अन्ना हजारे को असंवैधानिक और गैरकानूनी रूप से उनके आवास से अनशन करने से पूर्व ही गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेजने वाली
मास्टरमाइण्ड मनमोहन सरकार अनतत्वोगत्वा एक दिन के आन्दोलन पर ही मजबूत पैरों से घुटने के बल आ गई और जन्तर मन्तर पर रामदेव की गिरफ्तारी और उनके सह्योगियों को आतंकियों जैसे व्यवहार से टेरराइज करने वाली सरकार के जरूरत से ज्यादा काबिल, कपिल सिब्बल, पी.चिदम्बरम, दिग्विजय, अभिषेक सिंघवी जैसों की पीठ थपाथपाने लगी। उसे यह गलत फहमी हो गई कि जनता को अथवा जनता से जुड़े मुद्दों को उठाने वाले किसी भी व्यक्ति को सत्ता की शक्ति से आसानी से कुचला जा सकता है।
मनमोहन सरकार को बाबा रामदेव का आन्दोलन भी भारी पड़ता यदि बाबा रामदेव लेडीज सलवार-कमीज पहनकर भागे न होते! अनशन करने आये थे, तो अनशन के हिसाब से चलते। करना था अनशन और इजाजत मांगी योग शिविर लगाने की। जब योग शिविर लगाने की इजाजत ही दो दिन की मिली, एवं लिखकर पहले ही दे आये कि दो दिन में रामलीला मैदान खाली कर देंगे तो फिर उस पर अनशन का आसन क्यों लगा लिया? योग कराने के बहाने अनशन स्थल पर जम जाने और फिर नंगी पुलिसिया कार्रवाई से भयभीत होने की उनकी कार्यशैली ने ही उन्हें कमजोर करके नेपथ्य में छोड़ दिया। रामदेव की डरपोक कार्य शैली से ही केन्द्र सरकार के इरादे आक्रामक हो गये। अपनी इस उपलब्धि पर पगलाई सरकार को यह गुमान हो गया कि वह इस देश में जो चाहे, जैसा चाहे कर सकती है। वकालती दिमाग पर सरदारी दिमाग मात खा गया। वह भूल गया कि अंग्रेज बहादुर उससे बड़ा गुण्डा था, लेकिन सभी प्रकार के दमन में महारत हासिल रखने वाला भी महात्मा गॉंधी को गोली नहीं मार पाया।
दुर्भाग्य देखिए इस देश का कि उन्हें अपने ही देश के काले हिन्दुस्तानी ने गोली मार दी। गोली मारी अथवा मरवा दी गई, अभी भी यह खोज का ही विषय है।
लगभग ऐसी ही मानसिकता के बहुत से लोग मीडिया में भी हैं जो एनआरएचएम के डा0 सचान के साथ घटी घटना को अण्णा के साथ दोहराने की बात कर रहे थे। आठवॉं और दसवॉं पास अपने ही समाचार-पत्र के स्वयंभू ब्यूरो प्रमुख बनने के बाद, ऐसे तथाकथित पत्रकारों को यह भ्रम हो गया कि वे भी बुद्धिजीवी हैं। वे संविधान और संसद की व्याखा करने लगे और पागलों की तरह कहने लगे कि अण्णा संसद से उपर नहीं हैं। क्या अण्णा को किसी ने कहते सुना कि उन्होंने कहा हो कि वे संसद से ऊपर हैं? जब ऐसा कहा ही नहीं गया तो फर्जी नगाड़ा पीटने का क्या औचित्य?
संसद में अपने प्रधानमंत्री ने भी रिजर्व बैंक के पूर्व अनुभव के आधार पर तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की अपनी पुरानी शैली का प्रयोग करते हुए कहा कि संविधान और संसद से बड़ा कोई नहीं। अरे आज पूरा हिन्दुस्तान देख रहा है कि संसद से ऊपर उनके कपिल सिब्बल और संविधान से ऊपर स्वंय मनमोहन सिंह और उनकी सरकार ही है।
क्या समय आ गया है कि भ्रष्टाचार पर बहस वह कर रहा है, जिसका दाना-पानी भ्रष्टाचार के दम पर टिका है। जनता की आकस्मिक और आपातकालीन जरुरतों के लिए बनाये गये मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष से लाखों करोड़ों पी जाने वाले व्यक्ति अण्णा के खिलाफ आग उगल रहे हैं। भूतपूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से करोड़ों रुपया पाये महोदय उनका साथ छोड़कर अब कांग्रेस के यहॉं हाजिरी लगा रहे हैं और दिखावा ऐसा कि गोया सारी केन्द्र सरकार उनकी मर्जी से चल रही है। बाकी फिर कभी...............
