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Sunday, March 4, 2012

अंर्तराष्ट्रीय मूल्य के बराबर क्यों नहीं भारत में कोयले का मूल्य?


          देश के शीर्ष उघोगपतियों ने भारत की जनता को घुप्प अंधेरे में देखकर और उनके हाल पर द्रवित होते हुए तथाकथित जाने-माने अर्थशास्त्री डा0 मनमोहन सिंह से व्यक्तिगत रूप से मिलकर भारत के ऊर्जा संकट को दूर करने की गुहार लगाई है। विश्व के कैक्टस, विश्व बैंक ने भी स्वंय तैयार एक अध्ययन के माध्यम से ऊर्जा की उपलब्धता को भारत देश के विकास में एक प्रमुख बाधा बताते हुए उसकी रिर्पोट प्रस्तुत की है। दरअसल ये सारे प्रयास अमीर को और अधिक अमीर बनाने तथा गरीब को और अधिक गरीब बनाने के, चतुराई पूर्वक खेले गये नुस्खे भर हैं। सच्चाई को एक किनारे करते हुए केवल अपने मुनाफे को दिन-प्रतिदिन बढ़ाने की जुगत में लगा रहने वाला प्रत्येक उद्योगपति हर समय अपने फायदे की ही बात सोचता है। वह गरीबों को बिजली मुहैय्या कराने के लिए परेशान नहीं है, बल्कि वह बिजली उत्पादन में प्रयुक्त होने वाले कोयले के घरेलू उत्पादन और उसके मूल्य को सस्ता रखने के लिए बेहाल है।
          दरअसल उघोगपति बिजली का अधिक से अधिक उत्पादन करने के उत्सुक तो हैं, लेकिन सस्ते भारतीय कोयले से ही बिजली के उत्पादन की शर्त पर। वे चाहते हैं कि उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं, दोनों को लाभ हो, इसलिए उन्होंने फॉर्मूला ढ़ूंढा है कि कोयले का दाम सस्ता रहे तो बिजली का दाम कम होने पर भी उत्पादक लाभ कमा सकेंगे और उपभोक्ता को सस्ती बिजली मिल जायेगी। इसलिए उद्यमियों की मांग है कि कोल इण्डिया द्वारा कोयले के उत्पादन में वृद्धि की जाये और उन्हें सस्ते एवं सबसिडाइज्ड रेट पर कोयला उपलब्ध कराया जाये।
          भारत की 122 करोड़ जनता को पश्चिमी देशों की वर्तमान खपत के बराबर बिजली उपलब्ध कराना भारत की सरकारों के लिए आसान नहीं है, वह भी ऐसे हालात में जबकि इस देश में जिस गॉंव से एक किलोमीटर दूर से भी यदि बिजली का हाईटेंशन केबिल गुजर गया तो वह पूरा गॉंव का गॉंव ही विद्युतीकृत मान लिया जाता है। इसी से आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि इस देश के अधिकतर गॉंवों के हालात कैसे हो सकते हैं। ऐसे ही निरीह लोगों की खातिर, एक अकेले अपने घर का 76 लाख प्रतिमाह का बिजली का बिल देने वाला हमारा उद्योग जगत गम्भीर रूप से चिंतित है और भारत की जनता को सस्ते में बिजली मुहैय्या कराने का बेसब्री से इच्छुक है। जैसे जनहित के नाम पर निरीह किसानों की कृषि भूमि अधिग्रहण के माध्यम से जबरन छीनी जाती है, ठीक उसी प्रकार उनको सस्ते में खाद्यान्न, बिजली, गैस, केरोसिन आयल आदि दिये जाने के नाम पर उन्हें छलने की योजना सलीके से बनाई जाती है।
          सोचनीय प्रश्न यह उठता है कि कोल इण्डिया पर कोयले के घरेलू उत्पादन के लिए इतना जबरदस्त दबाव क्यों? यदि घरेलू उत्पादन कम है तो कोयले का आयात किया जाये, इसमें क्या परेशानी है? उद्यमियों की मांग कुटिलता से भरी, नाजायज और जनता को ठगने वाली ही दिखाई देती है। इन्हें पता है कि धरती पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं, फिर भी उनका अंधाधुन्ध दोहन करने के लिए ये उतावले  हैं,  जो भविष्य में निश्चित रूप से भारी संकट पैदा करेगा। इसलिए कोयले, तेल एवं यूरेनियम का दाम बढ़ाकर ऊर्जा की खपत पर अंकुश लगाना ही भारत देश के हित में ही नहीं है, बल्कि जनहित में है। वरना भविश्य की पीढी के लिए हम धरती को खोखला छोड़ने के अलावा और कुछ नहीं दे पायेंगे।
          जबकि दूसरी ओर हमारी संस्कृति यह है कि हम अपने बच्चों क्या पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए इतना छोड़कर मरना चाहते हैं कि उन्हें कुछ करना ही ना पडे़ और वे चैन से बैठे-बैठे खायें। अरबों-खरबों की काली कमाई, सैकड़ों मन चांदी, सैकड़ों किलो सोना, हीरे-जवाहरात, बंगले, कोठी और फार्म हाऊस, और ना जाने क्या-क्या! अपनी आस-औलाद के नाम करने के बाद भी मन नहीं भरता रूकने का। लेकिन किस कीमत पर यह तय नहीं कर पाये हैं, क्योंकि उतना सोचने की इनकी शक्ति ही नहीं है। अमीर केवल गरीब की रोटी छीनकर अपनी तिजोरी भरने में ही लगा हुआ है। वह विश्व का नम्बर एक अमीर होने की ललक में वह सब भ्रष्टाचार, अत्याचार, अनाचार करने को तैयार है, जिसका परिणाम भले ही उसे सुख-चैन से ना रहने दे।
          आर्थिक विकास का मतलब उत्पादन और खपत में वृद्धि होता है, जिसके लिए ऊर्जा की अधिक जरूरत होती है। पृथ्वी की ऊर्जा पैदा करने की शक्ति सीमित है, इसलिए हमें कम ऊर्जा से अधिक उत्पादन के रास्ते पर चलना होगा। प्रत्येक देश के लिए जरूरी होता है कि वह अपने देश में उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप ही उत्पादन करे। जिन देशों में पानी की कमी है, उन देशों में अंगूर और गन्ने की फसल उगाना बेवकूफी है। इसीलिए सऊदी अरब, तेल के निर्यात से विकास कर रहा है। इसी प्रकार भारत को पश्चिमी देशों के ऊर्जा मॉडल को अपनाना निहायत ही बेवकूफी भरा प्रश्न है। ऊर्जा के उत्पादन के लिए हमें अपने संसाधनों पर नज़र डालते हुए उसके विकल्प के उपाय सोचने होंगे, हम जापान की नकल नहीं कर सकते।

