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Thursday, August 24, 2017

रवीन गांधी, अमरीका छोड़ो;

अन्तिम किश्त
           

सीमा से परे जाकर लेख लिखने वाले रवीन गांधी के खिलाफ परोशी जा रही नस्ली टिप्पणी/नफरत भरे संदेश वास्तव में ये सिद्ध करते हैं कि उन अमेरिकन्स में देशभक्ति  है और वे अपने देश को अपने से भी ज्यादा प्यार करते हैं, मान देते हैं, सम्मान देते हैं, अमेरिकन्स के लिए देश पहले है, अपना घर, सुख-चैन, बाद में, जबकि भारतीयों के लिए अपना घर पहले है, देश बाद में। इसलिए भारतीयों के लिए ऐसी घड़ी आ गई है कि, वे अपना सबकुछ बेस्ट देने के बाद भी नस्ली टिप्पणी झेलने और जूते खाने को मजबूर हैं।


कुछ टिप्पणीयों को यहां उघृत किया जाना अपरिहार्य है। जैसे कि एक महिला ने अपने वॉयस मेल में रवीन गांधी के लिए आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया और कहा कि अपना कूड़ा समेटो और भारत चले जाओ और अपने साथ निक्की हेली को भी लेते जाओ।


 
निक्की हेली संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की दूत हैं। उन्हें राजदूत किस उद्देश्य से बनाया गया, ये तो अमेरिका ही जाने, लेकिन इतना सत्य है कि उसने अपने फायदे के लिए ही बनाया होगा। अमेरिकन जानते हैं कि भारतीय, गुलामी मानसिकता के लोग हैं, उनके जीन्स में गुलामी कूट-कूट कर भरी है. वे किस बिना पर हमारे ही देश का खाकर-पीकर हमारे ही श्वेत राष्ट्रपति की नीतियों का विरोध कर रहे हैं।

अमेरिका में नस्ली भेदभाव की घटनाओं में इजाफा होना परिलक्षित है। यदि समय रहते भारतवंशियों ने स्वंय से अमेरिका नहीं छोड़ा तो कुछ ही दिनों में उन्हें अमेरिका को  वैसे ही छोडऩा पड़ेगा जैसे लोगो को सीरिया छोड़ना पड़ रहा  हैं। उनकी सारी पूंजी, चल/अचल सम्पत्ति वहीे रह जाएगी और भारत वापस लौटना भी उनके लिए सम्भव नहीं हो पायेगा।



किसी भी देश का प्रधानमंत्री/राष्ट्रपति वही नीति बनाता है और लागू करता है, जो उसके लिए मुफीद होती है, जो उसे सत्ता में ज्यादा दिनों तक टिकाये रहने में मददगार होती है। रवीन गांधी भी अपनी कम्पनी में उसी नीति को अपनाते होंगे, जो उनके लिए मुफीद हो। वे उन कर्मचारियों के भले की नीति तो बनाते नहीं होंगे।

दूसरे उन्हीं के अधीन काम करने वाला, भले ही वह कम्पनी का प्रबन्ध निदेशक बना दिया गया हो, रवीन गांधी को ये तो कतई अच्छा नहीं लगेगा कि वो प्रबन्ध निदेशक, रवीन गांधी की नीति की कटु अलोचना करें। ऐसा करने का क्या मतलब होता है, ये रवीन गांधी को आज नहीं तो कल समझना ही होगा।


वैश्विक परिवेष में ऐसी टिप्पणीयों को निर्विकार भाव से समझना होगा, और उसी के अनुरूप टिप्पणी करनी होगी। जब भारत देश से प्यार करने वालों ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो का सफल आन्दोलन चलाया और अंग्रेजों को भगा दिया तो अमेरिकन्स यदि 'अमेरिका छोड़ो का नारा बुलन्द कर रह हैं, तो कैसा और काहे का विरोध-हंगामा ।

रवीन गांधी को वॉयसमेल पर प्राप्त मैसेज को यू-टयूब, ट्विटर और फेसबुक पर पोस्ट करने से कोई फायदा होने वाला नहीं। ये तीनों प्लेटफार्म अमेरिकन्स के ही हैं, उस पर की जा रही पोस्टिंग, भारतीयों-अमेरिका छोड़ो के आन्दोलन को ही बढ़ावा देगी। मेरी राय में निक्की हेली, रवीन गांधी और उन जैसे हजारों लाखों भारतीयों को अपने आप अमेरिका छोड़कर भारत वापस आ जाना चाहिए, उसके लिए वे सीधे भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र भाई मोदी से विचार-विमर्श कर सकते हैं।

अपने घर की सूखी रोटी से अच्छा, अमेरिका का जूता भरा पिज्जा, मुझे तो पसन्द नहीं, आप जैसे सौतेले अमेरिकन्स को पसन्द हो तो खाईये पिज्जा, लेकिन अपमान भरी जिन्दगी तो जीनी ही पड़ेगी, उससे कोई नहीं बचा पायेगा।

सतीश प्रधान
(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार,स्तम्भकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार है)

ओ ‘Indians” अमरीका छोड़ो;

