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Sunday, May 6, 2012

शिक्षा में 700 करोड़ का घोटाला


धन्धेबाजों ने कर डाला शिक्षा में भी 700 करोड़ का घोटाला। शुरूआती दौर में जिन कॉलेजों का नाम आया है, उसमें ये प्रमुख हैं।
डॉ0एम0सी0सक्सेना कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी,धैला रोड़,लखनऊ।
डॉ0एम0सी0सक्सेना इन्सटीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड मैनेजमेन्ट,धैला रोड़,लखनऊ।
डॉ0एम0सी0सक्सेना कॉलेज ऑफ फॉमेसी,धैला रोड़,लखनऊ।
रामेश्वरम इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट,सीतापुर रोड़,लखनऊ।
रामेश्वरम इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट,सीतापुर रोड़,लखनऊ।
टीडीएल कॉलेज ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट,सुल्तानपुर रोड़,लखनऊ।
बोरा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट साइंसेज,सीतापुर रोड़,लखनऊ।
बोरा इंस्टीट्यूट ऑफ एलाइड हेल्थ साइंसेज,सीतापुर रोड़,लखनऊ।
इंस्टीट्यूट ऑफ इन्वायरनमेन्ट एण्ड मैनेजमेन्ट,कुर्सी रोड़,लखनऊ।
आर्यकुल कॉलेज ऑफ मैनेजमेन्ट,बिजनौर रोड़,लखनऊ।
आर्यकुल कॉलेज  ऑफ  फॉमेसी बिजनौर रोड़,लखनऊ।
आरआर इंस्टीट्यूट  ऑफ  मार्डन टेक्नोलॉजी,सीतापुर रोड़,लखनऊ।
इंस्टीट्यूट  ऑफ  टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट,मामपुर बाना़,बीकेटी,लखनऊ।
आईटीएम स्कूल  ऑफ  मैनेजमेन्ट, मामपुर बाना़,बीकेटी,लखनऊ।
जीसीआरजी मेमोरियल ट्रस्ट ग्रुप  ऑफ  इंस्टीट्यूशन्स,सीतापुर रोड़,लखनऊ।
जीसीआरजी मेमोरियल ट्रस्ट ग्रुप  ऑफ  इंस्टीट्यूशन्स,फैकल्टी  ऑफ  मैनेजमेन्ट,सीतापुर रोड़,लखनऊ।
जीसीआरजी मेमोरियल ट्रस्ट ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशन्स,फैकल्टी आफ इंजीनियरिंग,सीतापुर रोड़,लखनऊ।
मोतीलाल रस्तोगी स्कूल ऑफ मैनेजमेन्ट,सरोजनी नगर,लखनऊ।
आर्यावर्त इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट,रायबरेली रोड़,लखनऊ।
हाइजिया इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मास्यूटिकल्स एजूकेशन एण्ड रिसर्च,धैला रोड़,लखनऊ।
लखनऊ मॉडल इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट,मोहनलाल गंज,लखनऊ।
लखनऊ मॉडल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट,मोहनलाल गंज,लखनऊ।
काकोरी इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट,बिस्मिल नगर,लखनऊ।
बंसल इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी सीतापुर रोड़,लखनऊ।
एमजी इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट,बंथरा,लखनऊ।
भालचन्द्र इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन एण्ड मैनेजमेन्ट,हरदोई रोड़,लखनऊ।
गोयल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी एण्ड मैनेजमेन्ट,फैजाबाद रोड़,लखनऊ।
गोयल इंस्टीट्यूट ऑफ फॉमेसी एण्ड साइंसेज,फैजाबाद रोड़,लखनऊ।
श्री रामस्वरूप मेमारियल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड मैनेजमेन्ट,फैजाबाद रोड़,लखनऊ।
श्री रामस्वरूप मेमारियल कॉलेज ऑफ मैनेजमेन्ट,फैजाबाद रोड़,लखनऊ।

          जॉंच के पहले चरण में उपरोक्त 31 संस्थानों को चुना गया है। शिक्षा के नाम पर किये गये 7 अरब के इस घोटाले में तकनीकी एवं प्रबन्धन संस्थान सबसे आगे हैं। इनमें अनुसूचित जाति के युवकों के दस्तावेज इकठ्ठा करके केवल कागजों पर प्रवेश दिखा कर उनको मिलने वाली सहायता की लूट कर ली गई। ऐसे संस्थानों के खिलाफ अनुसूचित जाति एवं जनजाति एक्ट के तहत ही एफआईआर लिखकर कार्रवाई होनी चाहिए।
  इटावा,औरेया,मैनपुरी,बांदा,हमीरपुर,आदि जिलों के अनुसूचित जाति के युवकों के दस्तावेजों के आधार पर केवल कागजों में प्रवेश दिखाकर करोड़ों रूपये हड़प लिए गए। ऐसे छात्रों की शुल्क प्रतिपूर्ति और छात्रवृत्ति की राशि समाज कल्याण से अनियमित तरीके से प्राप्त कर ली गई,जिसमें निश्चित रूप् से समाज कल्याण विभाग की भी अहम भूमिका रही है। कॉलेजों ने समाज कल्याण से फर्जी तरीके से दो से आठ करोड़ रूपये तक निकाल लिए।
कॉलेजों ने जीबीटीयू में पंजीकृत छात्र संख्या और समाज कल्याण को शुल्क प्रतिपूर्ति और छात्रवृत्ति के लिए भेजी गई सूची में भी हेराफेरी की। कॉलेजों ने फर्जी मार्कशीट बनाकर समाज कल्याण से धन लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आश्चर्य तो इस बात का है कि इनमें से पॉच लोग अखबार चलाने का भी धन्धा कर रहे हैं।
शासन ने बीस से अधिक प्रशासनिक अधिकारियों की टीम जॉच के लिए बनाई है तथा जॉच जिलाधिकारियों को सौंप दी गई है,तथा जॉंच के विभिन्न बिन्दुओं की गहन पड़ताल करने का निर्देश दिया गया है। इन सब कॉलेजों को पकड़ा जाना कोई कठिन कार्य नहीं है। कॉलेजों ने अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों का फर्जी प्रवेश प्रथम वर्ष में ही दिखाया होगा? क्योंकि जब वास्तव में छात्र हैं ही नही तो परीक्षा में कैसे शामिल हो सकते हैं,जिस वजह से दूसरे वर्ष में वे कैसे पहुंच सकते हैं? कॉलेज में प्रथम वर्ष में प्रवेशित विद्यार्थी(जीबीटीयू में पंजीकृत),परीक्षा में शामिल विद्यार्थीयों की संख्या और समाज कल्याण विभाग की शुल्क प्रतिपूर्ति एवं छात्रवृत्ति के लिए भेजी गई सूची की मिलान करके इस धोखाधड़ी को आसानी से उजागर करते हुए इनके प्रबन्धतंत्र के खिलाफ आईपीसी की धारा के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए।
कई कॉलेजों के जीटीबीयू में प्रथम वर्ष में पंजीकृत छात्र और समाज कल्याण विभाग को भेजी गई सूची में दर्शाए गए छात्रों की संख्या में बहुत बड़ा अन्तर है,और ऐसा समाचार-पत्रों का प्रकाशन करने वाले लोगों ने भी किया है। क्या समाचार-पत्र का प्रकाशन महज इसीलिए तो नहीं किया गया? इससे अधिक कोई जानकारी पाठक रखते हों तो कृपया jnnnine@gmail.com पर ईमेल करें।(सतीश प्रधान)

