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Sunday, August 21, 2011

संविधान से ऊपर नहीं है संसद

             इस देश में कानून का राज (रूल ऑफ लॉ) चलता है। ये हमारे संविधान के मूल ढ़ांचे का हिस्सा है। इसे संसद भी नष्ट या समाप्त नहीं कर सकती, बल्कि वह भी इससे बंधी है। रूल ऑफ लॉ, भूमि अधिग्रहण के उन मामलों में भी लागू होता है, जहॉं कानून को अदालत में चुनौती देने से संवैधानिक छूट मिली हुई है। यह बात सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सम्पत्ति पर अधिकार के कानून की व्याख्या करते हुए अपने फैसले में कही है।
            मुख्य न्यायाधीश माननीय एसएच कपाड़िया की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने भूमि अधिग्रहण कानून को चुनौती देने वाली के0टी0 प्लांटेशन प्रा0लि0 की याचिकाएं खारिज करते हुए कहा कि वैसे तो कानून के शासन यानी रूल ऑफ लॉ की अवधारणा हमारे संविधान में कहीं देखने को नहीं मिलती, फिर भी यह हमारे संविधान के मूल ढ़ाचे का हिस्सा है। इसे संसद भी नष्ट या समाप्त नहीं कर सकती। बल्कि ये संसद पर बाध्यकारी हैं। केशवानन्द भारती के मामले में दिए गये फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने रूल ऑफ लॉ के सिद्धान्त को सबसे महत्वपूंर्ण हिस्सा माना है। संविधान पीठ ने कहा है कि एक तरफ तो रूल ऑफ लॉ संसद की सर्वोच्चता निर्धारित करता है, लेकिन दूसरी तरफ संविधान के ऊपर संसद की सम्प्रभुता को नकारता है, यानी संसद संविधान के ऊपर नहीं है।

    कोर्ट ने कहा है कि वैसे तो सैद्धान्तिक तौर पर रूल ऑफ लॉ के कोई विशिष्ट चिन्ह नहीं हैं, लेकिन ये कई रूपों में नजर आता है। जैसे प्राकृत न्याय के सिद्धान्त का उल्लंघन रूल ऑफ लॉ को कम करके आंकता है। मनमानापन या तर्क संगत न होना रूल ऑफ लॉ का उल्लंघन हो सकता है लेकिन ये उल्लंघन किसी कानून को अवैध ठहराने का आधार नहीं हो सकते। इसके लिए रूल ऑफ लॉ का उल्लंघन इतना गंभीर होना चाहिए कि वह संविधान के मूल ढ़ाचे और लोकतांत्रिक सिद्धान्तों को कमजोर करता हो।
सतीश प्रधान 


Monday, August 15, 2011

हताशा और निराशा की जननी है मंहगाई


वर्ल्ड बैंक के तथाकथित अनुभवी एवं अर्थ विशेषज्ञ डा0 मनमोहन सिंह एवं उनकी टीम के आहलूवालिया, उपाध्यक्ष केन्द्रीय योजना आयोग, डा0 सुब्बाराव, गवर्नर आर.बी.आई. रंगराजन, भूतपूर्व गवर्नर, आर.बी.आई, वर्तमान गृहमंत्री चिदम्बरम एवं वर्तमान वित्तमंत्री प्रणव दा की मंहगाई घटाने की सारी कवायद धरी की धरी रह गई। दरअसल ये टीम और इसके लीडर अंग्रेजी मानसिकता के द्योतक हैं। डा0 मनमोहन सिंह और योजना आयोग के उपाध्यक्ष आहलूवालिया अर्थशास्त्री नहीं बल्कि अनर्थशास्त्री हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक, जिसका नेतृत्व वर्तमान में डा0 सुब्बाराव कर रहे हैं, ये सब धरातल से ऊपर 25वीं मंजिल पर बैठे हैं, जहॉं से हर भारतीय कॉंकरोच दिखाई देता है। इसी के विदर्भ में रहे रंगराजन भी वैसी ही मानसिकता वाले हैं।

भारतीय रिज़र्व बैंक एकदम सफेद हांथी है, उसपर तुर्रा यह कि वह भारत की सभी बैंकों का केन्द्रीय बैंक है। वह बैंकों की नियामक संस्था माना जाता है, उसकी सफलता जीरो भी हो तो ठीक है, लेकिन वह तो माइनस में घुसी हुई है। देखिए, अमेरिका को! उसकी क्रेडिट रेटिंग ट्रिपल ए से फिसलकर डबल ए प्लस पर आने के बाद भी उसके मुकाबले भारत का रुपये का अवमूल्यन होता जा रहा है। दिनांक 8 अगस्त 11 को 1000 डॉलर, 44761 रुपये का था जो रेटिंग घटने के बाद 1000 डॉलर, दिनांक 11 अगस्त 11 को 45407 रुपये का हो गया। उपरोक्त सारे अर्थशास्त्रीयो की टीम बताये कि ऐसा कैसे हो रहा है?  अगर किसी कन्ट्री की साख गिरने के बाद भी उसकी करेन्सी मजबूत हो रही है तो इससे सुखद और कोई दूसरी बात हो ही नहीं सकती!

अगर क्रेडिट रेटिंग घटने से करेन्सी मजबूत होती तो, सबसे नीचे के पायदान पर पड़ी कन्ट्री की करेन्सी सबसे मजबूत होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा भी तो नहीं है। ये सारा जगलरी का खेल है, जो अमेरिका से संचालित हो रहा है, जिसकी संचालन टीम में हमारी उपरोक्त टीम भी बराबर की पार्टनर है, जो हिन्दुस्तान की ऐसी की तैसी करने में पूरे मनोयोग से लगी है। ये टीम पूरे भारत से बदला ले रही है। किस बात का बदला ले रही है, यह तो मनमोहन सिंह और आहलूवालिया ही बता सकते हैं। तीन साउथ इण्डियन, एक कम्यूनिस्टी विचारधारा का पोषक और एक सरदार की पूरी टीम का लीडर भी एक घुन्ना और चुप्पा सरदार है, जो सम्भवतः 1984 के सिख दंगों का बदला पूरे भारतवर्ष से लेने की ठान चुका है,  इसीलिए वह ना तो भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ बोलता है और ना ही भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करता है। उसे अन्ना हजारे भ्रष्ट दिखाई देतें हैं, करोड़ों करोड़ का घोटाला करने वाले उसकी कैबीनेट में हैं, जिनकी सरपरस्ती वह करता है, लेकिन उनकी बात वह नहीं करता है। यह विदेशी आक्रांताओं से भी बड़ा आक्रान्ता है जो अपनी ही धरती का है। अलावा इसके कोई अन्य कारण नज़र ही नहीं आता है।