          इन्दिरा गॉंधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेन्ट रिसर्च, मुम्बई के एक अध्ययन में पाया गया है कि ऊर्जा की खपत तथा आर्थिक विकास में सम्बन्ध नहीं दिखाई देता। इसी अध्ययन में निष्कर्ष निकला है कि आर्थिक विकास से ऊर्जा की खपत बढ़ती है और यह सम्बन्ध एक दिशा में चलता है। उन्होंने कहा कि ऊर्जा संरक्षण के कदमों का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा, यानी ऊर्जा की खपत कम होने पर भी आर्थिक विकास प्रभावित नहीं होगा। आर्थिक विकास के लिए ऊर्जा का महत्व कम होने का कारण है, सेवा क्षेत्र का विस्तार। भारत की आय में सेवा क्षेत्र का हिस्सा 1971 में 32 फीसदी से बढ़कर 2006 में 54 फीसदी हो गया। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस 54 फीसदी आय को अर्जित करने में देश की केवल 8 फीसदी ऊर्जा ही लगी। सॉफ्टवेयर, मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन, सिनेमा इत्यादि में ऊर्जा कम लगती है।
          इसलिए ऊर्जा संकट से निपटने का सीधा हल है कि हम ऊर्जा सघन उद्योगों जैसे स्टील एवंएल्यूमीनियम के उत्पादन को निरूत्साहित करें। सेवा क्षेत्र को प्रोत्साहित करने तथा देश में भरपूर गन्ने की फसल होने के कारण उसकी खोई से बिजली पैदा करने के संयंत्रों को प्रोत्साहित करें और उस बिजली के वितरण की व्यवस्था सरकार सुनिश्चित कराये। गन्ने की खोई से बनायी जाने वाली विद्युत से उस पूरे शहर की आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है जहॉंपर इसका उत्पादन किया जाये। इस पर यदि सरकारें कार्य करें तो मेरा दावा है कि ऊर्जा संकट को ऊर्जा की अधिकता में परिवर्तित किया जा सकता है। इसी प्रकार मोटे अनाजों की पैदावार को बढ़ाने के उपाय किये जाये जिसमें कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
          देश के उद्योगपतियों की पीड़ा में एक गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। असल विषय ऊर्जा के मूल्य का है। बिजली मंहगी होती है तो बिजली उत्पादित करने वाले उद्यमियों को लाभ, किन्तु खपत करने वाले उद्यमियों को हानि होती है। इसके विपरीत बिजली का दाम कम रखा जाता है तो उत्पादकों को हानि एवं उपभोक्ताओं को लाभ होता है, चूंकि हमारे उद्यमी सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की परिभाषा पर अमल करते हैं इसलिए चाहते हैं कि उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं दोनों को ही लाभ हो। इसका फॉर्मूला उन्होंने पी0एम0 को सुझाया है कि कोयले का दाम सस्ता रहे तो बिजली का दाम कम होने पर भी उत्पादक लाभ कमा सकेंगे और उपभोक्ता को सस्ती बिजली मिल जाएगी, इसीलिए वे कोयले के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के लिए दबाव बना रहे हैं।