परमाणु बिजली से तौबा


          विश्व में जहॉं एक ओर विकासशील देश परमाणु ऊर्जा के लिए जीतोड़ गफलत कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर पूंर्ण रूप से विकसित जापान इस प्रकार की खतरनाक एटामिक पॉवर इनर्जी (परमाणु विद्युत ऊर्जा) से किनारा करने में लगा है। विश्वयुद्ध के दौरान अपने दो शहरों, हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमला झेल चुके जापान में परमाणु ऊर्जा का उत्पादन आज से धीर-धीरे कम होते हुए अतीत की बात हो जायेगी।

          जापान में ही पिछले साल फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा सयंत्र से फैले विकिरण ने उपरोक्त दो शहरों पर हुई परमाणु तबाही को पुर्नजीवित कर दिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि जापानी परमाणु ऊर्जा संस्थान होकाइदो इलेक्ट्रिक पॉवर कम्पनी ने जापान के आखिरी सक्रिय परमाणु रिएक्टर से विद्युत उत्पादन को 5 मई से बन्द करना शुरू कर दिया है। अपनी जनता के प्रति वफादार और शुभचिन्तक जापान ऐसा पहला देश बन गया है जो परमाणु क्षमता सम्पन्न होने के बावजूद उसके दुष्परिणामों से चिंतित होते हुए अब परमाणु ऊर्जा से मुक्त हो जायेगा। परमाणु ऊर्जा के उपयोग में जापान का दुनिया में तीसरा स्थान था। परमाणु ऊर्जा से अंतिम रूप से मुक्त होने की स्थिति 4 मई 1970 के बाद पहली बार आई है।
          1970 तक जापान में दो परमाणु ऊर्जा संयंत्र थे जिन्हें 4 मई 1970 को रखरखाव के लिए पॉंच दिनों तक बन्द रखा गया था। पिछले साल मार्च में जब भूकम्प और सुनामी के कारण फुकुशिमा परमाणु संयंत्र से रेडियोधर्मी रेज़ का रिसाव हुआ और विकिरण फैला तो भारी तबाही मची और जनता का परमाणु ऊर्जा से मोह भंग हो गया, जिसका असर वहॉं की सरकार पर पड़ा, और उसी कारण से होकाइदो इलेक्ट्रिक पॉवर कम्पनी ने ऐलान किया कि उसने शम पॉंच बजे से उत्तरी जापान स्थित तोमारी परमाणु संयंत्र की 912 मेगावाट की क्षमता वाली तीन नम्बर की इकाई से बिजली का उत्पादन कम करना शुरू कर दिया है। इस प्रकार से उगते सूरज के देश में सभी 50 परमाणु रिएक्टरों से ऊर्जा उत्पादित करने के सूरज को अस्त कर दिया गया। (सतीश प्रधान)