बैंक कर्ज की लगातार बढ़ती ब्याज दरों के बाद भी मंहगाई रुकने का नाम नहीं ले रही, इसका सीधा मतलब है कि कर्ज की दरों और मंहगाई का कोई आपसी रिस्ता नहीं है। आरबीआई ने बेशर्मी के साथ कह दिया कि खाद्य वस्तुओं की मंहगाई घटने वाली नहीं बल्कि इसी चोट पर एक और चोट करते हुए उसने लगे हांथ यह भी कह दिया कि उसके सर्वे आंकलन के अनुसार जून 2012 तक यह दर 12.9 प्रतिशत तक पहुंच जायेगी, जबकि मार्च 2011 को यह दर 10.05 प्रतिशत ही थी।  इसका सीधा मतलब है कि मंहगाई की दर अभी 28 प्रतिशत और बढ़ेगी! यानी आगे के लगभग एक साल तक भी आरबीआई कुछ उपाय करने में अक्षम है। ऐसे रिजर्व बैंक से क्या फायदा? इसे या तो समाप्त कर देना चाहिए अथवा इसकी स्वायत्ता खत्म कर देनी चाहिए।

भारत में खाद्यान का सर्वोच्च 24.1 करोड़ टन उत्पादन हुआ। अनाज इतना पैदा हुआ कि रखने की जगह नहीं मिली, अनाज खुले में पड़ा सड रहा है। सरकार के पास बफर स्टॉक में 6.5 करोड़ टन अनाज पड़ा है। आलू और प्याज का भी इफरात में उत्पादन हुआ है। करोड़ों टन अनाज सड़ने की स्थिति के बाद भी जब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि इससे तो अच्छा है कि इसे गरीबों में बॉंट दिया जाये तब भी सरकार ने अपनी    संवेदनहीनता, हठधर्मिता दिखाते हुए,सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को दरकिनार करते हुए टिप्पणी की गई कि सरकार अपनी नीति अपने हिसाब से तय करेगी एवं उसने अनाज मुफ्त बांटने से साफ इंकार कर दिया। ऐसी नीति तो अंग्रेज की ही हो सकती थी कि अनाज को सड़ा दो लेकिन ब्लडी इण्डियन को मुफ्त में ना बांटो।

हिन्दुस्तान अब अमेरिकियों द्वारा संचालित हो रहा है। वह जमाने गये जब ईस्ट इंण्डिया कम्पनी यहॉं राज करती थी और उसके कर्ता-धर्ता भी भारत में ही रहते थे। अब तो कई एक ईस्ट इण्डिया कम्पनियां भारत में हैं, लेकिन उनके असली मालिक यहॉं भारत में नही बैठते हैं। जबसे यूनियन कार्बाइड का भोपाल गैस काण्ड हुआ है, एक भी मल्टी नेशनल कम्पनी का मालिक भारत में नहीं बैठता है, वह विदेश से ही इसका संचालन करता है। भारत में इन मल्टीनेशनल कम्पनी में यहीं के भारतीय इण्डिया हेड बनाकर बैठा दिये जाते हैं जो अपने और अपने परिवार की सुख-सुविधा के लिए वह सब करते हैं, जो देश के विरुद्ध होता है। ये सारे विदेशियो के गुलाम हैं, इनकी सोच बिल्कुल गुलामों वाली है और इनकी नियति ही गुलाम बने रहने की है। जिस प्रकार मुम्बई के डिब्बेवाले प्रतिष्ठान के प्रबन्धन ने पूरे विश्व को चौंका दिया था और बड़े-बड़े प्रबन्ध संस्थानों के कर्ता-धर्ता समेत इंग्लैण्ड की महारानी भी डिब्बेवाले के यहॉं उसके प्रबन्धन के गुर सीखने आई थीं, ठीक उसी प्रकार महगाई पर रोक लगाने का फार्मूला शुद्ध भारतीय ही दे सकता है, ना कि कोई विदेशी अथवा उसका गुलाम! भारतीय करेन्सी को विदेशी बैंकों में जमा करने वाले तो कदापि नहीं।


भारतीयों की सोच में बदल की गुंजाइश रखने वाला हमारा मीडिया तंत्र, यह तो नहीं कहा जा सकता कि नकारा हो गया है, लेकिन यह स्पष्ट रुप से कहा जा सकता है कि वह लालची, मौकापरस्त और खुदगर्ज अवश्य हो गया है। मीडिया का एक बुजुर्ग हिस्सा आई.एस.आई. एजेन्ट गुलाम नबी फई के तंत्र में है और मजा लूटकर भारतीयता को चोट पहुंचा रहा है। कुछ हिस्सा भारत में दिनोंदिन बढ़ती मंहगाई पर भारत सरकार को आडे हांथों लेने के बजाय, अमेरिकी कर्ज के मर्ज का इलाज ढूँढ रहा है। दैनिक जागरण के राजनीतिक सम्पादक, प्रशांत मिश्र ने अमेरिका के काल्पनिक संकट के इलाज की दुकान खोली है, उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था की मृत्यु शैय्या पर पड़ी लाश नहीं दिखाई देती। वे जनता को यह बताने में सक्षम नहीं हैं कि भारत के प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री नहीं बल्कि भारत के लिए अनर्थशास्त्री हैं, जो केवल अमेरिका के भले के लिए भारत के प्रधानमंत्री का पद घेरे हुए हैं, लेकिन वह तबका अमेरिका की गिरती साख से चिंतित है।

प्रशांत मिश्र जी ने 1917 में प्रथम बार स्थापित अमेरिकी साख का गुणगान करते हुए वर्तमान में पहली बार ही उसकी साख को गिरते हुए देखा है, जबकि वास्तविकता यह है कि उसकी साख वर्ष 1981 में भी गिरी थी। ओवरआल साख तो उसकी गुण्डई और बदमाशी की है, जिसमें वह नम्बर वन है, जो उसका अन्त होने पर ही गिरेगी। हमारे नीति नियन्ताओं ने मंहगाई बढ़ाने के ही फार्मूले पढ़े हैं, उन्होंने भ्रष्टाचार, भाई-भतीजाबाद, दुष्टता और एकबार येन-केन-प्रकारेण चुन लिए जाने के बाद पूरे पांच साल तक राज करने के ही पाठ पढ़े हैं, इसलिए उनको मंहगाई घटाने के प्रयास करने ही नहीं हैं। जब उनके अपने व्यक्तिगत खजाने बेशुमार दौलत से भरे पड़े हैं तो उन्हें मंहगाई से क्या लेना देना। केक और बर्गर खाने वालों को गेहू और दाल की बढ़ती कीमत से क्या सरोकार।
सतीश प्रधान

Monday, August 8, 2011

बुन्देलखण्ड में पनपेगा नक्सलवाद-राजा बुन्देला


बुन्देलखण्ड में सरकारी आँकड़ों के अनुसार विगत जनवरी से अब तक 570 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, जबकि सच्चाई निश्चित रुप से इससे अलग और चौकाने वाली ही है। इसी बुन्देलखण्ड से सात विधायक उ0प्र0 और म0प्र0 में मंत्री पद पाये हुए हैं। इस तरह इस क्षेत्र से उ0प्र0 के चार और म0प्र0 के पॉंच सांसद, संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। भारत के प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह और अपने देश के लला यहॉं पहुंचकर कई एक घोषणा कर चुके है, लेकिन नतीजा ढ़ाक के तीन पात से बढ़कर कुछ भी नहीं।