          ऊर्जा के संकट से इस तरह भी आसानी निपटा जा सकता है। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा उपलब्ध कराये गये आंकड़ों के अनुसार 2004 से 2012 के बीच बिजली की घरेलू खपत में 7.4 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने का अनुमान है जबकि सिंचाई, उद्योग तथा कामर्शियल के लिए बिजली की खपत में मात्र 2.7 प्रतिशत की दर से वृद्धि होने का अनुमान है। इसका सीधा मतलब हुआ कि बिजली की जरूरत फ्रिज और एयर कंडीशनर चलाने के लिए ज्यादा और उत्पादन के लिए कम है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि देश के आर्थिक विकास के लिए बिजली का उत्पादन बढ़ाना कोई अपरिहार्य चुनौती नहीं है।
          क्रूर सच्चाई यह है कि बिजली की जरूरत मध्यम एवं उच्च वर्ग की विलासितापूर्णं जिन्दगी जीने के लिए अधिक है। शीर्श उद्योगपति मुकेश भाई अम्बानी के घर का मासिक बिजली का बिल ही 76 लाख रूपये से कम का नहीं आता है। दिल्ली की कोठियों में चार व्यक्ति के परिवार का मासिक बिजली का बिल 50,000 होना सामान्य सी बात हो गई है। चार व्यक्तियों के परिवार में आठ-आठ कारें हैं जो प्रतिदिन सैकड़ों लीटर पैट्रोल फूंकती हैं। इस प्रकार की ऊर्जा की बर्बादी के  लिए सस्ता घरेलू कोयला उपलब्ध कराकर पोषित करना कौन सी बुद्धिमानी एवं देशहित में है?
          गरीबों को बिजली उपलब्ध कराने के नाम पर हम बिजली का उत्पादन बढ़ा रहे हैं और उत्पादित बिजली को उच्च वर्ग के ऐशोआराम के लिए सस्ते में उपलब्ध करा रहे हैं। गरीब के गॉंव से एक किलोमीटर दूर से भी यदि बिजली का तार चला गया तो उस पूरे गॉंव को ही विद्युतीकृत मान लेने की परिभाषा सरकार ने आखिरकार क्यों गढ़ी हुई है। उच्च वर्ग के बिजली उपभोग पर अंकुश लगाने की कवायद क्यों नहीं की जा रही है? यदि उत्पादित बिजली का 25 प्रतिशत हिस्सा गॉंव के उपभोग के लिए सुरक्षित कर दिया जाये तो देश के हर घर में बिजली उपलब्ध हो जायेगी, यह मेरा दावा है।
          मेरा सुझाव है कि तुरन्त कोयले का दाम बढ़ाकर अन्र्तराष्ट्रीय मूल्य के बराबर कर देना चाहिए। आर्थिक विकास के लिए हमें सेवा क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना होगा। ऊर्जा सघन उद्योगों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। इसी के साथ उत्पादित बिजली के दाम भी मध्यम (जिनकी प्रतिमाह बिजली की खपत 1000 यूनिट से अधिक है) एवं उच्च वर्ग के लिए बढ़ा दिये जाने चाहिए, जिससे उत्पादक कम्पनियों को लाभ हो तथा खपत पर अंकुश लगे। उत्पादित बिजली का 25 प्रतिशत गॉव की जरूरतों के लिए आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए सस्ते मूल्य पर दिया जाना चाहिए। गन्ने की खोई से बिजली उत्पादन की यूनिटों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तथा उनके द्वारा उत्पादित बिजली की वितरण व्यवस्था बिजली निगम को संभालनी चाहिए। इसी के साथ 1000 यूनिट प्रतिमाह से अधिक खर्च करने पर प्रति यूनिट 25 रूपये तथा 1000 यूनिट से 2500 यूनिट प्रतिमाह खर्च करने वाले से 50 रूपये प्रति यूनिट एवं इससे ऊपर उपभोग करने वाले से 100 रूपया प्रति यूनिट चार्ज किया जाना चाहिए। (सतीश प्रधान)