Sunday, April 15, 2012

नज़ारा ऑखों का....रस्सी जल गई, ऐंठन नहीं गई

          लखनऊ 14 अप्रैल। उपरोक्त लोकोक्ति प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं सुश्री मायावती पर एक दम खरी उतरती है,क्योंकि आज भी वे जिस ठसके में चल रही हैं वे लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले किसी राजनेता की हो ही नही सकती। इसे तो विशुद्ध तानाशाही ही कहा जा सकता है जो लोकतंत्र को पैरों तले रौंद कर खड़ी होती है। चौदह अप्रैल को डा0 भीम राव अम्बेडकर की 121वीं जयन्ती पर गोमती नगर स्थित सामाजिक परिर्वतन स्थल पर अम्बेडकर की मूर्ति को श्रद्धांजली अर्पित करने हेतु बहुजन समाज पार्टी की ओर से मीडिया को एक ईमेल भेजा गया जिसमें प्रातः साढे 10 बजे बसपा की नेत्री सुश्री मायावती द्वारा श्रद्धांजली अर्पित किये जाने की कवरेज किये जाने का अनुरोध था।
          प्रातः 10:15 से ही पत्रकारगण सामाजिक परिर्वतन स्थल पर एकत्र हो गये लेकिन वह 10:15 की जगह 11:40 मिनट पर सामाजिक परिर्वतन स्थल की बजाय अम्बेडकर पार्क में पहुंची तथा वहॉ से सीधे हूटर और सॉयरन बजवाती हुई सामाजिक परिर्वतन स्थल पर बगैर रूके (जहॉ पर दो दर्जन से अधिक कैमरामैन और पत्रकार कवरेज के लिए इंतजार कर रहे थे) सीधे चली गर्इं। ऐसा नही है कि उन्हें अपनी गाडी में से पत्रकारगण दिखाई न दिये हों अथवा उनके साथ में चल रहे अन्य लोगों ने यह नज़ारा न देखा हो, लेकिन अपने दम्भ में लबालब भरी मायावती ऐसे नदारत हो गयीं कि एकत्रित लोगों को यह अन्तर उजागर करने पर मजबूर होना पडा कि देखिये एक वर्तमान का संस्कारवान और शालीन मुख्यमंत्री है जो बगैर किसी सायरन, बगैर किसी हूटर,बगैर चलते ट्रैफिक को रूकवाये बडी शालीनता से कार के अंदर से ही जनता को नमस्कार करते हुए गुजर जाता हैं वहीं दूसरी ओर इस प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती हैं,जिन्हें आम जनता (जिसमें उनके समाज के भी लोग हैं) से नफरत है, मीडिया से महानफरत और हूटर, सायरन, काले रंग के गाडी के शीशे, सिक्योरिटी के ताम-झाम से बेहद लगाव है। उन्हें 15 फिट उंची चाहारदीवारी से बेलाग मोहब्बत है, लेकिन खुले मैदान में आने में शर्म आती है।
          वर्तमान में उत्तर प्रदेश की बागडोर ऐसी शख्सियत के हाथ में है जो अपने को अकबर महान की श्रेणी में लाने की कोशिश कर रहा है। यह बात दीगर है कि उनके पास अभी नौ क्या बीरबल जैसा एक रत्न भी नहीं है। सुना तो है कि उनके पास आईआईएम की एक टीम है जो उन्हें सलाह देती है, लेकिन मेरे विश्लेषण के हिसाब से उनकी पूरी टीम में शायद ही कोई ऐसा व्यक्तित्व हो जो उन्हें बेलाग, बेबाग, उचित और जनता के कल्याणार्थ सलाह दे पा रहा हो।
          मीडिया को सामाजिक परिर्वतन स्थल पर आमंत्रित करके नजरे़ छुपा कर भाग जाने का क्या औचित्य? मीडिया को क्या सुश्री मायावती अपना गुलाम समझती हैं कि पहुंचना हो 12 बजे और मीडिया को बुला लें 10:30 बजे। क्या इससे यह नही समझना चाहिए कि वे अभी भी सत्ता के नशे में हैं, जबकि उन्हें तो मीडिया का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने जिस भी उॅचाई को प्राप्त किया है, उसके बेस में मीडिया की ही मेहरबानी है। यह बात दीगर है जब वह सत्ता में आर्इं तो मीडिया के उस वर्ग को भूल गर्इं जिसने उनकी जान बचाई थी और उस वर्ग को मलाई चट कराई जो उनके सचिव डा0 विजय शंकर पाण्डे और नवनीत सहगल के लगुए-भगुए थे।
          सामाजिक परिर्वतन स्थल से प्रातः11:47 पर लौटते वक्त कालीदास मार्ग का चक्कर लगाने का निर्णय इस उद्देश्य के साथ लिया गया कि देखा जाय कि मुख्यमंत्री के आवास के सामने वाली सड़क का क्या नज़ारा है। कालीदास मार्ग के मेन हाइटगेट से निकलते समय वहॉ की चेक पोस्ट पर बैठी पुलिस ने न तो रौबीले अंदाज में रोकने की कोशिश की और न ही तलाशी ली। आहिस्ता-आहिस्ता गाड़ी जब 5-कालीदास मार्ग की ओर बढ़ी तो दिखाई दिया,गरीबों की रहन सहन वाला एक दीन-हीन हुजूम जो पैदल ही उस रास्ते से गुज़र रहा था जो उसकी ही बहिन जी की सरकार में उस सड़क को देखने के लिए तरस गया था। उसी भीड़ में यह भी सुनाई दिया कि वाह! क्या मुख्यमंत्री है! कितनी सादगी से रहता है! एक अपनी बहिन जी रहीं, जो हम कभी भी इह सड़क पर आ ही नही पाये। बतावो हमरे लिए भी इह सडक बन्द रही। का मतलब बहिन जी के मुख्यमंत्री रहिन का?