मनरेगा की गडबडियों में बुन्देलखण्ड सबसे ऊपर पाया गया है, लेकिन किसी को कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। देश के नक्शे में बुन्देलखण्ड ऐसी तस्वीर पेश करता है जैसे लाचारी और बेबसी ही उसकी नियति है। यह हमारे अनर्थशास्त्री और अमेरिका के दुलारे डा0 मनमोहन सिंह, आहलूवालिया, रंगराजन, प्रणव मुखर्जी, चिदम्बरम, रिजर्व बैंक आफ इंडिया, योजना आयोग समेत पूरी कैबीनेट के लिए शर्म की बात होनी चाहिए थी, लेकिन अफसोस इनसे तो लज्जा की बात करना अपने मुख पर ही थूकने जैसा है। 

उ0प्र0 के लोग हसरत भरी निगाहों से इंतजार कर रहे हैं कि किसानों के हक के लिए सियासत का जो बन्दा पदयात्रा पर निकला था, एक दिन यहॉ के लोगों का दुखदर्द भी बांटेगा, लेकिन वे यह देखकर निराश हैं कि वह बन्दा नोएडा, अलीगढ़, बुलन्दशहर छोड़कर बुन्देलखण्ड की ओर देखने को भी तैयार नहीं है।बुन्देलखण्डवासियों का कहना है कि हम अपनी सात नदियों से दूसरों को पानी पिलाते हैं लेकिन खुद प्यासे रहते हैं?  उनकी इसी प्यास को बुझाने निकले हैं बुन्देलखण्ड के राजा बुन्देला और उन्होंने इसके लिए कांग्रेस छोड़कर बुन्देलखण्ड कांग्रेस के नाम से एक नई पार्टी गठित की है, उसकी पहली प्रेस कान्फ्रेन्स में उन्होंने जो घोषणा की है, उसकी बानगी देखिए।

नवगठित बुन्देलखण्ड कांग्रेस के अध्यक्ष और बॉलीवुड सितारे राजा बुन्देला ने आगाह किया है कि यदि बुन्देलखण्ड प्रदेश अलग न बना तो वहॉं फैली भुखमरी, तबाही और उपेक्षित जनता नक्सलवाद की ओर प्रभावित होगी। राजा बुन्देला का कहना अतिश्योक्ति नहीं है, क्योंकि भारत में जहॉं भी नक्सलवाद है, वहॉं की परिस्थितियां भी ऐसी ही रही हैं। उनकी इस बात में तो सौ प्रतिशत दम है। कोई भी सरकार नक्सलवाद के रुटकॉज को ढंढ़ने का प्रयास नहीं करना चाहती, उसके निदान की बात तो दूर की कौड़ी है। यदि रुटकॉज ढूंढ़कर उसका इलाज किया जाये तो नक्सलवाद अपने आप खत्म हो जायेगा। कम और बेस्तर बुन्देलखण्ड के हालात भी ऐसे ही हैं। यहॉं की समस्या को केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार के पाले में फैंकने से काम बनने वाला नहीं। दोनों सरकारों को सम्मलित प्रयास करने ही होंगे।

बुन्देलखण्ड में यह कहावत मशहूर होती जा रही है कि बुन्देलखण्डवासी अपनी सात नदियों से दूसरों को पानी पिलाते हैं लेकिन खुद प्यासे रह जाते हैं। यहॉं से 37 विधायक उत्तर प्रदेश विधानसभा में और 34 विधायक मध्य प्रदेश की विधानसभा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी प्रकार उ0प्र0 से 4 और म0प्र0 से 5 सांसद भी चुने जाते हैं, बावजूद इसके बुन्देलखण्ड का किसान त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहा है। इसका सीधा मतलब है कि यहॉं से जो प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा और लोकसभा में जा रहे हैं, वे यहॉं की जनता के लिए कोई प्रयास ही नहीं कर रहे हैं।

उत्तराखण्ड राज्य बनने के एक दशक बाद भी वहॉं की मूल समस्या का अन्त नहीं हुआ है। विशेष पैकेज के नाम पर ही वह आज भी जिन्दा है। उसने अपनी कमाई के श्रोत आजतक नहीं खोजे हैं। उसकी कमाई का क्या जरिया है और कितनी रेवन्यू उसके पास आती है, तथा कबतक वह आत्म निर्भर हो जायेगा, इसको बताने वाला कोई नहीं है। इसी परिप्रेक्ष्य में अगर राजा बुन्देला भी यह बताते चलें कि बुन्देलखण्ड की कमाई का जरिया यह होगा और उसका इस्तेमाल वहॉं की जनता के लिए ना होकर बुन्देलखण्ड के बाहर के लोगों के लिए हो रहा है तो बात समझ में आती है, लेकिन यदि उस क्षेत्र से कोई कमाई ही नहीं है तो उसे अलग राज्य बनाना वहॉं की जनता के साथ छलावा और बेईमानी है।

यदि वहॉं से चुने जाने वाले विधायक और सांसद वहॉं की जनता के लिए कुछ सोंचें तो अब भी बहुत कुछ हो सकता है। वरना तो ऐसे ही विधायक और सांसद प्रथक राज्य के बाद भी चुने जायेंगे जो फिर लालबत्ती के फेर में पडे़गे। अलग राज्य बनाने पर कई दशक तक इसे केन्द्र सरकार के विशेष पैकेज के सहारे ही चलना पड़ेगा। इसी के साथ पूरे मंत्रीमण्डल का करोड़ों रुपये का भार भी उसी केन्द्र के पैकेज से ही निकलेगा जो अनतत्वोगत्वा बुन्देलखण्ड वासियों के मत्थे ही पड़ेगा।

इस देश में तबतक सुधार आने वाला नहीं जबतक जनता के पास विधायक और सांसद को वापस बुलाने का अधिकार नहीं मिलता। जनता जिस विधायक/सांसद को जिस पार्टी के बैनर तले चुनकर भेजती है और वह उसके बाद किसी अन्य पार्टी में जाता है अथवा पार्टी उसे निकाल देती है तो उसकी सदस्यता स्वतः खत्म हो जानी चाहिए। 

राजा बुन्देला ने पूर्व में कहा है कि यहॉं की नदियों बेतवा, चम्बल, केन, धसान, टोंच, शहजाद और जामनी से ही आगरा, कानपुर, लखनऊ और इलाहाबाद को पानी भेजा जाता है। आगरा के ताज के लिए यहॉं का पानी भेजकर विश्व पर्यटन को रिझाया जाता है। मेरा कहना है कि राजा बुन्देला इसी पानी को बुन्देलखण्ड के लिए इस्तेमाल क्यों नहीं करते? ऐसा करने से उन्हें कौन रोक रहा है।

राजा बुन्देला इस सच को स्वीकारें कि बुन्देलखण्ड के दबंगों ने पानी पर अपना एकाधिकार कर लिया है। सुनकर आप चैंकेंगे कि इसी आजाद भारत में आज भी बुन्देलखण्ड के कुओं के पास कमजोरॉ को फटकने नहीं दिया जाता है। ये 37 विधायक और 4 सांसद क्या कर रहे हैं? क्या ये सब दबंगों के सामने बौने हैं याकि ये ही दबंग है, अथवा इनमें से कुछ दबंग हैं! ये सारे वहॉं की जनता के लिए खड़े हो जाये तो इनसे बड़ा दबंग कौन? यदि सरकारें इनकी भी नहीं सुन रही हैं तो सुप्रीमकोर्ट में पीआईएल दाखिल कीजिए, देखिए कैसे सुप्रीमकोर्ट सुनवाई करता है।

