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Tuesday, August 15, 2017

मुफ्त मुफ्त का खाके महबूबा गईं पगलाय

         हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों के खून पसीने की कमाई खा-खा कर महबूबा मुफ्ती पागलों की तरह बर्ताव करने लगी हैं। जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के देशद्रोही बोलअगर संविधान के अनुच्छेद 370 और 35- से छेड़छाड़ की गई तो कश्मीर में तिरंगा उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा। वो शायद भूल रही हैं कि तिरंगा वो झंडा है जो उनकी मृत्यु पर उनको भी नसीब नहीं होगा। उनको पता नहीं कि तिरंगा नसीब वाले लोगों को ही नसीब होता है,किसी ऐरे गैरे को नहीं।और महबूबा मुफ्ती इसी कैटेगरी मैं आती हैं।     
         जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का एक फलसफिया बयान है किआप किसी विचार को कैद नहीं कर सकते। आप किसी विचार को मार नहीं सकते।इसका अहसास उन्हें शायद तब हुआ जब राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए हुर्रियत के सात लोगों को गिरफ्तार कर दिल्ली ले आई और सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में आतंकियों के  मारे जाने का सिलसिला तेज हो गया। एनआइए की कार्रवाई से ठीक एक दिन पहले 28 जुलाई को नई दिल्ली की एक संगोष्ठी में उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा था, गौरतलब है कि इससे पहले 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 35- को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के लिए विशेष पीठ का गठन किया गया था। नए राष्ट्रपति के शपथ ग्र्रहण समारोह में शिरकत करने के तुरंत बाद महबूबा ने आतंकियों के कृत्यों को जस्टिफाय करने के लिए उक्त विचार रखे। आखिर ऐसा क्यों है कि जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती देशद्रोही बयान देने के बावजूद अपने पद पर काबिज हैं? सवाल यह भी है कि उनको  सत्ता में बनाये रखना  भाजपा की कौन सी मजबूरी है कि वह उन्हें ढोये चले जा रही है? भले ही महबूबा के करतब  नए हों, लेकिन ऐसे तुर्रे छेड़ने की उनकी आदत खासी पुरानी है।
          इसी साल 17 मार्च को महबूबा ने कहा था कि राज्य के कुछ हिस्सों से अफस्पा कानून को हटा देना चाहिए। उन्होंने यह बयान तब दिया था जब सुरक्षा बलों की आतंकियों से मुठभेड़ आम हो चली थी। इन मुठभेड़ों के दौरान सुरक्षा बलों पर पत्थरबाज छोड़ दिए जाते थे। अब तो जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती विदेश नीति में भी खासी दिलचस्पी दिखा रही हैं। 18 मार्च को मुंबई में मोदी सरकार को एक बिन मांगी सलाह देते हुए उन्होंने कहा था कि भारत को चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी से जुड़ जाना चाहिए, क्योंकि इससे कश्मीर का मध्य एशिया के साथ जुड़ाव काफी फायदेमंद साबित होगा। उन्होंने ऐसा कहने से पहले इस परियोजना के विरोध में भारत सरकार की उस घोषित नीति का भी लिहाज नहीं किया जिसके तहत उसे गुलाम कश्मीर में चीन के दखल को औपचारिक और स्थाई बताते हुए खारिज किया गया था। मुख्य विपक्षी-दल कांग्रेस तो छोड़िए, अमूमन चीन की ओर झुकाव रखने वाले वामपंथी भी ऐसा कहने का दुस्साहस नहीं करते, लेकिन भाजपा के समर्थन से सरकार चला रहीं महबूबा आए दिन उसे मुंह चिढ़ाते हुए लक्ष्मण रेखा लांघ रही हैं और भाजपाई मजबूरन धृतराष्ट्रवादी बनने को मजबूर हैं। 
          