अहंकार और नशे में धुत्त सरकार को अण्णा के आन्दोलन की जो रफ्तार दिखाई दी उससे उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे एक नहीं लाखों अण्णा हजारे दिखाई देने लगे। ठीक रामदेव के विपरीत हुआ। तब पुलिसिया कार्रवाई से रामदेव हदस में आये थे, लेकिन अबकी बार पूरी की पूरी सरकार ही हदस में आ गई। जनता की ताकत सरकारों को तब दिखाई देती है, जब वह मूंह के बल गिरने के कगार पर होती है। भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठा जो सरदार लाल किले की प्राचीर से एवं संसद में अपने हेकड़ी भरे अन्दाज में यह कह रहा था कि कोई भी व्यक्ति संविधान और संसद से बड़ा नहीं है,
उसी सरदार ने अण्णा की गिरफ्तारी से लेकर उनकी रिहाई तक के बीच की गई कार्रवाई से संवैधानिक व्यवस्था का ऐसा चीर हरण किया कि उसे इतिहास में दर्ज कर लिया गया है।
सुबह-सुबह गिरफ्तारी, फिर तिहाड़ जेल, तदउपरान्त रात्रि को रिहाई ने सिद्ध कर दिया कि संविधान के एक मात्र ज्ञाता कपिल सिब्बल, पी चिदम्बरम और सरदार जी ही हैं। इस देश में खुशवन्त सिंह के बाप शोभा सिंह जैसे लोगों की तादाद बहुत बढ़ गई है। भ्रष्टाचार की असली देन कांग्रेस पार्टी ही है। अंग्रेज ऐसे लोगों के हांथ भारत की सत्ता सौंप कर गया जो स्वंय भारतीय मानसिकता के नहीं थे। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान उसी मानसिकता की देन है। भारत के सिर पर जबरदस्ती बैठे प्रधानमंत्री सरदार जी का यह स्पष्टीकरण किसके गले उतरने वाला था कि अण्णा के खिलाफ दिल्ली पुलिस की कार्रवाई से केन्द्र सरकार का लेना-देना नहीं। अब कहॉं नेपथ्य में चली गई दिल्ली सरकार और जान बचाने सामने आ गई केन्द्र सरकार! अब तो दिल्ली की
मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का सांसद बेटा ही कह रहा है कि सरकार ने केवल प्रशासनिक दृष्टिकोण ही देखा, इसे राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से नहीं देखा तथा अण्णा हजारे को गिरफ्तार करने की भूल की गई। अण्णा के पत्र का भारत का प्रधानमंत्री जवाब देता है कि अण्णा दिल्ली पुलिस के पास जायें। प्रधानमंत्री कार्यालय का इससे कोई लेना-देना नहीं। अब क्यों केन्द्रीय मंत्रियों को दिल्ली पुलिस का प्रवक्ता बनना पड़ रहा है?
यह वही सरकार है जो दिल्ली पुलिस को आगे करके पीछे से सारे नाटक का मंचन कर रही थी। यह वही मनमोहन की सरकार है जिसकी नाक के नीचे प्रदर्शनकारी रेलवे ट्रैक पर कब्जा जमाये बैठे थे, और वह चैन की बंसी बजा रही थी। जनता की परेशानियों को देखते हुए जब सुप्रीम कोर्ट ने अपना चाबुक चलाया तब जाकर सरकार हरकत में आई थी। तमाम और खास लोगों को अण्णा की गिरफ्तारी से आपातकाल का एहसास हुआ तो कोई गलत नहीं है। अण्णा हजारे से निपटने या निपटाने की रणनीति कांग्रेस को सरकार से जिन्दगी भर के लिए दूर करने वास्ते काफी है। बहुत से अपरिपक्व लोगों का कहना है कि
यह कार्पोरेट घरानों का खेल है। लेकिन क्या कार्पोरेट घराना कांग्रेस के साथ नहीं है? अण्णा हजारे के साथ है! देखिए बाक्स में।
अण्णा के साथ नहीं है, कार्पोरेट घराना