जहॉं मात्र छह माह में 570 किसान आत्महत्या कर चुके हों वहॉ की जनता की सुप्रीमकोर्ट सुनवाई ना करे हो ही नहीं सकता। पीआईएल दाखिल करने के लिए हष्ट-पुष्ट, तन्दरुस्त, दो हांथ और दो पैर होना जरुरी नहीं है। एक हांथ एक पैर के भी हैं तो काम चलेगा। कमजोर और अन्धे हैं तो भी काम चलेगा, लेकिन भाई जान! रहियेगा जनता के प्रति ईमानदार। पीआईएल को तगड़ी कमाई का जरिया और अपने बदनाम नाम को नेकनामी में तब्दील करने के लिए पीआईएल मत कीजियेगा।

प्रथक राज्य बुन्देला को मुख्यमंत्री का पद तो दिला सकता है लेकिन वहॉं आत्महत्यायें नहीं रुकवा सकता? पहले आत्म हत्या रोकने के प्रयास होने चाहिए, बाकी बात बाद में। आत्महत्यायें रोकने के लिए जमीनी प्रयास करने होंगे, केवलमात्र पैकेज के ऐलान और प्रथक राज्य की मांग से वहॉं के निवासियों का भला होने वाला नहीं है। बुन्देलखण्ड कांग्रेस गठित करने वाले राजा बुन्देला ने लखनऊ  में आयोजित अपनी पहली प्रेसवार्ता में राहुल गॉंधी पर भरोसा तोड़ने का आरोप लगाया। साथ ही यह भी कहा कि राहुल ही नहीं सोनिया ने भी उन्हें वर्ष 2004 में फिल्मी दुनिया से बुलाकर बुन्देलखण्ड राज्य बनाने का भरोसा दिलाया था, लेकिन अब राहुल राज्य के बजाय पैकेज के जरिए क्षेत्र के विकास की बात कर रहे हैं। यदि ऐसा है भी तो क्या गलत है? पृथक राज्य बनने के बाद क्या बगैर केन्द्र के पैकेज के बुन्देलखण्ड सरवाइव कर सकता है?

राजा बुन्देला ने विधान सभा की 37 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की बात की है। राजा बुन्देला का यह नारा कि अपना सी.एम., अपना डी.एम., अपनी धरती, अपनी भर्ती सुनने में आकर्शक लगता है, लेकिन क्या यह बुन्देलखण्ड-वासियों को उत्तर प्रदेश से अलग नहीं कर देगा, जैसा कि महाराश्ट्रीयन सोचता है। क्या पूरे भारत की धरती उनकी नहीं है? जबतक पूरे भारत को एक मानकर नेतागण नहीं चलेंगे तबतक इस भारत में भुखमरी मर नहीं सकती।

राजा बुन्देला को सबसे पहले बुन्देलखण्ड के 82 प्रतिशत किसानों और मजदूरों के लिए कोई कारगर स्कीम सोचनी होगी। खुजराहो, महोबा, चित्रकूट, छतरपुर जैसे ऐतिहासिक स्थल के पर्यटन की योजना बनानी होगी। खदान और पत्थर पर आधारित उघोग की तलाश कर उसकी प्रोजेक्ट रिर्पाट तैयार करनी होगी। इसके बाद इसे लेकर वह जनता के बीच जायें और फिर अपनी बात रखें, तब बात बनेगी।

अलग राज्य बनने के बाद होगा यही कि उघोग स्थापित करने के नाम पर इन्हीं 82 प्रतिशत किसानों की जमीनें फिर से इमरजेन्सी क्लॉज लगाकर औने पौने दाम पर अधिग्रहीत कर ली जायेंगी, जो आत्महत्या कर रहे किसानों के प्रतिशत को कई गुना बढ़ा देंगी। आत्महत्या कर रहे किसानों के साथ सरकारी गोली से मरने वाले किसानों की भी तो बढोत्तरी हो जायेगी। बुन्देला जी मुख्यमंत्री बनने की सोचने से पहले इन गरीब किसानों की भी सुध लीजिए।
सतीश प्रधान