          अगर भाजपा की विवशता को समझना है तो उस समझौते को देखना होगा जिसके आधार पर दोनों दलों का गठजोड़ टिका है। जिन शर्तों पर यह सरकार बनी है उससे यही लगता है कि भाजपा ने पीडीपी के समक्ष समर्पण कर रखा है। समझौते की एक शर्त यह है कि भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य के दर्जे सहित सभी कानूनों को यथावत रखा जाएगा। तीन साल तक सुप्रीम कोर्ट में जवाब टालते हुए केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 35- पर अपना पक्ष रखने से यह कहते हुए इन्कार कर दिया कियह अति संवेदनशील मामला है।दूसरी ओर महबूबा 35- को लेकर बेचैन क्या पागल सी दिख रही हैं।
          इस मामले में दौड़ते दौड़ते उन्होंने फारूख अब्दुल्ला से भी मुलाकात कर डाली। गठबंधन की शर्तों में यह भी शामिल है कि केंद्र सरकार कश्मीर में हालात की पुन: समीक्षा कर उसे अपीड़ित क्षेत्र घोषित कर अफस्पा की आवश्यकता पर पुनर्विचार करे।राजनीतिक पहलके तहत पाकिस्तान से बातचीत शुरू करना और रिश्ते सुधारने की भी बात है। लगता है कि यही वजह रही कि भारत ने पाकिस्तान के साथ अपनी ओर से जो वार्ता बंद की उसी को प्रधानमंत्री ने अपमान का घूंट पीकर 23 फरवरी, 2015 को स्वयं शुरू किया।
आज कोई और नहीं, बल्कि महबूबा ही पाकिस्तान से बातचीत शुरू करने के लिए लगातार दबाव बना रही हैं। विदेश नीति के मोर्चे पर शायद ही किसी मुख्यमंत्री ने सरकार की इतनी फजीहत की हो, जितनी महबूबा करती रही हैं। 
          बहरहाल इसके लिए महबूबा और उनकी पार्टी पीडीपी की पृष्ठभूमि को समझना बेहद जरूरी है। महबूबा के पिता और पार्टी के संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद खानदानी मुफ्ती यानीमजहबी कानूनके ज्ञाता थे। उन्होंने कांग्र्रेस के साथ अपने सियासी सफर का आगाज किया फिर नेशनल कांफ्रेंस की लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए उन्हें जमात--इस्लामी के नेतृत्व और संगठन की शरण में जाना पड़ा। वहीं अलगाववाद के झंडाबरदार और हुर्रियत के सरगना सैयद अली शाह गिलानी(आतंकियों का साथ देने वाला देश का गद्दार नेता) के साथ उनके रिश्तों की बुनियाद पड़ी। कांग्र्रेस की राजनीति करते हुए भी उनकी जहनियत पर इस्लाम का ही ज्यादा असर रहा।
          धयान रहे कि 1990 के विस्थापन से पहले घाटी के हिंदू समुदाय ने 1986 में अनंतनाग के दंगों की विभीषिका झेली थी। उसमें हिंदुओं का बड़े पैमाने पर कतलेआम किया गया तथा जान-माल का नुकसान हुआ था। 40 से अधिक मंदिरों को लूटखसोट कर आग के हवाले कर दिया गया था। मुफ्ती के गृहनगर का यह तांडव मुफ्ती मोहम्मद सईद की शह पर ही हुआ था।
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          राज्य विधानसभा चुनाव के बाद महबूबा मुफ़्ती दिल्ली में थीं। एक मीडिया संस्थान के कार्यक्रम में उनसे जब पूछा गया कि चुनाव नतीजे 23 दिसंबर को ही गए तो नई सरकार के शपथ ग्र्रहण में एक मार्च तक की देरी क्यों हो गई? तब महबूबा के मुंह से अनायास ही निकल आया कि हुर्रियत को मनाने में हफ्तों निकल गए। इससे जाहिर होता है कि उनके पिता ने शपथ लेते ही सबसे पहले हुर्रियत और पाकिस्तान को धन्यवाद क्यों दिया और वह भी प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी में। 
          यह भी समझ आता है कि गठबंधन की शर्तों में पाकिस्तान के साथ बातचीत की शर्तों पर इतना जोर क्यों है और इस पर भाजपा ने घुटने क्यों टेके? यह वही महबूबा हैं जिन्होंने 2008 में कांग्रेस के साथ अपनी ही गठबंधन सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। तब उन्हें श्रीअमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन पर कड़ा एतराज था। जमीन 16 हजार फीट ऊंचाई पर यात्रियों के प्राथमिक उपचार और दूसरी बुनियादी सुविधाओं के लिए आवंटित की गई थी जिनके अभाव में कई वर्षों से तीर्थयात्रियों की मौत हो रही थी। 
          विरोध के पीछे उनकी दलील थी कि यह कश्मीर का जनसंख्या अनुपात बदलने की साजिश है, जबकि इतनी ऊंचाई पर आम इंसानी बसावट कोई आसान बात नहीं है। यह भूमि भी अस्थाई निर्माण के लिए थी। जब राज्यपाल ने असहमति जताई तो राज्यपाल को ही बदल दिया गया और आवंटन रद कराया गया। वर्ष 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी के एक कार्यक्रम में तत्कालीन रॉ प्रमुख एएस दुलत ने मंच पर महबूबा को जगह भी नहीं दी थी। इसके पीछे वजह यही बताई गई कि भारतीय गुप्तचर एजेंसियों ने महबूबा की हिजबुल कमांडरों से नजदीकियां ताड़ ली थीं। 
          अब उन्हीं महबूबा को यह मुगालता हो गया है कि कश्मीर में तिरंगा उनके हाथों का मोहताज बन गया है। जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को पता नहीं कि तिरंगे की मोहताज़ मुफ़्ती हो सकती हैं तिरंगा नहीं  अच्छा होता कि भाजपा उनसे यह कहे कि कश्मीर में तिरंगा उनसे पहले भी फहरता रहा है और उनके बाद भी बदस्तूर लहराता रहेगा।
सतीश प्रधान
(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार,स्तम्भकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार है)