          5-कालीदास मार्ग पर लगा सिक्योरिटी का कोई भी बंदा संगीन ताने,टेरर का माहौल उत्पन्न करते दिखाई नहीं दिया। इससे आगे बढ़ने पर 4-5 साइकिलों पर दूधिये अपने मस्त अंदाज में साइकिल पर दूध की केन लटकाये गुजरते दिखाई दिये। इन्हीं के पीछे पूरा मुंह ढ़के लेकिन केवल ऑखें खुली रखकर 2-3 लड़कियां पैदल ही बिना किसी भय के रास्ता पार करते दिखाई दीं। इस पूरे नजारे ने यह सिद्ध कर दिया कि उत्तर प्रदेश से कर्नल गद्दाफी का शासन खत्म हो गया है और वास्तव में सच्चा लोकतंत्र बहाल हो गया है।
The Security personnel deployed at the time of CM-Mayawati, now has been lifted by the succeeded CM-Akhilesh yadav
          इस सच्चे लोकतंत्र का सबसे बडा उदाहरण है मेरी कलम,जो आज सरपट दौड रही है,जिसकी स्याही सुश्री मायावती के शासन काल में पेन से बाहर आने में डरती थी। दो पत्रकारों को मायावती राज में प्रमुख सचिव रहे डा0 विजय शंकर पाण्डे ने ऐसा प्रताड़ित किया कि वे पूरे बसपा के शासन काल में सचिवालय तक में आने से घबराते रहे, बावजूद इसके कि उनके प्रवेश पर लगी रोक को माननीय हाईकोर्ट ने बदस्तूर चालू कर दिया था। उनका कहना था कि माननीय हाईकोर्ट के आदेश का क्या औचित्य रह जायेगा यदि डा0 विजय शंकर पाण्डे ने सचिवालय ऐनक्सी में हमारे प्रवेश करने पर आईपीसी की किसी दूसरी धारा में हमें जेल में बंद करा दिया! यह भी सत्य है कि इस पूरी घटना से सुश्री मायावती का कोई लेना देना नहीं था। इसके कर्ता-धर्ता थे घोड़ा व्यापारी और काले धन के सौदागर हसन अली के दोस्त डा0 विजय शंकर पांडे।
          एक राजनीतिक दल के अध्यक्ष के ये वाक्य मेरे कान में अब भी गूंज रहे हैं कि जो मीडिया इमरजन्सी में नही डरा,वही मीडिया सुश्री मायावती की अघोषित इमरजेंसी में क्यों थर-थर कांप रहा था? इसका जवाब मैं कलम के माध्यम से अब दे रहा हॅू। दरअसल उस समय मीडिया इसलिए कांप रहा था क्योंकि मीडिया तो नौकर है अपने अधिष्ठान का, और अधिष्ठान है पूंजीपतियों के हाथ में, जिसने मीडिया में प्रवेश किया है, केवल मात्र अपने गोरखधंधे को बचाने के लिए, इससे फायदा कमाने के लिए और मीडिया का इस्तेमाल कर लाइजनिंग करते हुए अपना रसूख बढ़ाने के लिए। उस मालिक के अधीन कार्य करने वाले बहुतेरे पत्रकारों का अपना परिवार है,बाल हैं,बच्चे हैं,जिन पर न तो सरकार मेहरबानी करती है ना ही मालिक। इसलिए उनकी आवाज कैसे निकले। जो सुबह-शाम की दाल रोटी में ही परेशान हैं उसकी कैसी आवाज? और जिसकी सुबह शाम दारू और रंगीनियों में गुजर रही है उसकी आवाज ही कहॉ निकलती है,वो तो केवल बहकता है और गुलामी में ही जिन्दगी जीता है।
          यदि सरकारें मीडिया को चाटूकार ना बनाएं और चाटूकारों को अपने से दूर रखे तथा बिल्डर-माफिया, पूंजीपतियों के अखबारों एवं इलेक्ट्रानिक चैनलों को सरकारी मदद देना बंद कर दें तो उस सरकार को उसके द्वारा किये जा रहे कार्यौ की समीक्षा स्वयं मिल जायेगी और वह आसानी से जान जायेगी कि वह कितने पानी में है। वह झूठी प्रसंशा,झूठे आकडों और झूठे प्रचार से अपने को गढ्ढे में गिरने से निश्चित रूप से बचा ले जायेगी।
अभी-अभी पुनः बसपा के कार्यालय से उसके सचिव राम अवतार मित्तल की ओर से डा0 भीमराव अम्बेडकर की जयन्ती पर 15 अप्रैल को जिला आगरा में खेरिया एयरपोर्ट के निकट धनौली मैदान पर आयोजित की जाने वाली रैली की कवरेज के लिए मीडिया को आमंत्रित किया गया है,यह बताते हुए कि इस कार्यक्रम में पूरे प्रदेश से पार्टी के जिम्मेदार पदाधिकारी व प्रमुख कार्यकर्ता भाग लेंगे। अब इससे मीडिया को क्या लेना देना कि इसमें जिम्मेदार पदाधिकारी भाग लेंगे कि गैर जिम्मेदार? यदि बसपा की ओर से यह बताया जाता कि उसकी पार्टी के ये गैर जिम्मेदार पदाधिकारी हैं जो भाग नही लेंगे तो बात बनती। अब लखनऊ का मीडिया तो किस श्रद्धा से बसपा का कार्यक्रम कवर करेगा बसपा ही जाने,लेकिन आज से मैं तो मुंह पिटाने से रहा।
          अन्त में मेरी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव को सलाह है कि वे अपने साथ नौ नही मात्र तीन रत्न ही ढूंढ़ कर रख लें तो निश्चित रूप से वह उत्तर प्रदेश पर अगले 25 वर्षो तक निरंतर राज करते रहेंगे। ये अतिश्योक्ति अथवा चमचागिरी में कहे गये शब्द नही है,अपितु क्रूड एनालिसिस और उनका व्यक्तित्व है जो उन्हें किसी भी उंचाई पर पहुंचने से रोक नहीं सकता, यदि उन्होंने अपनी कार्यशैली में इसी तरह इजाफा किया तो। (सतीश प्रधान)