Monday, February 20, 2012

भू-सम्पत्ति क्षेत्र में भ्रष्टाचार


          भारत में जमीन की रजिस्ट्री, खसरा-खतौनी की नकल, दाखिल-खारिज, जिन्दा को मृतक दर्शाकर उसकी भूमि हड़पने (वर्ष 2009 तक अकेले उ0प्र0 में सम्पत्ति हड़पने के लिए राजस्व विभाग के अभिलेखों में 221 कृषकों को जिन्दा रहते मृत दिखाया गया) तथा विरासत दर्ज करने के साथ-साथ भूमि के अधिग्रहण में हर वर्ष हजारों करोड़ रूपयों की भारी भरकम रकम घूस के रूप में सरकार, सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों की जेब में चली जाती है। ध्यान रहे ये जमीनें यहॉं की जनता की अपनी पुश्तैनी हैं। जिन पुश्तैनी जमीनों को जनहित के नाम पर सरकारें, कानून की आड़ में पुलिस के बल पर जबरन अधिग्रहीत कर उसके उपयोग को लैण्ड यूज के माध्यम से रिहायशी, कामर्शियल, औद्योगिक एवं पर्यटन करके भूमि अधिग्रहण का खेल, खेल रही हैं, उनमें करोड़ों रूपयों का वारा न्यारा हो रहा है।

          स्ंयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन, एफ0ए0ओ0 (फूड एण्ड एग्रीकल्चर आरगेनाइजेशन) एवं ट्रान्सपेरेन्सी इन्टरनेशनल ने मिलकर एक अध्ययन किया है, जिसमें भारत में जमीन की रजिस्ट्री, उसकी नकल आदि में ही 3700 करोड़ की रिश्वत सरकारी अधिकारियों द्वारा लिये जाने का निष्कर्ष निकाला गया है। दोनों संगठनों ने संयुक्त रूप से भू-सम्पत्ति क्षेत्र में भ्रष्टाचार शीर्षक से एक अध्ययन रिर्पोट तैयार की है जिसमें कहा गया है कि कमजोर प्रशासन की वजह से जमीन से जुड़े मामलों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। इस अध्ययन के अनुसार जमीन सम्बन्धी मामलों में भ्रष्टाचार देश के विकास के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा है। यह अध्ययन 61 देशों में किया गया है तथा अध्ययन के मुताबिक जमीन को लेकर निचले स्तर पर भ्रष्टाचार छोटी-छोटी रिश्वत के रूप में विद्यमान है। वहीं दूसरी ओर ऊंचे स्तर पर सरकारी ताकत, राजनीतिक रूतबे और कार्पोरेट अर्थतन्त्र के गठजोड के कारण, यह बहुत बड़े स्कैम से बढ़कर कुछ भी नहीं है।

          सरकार और प्रशासनिक अधिकारियों को कार्पोरेट घराने जमीन हथियाने या कहिए अपना बहुत बड़ा लैण्ड बैंक बनाने के लिए उन्हें मूंह मांगी रिश्वत और सुरा-सुन्दरी की सुविधा देकर अपने मन मुताबिक नचा रहे हैं। अंर्तराष्ट्रीय स्तर की इन दो बड़ी संस्थाओं ने जमीन से जुड़े इस सबसे बड़े सच पर पर्दा डालने का काम क्यों किया आश्चर्य का विषय है! अध्ययन के माध्यम से घूस की जिस रकम का खुलासा किया गया है, उसका वास्तविकता से कोसों दूर का भी नाता नहीं है। यह रकम 70 करोड़ डॉलर बताई गई है, जबकि यह असली घूस 34500 करोड़ रूपये का पसंगा भी नहीं है।

