्रास प्रेसीडेन्सी के तेलुगू भाषी क्षेत्रो में जोरदार आन्दोलन शुरू हो गया। 58 दिन के अनशन के बाद 15 दिसम्बर 1952 को श्रीरामलू की मृत्यु हो गई। जैसे ही उनके निधन की खबर फैली स्वतः स्फूर्त विरोध प्रदर्शन, लूटपाट और दंगे पूरे राज्य में फैल गये। अन्ततः अविचलित नेहरू को विचलित होना पड़ा और पृथक राज्य आन्ध्रा प्रदेश का गठन करना पड़ा।
         सरकार तो सरकार है, छोटी मोटी मीडिया से जुड़ी अपंजीकृत समितियां के सदस्य और अध्यक्ष भी जब अहंकार में डूबकर अपनी हैसियत भूल जाते हैं और अपने को मुख्यमंत्री समझने लगते हैं तो प्रधानमंत्री की तो बात ही और है। 1 अक्टूबर 1953 को जब आन्ध्रा प्रदेश का जन्म हुआ और राजधानी कुरनूल में कार्यक्रम का आयोजन हुआ तो उसमें शामिल होने वाले दो प्रमुख अतिथियों में प्रधानमंत्री नेहरू और मद्रास के मुख्यमंत्री राजगोपालाचारी ही थे। जबकि ये दोनों ही आन्ध्रा प्रदेश के गठन के कट्टर विरोधी थे। आन्ध्रा प्रदेश के बाद अधिकाधिक राज्यों जैसे केरल, कर्नाटक, हरियाणा, गुजरात आदि का गठन भी भाषाई आधार पर ही हुआ है। यदि नेहरू का चिन्तन, राजनीतिक सूझ-बूझ और विजन दुरूस्त होता तो श्रीरामलू की जान बच सकती थी। श्रीरामलू के आन्दोलन और अण्णा हजारे के आन्दोलन में जमीन-आसमान का फर्क है। श्रीरामलू की समस्या एक प्रदेश के गठन की थी, अण्णा हजारे की समस्या पूरे देश की है। उस आन्दोलन से एक राज्य का गठन हुआ था और केन्द्र सरकार बच गई थी। इसबार जन लोकपाल भी बनेगा और सरकार भी निपट जायेगी। आप नदी किनारे बैठकर चिंगारी से लगी आग की भीषड़ता का अन्दाजा नहीं लगा सकते!
           जिस जनशक्ति के उभार के लिए कांग्रेस सरकार के युवराज और सोनिया के लला मोटर साइकिल पर भट्टा-पारसौल, चोरी-छिपे गये थे और दो दिनों तक अपनी मनमानी की थी, क्या प्रदेश सरकार ने उन्हें फतेहगढ़ की जेल में ठूंस दिया था? जहॉं राख के ढे़र में सैकड़ों लाशों के दफन होने का उन्होंने आरोप लगाया- क्या उनके प्रदेश आगमन पर सरकार ने कोई पाबन्दी लगा दी। जिस बुन्देलखण्ड में जनवरी 2011 से अबतक 570 किसानों ने आत्म हत्या कर ली उसे ज्वलन्त समस्या न मानकर केवल दो किसानों के मारे जाने पर इतने बड़े झूंठ का किला तैयार किया जो राख के विश्लेषण के बाद स्वतः ढह गया। इस कृत्य पर क्या लला राहुल को प्रदेश सरकार ने गिरफ्तार किया! नहीं! क्या राहुल के अनशन पर 22 शर्तों के प्रतिबन्ध के साथ अनुमति दी जाती है? नहीं! बल्कि वे तो प्रदेश में घुसने और कहीं पहुंचने से पहले प्रशासन को इसकी जानकारी देने की भी औपचारिकता नहीं निभाते, तो क्या यह नियम विरुद्ध और प्रदेश सरकार को ठेंगे पर रखने की बात नहीं है। आप पूरे देश की सम्पत्ति धनानन्द की तरह बटोर कर विदेश में जमा करें, ये संविधान सम्मत है और कोई इसके खिलाफ आवाज उठाये तो भ्रष्ट! मल्लिका शेरावत, कपिल सिब्बल से कहे कि मुझसे बड़े नंगे तो तुम! तुमने तो पूरी सरकार को नंगा कर दिया, मैं तो केवल अपना शरीर ही नंगा करती हू! तो है कोई जवाब सिब्बल के पास।