प्रथम किश्त
          अंग्रेजों, भारत छोड़ो की तर्ज पर आजकल अमेरिका में भी भारतवंसियों  के लिए यही तराना गूँज रहा है। ताज्जुब की बात यह है कि ये भारतवंशी ना तो वहां के शासक हैं, और ना ही अमेरिकियों पर कोई जुल्म कर रहे हैं, जिससे आहत होकर अमेरिकियों को एसा करना पड़ रहा हो। अपनी बुद्धि, अपने कौशल, अपनी लगातार मेहनत करने की प्रवृत्ति (जिसका प्रदर्शन वे हिन्दुस्तान में नहीं करते) के बल पर ही वे अमेरिका/विदेश में ल्यूक्रेटिव नौकरी पाते हैं। प्रतिस्पर्धा में अमेरिकियों को पछाड़ कर ही सीईओ जैसे पद को प्राप्त कर पाते हैं। और ऐसा उन्होंने स्वंय से नहीं किया है। 
           उन्हें अच्छे/सम्मान जनक पदों पर अमेरिकियों ने ही पद-स्थापित किया है, फिर आज ऐसी स्थिति क्यों पैदा की जा रही है कि नस्लभेदी टिप्पड़ियों ने इन भारतीयों को नवाजने के साथ 'अमेरिका छोड़ो का नारा ही नहीं दिया जा रहा है, बल्कि कई भारतीयों को तो बेवजह गोली मार दी गई। इन सब कृत्यों के मूल में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की विदेशी भगाओ नीति भी है, जिसके बल पर अमेरिकन, अमेरिका में बसे भारतीयों का उत्पीडऩ कर रहे हैं, मानवधिकारों का पोषक अमेरिका केवल अमेरिकियों पर होने वाले उत्पीडऩ को ही मानवधिकारों  के हनन को तवज्जो देता है, जब वह स्वंय में किसी भारतीय, अथवा अन्य विदेशी मूल के लोगों के साथ उत्पीडऩ करता है तो मानवाधिकारों का हनन कोई मुद्दा नहीं रह जाता है।
           ताजा मसला जी0एम0एम0 नॉन स्टिक कोटिंग्स कम्पनी के संस्थापक और सीईओ रवीन गांधी के सीएनबीसी में प्रकाशित एक आलेख के  बाद शुरू हुआ है, जिसके बाद ट्रम्प के समर्थकों ने भरपूर नस्ली टिप्पणीयां करना शुरू कर दिया। दरअसल रवीन गांधी ने अपने लेख में लिखा है कि वर्जीनिया में हुई नस्ली हिंसा के बाद ट्रम्प ने अपने बयान में श्वेत श्रेष्ठतावादियों का बचाव किया है, इसलिए वे ट्रम्प के आर्थिक एजेंडे का समर्थन नहीं करेंगे। भले ही बेरोजगारी एक प्रतिशत रह जाये अथवा जीडीपी सात प्रतिशत बढ़ जाये। लेकिन वे ऐसे राष्ट्रपति का समर्थन नहीं करेंगे जो नस्ली भेदभाव को बढ़ावा देता हो और वह उन अमेरिकियों से नफरत करे जो उन जैसे नहीं दिखते हैं।
           यहां पर मैं, रवीन गांधी के स्टेटमेंट /आलेख से सहमत नहीं हूं। रवीन गांधी को समझना होगा कि वे भारत में नहीं हैं, अमेरिका में हैं। भले ही अमेरिका  ने उन्हें अमेरिकी नागरिक मान लिया हो, लेकिन हैं वे अमेरिका की सौतेली औलाद? उन्होंने आपको अमेरिकी इसलिए तो नहीं बनाया कि आप वहीं रहें, वहीं खायें, वहीं मौज करें और उसी देश के अमेरिकी राष्ट्रपति की नीतियों पर तल्ख़ टिप्पणी करें। ऐसा रवीन गांधी ने इसलिए किया कि वे भूल गये कि वे भारत में नहीं अमेरिका में हैं। भारत में तो एक टुच्चे लेवल का व्यक्ति भारत के सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री पर ऐसी बेहुदा ओद्दी और हद दर्जे की गन्दी टिप्पणी कर देता है कि-यदि वह व्यक्ति अमेरिका में हो तो सूट कर दिया जाये, लेकिन भारत में वह लीडर हो जाता हैं, उसके साथ हजारों फिरका परस्तों की भीड़ खड़ी हो जाती हैं।

           इसीलिए रवीन गांधी जी, भले ही आप अमेरिका के लिए फायदे की चीज़ हों, लेकिन ये अधिकार आपको कागजी रूप से मिले अधिकारों में शामिल नहीं हैं। आपको अथवा किसी भी गैर अमेरिकी लोगों को अमेरिका ने ये अधिकार ना तो दिया ना ही देंगे कि आप जैसे लोग, वहां के राष्ट्रपति की नीतियों की इस तरह से भर्तस्ना करें। आप अपनी तुलना उन अमेरिकियों से नहीं कर सकते, जो आप पर नस्ली टिप्पणीयां कर रहे हैं, क्योंकि उनमें देश भक्ति है, और ऐसे राष्ट्रीय करेक्टर की छवि, किसी भी उन भारतीयों में नहीं है, जो विदेश में जा बसे हैं, और अपनी और केवल अपनी मौज-मस्ती और अपने परिवार की जिन्दगी का ही भला सोचते है।
सतीश प्रधान
(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार,स्तम्भकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार है)
Satish Pradhan