Sunday, March 4, 2012

अंर्तराष्ट्रीय मूल्य के बराबर क्यों नहीं भारत में कोयले का मूल्य?


          देश के शीर्ष उघोगपतियों ने भारत की जनता को घुप्प अंधेरे में देखकर और उनके हाल पर द्रवित होते हुए तथाकथित जाने-माने अर्थशास्त्री डा0 मनमोहन सिंह से व्यक्तिगत रूप से मिलकर भारत के ऊर्जा संकट को दूर करने की गुहार लगाई है। विश्व के कैक्टस, विश्व बैंक ने भी स्वंय तैयार एक अध्ययन के माध्यम से ऊर्जा की उपलब्धता को भारत देश के विकास में एक प्रमुख बाधा बताते हुए उसकी रिर्पोट प्रस्तुत की है। दरअसल ये सारे प्रयास अमीर को और अधिक अमीर बनाने तथा गरीब को और अधिक गरीब बनाने के, चतुराई पूर्वक खेले गये नुस्खे भर हैं। सच्चाई को एक किनारे करते हुए केवल अपने मुनाफे को दिन-प्रतिदिन बढ़ाने की जुगत में लगा रहने वाला प्रत्येक उद्योगपति हर समय अपने फायदे की ही बात सोचता है। वह गरीबों को बिजली मुहैय्या कराने के लिए परेशान नहीं है, बल्कि वह बिजली उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले कोयले के घरेलू उत्पादन और उसके मूल्य को सस्ता रखने के लिए बेहाल है।
          दरअसल उघोगपति बिजली का अधिक से अधिक उत्पादन करने के उत्सुक तो हैं, लेकिन सस्ते भारतीय कोयले से ही बिजली के उत्पादन की शर्त पर। वे चाहते हैं कि उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं, दोनों को लाभ हो, इसलिए उन्होंने फॉर्मूला ढ़ूंढा है कि कोयले का दाम सस्ता रहे तो बिजली का दाम कम होने पर भी उत्पादक लाभ कमा सकेंगे और उपभोक्ता को सस्ती बिजली मिल जायेगी। इसलिए उद्यमियों की मांग है कि कोल इण्डिया द्वारा कोयले के उत्पादन में वृद्धि की जाये और उन्हें सस्ते एवं सबसिडाइज्ड रेट पर कोयला उपलब्ध कराया जाये।
          भारत की 122 करोड़ जनता को पश्चिमी देशों की वर्तमान खपत के बराबर बिजली उपलब्ध कराना भारत की सरकारों के लिए आसान नहीं है, वह भी ऐसे हालात में जबकि इस देश में जिस गॉंव से एक किलोमीटर दूर से भी यदि बिजली का हाईटेंशन केबिल गुजर गया तो वह पूरा गॉंव का गॉंव ही विद्युतीकृत मान लिया जाता है। इसी से आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि इस देश के अधिकतर गॉंवों के हालात कैसे हो सकते हैं। ऐसे ही निरीह लोगों की खातिर, एक अकेले अपने घर का 76 लाख प्रतिमाह का बिजली का बिल देने वाला हमारा उद्योग जगत गम्भीर रूप से चिंतित है और भारत की जनता को सस्ते में बिजली मुहैय्या कराने का बेसब्री से इच्छुक है। जैसे जनहित के नाम पर निरीह किसानों की कृषि भूमि अधिग्रहण के माध्यम से जबरन छीनी जाती है, ठीक उसी प्रकार उनको सस्ते में खाद्यान्न, बिजली, गैस, केरोसिन आयल आदि दिये जाने के नाम पर उन्हें छलने की योजना सलीके से बनाई जाती है।
          सोचनीय प्रश्न यह उठता है कि कोल इण्डिया पर कोयले के घरेलू उत्पादन के लिए इतना जबरदस्त दबाव क्यों? यदि घरेलू उत्पादन कम है तो कोयले का आयात किया जाये, इसमें क्या परेशानी है? उद्यमियों की मांग कुटिलता से भरी, नाजायज और जनता को ठगने वाली ही दिखाई देती है। इन्हें पता है कि धरती पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं, फिर भी उनका अंधाधुन्ध दोहन करने के लिए ये उतावले  हैं,  जो भविष्य में निश्चित रूप से भारी संकट पैदा करेगा। इसलिए कोयले, तेल एवं यूरेनियम का दाम बढ़ाकर ऊर्जा की खपत पर अंकुश लगाना ही भारत देश के हित में ही नहीं है, बल्कि जनहित में है। वरना भविश्य की पीढी के लिए हम धरती को खोखला छोड़ने के अलावा और कुछ नहीं दे पायेंगे।
          जबकि दूसरी ओर हमारी संस्कृति यह है कि हम अपने बच्चों क्या पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए इतना छोड़कर मरना चाहते हैं कि उन्हें कुछ करना ही ना पडे़ और वे चैन से बैठे-बैठे खायें। अरबों-खरबों की काली कमाई, सैकड़ों मन चांदी, सैकड़ों किलो सोना, हीरे-जवाहरात, बंगले, कोठी और फार्म हाऊस, और ना जाने क्या-क्या! अपनी आस-औलाद के नाम करने के बाद भी मन नहीं भरता रूकने का। लेकिन किस कीमत पर यह तय नहीं कर पाये हैं, क्योंकि उतना सोचने की इनकी शक्ति ही नहीं है। अमीर केवल गरीब की रोटी छीनकर अपनी तिजोरी भरने में ही लगा हुआ है। वह विश्व का नम्बर एक अमीर होने की ललक में वह सब भ्रष्टाचार, अत्याचार, अनाचार करने को तैयार है, जिसका परिणाम भले ही उसे सुख-चैन से ना रहने दे।
          आर्थिक विकास का मतलब उत्पादन और खपत में वृद्धि होता है, जिसके लिए ऊर्जा की अधिक जरूरत होती है। पृथ्वी की ऊर्जा पैदा करने की शक्ति सीमित है, इसलिए हमें कम ऊर्जा से अधिक उत्पादन के रास्ते पर चलना होगा। प्रत्येक देश के लिए जरूरी होता है कि वह अपने देश में उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप ही उत्पादन करे। जिन देशों में पानी की कमी है, उन देशों में अंगूर और गन्ने की फसल उगाना बेवकूफी है। इसीलिए सऊदी अरब, तेल के निर्यात से विकास कर रहा है। इसी प्रकार भारत को पश्चिमी देशों के ऊर्जा मॉडल को अपनाना निहायत ही बेवकूफी भरा प्रश्न है। ऊर्जा के उत्पादन के लिए हमें अपने संसाधनों पर नज़र डालते हुए उसके विकल्प के उपाय सोचने होंगे, हम जापान की नकल नहीं कर सकते।