Sunday, August 7, 2011

गद्दार के नाम पर होगा दिल्ली का चौक



     भारत के प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह ने दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विंडसर प्लेस नाम के चैराहे का नाम सर शोभा सिंह, के नाम पर करने के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री केा सिफारिश पत्र लिखा है। सरदार शोभा सिंह, औरतों पर भोण्डा एवं मरी हुई शक्सियत पर मनचाहा लेखन करने वाले सरदार खुशवन्त सिंह के पिता हैं। शायद आपको पता न हो कि सरदार खुशवन्त के पिता गद्दार और देशद्रोही थे जिन्होंने देशभक्त भगत सिंह के खिलाफ अंग्रेजों की अदालत में उनके विरुद्ध गवाही दी थी।
    खुशवन्त सिंह का नाम उन्हीं पत्रकारों की लिस्ट में है जिसमें कुलदीप नैय्यर,  बरखा दत्त,  वीर सिंघवी, निर्मला देशपाण्डे, अरुंधति राय, प्रभु चावला और राजेन्द्र सच्चर जैसे लोग हैं। ये सारे पत्रकार, समाजसेवी या आप जो समझें देश की प्रतिश्ठा दांव पर लगाते रहे हैं। फिर चाहे यह एक आई.एस.आई. एजेन्ट गुलाम नबी फई के सेमिनार/कार्यशला में उसके द्वारा उपलब्ध कराई गई सेवा पर विदेश जाने का ही मामला क्यों ना हो। इन सारों को फई की कोटरी का सदस्य समझना ही ज्यादा मुफीद होगा।
    यहॉं हम सरदार खुशवन्त सिंह की ही बात करते हैं, जो सुरा-सुन्दरी के शौकीन होने के साथ-साथ दिवंगत हुई महान हस्तियों पर ही खबर लिखने में महारत हासिल किये हुये हैं। चूंकि मुर्दे तो इनके लेख का खंडन करने आने वाले नहीं! इसलिए इनके जो मन में आता है और जो इनकी इज्जत में चार चॉंद लगा दे,वैसा ही लेख यह प्रस्तुत कर देते हैं। खुशवन्त सिंह के मुंह में दांत नहीं और पेट में आंत नहीं लेकिन लड़कियों के मामले में एकदम गिद्ध हैं। इन्हीं महोदय के पिता श्री थे शोभा सिंह, जिन्होंने शहीद भगत सिंह के खिलॉफ अंग्रेजों की अदालत में गवाही दी थी जिसके कारण भगत सिंह केा फांसी पर लटकाया गया।
     अंग्रेज बड़ी सरगर्मी से भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने के लिए किसी गद्दार की तलाश कर रहे थे। आखिरकार उन्होंने एक नहीं बल्कि दो लालची, देशद्रोही और गद्दारों को ढंढ ही लिया। उनमें एक निकले सरदार खुशवन्त सिंह के बाप और दूसरा निकला शादी लाल। दोनों का ही नाम श से शुरु होता है और अब जिस चौक को इस गद्दार के नाम पर किये जाने की सिफारिश जिस मुख्यमंत्री से की गई है, उस भद्र महिला का नाम भी श से शीला दीक्षित है, जो दिल्ली राज्य की मुख्यमंत्री हैं।
     शहीद भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने के कारण ही शोभा सिंह और शादी लाल को अंग्रेजों ने खूबसारी दौलत के साथ ‘सर’ की उपाधि से भी नवाजा। शोभा सिंह को दिल्ली में बेशूमार दौलत और करोडों के सरकारी निर्माण कार्य के ठेके मिले जबकि शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार सम्पत्ति मिली। शयामली, मुजफ्फरनगर में आज भी शादीलाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब का कारखाना है। यह अलग बात है कि शादी लाल को गॉंव वालों का तिरस्कार भी झेलना पड़ा एवं उसके मरने पर वहॉं के किसी भी दुकानदार ने कफन का कपड़ा तक नहीं दिया।
     शादी लाल के लडकों को कफन का टुकड़ा भी शोभा सिंह ने दिल्ली से उपलब्ध कराया, तब जाकर इस गद्दार एवं देशद्रोही शादी लाल का क्रियाकर्म हुआ। शोभा सिंह इस मामले में किस्मत वाला रहा। इसे और इसके पिता सुजान सिंह, जिसके नाम से यमुनापार दिल्ली में सुजान सिंह पार्क है, को राजधानी दिल्ली में हजारेां एकड जमीन मिली और खूब दौलत भी। इसी के बेटे खुशवन्त सिंह ने अपने बाप का दाग मिटाने के लिए अपने पिता के कुकर्मो को छिपाने के लिए आईएसआई एजेन्ट गुलाम नबी फई की ही तरह मैमोरियल लेक्चर/पत्रकारिता शुरु करके बड़ी-बड़ी हस्तियों से सम्बन्ध बनाने शुरु कर दिये।
     शोभा सिंह के नाम पर एक चैरिटेबिल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता। दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास बाराखम्भा रोड़ पर जिस स्कूल को मार्डन स्कूल के नाम से लोग जानते हैं वह इसी गद्दार शोभा सिंह को खैरात में मिली जमीन पर शान से खड़ा है।
     खुशवन्त सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अर्पैल 1929 को उस वक्त सेन्ट्रल असेम्बली में मौजूद था जहॉं भगत सिंह और उनके साथियों ने धुंए वाला बम फेंका था। पिता को बचाने के लिए सरदार खुशवन्त सिंह यह तो कह रहे हैं कि उसके पिता असेम्बली में मौजूद थे, लेकिन यह नहीं बता रहे हैं कि उनके बाप और शादी लाल की गवाही पर ही भगत सिंह को फांसी पर लटकाया गया। यदि शोभा सिंह और शादी लाल, भगत सिंह के खिलाफ गवाही न देते तो निष्चित रुप से भगत सिंह को फांसी पर लटकाना अंग्रेजों के लिए मुमकिन न हो पाता।
     खुशवन्त सिंह का बाप शोभा सिंह 1978 तक जिन्दा रहा और दिल्ली के हर छोटे-बडे आयोजन में बाकायदा आमंत्रित अतिथि जाता रहा। हांलाकि बहुत सी जगह उसे अपमानित भी होना पडता था, लेकिन इसका वह अभ्यस्त था, क्योंकि अगर उसके पास करेक्टर नाम की चीज होती तो वह ऐसा घिनौना कृत्य न करता। हराम की मिली दौलत और जमीन से खुशवन्त सिंह ने एक ट्रस्ट बना लिया और हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाने लगे जैसा कि पाकिस्तानी एजन्ट गुलाम नबी फई आयोजित कराता रहा जिसमें हमारे देश के नामचीन और देशभक्त पत्रकार, समाजसेवी और पूर्व जज बड़े मजे से शिरकत करते रहे हैं, वह भी इस खुशफहमी में कि का कोई जाने पईय्ये। 
     मैमोरियल लेक्चर में आने वाले बहुत से लोग अज्ञानतावश ही इस गद्दार की फोटो पर माल्यार्पण कर देते थे, जैसे कि हम और आप किसी प्रसिद्ध मन्दिर में जाये तो कईएक मूर्ति आपको ऐसी मिल जायेंगी कि आप जानते ही नहीं कि ये देवता हैं या राक्षस लेकिन आप पुश्प अर्पित कर देते हैं। भले ही वहॉं पुजारी के स्व0 पर-दादा की मूर्ति लगी हो लेकिन आप भोलेपन में अज्ञानतावश उसपर भी पुश्पवर्षा कर देते हैं। ठीक वैसा ही शोभा सिंह की फोटो के साथ होता रहा, वरना मैमोरियल लेक्चर के स्थान पर फोटो रखने का क्या औचित्य?
     अब इस देश के नन्हे, जो एकदम भोलेभाले हों और जिन्हें कुछ न पता हो, उन्हें नन्हा कहा जाता है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो कि एक सरदार हैं, एक दूसरे सरदार खुशवन्त सिंह के गद्दार स्व0 पिता सरदार शोभा सिंह के नाम से दिल्ली के विन्डसर प्लेस का नाम, सर शोभा सिंह के नाम पर रखने के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को सिफारिशी पत्र लिखा है। घ्यान रहे इनका भी नाम श से शीला दीक्षित ही है।
     अब आप स्वयं समझ लाजीए एक देशद्रोही को पुरस्कार कौन देगा? अंग्रेजों ने दिया क्योंकि शोभा सिंह ने उनके लिए हिन्दुस्तानी देशभक्त के साथ गद्दारी की और वर्तमान में सरदार मनमोहन सिंह उसे पुरस्कृत करने जा रहे हैं, तो यह कौन हुए! इससे तो अच्छा था कि इस चौक का नाम भिंडरावाला चौक रख दिया जाता। एकसाथ कईएक सरदारों को खुश किया जा सकता था। इससे एक नहीं लाखों सरदार खुश हो जाते, इस एक को खुश करने से क्या फायदा?
      इससे तो हमारे लखनऊ के वे पत्रकार ज्यादा अच्छे हैं जो औरतों के विषय में भौण्डा लेखन तो नहीं कर पाते, बल्कि औरतों को इज्जत के साथ बड़े-बड़े नेताओं से मिलवाने का काम करते हैं। लेखन-वेखन को मारिये गोली, वे तो इतने भोले हैं कि जिस भाषा के अखबार में काम करते हैं उस भाषा में अपना और अपने बाप का नाम भी नहीं लिख सकते लेकिन उनके बाप ने खुशवन्त सिंह के बाप की तरह गद्दारी नहीं की, किसी देशभक्त को सूली पर नहीं चढ़वाया। इसीलिए उनकी पहचान खुशवन्त सिंह के स्तर की नहीं हो पाई है, लेकिन बड़ी सिद्दत से वे दूसरे प्रयोजन से अपना नाम अमर करने में लगे हैं। वाह रे खुशवन्त सिंह खूब बढ़ाई तेरे बाप शोभा सिंह ने इस भारत की शोभा, और इस पर आलम यह कि उसके नाम पर दिल्ली का चौक होने जा रहा है।
सतीश प्रधान

Thursday, July 28, 2011

देश को जरूरत है एक अदद चाणक्य की!