        लोकपाल बिल पर केन्द्र सरकार के मंत्रियों के ऐसे-ऐसे जवाब आये कि सुनकर लगा ये तो द्वारपाल रखे जाने की भी येाग्यता नहीं रखते और सूचना, सूचना प्रौद्योगिकी इत्यादि मंत्रालयों की बागडोर संभाले हुए हैं। सत्याग्रह आन्दोलन पर अण्णा हजारे को तिहाड़ जेल में बन्द करने के सरकार के कदम को कोई सिरफिरा ही सही ठहरा सकता है। यहॉं यह बताना नितान्त जरूरी हो गया है कि पराजय के कगार पर खड़ा हर तानाशाह जनता की आवाज को बन्दूक और तोप की ताकत से ही कुचलने की रणनीति अपनाता है, और उस पर ऐंठकर कहता है कि-है कोई माई का लाल जो मेरे सामने आये। वह भूल जाता है कि माई/नियति ने उसके लिए क्या सोचा हुआ है, ये तो उसे पता ही नहीं है।
        मनमोहन सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि उसकी ही कांग्रेस सरकार की आयरन लेडी इन्दिरा गॉंधी को इमरजेन्सी लगाने का खामियाजा ही नहीं भुगतना पड़ा था, अपितु मॉफी भी मांगनी पड़ी थी। हाईकोर्ट इलाहाबाद के एक जज माननीय जगमोहन लाल सिन्हा ने इन्दिरा गॉंधी की बैण्ड बजा दी थी। इस समय तो सिन्हा जैसे कई एक जज मा0 सुप्रीम कोर्ट की शोभा बढ़ा रहे हैं। एक 74 वर्ष का नौजवान गॉंधीवादी, जीवन की अन्तिम बेला में, वेश्या प्रवत्ति के भ्रष्टाचार के खिलाफ आम नागरिक के ज्वार का नेतृत्व करने आया है तो आप की सरकार उसे जेल में ठूंस देगी? महाराष्ट्रीयन और यू0पी0-बिहार की विभाजन रेखा के बीच बांधने का प्रयास करेगी! एक ईमानदार शख्सियत को जबरन भ्रष्ट बताने की कोशिश एक राष्ट्रीय पार्टी के मंच से उसका प्रवक्ता करेगा। मनीष तिवारी ने एक ऐसे बुजुर्ग पर जो कभी जोर से नहीं बोलता, अपशब्द नहीं कहता, जो सरकार से बात करने के लिए हमेशा तत्पर रहता है, जिसने भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिल लाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के मुखियाओं के दरवाजे खटखटाये लेकिन उसके विरुद्ध आपका प्रवक्ता विष वमन करेगा, आप सत्ता के नशे में उसे जबरदस्ती जेल भेज देंगे। इसका खामियाजा तो आपको भुगतना ही पड़ेगा।
         जो नेता, जानवरों का पूरा चारा खा गया वह अण्णा हजारे के खिलाफ बोल रहा है, केवल इसलिए कि कांग्रेस कुछ झूठन उसकी झोली में भी डाल दे। कड़े से कड़ा लोकपाल अधिनियम का प्रारूप बनाने की बात सोनिया गॉधी, सरदार जी, कपिल सिब्बल, पी चिदम्बरम आदि ने की थी, लेकिन उसके बाद देश को बेवकूफ बनाने का काम किया। श्री अण्णा हजारे ने एकदम सही कहा कि सरकार ने धोका दिया। सरकार ने इस भारत में मीडिया का एक एल्सेशियन वर्ग पैदा कर दिया जो लेाकपाल के औचित्य पर ही सवाल उठाने लगा। इतने बड़े मुद्दे पर देश के प्रधानमंत्री को 125 करोड़ की जनता के पास मैसेज भिजवाने के लिए सिर्फ पांच सम्पादक ही मिले, वह भी क्षेत्रीय अखबारों के! जिन्होंने सरदार जी के स्वल्पाहार के बाद ही अपने सुर उनके सुर से मिलाने शुरू कर दिये और समझने लगे कि क्या कोई जान पायेगा! इन सम्पादकों में एक आलोक मेहता प्रमुख हैं, जिन्होंने इस समय आईबीएन-7 पर परिचर्चा के दौरान भी जनता को खूब भरमाने की कोशिश की, लेकिन दुर्भाग्य उनका कि उनकी बात में जनता को साजिश की बू आती दिखाई दी।