भले ही पूरा देश अण्णा के साथ हो और देशभर में इस आन्दोलन को फैलाने का जज्बा रखता हो लेकिन उघोग जगत जिसे इंडिया इंक के नाम से जाना जाता है सरदार मनमोहन की कृपा से इस बार अण्णा हजारे के साथ नहीं है। पांच माह पहले जब अण्णा ने पहली बार भूख हड़ताल की थी, तब पूरा उघोग जगत उनके साथ था, जिसे सरदार जी ने अपने दबाब में लेकर अपने साथ कर लिया। देश के दो सबसे बड़े और प्रमुख उघोग चेम्बर फिक्की और सीआईआई ने अण्णा की गिरफ्तारी पर सरकार समर्थित बयान जारी किया। ये दोनों संगठन इस वजह से भी नाराज हो गये, क्योंकि अण्णा हजारे ने 15 अगस्त के संवाददाता सम्मेलन में कई बार कहा कि यह सरकार उघोगपतियों की है और उद्योगपतियों के इशारे पर आम आदमी को नुकसान पहुंचा रही है। एक प्रमुख उद्योगपति ने कहा भी कि अण्णा का बयान 1960 और 1970 के दशक की याद दिला गया जब देश में हर गडबड़ी के लिए उघोग जगत को दोषी ठहराया जाता था।
कांग्रेस के साथ तो नेशनल छोड़िये मल्टी-नेशनल्स के मालिकान जुडे हुए हैं। वैसे भी कांग्रेस किस मल्टी-नेशनल से कम है। वह तो अपने आप में एक घराना है।
कार्पोरेट घराना तो पक्ष-विपक्ष, विधायक-सांसद, प्रिन्ट मीडिया-इलैक्टानिक मीडिया, उसमें कार्य करने वाले और तेज-तर्रार बोलने वाले, मन्दिर-मस्जिद, गिरजा-गुरूद्वारा, राजनीतिक पार्टियों-माफियाओं, शासन-प्रशासन, रंगमंच वालों, नर्तकियों-कवियों और ना जाने किन-किन को चन्दा, अनुदान और माहवारी देता है। तो क्या सब भ्रष्ट हो गये। उसकी नियति ही है चन्दा देना। अगर किरण बेदी की किसी संस्था को चन्दा, अनुदान अथवा कोई प्रोजेक्ट मिलता है तो क्या इसी बिना पर आप उन्हें करप्ट घोषित कर देंगे! जिस सरकार ने अपनी सारी ऐजेन्सी भ्रष्टाचारियों के पीछे न लगाकर, अण्णा हजारे के पीछे लगा दी हो कि जाओ कुछ भी ढूंढ कर लाओ! जिसका प्रवक्ता मनीष तिवारी प्रेस कान्फ्रेन्स में श्री अण्णा हजारे को भारतीय आर्मी का भगोड़ा बताता हो और भारतीय आर्मी ने यह प्रमाण दिया हो कि अण्णा को ससम्मान सेवानिवृति देने के साथ ही कई पदक भी उन्हें प्रदान किय गये थे, तो एक राष्ट्रीय पार्टी के प्रवक्ता की गलत बयानी का क्या अर्थ निकाला जाये! बावजूद इसके कुछ भी गलत न निकलने पर भी उसके प्रवक्ता मनीष तिवारी ने प्रलाप लगाया कि अण्णा हजारे तो ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में सना है।
मनीष तिवारी जैसों को शर्म नहीं आती कि किस मुंह से अण्णा को जेल से बाहर निकाला ? मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, चिदम्बरम, अम्बिका सोनी जैसे बददिमाग लोगों की जब तक कांग्रेस बलि नहीं लेगी उसके सोचने समझने की शक्ति वापस नहीं आ सकती। कांग्रेस ने यह जो बड़बोले और दम्भी नेताओं की फौज इक्ठ्ठी कर रखी है, वही उसके पतन का कारण भी बनेगी। भारत वह देश है जहॉं के लोग माता सीता पर भी आरोप लगाने से नहीं चूके तो ये तो अण्णा हजारे हैं।
यह देश लोटा चोरी में जेल गये लेागों को स्वतंत्रता सेनानी बताता है और स्वतंत्रता सेनानी की मुखबिरी एवं उसके खिलाफ गवाही देने वाले को प्रधानमंत्री का पद देता है। उसके नाम के आगे सर की उपाधि लगाता है, उसके नाम पर तिराहे, चैराहे और सड़क का नामकरण किया जाता है। दरअसल ऐसा करता वही है जो स्वंय मुखौटा ओढ़े भारतीय जनता को बेवकूफ बना रहा होता है। ऐसी मानसिकता के लेाग जब इस देश पर अब भी शासन कर रहे हैं तो कैसे यकीन किया जाये कि इस देश में गोरे राज नहीं कर रहे हैं? इस देश में देशी मुखौटे में अंग्रेजी मानसिकता के काले भुसण्ड लोग ही आज भी सत्ता में विराजमान हैं।