Wednesday, May 10, 2017

ईरानी संसद पर हमला, 3 हमलावर अंदर घुसे

ईरान की संसद समेत देश के तीन बड़े स्थानों पर सिलसिलेवार हमला हुआ है। बुधवार को 3 आत्मघाती हमलावर संसद परिसर में घुस गए और गोलीबारी शुरू कर दी। इसमें एक गार्ड की मौत हो गई । खबरों में बताया कि संसद पर हुए हमले में 7 लोग मारे गए हैं और 4 लोगों को बंधक बनाया गया है, हालांकि इस जानकारी की पुष्टि नहीं हो सकी है। ईरानी संसद के साथ ही दक्षिणी तेहरान के इमाम खमैनी मकबरे पर भी हमला किया गया। यहां एक आत्मघाती हमलावर ने खुद को उड़ा दिया। स्थानीय मीडिया के मुताबिक,खुद को उड़ाने वाली यह हमलावर एक महिला थी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, खमैनी मकबरे पर हमला करने वाले 3 लोग थे। इनमें से एक आत्मघाती हमलावर ने खुद को उड़ा लिया और बाकी 2 हमलावरों को सुरक्षाकर्मियों ने जिंदा गिरफ्तार कर लिया, लेकिन बाद में इनमें से एक ने सायनाइड खाकर अपनी जान दे दी। सेंट्रल तेहरान के इमाम खमैनी मेट्रो स्टेशन पर भी धमाके की आवाज सुनी गई है। धमाके के कारणों का पता नहीं चल पाया है। 

Friday, January 20, 2017

डायनेमिक पर्सनालिटी आज लेगी शपथ

डायनेमिक पर्सनालिटी, डोनाल्ड जॉन ट्रंम्प आज दिनांक 20 जनवरी 2017 को 45वें अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे।

कडे़ सुरक्षा इंताजामात के बीच चलने वाला यह समारोह 19 जनवरी 2017 से शुरू हो चुका है। कैपिटल हिल में होने वाले मुख्य समारोह से पहले लिंकन मेमोरियल पर हॉलीवुड के साथ-साथ बॉलीवुड के लोग भी अपनी छटा बिखेरेंगे। पूर्व मिस इण्डिया मनस्वी ममगई के नेतृत्व में 30 भारतीय कलाकारों ने प्रस्तुति दी है।
सात मिनट के इस कार्यक्रम की मुंबई के कोरियोग्राफर सुरेश मुकुन्द ने तैयार किया था। 20 जनवरी 2017 को सम्पन्न होने वाले इस शपथ ग्रहण समारोह का थीम ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन‘ है।