        सरकार के मंत्री टेलीविज़न पर कहते देखे गये कि इस बिल से क्या स्कूल में एडमीशन मिल जायेगा? क्या इससे आपका राशन कार्ड बन जायेगा? क्या इससे अस्पताल में भर्ती हो जायेंगे? क्या इससे आपको नौकरी मिल जायेगी? इसका सीधा मतलब है कि छह दशक से शासन करने के बाद भी आम नागरिक को आपने कुछ नहीं दिया सिवाय भ्रम के। फिर किस बिना पर आप सत्ता पर काबिज हैं, आपको तो सत्ता से जितनी जल्दी हो उखाड़ फेंका जाना चाहिए।
        अण्णा को बदनाम करने के लिए एक और मुहिम चलाई गई कि अण्णा संघ से जुड़े हैं और संघ परिवार से समर्थन लेकर काम कर रहे हैं। जैसे संघ परिवार कोई आतंकवादी है! जबकि आतंकवादी को अपने दामाद से भी ज्यादा पूज रहे हैं! आरएसएस वाले भी इस देश के सम्मानित और जिम्मेदार नागरिक हैं। मुझे आज यह लिखने में कोई गुरेज नहीं है कि वे ऐसे कांग्रेसियों से कहीं बेहतर हैं। मैं स्वंय भी एक स्वतन्त्रता सेनानी का पुत्र हूँ, जिसने भारत माता को आजाद कराने के लिए तीन साल की जेल की कड़ी सजा काटी थी, जो एक कांग्रेसी थे, लेकिन आज की कांग्रेस के इस चरित्र को देखते हुए यह सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि उसकी नीयत में खोट ही खोट हैं और उसकी परिणति अपने अन्त की ओर है। मुझे यह लिखने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि कांग्रेस पर विदेशियों ने कब्जा कर लिया है। भारतीय मानसिकता के कांग्रेसी अब इसमें छटपटाहट महसूस कर रहे हैं।
          राजीव गॉंधी की हत्या से पूर्व उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के पॉलिटिकल कू की खबर, उन्हीं के मुख्यमंत्रित्वकाल में छापकर, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गॉंधी को इसी पत्रकार ने सचेत किया था, किन्तु समय से उस रिर्पोट, जो रॉ द्वारा प्रधानमंत्री के सामने क्रास्ड फाइल में रखी गई थी, पर ध्यान ने देने और उसे नजरअन्दाज करने का ही परिणाम था कि वो अब इस दुनिया में नहीं हैं। जिस 65 करोड़ की दलाली का झूंठा ताना बाना बुनकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भोले-भाले और मित्रबाज राजीव गॉंधी को बदनाम किया, उसका बाद में पता चला कि वह दलाली तो राजीव गांधी ने ली ही नहीं थी। ठीक उसी तरह कपिल सिब्बल एण्ड कम्पनी अण्णा हजारे को बदनाम ही नहीं कर रही है, अपितु कांग्रेस सरकार के ताबूत में कीलों का जखीरा ठोंक रही है। कांग्रेस जबतक कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह आदि आधा दर्जन लोगों की बलि नहीं लेगी, उसके सिर से अण्णा नाम का भूत उतरने वाला नहीं।