          भारत के ही एक राज्य में केवल भू-अधिग्रहण मामले में ही 70 करोड़ डॉलर से दस गुना अधिक यानी 34500 करोड़ रूपये, सरकार, सरकारी प्रशासनिक अधिकारियों यथा भूमि अध्याप्ति अधिकारी, ए0डी0एम0, जिलाधिकारी, आयुक्त, सचिव, तथा राजस्व से जुड़े अधिकारियों यथा तहसीलदार, नायब तहसीलदार, कानूनगो, लेखपाल के साथ ही राजनीतिक व्यक्तियों को रिश्वत के रूप में दी गई है, जिसमें राजनीति के निचले पायदान पर बैठा ग्राम प्रधान भी भरपूर लाभान्वित हुआ है। पंचायत-पंचायत, ब्लॉक-ब्लॉक, तहसील-तहसील, परगना-परगना, जिला-जिला भारतीय भूमिधरों को गिरोहबन्द तरीके से लूटा गया है। उनकी पुश्तैनी जमीन पर राजस्व से जुड़े अधिकारियों ने गिद्ध दृष्टि लगाकर उनका दोहन किया है। इन सबके बीच अभी चकबन्दी विभाग की चर्चा होना बाकी है।
          देश को स्वतन्त्र हुए 64 वर्ष हो गये लेकिन क्या आपको ताज्जुब नहीं होता कि अभीतक उत्तर प्रदेश में चकबन्दी ही पूरी नहीं हो पाई है। क्या यह दुर्भाग्य अथवा लूट का विषय नहीं है कि आजतक चकबन्दी विभाग बदस्तूर चालू है। लूट के दम पर खड़ा यह विभाग आजतक मजे मारते हुए मलाई काट रहा है। सहायक चकबन्दी अधिकारी स्तर के कई कर्मचारी करोड़पति हैं। जनता की सहूलियत के लिए बनाया गया यह विभाग जनता के लिए लुटेरा बन चुका है। दोनों संगठनों ने ऐसा अध्ययन 61 देशों में किया जाना बताया है, जिसमें भारत भी एक है। अंर्तराष्ट्रीय स्तर के इन संस्थानों से ऐसे लचर अध्ययन की उम्मीद नहीं की जाती है। इन संस्थानों ने या तो अध्ययन ही लचर तरीके से किया अथवा उसकी रिर्पोट प्रस्तुत करने में गोल-माल कर दिया। या जिन संस्थाओं/एन0जी0ओ0 के माध्यम से इसका अध्ययन कराया गया उनको राजस्व विभाग और यहॉं के किसानों/भू-मालिकों की तकलीफ का अन्दाजा ही नहीं था। उन्हें शायद पता ही नहीं कि राजस्व विभाग का एक अदना सा कर्मचारी लेखपाल, किसी जागीरदार से कम नहीं है।
          भारत की जमीन का एक-एक इंच टुकड़ा, बगैर लेखपाल की सहमति के आप इधर से ऊधर नहीं कर सकते। भारत का सुप्रीम कोर्ट और राजस्व अधिनियम चिल्ला-चिल्ला कर कुछ भी कहते हों, लेकिन वह नियम के हिसाब से तभी काम करेगा जब उसकी जेब गरम हो जायेगी। खसरा-खतौनी की नकल, दाखिल-खारिज, और वसीयत दर्ज कराने एवं जमीन की रजिस्ट्री कराने में कई हजार करोड़ रूपये प्रतिवर्ष सरकारी कर्मचारियों की जेब में चले जाते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि राजस्व विभाग के इन अदने से कर्मचारियों (लेखपाल) के पास सैकड़ों बीघे के फार्म हाऊस के साथ ही करोड़ों रूपये के बैंक बैलेन्स हैं।