मुख्य न्यायाधीस जॉन रॉबर्ट्स शपथ दिलायेंगे। इस मौके पर राष्ट्रपति ट्रम्प दो बाइबिलों की शपथ लेंगे उनमें से एक वह होगी, जिसकी शपथ अब्राहम लिंकन ने ली थी, दूसरी वह होगी, जिसे ट्रम्प की माता श्री ने उन्हें बचपन में भेंट की थी।

भारत में भी ट्रम्प के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने पर आयोजन हो रहे हैं, और खुशियां मनाकर मिठाईयां बांटी जा रही हैं। स्तम्भकार, सतीश प्रधान द्वारा भी राष्ट्रपति ट्रम्प को बधाई पेषित की जा रही है, और विश्वास व्यक्त किया जा रहा है कि मा0 डोनाल्ड ट्रम्प के डायनेमिक निर्देशन में विश्व को एक नई राह मिलेगी। ट्रम्प जी को बहुत-बहुत बधाई।

अमेरिका का राष्ट्रपति हिन्दू भी हो सकता है



वाशिंगटन। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने आखिरी संवाददाता सम्मेलन में अपने अनुभव के आधार पर उम्मीद जताई कि भविष्य में किसी भी धर्म एवं मूल का कोई भी व्यक्ति (महिला/पुरूष) अमेरिका का राष्ट्रपति हो सकता है।
उनका कहना है कि यदि हम हर किसी के लिए अवसर बनाये रखते हैं, तो निश्चित रूप से हमारे पास एक महिला राष्ट्रपति भी होगी। ऐसा उन्होंने हिलेरी क्लिंटन के परिपेक्ष्य में ही कही है क्योंकि इस चुनाव में मिसेज क्लिंटन को सपोर्ट कर रहे थे। आगे उन्होंने कहा कि लैटिन मूल का राष्ट्रपति भी होगा, यहूदी राष्ट्रपति भी होगा और हिन्दू भी राष्ट्रपति होगा।

ओबामा वर्ष 2008 में अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति चुने गये थे, इससे पूर्व का इतिहास केवल श्वेत राष्ट्रपति होने का ही रहा है! उन्होंने कहा कि अमेंरिका में हर नस्ल की प्रतिभा विकसित हो रही है, और यही अमेरिका की ताकत भी है।
उनका कहना है कि जब हमारे पास हर किसी को अवसर देने की शक्ति है, और हर कोई अपने क्षेत्र में बना हुआ है तो इसका परिणाम भी हमें ही मिलेगा।


Tuesday, January 10, 2017

ओबामा सत्ता के सुगम हस्तांतरण के बजाय इसे टिकलिस बना रहे हैं?

   
    
        ट्रम्प अमेरिकी जनता द्वारा विधिवत चुने गये प्रेसीडेन्ट हैं, फिर क्यों बराक ओबामा सत्ता के सुगम हस्तांतरण के बजाय इसे टिकलिस बना रहे हैं?
जबकि दुनियाभर के लोगों को याद रखना चाहिए की, ट्रम्प लीक पर चलने वाले व्यक्ति नहीं हैं, और उन्हें सत्ता प्राप्त करने में मात्र दो सप्ताह का ही समय शेष हैं। आगामी 20 जनवरी को वे अमेरिका का प्रेसीडेन्ट पद प्राप्त कर लेंगे, फिर क्यों निवर्तमान होने जा रहे राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने अन्तिम समय में ऐसा कार्य करने जा रहे हैं, जिससे राष्ट्रपति ट्रम्प को परेशानी हो।