मंहगाई, भ्रष्टाचार, हताशा और निराशा में पनपे अनशनों के दौर ने देश के आमलोगों को उद्वेलित कर दिया है। बाबा रामदेव के आन्दोलन पर पुलिसिया अत्याचार और स्वामी निगमानन्द के मौन अनशन से दुर्भाग्यपूर्णं निधन की खबर ने देश को झकझोर कर रख दिया है। स्वामी निगमानन्द गंगा में प्रदूषण के विरोध में आमरण अनशन कर रहे थे, किन्तु किसी ने भी उनकी मौत होने तक उनपर ध्यान नहीं दिया। सरकार के खिलाफ अनशन करना किसी भी अत्याचारी सरकार को नहीं सुहाता। वह खाकी वर्दी को अपना गुलाम समझकर उनसे अनशन कुचलवाने का ही प्रयास करती है। वह नशे में भूल जाती है कि खाकी वर्दी का जन्म जनता के जान-माल की रक्षा के लिए किया गया है, लेकिन ठीक इसके विपरीत वह जनता की जान और माल इस खाकी वर्दी की ठोकर पर रख देती है।
कितनों को पता है कि इसी उ0प्र0 में एकबार पीएसी रिवोल्ट कर चुकी है, तब यहॉं की सरकार को ही जान के लाले पड़ गये थे। भगवान करे ऐसा पूरे देश में ना हो इसीलिए भारत सरकार को सलाह दी जाती है कि नशे को किनारे रखकर सड़क पर धीरे-धीरे आ रही जनता के मिजाज को भांपकर उसके अनुरुप कार्रवाई करे।
64 सालों से जनता लॉली पॉप ही खा रही है। अब वह जो मांगने निकली है, उसे शराफत से नहीं मिला तो उसके परिणाम की जिम्मेदार मनमोहन सरकार की होगी। समस्या पर किसी समझदारी का परिचय देते हुए भ्रष्टाचार पर तुरन्त अंकुश लगाया जाये तथा तुरन्त कडा जनलोकपाल अधिनियम बनाया जाये। मनमोहन मण्डली ने इस देश को बहुत लूट लिया। इस देश में पैदा होने का कुछ तो धर्म निभायें। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि अब उनकी नेकनामी और बदनामी केवल उनतक ही सिमट कर नहीं रह पायेगी, बल्कि पूरे सरदारों के नाम पर गिनी जायेगी। अण्णा का यह अनशन भारत में राजनीतिक अनशन के इतिहास पर एक नज़र डालने का सही समय है।
विनम्र विरोध के इस अदभुत हथियार का प्रयोग करने वाले सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति महात्मा गॉंधी थे, लेकिन ऐसा नहीं है कि अकेले वही ऐसे व्यक्ति थे। कुछ और लोगों ने भी इसका इस्तेमाल किया, जिन्हें आज जानबूझकर भुला दिया गया है। महात्मा गॉंधी अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के भी रोल मॉडल हैं, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह महात्मा गॉंधी हो गये। इसी प्रकार अण्णा हजारे भी महात्मा गॉंधी के अहिंसक आन्दोलन से प्रेरित हैं तो वह भी महात्मा गाँधी न तो हो गये और ना ही उन्होंने कभी ऐसा कहा। उनका तो कहना है कि यदि महात्मा गाँधी की भाषा सरकार नहीं समझेगी तो वह वीर शिवाजी की भाषा भी जानते हैं। वर्तमान का क्षणिक समय, सरकारी पागलखाने की भीड़ द्वारा एक सामान्य चित्त व्यक्ति को पागल और बेवकूफ बनाने का चल रहा है।
जिन और लोगों ने अहिंसक आन्दोलन का सहारा लिया उनमें और अन्यानेक लोग भी थे। लाखों कोलकातावासियों के लिए जतिन दास का नाम महज एक सुविधाजनक मैट्रो स्टेशन है, जहॉं से वे दक्षिण कोलकाता के व्यस्त चौराहे हाजरा तक जाने के लिए उतरते हैं। भीड़ में ऐसे इक्का-दुक्का ही मिलेंगे जो यह बता सकें कि इस मैट्रो स्टेशन और इससे सटे पार्क का नाम जतिन दास क्यों है? जतिन दास ब्रिटिश राज में भारतीय जेलों में राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार के विरोध में 64 दिन तक अनशन करने के बाद शहीद हो गये थे। जतिन ने लाहौर जेल में 13 जुलाई 1929 को अन्य बन्दियों के साथ अनशन शुरू किया था। अंग्रेजों ने उनका अनशन तुड़वाने के लिए तमाम हथकण्डे अपनाये किन्तु जतिन दास को भोजन लेने के लिए मजबूर नहीं कर पाये।