चाणक्य का नाम सभी ने सुना है। चाणक्य का नाम भले ही पीछे रह जाये, लेकिन उसकी नीति को आज भी अमल में लाया जाता है। चाणक्य को क्यों याद किया जाता है, संभवतः इसलिए कि धनानन्द नाम का एक राजा मगध राज्य में राज करता था, उसका काम था केवलमात्र मगध राज्य को लूटना। उसका राष्ट्र इतना बड़ा नहीं था जितना भारत है, इसलिए वह अकेला लुटेरा ही राज्य के लिये पर्याप्त था। हमारा भारत देश इतना बड़ा है कि अकेला ही विश्व के बराबर है। हिन्दुस्तान सोने की चिड़िया था, है, और रहेगा। इसे मोहम्मद गजनवी जैसे लुटेरों ने लूटा। इसके बाद ईस्ट इण्डिया कंपनी ने लूटा ओर अब देश के स्वतंत्र होने के बाद इसे अपने देश के काले लुटेरे साफा बांधकर लूट रहे हैं। दूसरे देश के लुटेरों को यहां आकर इसे लूटने के लिए आडम्बर करना पड़ता था, जैसे अंग्रेज ने ईस्ट इंडिया कंपनी का सहारा लिया। अब क्योंकि अपने ही देश के काले लुटेरे इसे लूट रहे हैं इसलिए इन्हें किसी आडम्बर की क्या जरूरत है, ये तो स्वयं ही इतने काले हैं कि वे समझते हैं, इन्हें कौन देख पायेगा। इसी कड़ी में आप ए. राजा, मधु कोड़ा, कलमाड़ी, कनिमोझी को गिन सकते हैं। अब इस साफाधारी से निजात कोई चाणक्य ही दिला सकता है!

ये काले लुटेरे इस देश का धन लूटकर विदेशी खजाने में जमा कर रहे हैं। इसे ही कालाधन कहा जाता है, क्योंकि इस पर भारत में आयकर अदा नहीं किया जाता। आयकर इसलिए जमा नहीं किया जाता क्योंकि इसका श्रोत बताने लायक नहीं है। भारत में कालेधन के खिलाफ चहुं ओर से उठ रही आवाज, बाबा रामदेव के कालेधन के खिलाफ किये गये राष्ट्रव्यापी आंदोलन एवं उच्चतम न्यायालय में दाखिल पीआईएल पर कोई फैसला आये इससे पूर्व ही डा0 मनमोहन सिंह की सरकार ने बड़ी होशियारी से केन्द्रीय राजस्व सचिव की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय जांच समिति का गठन किया और उसमें सीबीआई एवं प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक राजस्व खुफिया के महानिदेशक, नारकोटिक्स के महानिदेशक एवं सीबीडीटी के अध्यक्ष सहित कुछ अन्य को सदस्य बनाकर यह दिखाने की कोशिश की कि वे इस समस्या से आहत हैं तथा ईमानदारी से इसकी तह तक जाकर विदेश में जमा काले धन को भारत में लाना चाहते हैं।

ध्यान रहे ये सारे अधिकारी और विभाग वैसे भी डा0 मनमोहन सिंह के अधीन ही हैं फिर क्यों जांच समिति बनाने की जरूरत पड़ी? दरअसल ये सब सरकार की नौटंकी है, क्योंकि कालेधन को भारत में लाने की मांग करने वाले बाबा रामदेव के साथ कैसा क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया गया किसी से छिपा नहीं है। यही कृत्य दर्शाता है कि सरकार ने ठीक वैसा ही कार्य किया जैसे कि कोई दरोगा रात में सिविल ड्रेस में डकैती डाले और दिन में वर्दी पहनकर स्वयं उस डकैती की जांच पर निकल पड़े। चिदम्बरम, कपिल सिब्बल और डा0 मनमोहन सिंह ने ठीक वैसा ही किया। दिन के उजाले में कालेधन को बाहर भेजने में मदद की तथा उसकी जांच की मांग करने वाले बाबा को रात के अंधेरे में आतंकित किया। कालेधन से देश को हो रहे नुकसान से यदि कोई सबसे ज्यादा चिंचित था तो बाबा रामदेव, उच्चतम न्यायालय और इस देश की 121.90 करोड़ निरीह जनता, जिसके पास पांच साल तक इंतजार करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प शेष नहीं है। इसी के साथ सत्ता में रहने वाली अथवा विपक्ष की भूमिका निभा रहीं सारी पार्टियों का चरित्र एक सा दिखाई दिया। केन्द्र में विपक्ष की भूमिका निभा रही भारतीय जनता पार्टी का चरित्र भी कमोबेश सत्तापक्ष वाला ही है। जिधर निगाह डालिए सभी राजनीतिक दल कम्बल ओढ़कर मलाई चट करने में लगे हैं। भाजपाईयों ने तो सारी सीमाएं लांघ डाली हैं, और पूरी बेशर्मी के साथ लुटिया चोर मुख्यमंत्री बी.एस.येदियुरप्पा को खुली छूट दे रखी है।

भगवान ही मालिक है इस देश का कि पूरी सरकार ही चोरों की जमात या कहिए अलीबाबा और 40 चोर वाली हो गयी है, केन्द्र हो या कर्नाटक की धरती। कर्नाटक में पूरी सरकार दोनो हांथो से कर्नाटक की धरती में दबे लोहे की लूट डंके की चोट पर करती रही है। ऐसी सरकार को क्या सरकार कहना उचित है? लुटेरों के सत्ता पर काबिज होने का इससे बड़ा उदाहरण आजतक कहीं नहीं देखा गया है। इसपर बेशर्मी ये कि भाजपा भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन चला रही है! जिस पार्टी को लूट के धन से चलाया जा रहा हो क्या वह इस देश के लोगों को स्वच्छ प्रशासन दे सकती है?

ऐसा केवल कर्नाटक में ही हो रहा है, ऐसा भी नही है। हरियाणा में अवैध खनन का एक माफिया प्रत्येक उस राज्य में खटाक से पहुच जाता है जहॉं भी भाजपा की सरकार बनती है। इसके कार्य करने की पद्वति जरा अलग है, पहले यह वहॉं से अखबार निकालता है और फिर खनन के कारोबार में घुसकर राष्ट्रभक्ति के गीत गाता हुआ भाजपाईयों की सेवा करता है। लगता है भाजपा अब ऐसे ही लोगों के पैसों से चलेगी। कौन सा ऐसा कारण है कि इस अवैध खनन के करोबारी को राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सम्मानित सदस्य बनाया गया है? क्या इस पार्टी का यही आर्थिक दृष्टिकोंण है कि सरकारी माल को बाप की जागीर समझो और ऐश करो। कांगे्सियों ने तो राजनीति को व्यापारिक दृष्टि से चलाने की ठान ली है मगर भाजपाईयों से यह अपेक्षा कहॉं थी कि वे सीधे ही इसे बाजार में बिकने की वस्तु बना देंगे।