          इन्दिरा गॉंधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेन्ट रिसर्च, मुम्बई के एक अध्ययन में पाया गया है कि ऊर्जा की खपत तथा आर्थिक विकास में सम्बन्ध नहीं दिखाई देता। इसी अध्ययन में निष्कर्ष निकला है कि आर्थिक विकास से ऊर्जा की खपत बढ़ती है और यह सम्बन्ध एक दिशा में चलता है। उन्होंने कहा कि ऊर्जा संरक्षण के कदमों का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा, यानी ऊर्जा की खपत कम होने पर भी आर्थिक विकास प्रभावित नहीं होगा। आर्थिक विकास के लिए ऊर्जा का महत्व कम होने का कारण है, सेवा क्षेत्र का विस्तार। भारत की आय में सेवा क्षेत्र का हिस्सा 1971 में 32 फीसदी से बढ़कर 2006 में 54 फीसदी हो गया। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस 54 फीसदी आय को अर्जित करने में देश की केवल 8 फीसदी ऊर्जा ही लगी। सॉफ्टवेयर, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन, सिनेमा इत्यादि में ऊर्जा कम लगती है।
          इसलिए ऊर्जा संकट से निपटने का सीधा हल है कि हम ऊर्जा सघन उद्योगों जैसे स्टील एवंएल्यूमीनियम के उत्पादन को निरूत्साहित करें। सेवा क्षेत्र को प्रोत्साहित करने तथा देश में भरपूर गन्ने की फसल होने के कारण उसकी खोई से बिजली पैदा करने के संयंत्रों को प्रोत्साहित करें और उस बिजली के वितरण की व्यवस्था सरकार सुनिश्चित कराये। गन्ने की खोई से बनायी जाने वाली विद्युत से उस पूरे शहर की आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है जहॉंपर इसका उत्पादन किया जाये। इस पर यदि सरकारें कार्य करें तो मेरा दावा है कि ऊर्जा संकट को ऊर्जा की अधिकता में परिवर्तित किया जा सकता है। इसी प्रकार मोटे अनाजों की पैदावार को बढ़ाने के उपाय किये जाये जिसमें कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
          देश के उद्योगपतियों की पीड़ा में एक गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। असल विषय ऊर्जा के मूल्य का है। बिजली मंहगी होती है तो बिजली उत्पादित करने वाले उद्यमियों को लाभ, किन्तु खपत करने वाले उद्यमियों को हानि होती है। इसके विपरीत बिजली का दाम कम रखा जाता है तो उत्पादकों को हानि एवं उपभोक्ताओं को लाभ होता है, चूंकि हमारे उद्यमी सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की परिभाषा पर अमल करते हैं इसलिए चाहते हैं कि उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं दोनों को ही लाभ हो। इसका फॉर्मूला उन्होंने पी0एम0 को सुझाया है कि कोयले का दाम सस्ता रहे तो बिजली का दाम कम होने पर भी उत्पादक लाभ कमा सकेंगे और उपभोक्ता को सस्ती बिजली मिल जाएगी, इसीलिए वे कोयले के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिए दबाव बना रहे हैं।
          ऊर्जा के संकट से इस तरह भी आसानी निपटा जा सकता है। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों के अनुसार 2004 से 2012 के बीच बिजली की घरेलू खपत में 7.4 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने का अनुमान है जबकि सिंचाई, उद्योग तथा कामर्शियल के लिए बिजली की खपत में मात्र 2.7 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने का अनुमान है। इसका सीधा मतलब हुआ कि बिजली की जरूरत फ्रिज और एयर कंडीशनर चलाने के लिए ज्यादा और उत्पादन के लिए कम है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि देश के आर्थिक विकास के लिए बिजली का उत्पादन बढ़ाना कोई अपरिहार्य चुनौती नहीं है।
          क्रूर सच्चाई यह है कि बिजली की जरूरत मध्यम एवं उच्च वर्ग की विलासितापूर्णं जिन्दगी जीने के लिए अधिक है। शीर्श उद्योगपति मुकेश भाई अम्बानी के घर का मासिक बिजली का बिल ही 76 लाख रूपये से कम का नहीं आता है। दिल्ली की कोठियों में चार व्यक्ति के परिवार का मासिक बिजली का बिल 50,000 होना सामान्य सी बात हो गई है। चार व्यक्तियों के परिवार में आठ-आठ कारें हैं जो प्रतिदिन सैकड़ों लीटर पैट्रोल फूंकती हैं। इस प्रकार की ऊर्जा की बर्बादी के  लिए सस्ता घरेलू कोयला उपलब्ध कराकर पोषित करना कौन सी बुद्धिमानी एवं देशहित में है?
          गरीबों को बिजली उपलब्ध कराने के नाम पर हम बिजली का उत्पादन बढ़ा रहे हैं और उत्पादित बिजली को उच्च वर्ग के ऐशोआराम के लिए सस्ते में उपलब्ध करा रहे हैं। गरीब के गॉंव से एक किलोमीटर दूर से भी यदि बिजली का तार चला गया तो उस पूरे गॉंव को ही विद्युतीकृत मान लेने की परिभाषा सरकार ने आखिरकार क्यों गढ़ी हुई है। उच्च वर्ग के बिजली उपभोग पर अंकुश लगाने की कवायद क्यों नहीं की जा रही है? यदि उत्पादित बिजली का 25 प्रतिशत हिस्सा गॉंव के उपभोग के लिए सुरक्षित कर दिया जाये तो देश के हर घर में बिजली उपलब्ध हो जायेगी, यह मेरा दावा है।
          मेरा सुझाव है कि तुरन्त कोयले का दाम बढ़ाकर अन्र्तराष्ट्रीय मूल्य के बराबर कर देना चाहिए। आर्थिक विकास के लिए हमें सेवा क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा। ऊर्जा सघन उद्योगों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। इसी के साथ उत्पादित बिजली के दाम भी मध्यम (जिनकी प्रतिमाह बिजली की खपत 1000 यूनिट से अधिक है) एवं उच्च वर्ग के लिए बढ़ा दिये जाने चाहिए, जिससे उत्पादक कम्पनियों को लाभ हो तथा खपत पर अंकुश लगे। उत्पादित बिजली का 25 प्रतिशत गॉव की जरूरतों के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए सस्ते मूल्य पर दिया जाना चाहिए। गन्ने की खोई से बिजली उत्पादन की यूनिटों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तथा उनके द्वारा उत्पादित बिजली की वितरण व्यवस्था बिजली निगम को संभालनी चाहिए। इसी के साथ 1000 यूनिट प्रतिमाह से अधिक खर्च करने पर प्रति यूनिट 25 रूपये तथा 1000 यूनिट से 2500 यूनिट प्रतिमाह खर्च करने वाले से 50 रूपये प्रति यूनिट एवं इससे ऊपर उपभोग करने वाले से 100 रूपया प्रति यूनिट चार्ज किया जाना चाहिए। (सतीश प्रधान)