सभी जानते हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प  एक क्रांतिकारी राष्ट्रपति हैं, वो जो करना चाहेंगे, उसे करने से उन्हें कोई रोक नहीं सकता, ठीक उसी तरह, जैसे भारत के प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी को कोई भी शख्शियत उन्हें वो करने से नहीं रोक सकती, जो की वो करना चाहते हैं। उनका नोटबन्दी का फैसला, चाहकर भी न्यायालय रोक नहीं पाया, जबकि उसकी पूरी इच्छा नोटबन्दी के फैसले को पलटने की थी, लेकिन सभी की अपनी-अपनी मजबूरियां रहीं, जबकि नमो (नरेन्द्र मोदी) की कोई मजबूरी ना तो थी और ना ही है।
ओबामा को डोनाल्ड ट्रम्प की धूआंधार ट्वीट से ही समझ लेना चाहिए था कि वे किस व्यक्तित्व के इंसान हैं। उनसे टकराकर कोई, कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता? ट्रम्प की कार्यर्शली का भी विश्व को दीदार होना चाहिए। देखा जाना चाहिए कि उनके शासन से अमेरिका को और विश्व को क्या मिलने वाला है। सारी अर्थव्यवस्था, मात्र धुरन्धर कहे जाने वाले अर्थशास्त्रीयों के भरोसे ही निबटा ली जाती तो, किसी भी देश में अर्थशास्त्रीयों की कमी नहीं है। बड़े-बड़े पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री सभी देश में हैं, लेकिन उनकी प्रतिबद्धता केवल पूंजीपति पैदा करने के प्रति ही समर्पित है।

समझ में नहीं आता कि रूस की तरफ नरम रुख एवं दोस्ती को आतुर, अमेरिका के भावी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के लिए राष्ट्रपति पद से मात्र दो सप्ताह में विदा होने वाले राष्ट्रपति बराक ओबामा, उलझने क्यों छोड़ कर जाना चाहते हैं और काली नस्ल पर धब्बा क्यों लगाना चाहते हैं।
उन्हें तो शांतिपूर्वक और बगैर किसी दुराग्रह के भावी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को सत्ता सौंप देनी चाहिए।
उन्होंने ऐसा माहौल क्यों बनाया कि भावी राष्ट्रपति ट्रम्प को सत्ता के सुगम हस्तांतरण में अडंगा डालने का ट्वीट करना पड़ा। ये बहुत ही गंभीर मामला है, और यदि नहीं होता तो, हवाई में परिवार संग सालाना छुट्टियां मना रहे निवर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा को डोनाल्ड ट्रम्प को फोन पर बात करने की आवश्यकता ना पड़ती। ओबामा को स्मरण रहना चाहिए था कि ट्रम्प छुपे हुए राजनीतिज्ञ हैं, वे सीधे-सपाट और बोल्ड व्यक्तित्व के धनी हैं और जो कुछ उन्हें महसूस होगा, उसे बोलने में तनिक भी हिचकिचाने वाले नहीं हैं।
ऐसा शायद विश्व के इतिहास में पहली बार होने जा रहा है कि शू्रड पॉलिटीशियन के स्थान पर अमेरिका जैसे देश का राष्ट्रपति एक धुंआधार व्यक्तित्व का धनी इंसान होने जा रहा है, जो अपने फैसलों से विश्व को आश्चर्यचकित जरूर करेगा।
राष्ट्रपति का पद छोड़ते-छोड़ते भी निवर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा रूस द्वारा साइबर हमले के जबाब में प्रतिबन्धों की ऐसी व्यवस्था करना चाहते हैं, जिसे ट्रम्प जैसा राष्ट्रपति बदल ना पाये, लेकिन इसे बराक ओबामा की नादानी ही कहा जायेगा।
विश्व के इतिहास में यह पहली बार देखने को मिला है कि यूनाइटेड नेशन पर भी किसी ने पहली बार गंभीर टिप्पणी की है। उन्होंने कहा है कि वैश्विक संस्था यू0एन0 समस्याओं को सुलझाने के स्थान पर उन्हें उलझाता नहीं, बल्कि पैदा करता है। उन्होंने फ्लोरिडा में कहा कि यू0एन0 के पास इतनी अधिक क्षमतायें हैं, लेकिन वह अपनी क्षमताओं का पूरा इस्तेमाल नहीं कर रहा है। साथ ही उन्होंने सवाल भी दाग दिया कि आपने यू0एन0 को समस्याओं को सुलझाते कब देखा? वे ऐसा नहीं करते। वे समस्यायें पैदा करते हैं, इसके अलवा भी बहुत सी बातें हैं जो सार्वजनिक तौरपर नहीं कही जा सकतीं, लकिन वे इन बातों पर गम्भीरता से विचार करते हैं।
इसी के साथ सदस्य देशों की भूमिका से भी वे असंतुष्ट दिखाई दिये। वैसे तो अभी हाल ही में 12 दिसम्बर को यू0एन0 के महासचिव पद की शपथ एंटोनियो गुटेरेस ने लेने के साथ ही स्पष्ट किया है कि वे ‘सेतुनिर्माता‘ की भांति कार्य करेंगे। लेकिन लगता है, पहले तो उन्हें आगामी राष्ट्रपति ट्रम्प को ही संतुष्ट करना पड़ेगा।