          अध्ययन में यह बताया गया है कि जमीन सम्बन्धी भ्रष्टाचार भारत तक ही सीमित नहीं है, यह पूरी दुनिया में फैला हुआ है। ऐसा अध्ययन भारत के लिए किसने किया और किस स्टेट एवं जनपद में किया गया पता नहीं। हिन्दुस्तान में सारा खेल जमीन का ही है। यह हिन्दुस्तान ही है, जहॉं मुस्लिमों ने 700 वर्षों तक शासन किया और उसके बाद अंग्रेजों ने 200  वर्षों  तक शासन किया। इसके बाद देश स्वतन्त्र हुआ और यहीं के तथाकथित गोरे दिखने वाले दिल के कालों के हांथ में अंग्रेजों ने सत्ता सौंप दी। असली काला तो गोली खाकर हे-राम हो गया और गोरे से दिखने वाले कालों ने यहॉं के राजाओं का प्रीवीपर्स छीन लिया। 543 इस्टेट 543 संसदीय क्षेत्र में तब्दील हो गये। राजाओं की जगह सांसद आ गये और बस बन गया झमाझम लोकतन्त्र।

          राजाओं को सरवाइव करने के लिए अपनी जमीनें बेंचनी पड़ रही हैं। धीरे-धीरे विकास के नाम पर यहॉं की जनता की एवं राजाओं की जमीनें इन नये पैदा हो रहे सांसदों, ब्यूरोक्रेट्स और कार्पोरेट घरानों के हांथ में आना शुरू हो गईं। असली राजाओं का वंश तबाह होने लगा और नकली राजाओं की फौज खड़ी होने लगी। वाजिदअली शाह के खान्दानी चाय बेचने लगे और चाय बेचने वालों के खान्दानी एवं नहर के किनारे से सत्ता में आये लोग विकास के नाम पर लूट मचाकर विदेशी बैंकों में कालाधन जमा करने लगे।
          आज की तारीख में सत्ता से जुड़ा कौन सा ऐसा सांसद है जिसकी हैसियत किसी राजा से कम है। केवल घड़ी का डायल बदला है, अन्दर खाने वही 35 रूपये वाली मशीन लगी है जो आपके हांथ की घड़ी भी चला देगी और घंटाघर की घड़ी भी। क्या इन दोनों ऐजेन्सियों का संयुक्त अध्ययन एक औपचारिकता तो नहीं थी? अध्ययन किसी और मकसद की पूर्ति के लिए किया गया और परिणाम कुछ और दिखाया गया है।
          एफ0ए0ओ0 के अध्ययन में तो यह स्पष्ट रूप से आना ही चाहिए था कि पहले कितने हेक्टेयर पर कृषि होती थी और वर्तमान में कितने हेक्टेयर क्षेत्र पर कृषि हो रही है। कौन-कौन सी पैदावार की कमी आ गई है। कौन सी फसल नदारत हो गई है, और किसकी पैदावार बढ़ गई है। पूर्व में उत्पादन कितना था और अब कितना रह गया है। कृषि क्षेत्र कितना सिकुड़ गया है, आदि-आदि। खाद्यान्न जो भी पैदा होता है, गोदामों की कमी, ऊंचे परिवहन भाड़े के कारण या तो खपत की जगह तक ही नहीं पहुंच पाता अथवा एफ0सी0आई0 के गोदामों में सड़ा दिया जाता है । व्यक्ति और खाद्यान्न के बीच के गैप को पूरा करने के लिए मंत्रीगण आयात का रास्ता खोलते हैं और करोड़ों डॉलर खर्च दिखाकर उसका कमीशन विदेशी बैंकों में जमा करा देते हैं। ऐसे ही कालेधन को भारत में लाने की मांग हो रही है।(सतीश प्रधान)

Saturday, February 18, 2012

ऐलोपैथ के दम का नहीं, सब कुछ


          सोनिया गॉंधी द्वारा अपरोक्ष रूप से संचालित मनमोहन सरकार जहॉं एक ओर बाबा रामदेव को परेशान करके उन्हें बेइज्जत करने और उन्हें बदनाम करने का कोई मौका न चूकने का प्रयत्न करती है, वहीं दूसरी ओर भारत का केन्द्रीय योजना आयोग, आयुर्वेद एवं योग गुरू बाबा रामदेव के गुणों एवं उनकी गहन जानकारी का इस्तेमाल स्वास्थ्य के क्षेत्र में करना चाहता है। इसीलिए वह चाहता है कि भारत की सरकार योग गुरू बाबा रामदेव की ओर दोस्ती का हांथ बढ़ाए।