जतिन दास प्रसिद्ध हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य थे। लाहौर जेल में बन्द उनके तीन साथियों- भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई, जबकि जतिनदास 13 सितम्बर 1929 को ही शहीद हो गये थे। पूरी दुनिया में भारत के अलावा आयरलैण्ड ही ऐसा देश है जहॉं भूख हड़ताल विरोध का एक नियमित माध्यम है। अण्णा हजारे और बाबा रामदेव से पहले इस देश के राजनीतिक प्रतिष्ठान को हिला देने वाला और हमेशा के लिए भारत का नक्शा बदल देने वाला आमरण अनशन 1952 में हुआ था।
19 अक्टूबर 1952 को श्रीरामलू अलग आन्ध्रा प्रदेश की मांग पर मद्रास के बीचों-बीच आमरण अनशन पर बैठ गये थे। इससे पूर्व उन्होंने आजादी से पहले 1946 में भी मन्दिरों में निम्न जातियों के प्रवेश के लिए आमरण अनशन किया था। 1952 में केन्द्र में कांग्रेस की ही सरकार थी, जो भाषा के आधार पर नए राज्यों के गठन के खिलाफ थी। श्रीरामलू अनशन पर थे, और उनकी हालत बिगड़ने के बावजूद नेहरू इससे विचलित नहीं हुए, जैसे सरदार जी नहीं हो रहे हैं। नेहरू ने घोषणा भी कर दी कि वह अनशन से विचलित होने वाले नहीं हैं। प्रधानमंत्री के अविचलित रहने के बावजूद आन्ध्र समर्थक श्रीरामलू के पक्ष में लोग लामबन्द होते गये और मद्रास प्रेसीडेन्सी के तेलुगू भाषी क्षेत्रो में जोरदार आन्दोलन शुरू हो गया। 58 दिन के अनशन के बाद 15 दिसम्बर 1952 को श्रीरामलू की मृत्यु हो गई। जैसे ही उनके निधन की खबर फैली स्वतः स्फूर्त विरोध प्रदर्शन, लूटपाट और दंगे पूरे राज्य में फैल गये। अन्ततः अविचलित नेहरू को विचलित होना पड़ा और पृथक राज्य आन्ध्रा प्रदेश का गठन करना पड़ा।
सरकार तो सरकार है, छोटी मोटी मीडिया से जुड़ी अपंजीकृत समितियां के सदस्य और अध्यक्ष भी जब अहंकार में डूबकर अपनी हैसियत भूल जाते हैं और अपने को मुख्यमंत्री समझने लगते हैं तो प्रधानमंत्री की तो बात ही और है। 1 अक्टूबर 1953 को जब आन्ध्रा प्रदेश का जन्म हुआ और राजधानी कुरनूल में कार्यक्रम का आयोजन हुआ तो उसमें शामिल होने वाले दो प्रमुख अतिथियों में प्रधानमंत्री नेहरू और मद्रास के मुख्यमंत्री राजगोपालाचारी ही थे। जबकि ये दोनों ही आन्ध्रा प्रदेश के गठन के कट्टर विरोधी थे। आन्ध्रा प्रदेश के बाद अधिकाधिक राज्यों जैसे केरल, कर्नाटक, हरियाणा, गुजरात आदि का गठन भी भाषाई आधार पर ही हुआ है। यदि
नेहरू का चिन्तन, राजनीतिक सूझ-बूझ और विजन दुरूस्त होता तो श्रीरामलू की जान बच सकती थी। श्रीरामलू के आन्दोलन और अण्णा हजारे के आन्दोलन में जमीन-आसमान का फर्क है। श्रीरामलू की समस्या एक प्रदेश के गठन की थी, अण्णा हजारे की समस्या पूरे देश की है। उस आन्दोलन से एक राज्य का गठन हुआ था और केन्द्र सरकार बच गई थी। इसबार जन लोकपाल भी बनेगा और सरकार भी निपट जायेगी। आप नदी किनारे बैठकर चिंगारी से लगी आग की भीषड़ता का अन्दाजा नहीं लगा सकते!