          सरकार को गुमराह करने के एवज में शीघ्रतिशीघ्र मंत्रीमण्डल से कपिल सिब्बल की छुट्टी कर देनी चाहिए, अन्यथा की स्थिति में कांग्रेस को क्या-क्या भोगना पड़ेगा, यह तो वक्त ही बतायेगा। अण्णा हजारे के सत्याग्रह आन्दोलन पर उंगली वो उठा रहे हैं जो घुटन्ना पहने हैं, जिसे नई पीढ़ी बरमूडा कहती है। अण्णा हजारे के सत्याग्रह आन्दोलन पर उंगली वे लोग उठा रहे हैं, जो कश्मीर के जिहाद को समर्थन देते हैं, और आतंकवादियों व अलगाववादियों से हांथ मिलाकर देश-विरेाधी मंचों पर स्थान साझा करने से नहीं डरते। वे देश भर के संगठनों की सार्वजनिक सक्रियता से भयभीत हो उठते हैं, जो विदेशी रेडियो और चैनलों में कार्यरत हैं, अथवा ऐसे प्रिन्ट मीडिया से जुड़े हैं, जिनके प्रबन्धतंत्र के पास विदेशी सोसाइटियों से लाखों डॉलर प्रतिमाह आते हैं।
        अगली बार ऐसे समाचार-पत्रों की लिस्ट पेश की जायेगी जिनके पास लाखों की विदेशी सहायता आती है। एक के पास तो ब्लैंक चेक आता है। उ0प्र0 विधानसभा में अवमानना की कार्यवाही चार घण्टे तक झेलने वाले भारी भरकम प्रबन्ध सम्पादक के संस्थान को भी विदेशी सोसाइटी से ब्लैंक चेक आता है। इस देश की आम जनता को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ईमानदार नेतृत्व की तलाश थी, जो उसे अण्णा हजारे के रूप में मिल गया है। अब तो यह निर्विवाद रूप से साबित हो चुका है कि अण्णा की मुहिम को राजनीतिक सत्ता की ताकत से कतई नहीं रोका जा सकता है। कांग्रेस के पास दो हथियार दिखाई देते थे, मनमोहन सिंह की ईमानदारी और राहुल गॉंधी का युवा नेतृत्व, लेकिन देानों ही हथियार खिलौने वाले निकले। न तो मनमोहन ईमानदार निकले, ना ही राहुल का नेतृत्व प्रभावशाली निकला। दिग्विजय सिंह के साथ ने उन्हें भी झूंठ की मशीन बना दिया।
      भट्टा-पारसौल के उनके बयान और फिर उनकी किसान नेताओं के साथ प्रधानमंत्री से मुलाकात पर कोई कार्रवाई न होना और इसके बाद बिठौरों में सैकड़ों किसानों के जला दिये जाने के झूंठे और भ्रम तथा हिंसा फैलाने वाले बयानों ने उन्हें स्वंय कटघरे में खड़ा कर दिया। वर्तमान समय में कांग्रेस के दोनों तथाकथित हथियार टॉय-टॉय फिस्स ही नजर आ रहे हैं। मनमोहन सिंह और सोनिया गॉंधी दिमाग खोलकर यह समझें कि इस राजनीतिक संकट से उबरने का एक ही उपाय उनके पास शेष है। अनसुलझे और अभिमानी मंत्रियों की मंत्रीमण्डल से छुट्टी के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
         जनमानस अब सड़क पर आ गया है, और जब जनता सड़क पर आती है तो सरकार क्या संसद को भी सुनना पड़ता है। संसद को एक प्रभावी लोकपाल कानून बनाना चाहिए। जबानी जमा खर्च के दिन लद गये। सत्ता में होने के कारण कांग्रेस ही संकट में है। बाकी राजनीतिक दलों को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि कांगेस और उसकी सरकार से नाराज लोग उन्हें गले लगा लेंगे। कांग्रेस इसी डर से गल्ती और गुण्डई दोनों कर रही है कि इस आन्दोलन का चुनावी फायदा कहीं भाजपा को न मिल जाये। भाजपा को फायदा होगा या नहीं यह तो उनकी करनी बतायेगी, लेकिन कांग्रेस की लुटिया जरूर डूबने वाली है। सतीश प्रधान