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Sunday, February 5, 2012

ऐसे डॉक्टर और केमिस्ट दोनों ठग


          भारत का स्वास्थ्य मंत्रालय यदि दवा कम्पनियों के दबाब में नहीं आया तो जल्द ही डॉक्टरों और दवा कम्पनियों की मिलीभगत से चलने वाला खेल बन्द हो सकता है। केन्द्रीय योजना आयोग ने मंत्रालय से कहा है कि वह सभी सरकारी और प्राइवेट डॉक्टरों के लिए कम्पनियों के नाम से दवा लिखने पर तुरन्त पाबन्दी लगाये। इसकी जगह उन्हें सिर्फ दवा का जेनेरिक नेम लिखने को कहा जाये। इसी के साथ दवा कम्पनियों के प्रचार और मार्केटिंग के गोरखधन्धे पर भी नज़र रखने को जरूरी बताते हुए योजना आयोग ने कहा है कि इस मद में होने वाले खर्च की पाई-पाई का हिसाब सार्वजनिक किया जाये।

          केन्द्रीय योजना आयोग की स्वास्थ्य संचालन समिति ने अगली पंचवर्षीय योजना के लिए तैयार की गई अपनी रिपोर्ट में दवा क्षेत्र के नियमन को बेहद जरूरी बताया है। डॉक्टर चाहे सरकारी अस्पताल का हो अथवा प्राइवेट अस्पताल का, अथवा अपना क्लीनिक चलाता हो, वह मरीज को केवल जेनेरिक नेम या इंटरनेशनल नान प्रोप्राइटरी नेम(आईएनएन)से ही दवाएं लिखे। साथ ही सरकारी क्षेत्र में दवाओं की खरीद और वितरण के हर स्तर पर भी यही तरीका अपनाया जाये।

          केन्द्रीय योजना आयोग की इस जनहितकारी सिफारिश को अमल में लाते हुए यदि स्वास्थ्य मंत्रालय कुछ माह के अन्दर ऐसा नियम बना देता है तो भारत में दवा कम्पनियों और डॉक्टरों के बीच चल रहा हाई प्रोफाइल गेम बन्द हो सकता है। वर्तमान में दवा कम्पनियां अपनी मार्केटिंग व्यवस्था के तहत डॉक्टरों को तरह-तरह से प्रभावित करती हैं। ए0सी0, टी0वी0, फर्नीचर आदि के साथ इनवर्टर तक दवा कम्पनियॉं डॉक्टरों को मुफ्त में मुहैय्या कराती हैं, जिसका खामियाजा मरीजों को भुगतना पड़ता है, जिन्हें न सिर्फ मंहगी दवाएं ही खरीदनी पड़ती हैं, बल्कि कईबार तो अनावश्यक एण्टी बायोटिक दवाओं का प्रयोग भी करना पड़ता है, जो सीधे-सीधे उसकी किडनी पर प्रभाव डालती हैं। आयोग तो चाहता है कि मंत्रालय सिर्फ ऐसा नियम बनाने तक ही सीमित ना रहे, बल्कि इसकी नियमित जॉच यानी प्रेस्क्रिप्शन आडिट की भी व्यवस्था करे। लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय क्या चाहता है यह आपको बाद में बतायेंगे। अभी आपको बताते हैं, उन मेडीकल स्टोर का खेल जो सरकारी अस्पताल के पास अथवा नर्सिंग होम या प्राइवेट अस्पताल के पास अथवा नर्सिंग होम या प्राइवेट अस्पताल में खोले जाते हैं।
          भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के लखनऊ जनपद के तेलीबाग क्षेत्र में रहने वाले रामकुमार श्रीवास्तव के पैर में दर्द था। जब वो इलाज कराने सिविल अस्पताल गये तो डॉक्टर ने पर्चे पर सात दिन की दवाएं लिख दीं। इसमें तीन दवाएं बाहर से खरीदनी थीं। मरीज अस्पताल के सामने स्थित मेडीकल स्टोर पर दवा लेने पहुंचा, तो पता चला कि दवाएं 700 रूपये की हैं। इतने पैसे थे नहीं, लिहाजा मरीज ने केमिस्ट से सात दिन के बजाय दो दिन की दवाएं देने की बात कही, लेकिन केमिस्ट ने इससे इन्कार कर दिया। निराश रामकुमार ने ये दवाएं अपने घर के पास यानी तेलीबाग के आसपास के दवाखानों पर ढ़ूंढ़ने का भरसक प्रयास किया लेकिन निराश हुए। अंततः दो दिन बाद सिविल अस्पताल के सामने आकर सात दिन की दवाएं लीं।

          मरीज का शोषण तीन चरणों पर हुआ। पहला तब जब मरीज को बाहर की दवाएं लिखी गईं। दूसरा तब जब मेडीकल स्टोर पर बैठे केमिस्ट ने उसे दो दिन की दवा नहीं दी, क्योंकि उसे पता है कि मरीज का वापस आना मजबूरी है। ये दवाएं उसे कहीं और मिल ही नहीं सकतीं। मरीज का शोषण तीसरी बार तब हुआ जब अपने घर से सिविल अस्पताल तक उसे महज दवाएं लेने आने-जाने के लिए सौ रूपये किराया खर्च करना पड़ा। यह स्थिति किसी एक मरीज या एक अस्पताल की नहीं है। हर अस्पताल व आसपास स्थित मेडीकल स्टोरों का यही हाल है। यदि मरीज ने छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्व विघालय को दिखाया है तो वहॉं की लिखी दवाएं चिविवि के बाहर मौजूद मेडीकल स्टोर पर ही मिलेंगीं। इसी तरह सिविल अस्पताल के डॉक्टरों द्वारा लिखी दवाएं उसी अस्पताल के बाहर के मेडीकल स्टोरों पर मिलेंगीं। लोहिया और बलरामपुर अस्पताल भी इससे अछूते नहीं हैं। अस्पताल से मरीज-तीमारदार के निकलते ही मेडीकल स्टोर के लोग उन्हें अपने यहां बुलाने पर आमादा होते हैं।

          मरीजों की जेब पर दवा कम्पनियों और डॉक्टरों की ही नहीं, मेडीकल स्टोर वाले भी नज़र गड़ाए हुए हैं। केमिस्ट महंगी दवाओं की स्ट्रिप काटकर बेचने को तैयार नहीं। डॉक्टर ने दस दिन की दवा लिखी है तो, वे दो-तीन दिन की दवा नहीं देंगे। गरीब मरीजों का हर स्तर पर शोषण हो रहा है। दुखद यह है कि इंडियन मेडीकल एसोसिएशन और केमिस्ट एसोसिएशन इस समस्या से गरीब मरीजों को निजात दिलाने के लिए कोई पहल नहीं कर रहे हैं। (सतीश प्रधान)