किस्मत देखिए इस देश की कि दक्षिण भारत में पहली बार कर्नाटक में भाजपा का कमल खिला तो उसने पूरे राज्य को ही कीचड़ में तब्दील कर दिया, जिसके कारनामों को उसकी पार्टी का अध्यक्ष अनैतिक तो कहता है, लेकिन असंवैधानिक नहीं। क्या खूब तोड़ निकाला है चोरों को चोर रास्ते से बाहर सुरक्षित निकालने का। धिक्कार है ऐसी पार्टी और नेताओं पर जो सब कुछ अनैतिक मानते हुए भी कहते हैं कि हम कानून के अनुसार काम करेंगे।ऐसी ही विषम परिस्थितियों में उच्चतम न्यायालय ने विदेशी बैंकों में जमा काले धन पर अभूतपूर्व एवं बहुत ही तर्कसंगत और राष्ट्रहित में बुद्धिमता पूर्ण फैसला दिया है। उच्चतम न्यायालय ने धू्रतापूर्वक बनाई गई उच्च स्तरीय जांच समिति को ही एस.आई.टी. में तब्दील करते हुए उसके अध्यक्ष पद पर पूर्व न्यायाधीश श्री बीपी जीवन रेड्डी तथा उपाध्यक्ष पद पर पूर्व न्यायाधीश को सम्मिलित करते हुए इसमें रॉ के पूर्व निदेशक को भी बतौर सदस्य सम्मिलित कर अपने अधीन कर लिया। देश हित में इससे अच्छा फैसला कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। अब एस.आई.टी को विदेशी बैंकों में जमा भारत के कालेधन के बारे में जांच करने के साथ-साथ आपराधिक कार्रवाई एवंअभियोजन का भी अधिकार होगा। ऐसा पहलीबार हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट ने सीधे-सीधे जांच का काम अपने हाथ में ले लिया है। ऐसा उसने क्यों किया इसके भी पर्याप्त कारण हैं।

अदालत ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है कि इतने बड़े पैमाने पर कालेधन का विदेशों में जाना बताता है कि संविधान के परिप्रेक्ष्य में शासन को दुरुस्त तरीके से चलाने की केन्द्र सरकार की क्षमता क्षीण हो गई है। यह नोबेल पुरस्कार विजेता गुजर मिरइल के ‘नरम राष्ट्र’ की अवधारणा की याद दिलाता है। राज्य जितना ही नरम होगा कानून बनाने वालों, कानून की रखवाली करने वालों तथा कानून तोड़ने वालों में अपवित्र गठजोड़ की संभावना उतनी ही बलवती होगी। साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि हसन अली एवं काशीनाथ तापुरिया तक से पूछताछ लम्बे समय तक नहीं हुई है और जब अदालत के निर्देश पर ऐसा किया गया तो कई कार्पोरेट घरानों के दिग्गजों, राजनीतिक रूप से शक्तिशाली लोगों तथा अंतर्राष्ट्रीय हथियार विक्रेताओं के नाम सामने आए। इसी के साथ केन्द्र सरकार मन्थर गति से चल रहे अन्वेषण का भी कोई संतोषजनक कारण नहीं बता पाई।

निर्णय में यह भी कहा गया कि स्विट्जरलैण्ड के यूबीएस बैंक को रिटेल बैंकिंग के लिए लाइसेंस देने से भारतीय रिजर्व बैंक ने 2003 में इस आधार पर मना कर दिया था कि हसन अली मामले में प्रर्वतन निदेशालय उसकी जांच कर रहा है। 2009 में यूबीएस बैंक को लाइसेंस जारी कर दिया गया तथा अपने निर्णय को बदलने का आर.बी.आई. द्वारा कोई कारण नहीं बताया गया। यह संस्थान भी खूब गोरखधंधा करता है तथा भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कालाधान एक अत्यंत ही गंभीर समस्या है जिसका नकारात्मक प्रभाव केवल अर्थव्यवस्था पर ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी पड़ता है, क्योंकि आतंकवादी गतिविधियों में भी इसका इस्तेमाल हो रहा है। अब सवाल यह भी उठता है कि क्या विशेष जांचदल (एसआईटी) के गठन से कालाधान वापस लाने की प्रक्रिया तेज हो पाएगी? हवाला मामले में उच्चतम न्यायालय की निगरानी में की गई जांच के बावजूद एक भी आरोप पत्र ट्रायल कोर्ट में खरा नहीं उतरा और सभी अभियुक्त दोषमुक्त हो गये।

अभी 42 देशों के बैंकों में भारत का कालाधन है। इनमें 26 देशों से भारत सरकार की सहमति होनी है। दरअसल 2008 में पूरे विश्व में आये क्रेडिट क्रन्च के बाद सभी देशों का ध्यान इस समस्या पर गया तो संयुक्त राष्ट्र ने इस बारे में प्रस्ताव पारित किया जिससे इन देशों के ऊपर दबाव बढ़ा, किन्तु अभी भी कई देश अपने गोपनीय कानून को बदलने को तैयार नहीं हैं। अमेरिका में फ्लोरिडा की अदालत में यूबीएस बैंक के विरुद्ध एक मुकदमा दायर हुआ तो बैंक उन चार हजार अमेरिकियों के नाम देने पर सहमत हो गया जिनके खाते उस बैंक में थे, किन्तु स्विट्जरलैण्ड की संसद ने उस करार को रद्द करते हुए कहा कि वह जुर्माना भरना पसंद करेगा किन्तु गोपनीयता कानून के साथ समझौता नहीं करेगा। इसका सीधा सा मतलब है कि उस देश की पूरी अर्थव्यवस्था ही गोपनीय खातों में जमा धन से चल रही है।

एसआईटी गठन से देश को लाभ ही होगा और वह सरकार को आवश्यक कार्रवाई के लिए आवश्यक निर्देश दे पायेगा। उच्चतम न्यायालय ने सपाट शब्दों में कहा कि असफलता संवैधानिक मर्यादाओं या राज्य को प्राप्त शक्तियों की नहीं है बल्कि उन व्यक्तियों की है जो विभिन्न एजेन्सियों को चला रहे हैं। ऐसा कृत्य नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन है। संविधान के अनुच्छेद-14 के अन्तर्गत कानून की नजर में सभी समान हैं। अदालत ने माना है कि यहां कानून तोड़ने वालों को राज्य का संरक्षण मिल जाता है। सेन्ट्रल हाल में बात के बतंगड़ कार्यक्रम में ऐसे फैसलो पर ईटीवी के हरिशंकर व्यास और मि. शर्मा जो हिन्दुस्तान टाइम्स में थे ने टी.वी. चैनल पर समीक्षा करते हुए कहा कि यह तो सरकार के कार्यक्षेत्र में बेजा दखल है। उन्हें सरकार द्वारा की जा रही भ्रष्ट कारगुजारियां इसलिए नहीं दिखाई दे रहीं क्योंकि वे भी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। ये सब या इनके चैनल, सरकार के रहमोकरम पर जीते हैं। हरिशंकर तो टी.वी.पर एकदम जनाने स्टाइल में वार्ता करते हैं। उन्हें देख कितने ही लोग टी.वी. बंद कर देते हैं। दलाल पत्रकारों का पूरा गैंग इस समय एक चैनल में घुस गया है। ये ऐसे लोग हैं जो सत्ता के गलियारे में सरकार के खिलाफ चिल्लाते हैं लेकिन सरकार के रूम में पहुंचते ही बिस्तर पर लेट जाते हैं।