Monday, February 20, 2012

भू-सम्पत्ति क्षेत्र में भ्रष्टाचार


          भारत में जमीन की रजिस्ट्री, खसरा-खतौनी की नकल, दाखिल-खारिज, जिन्दा को मृतक दर्शाकर उसकी भूमि हड़पने (वर्ष 2009 तक अकेले उ0प्र0 में सम्पत्ति हड़पने के लिए राजस्व विभाग के अभिलेखों में 221 कृषकों को जिन्दा रहते मृत दिखाया गया) तथा विरासत दर्ज करने के साथ-साथ भूमि के अधिग्रहण में हर वर्ष हजारों करोड़ रूपयों की भारी भरकम रकम घूस के रूप में सरकार, सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों की जेब में चली जाती है। ध्यान रहे ये जमीनें यहॉं की जनता की अपनी पुश्तैनी हैं। जिन पुश्तैनी जमीनों को जनहित के नाम पर सरकारें, कानून की आड़ में पुलिस के बल पर जबरन अधिग्रहीत कर उसके उपयोग को लैण्ड यूज के माध्यम से रिहायशी, कामर्शियल, औद्योगिक एवं पर्यटन करके भूमि अधिग्रहण का खेल, खेल रही हैं, उनमें करोड़ों रूपयों का वारा न्यारा हो रहा है।

          स्ंयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन, एफ0ए0ओ0 (फूड एण्ड एग्रीकल्चर आरगेनाइजेशन) एवं ट्रान्सपेरेन्सी इन्टरनेशनल ने मिलकर एक अध्ययन किया है, जिसमें भारत में जमीन की रजिस्ट्री, उसकी नकल आदि में ही 3700 करोड़ की रिश्वत सरकारी अधिकारियों द्वारा लिये जाने का निष्कर्ष निकाला गया है। दोनों संगठनों ने संयुक्त रूप से भू-सम्पत्ति क्षेत्र में भ्रष्टाचार शीर्षक से एक अध्ययन रिर्पोट तैयार की है जिसमें कहा गया है कि कमजोर प्रशासन की वजह से जमीन से जुड़े मामलों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। इस अध्ययन के अनुसार जमीन सम्बन्धी मामलों में भ्रष्टाचार देश के विकास के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। यह अध्ययन 61 देशों में किया गया है तथा अध्ययन के मुताबिक जमीन को लेकर निचले स्तर पर भ्रष्टाचार छोटी-छोटी रिश्वत के रूप में विद्यमान है। वहीं दूसरी ओर ऊंचे स्तर पर सरकारी ताकत, राजनीतिक रूतबे और कार्पोरेट अर्थतन्त्र के गठजोड के कारण, यह बहुत बड़े स्कैम से बढ़कर कुछ भी नहीं है।

          सरकार और प्रशासनिक अधिकारियों को कार्पोरेट घराने जमीन हथियाने या कहिए अपना बहुत बड़ा लैण्ड बैंक बनाने के लिए उन्हें मूंह मांगी रिश्वत और सुरा-सुन्दरी की सुविधा देकर अपने मन मुताबिक नचा रहे हैं। अंर्तराष्ट्रीय स्तर की इन दो बड़ी संस्थाओं ने जमीन से जुड़े इस सबसे बड़े सच पर पर्दा डालने का काम क्यों किया आश्चर्य का विषय है! अध्ययन के माध्यम से घूस की जिस रकम का खुलासा किया गया है, उसका वास्तविकता से कोसों दूर का भी नाता नहीं है। यह रकम 70 करोड़ डॉलर बताई गई है, जबकि यह असली घूस 34500 करोड़ रूपये का पसंगा भी नहीं है।