जिस जनशक्ति के उभार के लिए कांग्रेस सरकार के युवराज और सोनिया के लला मोटर साइकिल पर भट्टा-पारसौल, चोरी-छिपे गये थे और दो दिनों तक अपनी मनमानी की थी, क्या प्रदेश सरकार ने उन्हें फतेहगढ़ की जेल में ठूंस दिया था? जहॉं राख के ढे़र में सैकड़ों लाशों के दफन होने का उन्होंने आरोप लगाया- क्या उनके प्रदेश आगमन पर सरकार ने कोई पाबन्दी लगा दी। जिस बुन्देलखण्ड में जनवरी 2011 से अबतक 570 किसानों ने आत्म हत्या कर ली उसे ज्वलन्त समस्या न मानकर केवल दो किसानों के मारे जाने पर इतने बड़े झूंठ का किला तैयार किया जो राख के विश्लेषण के बाद स्वतः ढह गया। इस कृत्य पर क्या लला राहुल को प्रदेश सरकार ने गिरफ्तार किया! नहीं! क्या राहुल के अनशन पर 22 शर्तों के प्रतिबन्ध के साथ अनुमति दी जाती है? नहीं! बल्कि वे तो प्रदेश में घुसने और कहीं पहुंचने से पहले प्रशासन को इसकी जानकारी देने की भी औपचारिकता नहीं निभाते, तो क्या यह नियम विरुद्ध और प्रदेश सरकार को ठेंगे पर रखने की बात नहीं है। आप पूरे देश की सम्पत्ति धनानन्द की तरह बटोर कर विदेश में जमा करें, ये संविधान सम्मत है और कोई इसके खिलाफ आवाज उठाये तो भ्रष्ट!
मल्लिका शेरावत, कपिल सिब्बल से कहे कि मुझसे बड़े नंगे तो तुम! तुमने तो पूरी सरकार को नंगा कर दिया, मैं तो केवल अपना शरीर ही नंगा करती हू! तो है कोई जवाब सिब्बल के पास।
लोकपाल बिल पर केन्द्र सरकार के मंत्रियों के ऐसे-ऐसे जवाब आये कि सुनकर लगा ये तो द्वारपाल रखे जाने की भी येाग्यता नहीं रखते और सूचना, सूचना प्रौद्योगिकी इत्यादि मंत्रालयों की बागडोर संभाले हुए हैं। सत्याग्रह आन्दोलन पर अण्णा हजारे को तिहाड़ जेल में बन्द करने के सरकार के कदम को कोई सिरफिरा ही सही ठहरा सकता है। यहॉं यह बताना नितान्त जरूरी हो गया है कि पराजय के कगार पर खड़ा हर तानाशाह जनता की आवाज को बन्दूक और तोप की ताकत से ही कुचलने की रणनीति अपनाता है, और उस पर ऐंठकर कहता है कि-है कोई माई का लाल जो मेरे सामने आये।
वह भूल जाता है कि माई/नियति ने उसके लिए क्या सोचा हुआ है, ये तो उसे पता ही नहीं है।
मनमोहन सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि उसकी ही कांग्रेस सरकार की आयरन लेडी इन्दिरा गॉंधी को इमरजेन्सी लगाने का खामियाजा ही नहीं भुगतना पड़ा था, अपितु मॉफी भी मांगनी पड़ी थी। हाईकोर्ट इलाहाबाद के एक जज माननीय जगमोहन लाल सिन्हा ने इन्दिरा गॉंधी की बैण्ड बजा दी थी। इस समय तो सिन्हा जैसे कई एक जज मा0 सुप्रीम कोर्ट की शोभा बढ़ा रहे हैं।
एक 74 वर्ष का नौजवान गॉंधीवादी, जीवन की अन्तिम बेला में, वेश्या प्रवत्ति के भ्रष्टाचार के खिलाफ आम नागरिक के ज्वार का नेतृत्व करने आया है तो आप की सरकार उसे जेल में ठूंस देगी? महाराष्ट्रीयन और यू0पी0-बिहार की विभाजन रेखा के बीच बांधने का प्रयास करेगी! एक ईमानदार शख्सियत को जबरन भ्रष्ट बताने की कोशिश एक राष्ट्रीय पार्टी के मंच से उसका प्रवक्ता करेगा। मनीष तिवारी ने एक ऐसे बुजुर्ग पर जो कभी जोर से नहीं बोलता, अपशब्द नहीं कहता, जो सरकार से बात करने के लिए हमेशा तत्पर रहता है, जिसने भ्रष्टाचार के विरुद्ध बिल लाने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के मुखियाओं के दरवाजे खटखटाये लेकिन उसके विरुद्ध आपका प्रवक्ता विष वमन करेगा, आप सत्ता के नशे में उसे जबरदस्ती जेल भेज देंगे। इसका खामियाजा तो आपको भुगतना ही पड़ेगा।