ट्रम्प की यह अति गंभीर टिप्पणी है कि विश्व निकाय (यू0एन0) के 193 देश बातचीत और समय बिताने के अलावा कुछ नहीं करते। मेरा भी नजरिया डोनाल्ड ट्रम्प से ही मेल खाता है कि यू0एन0 मात्र एक सफेद हाथी है, जिस पर शान की सवारी की जा रही है।
वैसे तो निवर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जाते-जाते रूस पर शिकंजा कसने की तैयारी कर ली है, लेकिन ये कितने दिनों और घन्टों की होगी, यह तो वक्त ही बतायेगा। राष्ट्रपति चुनावों के दौरान साइबर हमलों के जवाब में रूस के खिलाफ प्रतिबन्ध लगाने के तौर पर रूस के 35 अधिकारियों को देश छोड़ने का आदेश दिया गया है। दो रूसी परिसर बंन्द करने के अलावा नौ इकाईयों पर भी प्रतिबन्ध लगाया गया है। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान रूसी हैकिंग के जवाब में ये कदम उठाये हैं।
दरअसल अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा का मानना है कि अमेरिका में समपन्न हुए राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत सुनिश्चित कराने के लिए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने साइबर हमले कराये। उन्होंने डोनाल्ड की डेमोक्रेटिक प्रतिद्वन्दी हिलेरी क्लिंटन को बदनाम करने के लिए अभियान चलाने का आदेश दिया था।
ओबामा के जॉंच आदेश पर खुफिया विभाग द्वारा सौंपी गई 31 पन्नों की रिर्पोट का सार यह है।
1 पुतिन ने 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने के लिए व्यापक साइबर अभियान चलाने का आदेश दिया।
2 इसका मकसद लोकतन्त्र में जनता का भरोसा कमजोर करना, हिलेरी को बदनाम करना और उनकी जीत की संभावना को नुकसान पहुंचाना था।
3 रूसी खुफिया अधिकारियों ने डेमोक्रेटिक नेशनल कमेटी और वरिष्ठ डेमोक्रेट नेताओं के ई-मेल जारी करने के लिए विकिलीक्स, डिसीलीक्स और गुसिफर की मदद ली।
4 इन दावों के समर्थन और पुतिन की सीधी भूमिका को लेकर रिर्पोट में किसी तरह के सुबूत नहीं दिये गये हैं।
इस पर डोनाल्ड ट्रम्प की प्रतिक्रिया ये है।
अ रूस, चीन सहित कई देश और समूह अमेरिकी संस्थानों के बुनियादी साइबर ढ़ंाचे को लगातार तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन, चुनाव के परिणाम पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।
ब रिपब्लिकन नेशनत कमेटी को हैक करने का प्रयास किया गया था, लेकिन हैंिकंग से बचने की मजबूत सुरक्षा प्रणाली के कारण हैकर विफल रहे।
स पद संभालने के 90 दिनों के भीतर हैकिंग से निपटने की रणनीति तैयार करने के लिए कार्यदल का गठन करूंगा।
द उन तरीकों, उपकरणों और रणनीतियों पर सार्वजनिक तौर पर चर्चा नहीं होनी चाहिए जिसका इस्तेमाल हैकिंग रोकने के लिए हम करते हैं।