          भारत के ही एक राज्य में केवल भू-अधिग्रहण मामले में ही 70 करोड़ डॉलर से दस गुना अधिक यानी 34500 करोड़ रूपये, सरकार, सरकारी प्रशासनिक अधिकारियों यथा भूमि अध्याप्ति अधिकारी, ए0डी0एम0, जिलाधिकारी, आयुक्त, सचिव, तथा राजस्व से जुड़े अधिकारियों यथा तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, लेखपाल के साथ ही राजनीतिक व्यक्तियों को रिश्वत के रूप में दी गई है, जिसमें राजनीति के निचले पायदान पर बैठा ग्राम प्रधान भी भरपूर लाभान्वित हुआ है। पंचायत-पंचायत, ब्लॉक-ब्लॉक, तहसील-तहसील, परगना-परगना, जिला-जिला भारतीय भूमिधरों को गिरोहबन्द तरीके से लूटा गया है। उनकी पुश्तैनी जमीन पर राजस्व से जुड़े अधिकारियों ने गिद्ध दृष्टि लगाकर उनका दोहन किया है। इन सबके बीच अभी चकबन्दी विभाग की चर्चा होना बाकी है।
          देश को स्वतन्त्र हुए 64 वर्ष हो गये लेकिन क्या आपको ताज्जुब नहीं होता कि अभीतक उत्तर प्रदेश में चकबन्दी ही पूरी नहीं हो पाई है। क्या यह दुर्भाग्य अथवा लूट का विषय नहीं है कि आजतक चकबन्दी विभाग बदस्तूर चालू है। लूट के दम पर खड़ा यह विभाग आजतक मजे मारते हुए मलाई काट रहा है। सहायक चकबन्दी अधिकारी स्तर के कई कर्मचारी करोड़पति हैं। जनता की सहूलियत के लिए बनाया गया यह विभाग जनता के लिए लुटेरा बन चुका है। दोनों संगठनों ने ऐसा अध्ययन 61 देशों में किया जाना बताया है, जिसमें भारत भी एक है। अंर्तराष्ट्रीय स्तर के इन संस्थानों से ऐसे लचर अध्ययन की उम्मीद नहीं की जाती है। इन संस्थानों ने या तो अध्ययन ही लचर तरीके से किया अथवा उसकी रिर्पोट प्रस्तुत करने में गोल-माल कर दिया। या जिन संस्थाओं/एन0जी0ओ0 के माध्यम से इसका अध्ययन कराया गया उनको राजस्व विभाग और यहॉं के किसानों/भू-मालिकों की तकलीफ का अन्दाजा ही नहीं था। उन्हें शायद पता ही नहीं कि राजस्व विभाग का एक अदना सा कर्मचारी लेखपाल, किसी जागीरदार से कम नहीं है।
          भारत की जमीन का एक-एक इंच टुकड़ा, बगैर लेखपाल की सहमति के आप इधर से ऊधर नहीं कर सकते। भारत का सुप्रीम कोर्ट और राजस्व अधिनियम चिल्ला-चिल्ला कर कुछ भी कहते हों, लेकिन वह नियम के हिसाब से तभी काम करेगा जब उसकी जेब गरम हो जायेगी। खसरा-खतौनी की नकल, दाखिल-खारिज, और वसीयत दर्ज कराने एवं जमीन की रजिस्ट्री कराने में कई हजार करोड़ रूपये प्रतिवर्ष सरकारी कर्मचारियों की जेब में चले जाते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि राजस्व विभाग के इन अदने से कर्मचारियों (लेखपाल) के पास सैकड़ों बीघे के फार्म हाऊस के साथ ही करोड़ों रूपये के बैंक बैलेन्स हैं।

          अध्ययन में यह बताया गया है कि जमीन सम्बन्धी भ्रष्टाचार भारत तक ही सीमित नहीं है, यह पूरी दुनिया में फैला हुआ है। ऐसा अध्ययन भारत के लिए किसने किया और किस स्टेट एवं जनपद में किया गया पता नहीं। हिन्दुस्तान में सारा खेल जमीन का ही है। यह हिन्दुस्तान ही है, जहॉं मुस्लिमों ने 700 वर्षों तक शासन किया और उसके बाद अंग्रेजों ने 200  वर्षों  तक शासन किया। इसके बाद देश स्वतन्त्र हुआ और यहीं के तथाकथित गोरे दिखने वाले दिल के कालों के हांथ में अंग्रेजों ने सत्ता सौंप दी। असली काला तो गोली खाकर हे-राम हो गया और गोरे से दिखने वाले कालों ने यहॉं के राजाओं का प्रीवीपर्स छीन लिया। 543 इस्टेट 543 संसदीय क्षेत्र में तब्दील हो गये। राजाओं की जगह सांसद आ गये और बस बन गया झमाझम लोकतन्त्र।

          राजाओं को सरवाइव करने के लिए अपनी जमीनें बेंचनी पड़ रही हैं। धीरे-धीरे विकास के नाम पर यहॉं की जनता की एवं राजाओं की जमीनें इन नये पैदा हो रहे सांसदों, ब्यूरोक्रेट्स और कार्पोरेट घरानों के हांथ में आना शुरू हो गईं। असली राजाओं का वंश तबाह होने लगा और नकली राजाओं की फौज खड़ी होने लगी। वाजिदअली शाह के खान्दानी चाय बेचने लगे और चाय बेचने वालों के खान्दानी एवं नहर के किनारे से सत्ता में आये लोग विकास के नाम पर लूट मचाकर विदेशी बैंकों में कालाधन जमा करने लगे।
          आज की तारीख में सत्ता से जुड़ा कौन सा ऐसा सांसद है जिसकी हैसियत किसी राजा से कम है। केवल घड़ी का डायल बदला है, अन्दर खाने वही 35 रूपये वाली मशीन लगी है जो आपके हांथ की घड़ी भी चला देगी और घंटाघर की घड़ी भी। क्या इन दोनों ऐजेन्सियों का संयुक्त अध्ययन एक औपचारिकता तो नहीं थी? अध्ययन किसी और मकसद की पूर्ति के लिए किया गया और परिणाम कुछ और दिखाया गया है।
          एफ0ए0ओ0 के अध्ययन में तो यह स्पष्ट रूप से आना ही चाहिए था कि पहले कितने हेक्टेयर पर कृषि होती थी और वर्तमान में कितने हेक्टेयर क्षेत्र पर कृषि हो रही है। कौन-कौन सी पैदावार की कमी आ गई है। कौन सी फसल नदारत हो गई है, और किसकी पैदावार बढ़ गई है। पूर्व में उत्पादन कितना था और अब कितना रह गया है। कृषि क्षेत्र कितना सिकुड़ गया है, आदि-आदि। खाद्यान्न जो भी पैदा होता है, गोदामों की कमी, ऊंचे परिवहन भाड़े के कारण या तो खपत की जगह तक ही नहीं पहुंच पाता अथवा एफ0सी0आई0 के गोदामों में सड़ा दिया जाता है । व्यक्ति और खाद्यान्न के बीच के गैप को पूरा करने के लिए मंत्रीगण आयात का रास्ता खोलते हैं और करोड़ों डॉलर खर्च दिखाकर उसका कमीशन विदेशी बैंकों में जमा करा देते हैं। ऐसे ही कालेधन को भारत में लाने की मांग हो रही है।(सतीश प्रधान)