जो नेता, जानवरों का पूरा चारा खा गया वह अण्णा हजारे के खिलाफ बोल रहा है, केवल इसलिए कि कांग्रेस कुछ झूठन उसकी झोली में भी डाल दे। कड़े से कड़ा लोकपाल अधिनियम का प्रारूप बनाने की बात सोनिया गॉधी, सरदार जी, कपिल सिब्बल, पी चिदम्बरम आदि ने की थी, लेकिन उसके बाद देश को बेवकूफ बनाने का काम किया। श्री अण्णा हजारे ने एकदम सही कहा कि सरकार ने धोका दिया। सरकार ने इस भारत में मीडिया का एक एल्सेशियन वर्ग पैदा कर दिया जो लेाकपाल के औचित्य पर ही सवाल उठाने लगा। इतने बड़े मुद्दे पर देश के प्रधानमंत्री को 125 करोड़ की जनता के पास मैसेज भिजवाने के लिए सिर्फ पांच सम्पादक ही मिले, वह भी क्षेत्रीय अखबारों के! जिन्होंने सरदार जी के स्वल्पाहार के बाद ही अपने सुर उनके सुर से मिलाने शुरू कर दिये और समझने लगे कि क्या कोई जान पायेगा! इन सम्पादकों में एक आलोक मेहता प्रमुख हैं, जिन्होंने इस समय आईबीएन-7 पर परिचर्चा के दौरान भी जनता को खूब भरमाने की कोशिश की, लेकिन दुर्भाग्य उनका कि उनकी बात में जनता को साजिश की बू आती दिखाई दी।
सरकार के मंत्री टेलीविज़न पर कहते देखे गये कि इस बिल से क्या स्कूल में एडमीशन मिल जायेगा? क्या इससे आपका राशन कार्ड बन जायेगा? क्या इससे अस्पताल में भर्ती हो जायेंगे? क्या इससे आपको नौकरी मिल जायेगी? इसका सीधा मतलब है कि छह दशक से शासन करने के बाद भी आम नागरिक को आपने कुछ नहीं दिया सिवाय भ्रम के। फिर किस बिना पर आप सत्ता पर काबिज हैं, आपको तो सत्ता से जितनी जल्दी हो उखाड़ फेंका जाना चाहिए।
अण्णा को बदनाम करने के लिए एक और मुहिम चलाई गई कि अण्णा संघ से जुड़े हैं और संघ परिवार से समर्थन लेकर काम कर रहे हैं। जैसे संघ परिवार कोई आतंकवादी है! जबकि आतंकवादी को अपने दामाद से भी ज्यादा पूज रहे हैं! आरएसएस वाले भी इस देश के सम्मानित और जिम्मेदार नागरिक हैं। मुझे आज यह लिखने में कोई गुरेज नहीं है कि वे ऐसे कांग्रेसियों से कहीं बेहतर हैं। मैं स्वंय भी एक स्वतन्त्रता सेनानी का पुत्र हूँ, जिसने भारत माता को आजाद कराने के लिए तीन साल की जेल की कड़ी सजा काटी थी, जो एक कांग्रेसी थे, लेकिन आज की कांग्रेस के इस चरित्र को देखते हुए यह सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि उसकी नीयत में खोट ही खोट हैं और उसकी परिणति अपने अन्त की ओर है। मुझे यह लिखने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि कांग्रेस पर विदेशियों ने कब्जा कर लिया है। भारतीय मानसिकता के कांग्रेसी अब इसमें छटपटाहट महसूस कर रहे हैं।
राजीव गॉंधी की हत्या से पूर्व उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के पॉलिटिकल कू की खबर, उन्हीं के मुख्यमंत्रित्वकाल में छापकर, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गॉंधी को इसी पत्रकार ने सचेत किया था, किन्तु समय से उस रिर्पोट, जो रॉ द्वारा प्रधानमंत्री के सामने क्रास्ड फाइल में रखी गई थी, पर ध्यान ने देने और उसे नजरअन्दाज करने का ही परिणाम था कि वो अब इस दुनिया में नहीं हैं। जिस 65 करोड़ की दलाली का झूंठा ताना बाना बुनकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भोले-भाले और मित्रबाज राजीव गॉंधी को बदनाम किया, उसका बाद में पता चला कि वह दलाली तो राजीव गांधी ने ली ही नहीं थी। ठीक उसी तरह कपिल सिब्बल एण्ड कम्पनी अण्णा हजारे को बदनाम ही नहीं कर रही है, अपितु कांग्रेस सरकार के ताबूत में कीलों का जखीरा ठोंक रही है। कांग्रेस जबतक कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, दिग्विजय सिंह आदि आधा दर्जन लोगों की बलि नहीं लेगी, उसके सिर से अण्णा नाम का भूत उतरने वाला नहीं।