दरअसल मीडिया के ज्यादातर लोगों की कलम और समीक्षा करने की शक्ति अपने व्यक्तिगत लालच के चक्कर में सरकार के पास बंधक पड़ी है। आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि पत्रकारों के पास भी करोड़ों की कीमत के बंगले हैं। वे भी ऑडी और मर्सेडीज में घूमते हैं। साथ ही मौज-मस्ती के लिए बहुत सी नीरा राडिया भी उनके पास हैं। विदेश में जमा कालाधन वापस भारत में लाने के साथ-साथ इसी भारतवर्ष में जमा/रखे काले धन को भी खोजना होगा। जिसने भी काला धन विदेश में जमा किया है निश्चित रूप से समझ लीजिये कि जितना उसने विदेशी बैंकों में डाला है उससे कई गुना अधिक इसी देश में रखा है। इस देश में खजाना ही खजाना है। अंग्रेज बेवकूफ नहीं हैं कि भारत को सोने की चिड़िया कहता है। यहां तो इतना खजाना है कि कुबेर का खजाना भी कम पड़ जाये। हमारी मनोधारणा ऐसी है कि आज भी हम यह सोच बैठे हैं कि खजाना तो राजा-महाराजाओं के पास ही होता था लेकिन उनको पता नहीं कि हिन्दुस्तान में राजाओं को भिखारी बना देने के बाद खजाना कहीं गुल थोड़े ही हो गया। जिस तरीके से राजाओं के पास खजाना एकत्र होता था ठीक उसी तरह से अब आज की सत्ता के पास खजाना एकत्र होता है। पहले इस देश में 543 राजा थे अब 543 की जगह, केन्द्र में पूरा मंत्रिमण्डल है, राज्यों में पूरा मंत्रिमण्डल है तथा केन्द्र शासित प्रदेशों का पूरा मंत्रिमण्डल है।

खजाने की जानकारी मिलना शुरू हुई हर्षद मेहता के हजारों करोड़ के शेयर घोटाले से। इससे देश की जनता को पहली बार पता लगा कि असली खजाना तो शेयर दलालों के पास है। इसके बाद एक राजनेता के यहां रजाई-तकियों में और यहां तक की बड़ी-बड़ी पन्नियों में नोट मिले तो लगा अरे खजाना शेयर दलाल के यहां नहीं नेताओं के पास है। लेकिन उदारीकरण के दौर में जब हमारे यहां के करोड़पतियों की संख्या बढ़ने लगी और वे फोर्ब्स पत्रिका की सूची में जगह पाने लगे, कोई दुनिया के अमीरों में सर्वोच्च स्थान पाने लगा और कोई पहले दस में आने लगा तो लगा पिछला आंकड़ा सब बकवास है, खजाना, तो वास्तव में इन धन्ना सेठों/उद्योगपतियों के पास है। इसके बाद जब नेताओं की ही तरह आईएएस अफसरों के यहा भी रजाइयों के अलावा नोट गिनने की मशीन पकड़ी गई तो लगा अरे ये शेयर दलाल, धन्ना सेठ/उद्योगपतिें/नेता तो सब इनके सामने बौने हैं। असली खजाना तो इन अधिकारियों के पास है। इसके अलावा भी इनके पास से बैंक लॉकर में करोड़ों रुपया, फार्म हाउस और रीयल इस्टेट में उनके निवेश का पता लगा तो पक्का हुआ कि असली खजाना इन्हीं के पास है।

आगे जानकारी मिली कि घोड़ों के व्यापारी हसन अली के पास भी साठ-सत्तर हजार करोड़ का खजाना है तो लगा कि भाई इस भारत वर्ष में खजाने की कोई कमी नहीं है। सज्जन व्यक्ति को छोड़कर खजाना बहुतेरे के पास है। नेता ए. राजा के पास एक लाख करोड़ से ऊपर का खजाना है। सुरेश कलमाड़ी और कनिमोझी के पास भी खजाने की कमी नहीं है। खजाना शरद पवार के पास है, मधुकोड़ा के पास है, मुलायम सिंह के पास है, अमर सिंह के पास है, कपिल सिब्बल के पास है, सोनिया गांधी के पास है। बाबा रामदेव ने ऐसे खजाने के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया कि देश का खजाना कुछ तथाकथित लोगों के विदेशी बैंक खाते में जमा हैं, जिसे वापस भारत लाया जाये तो पूरी केन्द्र सरकार गुण्डई पर उतर आई। बाबा रामदेव से नाराज होने पर केन्द्र सरकार ने बाबा के ही खिलाफ जांच बैठा दी कि बाबा के ट्रस्ट की जांच की जाये जिस पर बाबा ने ट्रस्ट की एवं अपनी सम्पत्ति की घोषणा कर दी। जांच बाबा रामदेव के खिलाफ बैठी लेकिन परेशानी अन्य बाबाओं को होने लगी। तब पता लगा कि अरे बहुत बड़ा खजाना तो इन बाबाओं के पास भी है। अभी हाल में पुट्टापर्थी के सांईबाबा की मृत्यु के बाद तथा केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर का तहखाना खुला तो पता चला कि खजाना तो वास्तव में भगवान जी के तहखाने में छिपा है। तब पता लगा कि असली खजाना तो भारत में पुजारी जी छिपाये बैठे हैं।
अब बताइये भारत में खजाने की कमी कहां है। जरूरत तो इसे राष्ट्रहित में जब्त करने और गरीबों के उत्थान में खर्च करने की है। कालेधन की जांच पर विशेष जांच दल (एस.आई.टी) के गठन के फैसले से असहमत हुई सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इसकी समीक्षा करने और इसे वापस लेने की अपील की है। सुप्रीम कोर्ट ने 4 जुलाई को एसआईटी के गठन का आदेश दिया था। सरकार का कहना है कि यह आदेश उसका पक्ष पूरी तरह सुने बगैर दिया गया था। एसआईटी के गठन फैसलें पर पुर्नविचार के साथ आदेश को वापस लेने वाली याचिका दायर करने का फैसला इसलिए लिया गया है ताकि उसे अदालत में अपनी बात कहने का मौका मिल सके। दरअसल पुर्नविचार याचिका की समीक्षा बंद कमरे में होती है और इसमें वकीलों को भी उपस्थित रहने की इजाजत नहीं होती जबकि आदेश वापस लेने की याचिका की सुनवाई खुली अदालत में होती है।

इस याचिका की जरूरत ही क्या है. सुप्रीम कोर्ट ने जांच के आदेश क्या किसी विदेशी एजेंसी से कराने के दिये है। यदि केंद्र सरकार ईमानदार है तो उसे परेशान होने की जरूरत ही नहीं है। एसआईटी में उसी के विभाग के अधिकारी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने किसी अधिकारी का आयात नहीं किया है फिर क्यों मनमोहन सरकार चिंतित है? सुप्रीम कोर्ट को अटार्नी जनरल और अन्य ऐसे सरकारी वकीलों को भी आगाह करना चाहिए कि बेतुके और जनहित/देशहित के विपरीत किये गये कार्यपालिका के काम के बचाव में याचिका दाखिल करने की कोशिश ना करें। सरकार को सही राय दें। कानून मंत्रालय में बैठे न्यायिक सेवा के अधिकारियों को भी सचेत किया जाना चाहिए कि किसी भी प्रकार की ऐसी सलाह ना दे जो जनहित/देशहित के विपरीत हो।
सतीश प्रधान