सरकार को गुमराह करने के एवज में शीघ्रतिशीघ्र मंत्रीमण्डल से कपिल सिब्बल की छुट्टी कर देनी चाहिए, अन्यथा की स्थिति में कांग्रेस को क्या-क्या भोगना पड़ेगा, यह तो वक्त ही बतायेगा। अण्णा हजारे के सत्याग्रह आन्दोलन पर उंगली वो उठा रहे हैं जो घुटन्ना पहने हैं, जिसे नई पीढ़ी बरमूडा कहती है। अण्णा हजारे के सत्याग्रह आन्दोलन पर उंगली वे लोग उठा रहे हैं, जो कश्मीर के जिहाद को समर्थन देते हैं, और आतंकवादियों व अलगाववादियों से हांथ मिलाकर देश-विरेाधी मंचों पर स्थान साझा करने से नहीं डरते।
वे देश भर के संगठनों की सार्वजनिक सक्रियता से भयभीत हो उठते हैं, जो विदेशी रेडियो और चैनलों में कार्यरत हैं, अथवा ऐसे प्रिन्ट मीडिया से जुड़े हैं, जिनके प्रबन्धतंत्र के पास विदेशी सोसाइटियों से लाखों डॉलर प्रतिमाह आते हैं।
अगली बार ऐसे समाचार-पत्रों की लिस्ट पेश की जायेगी जिनके पास लाखों की विदेशी सहायता आती है। एक के पास तो ब्लैंक चेक आता है।
उ0प्र0 विधानसभा में अवमानना की कार्यवाही चार घण्टे तक झेलने वाले भारी भरकम प्रबन्ध सम्पादक के संस्थान को भी विदेशी सोसाइटी से ब्लैंक चेक आता है। इस देश की आम जनता को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ईमानदार नेतृत्व की तलाश थी, जो उसे अण्णा हजारे के रूप में मिल गया है। अब तो यह निर्विवाद रूप से साबित हो चुका है कि अण्णा की मुहिम को राजनीतिक सत्ता की ताकत से कतई नहीं रोका जा सकता है। कांग्रेस के पास दो हथियार दिखाई देते थे, मनमोहन सिंह की ईमानदारी और राहुल गॉंधी का युवा नेतृत्व, लेकिन देानों ही हथियार खिलौने वाले निकले। न तो मनमोहन ईमानदार निकले, ना ही राहुल का नेतृत्व प्रभावशाली निकला। दिग्विजय सिंह के साथ ने उन्हें भी झूंठ की मशीन बना दिया।
भट्टा-पारसौल के उनके बयान और फिर उनकी किसान नेताओं के साथ प्रधानमंत्री से मुलाकात पर कोई कार्रवाई न होना और इसके बाद बिठौरों में सैकड़ों किसानों के जला दिये जाने के झूंठे और भ्रम तथा हिंसा फैलाने वाले बयानों ने उन्हें स्वंय कटघरे में खड़ा कर दिया। वर्तमान समय में कांग्रेस के दोनों तथाकथित हथियार टॉय-टॉय फिस्स ही नजर आ रहे हैं। मनमोहन सिंह और सोनिया गॉंधी दिमाग खोलकर यह समझें कि इस राजनीतिक संकट से उबरने का एक ही उपाय उनके पास शेष है। अनसुलझे और अभिमानी मंत्रियों की मंत्रीमण्डल से छुट्टी के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।
जनमानस अब सड़क पर आ गया है, और जब जनता सड़क पर आती है तो सरकार क्या संसद को भी सुनना पड़ता है। संसद को एक प्रभावी लोकपाल कानून बनाना चाहिए। जबानी जमा खर्च के दिन लद गये। सत्ता में होने के कारण कांग्रेस ही संकट में है। बाकी राजनीतिक दलों को यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि कांगेस और उसकी सरकार से नाराज लोग उन्हें गले लगा लेंगे।
कांग्रेस इसी डर से गल्ती और गुण्डई दोनों कर रही है कि इस आन्दोलन का चुनावी फायदा कहीं भाजपा को न मिल जाये। भाजपा को फायदा होगा या नहीं यह तो उनकी करनी बतायेगी, लेकिन कांग्रेस की लुटिया जरूर डूबने वाली है। सतीश प्रधान