          योजना आयोग ने स्वास्थ्य क्षेत्र में ऐसी कई सिफारिशें की हैं। उसने ऐलोपैथ डॉक्टरों को भी आयुर्वेद और योग के नुस्खे पढ़ाने को बेहद जरूरी बताया है। कहावत है कि जब जागो तभी सवेरा, इसी तर्ज पर कहा जा सकता है कि चलिए देर से ही सही, योजना आयोग को यह सोचने पर मजबूर तो होना पड़ा कि आयुर्वेद और योग हमारी थाती हैं और इससे किसी भी तरह की बीमारी से आसानी से एवं बगैर किसी साइड इफैक्ट के पार पाया जा सकता है। आयुर्वेद हो अथवा होम्योपैथी, इनमें सर्जरी की आवश्यकता ही नहीं होती, इसीलिए बगैर सर्जरी इसके द्वारा सम्पूर्ण इलाज सम्भव है। सर्जरी की आवश्यकता ऐलोपैथ में होती है, इनमें नहीं।
          ऐलोपैथी में सर्जरी की व्यवस्था के ही कारण मानवअंग तस्करी जोर-शोर से फलफूल रही है। आज के समय में किसी की भी किडनी निकाल लेना कोई बड़ी बात नहीं है। अभी हाल ही में ऐसा मामला लखनऊ में पकड़ा गया है जहॉं बिल्कुल बेवकूफ बनाकर कई लोगों की किडनी निकाल ली गई। नोएडा का बहुचर्चित निठारी काण्ड भी इसी का नतीजा था, लेकिन इसके तस्कर देश के समाने नहीं लाये गये, क्योंकि वे नामचीन लोग थे।
          योजना आयोग की स्वास्थ्य सम्बन्धी संचालन समिति ने 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान हर हिन्दुस्तानी तक इलाज के साधनों को मुहैय्या करवाना बेहद जरूरी बताया है। उसने सारे तथ्य एकत्र कर यह निष्कर्ष निकाला है कि सिर्फ ऐलोपैथी के दम पर यह काम पूरा किया जाना मुश्किल ही नहीं असम्भव है। इस लिहाज से आयुर्वेद, योग, यूनानी और होम्योपैथी जैसी इलाज की विधियों की अधिक से अधिक मदद ली जानी चाहिए। अपनी सिफारिश में उसने पारम्परिक चिकित्सा पद्वतियों में काम कर रहे बाबा रामदेव के पतंजलि योगपीठ जैसे गैर-सरकारी संगठन के काम को बढ़ावा देने के लिए इनकी मदद करने को बेहद जरूरी बताया है। सरकार के लिए बाबा रामदेव जैसे योग और आयुर्वेद के गुरूओं की मदद लेना क्यों जरूरी बताया गया है, इस विषय पर आयोग के एक सदस्य का कहना है कि सरकार खुद ही दवा बनाने की विधि तय करे, फिर दवा बनाए, इसके बाद सभी तक इसे पहुचाए और फिर उस पर नज़र भी रखे यह एक तो मुमकिन नहीं, दूसरे यह सरकार का काम भी नहीं है।

          इसी पर मेरा मानना है कि सरकार का काम न तो किसी चीज का उत्पादन करना है, ना ही उसकी मार्केटिंग करना है, ना ही उसका वितरण करना। सरकार का काम तो जनहितकारी नीति बनाना और उसका पालन सुनिश्चित कराना होता है। सरकारें यदि लाभ कमाने के फेर में लग जायेंगी तो हो गया कल्याण! सारे सरकारी निगम इसीलिए बन्दी के कगार पर, जबरदस्त घाटे में और दुखदायी हो गये कि उसमें बैठे सरकारी अधिकारी और उसे देखने वाले मंत्री अपने-अपने लाभ के लिए उस निगम का दोहन करने लगे।

          योजना आयोग से पहली बार ऐसी कोई सिफारिश बाहर आई है, जिससे लगता है कि वास्तव में योजना आयोग यहॉं की जनता के स्वास्थ्य के प्रति फिकरमन्द है। उसका कहना है कि राजनीतिक विरोध अपनी जगह है, लेकिन बाबा रामदेव जैसे कुछ संगठनों और लोगों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। उसका मानना कि इस सिफारिश की पूर्ति के लिए आयुर्वेद, योग, यूनानी और होम्योपैथी से जुड़े गैर-सरकारी संगठनों को आगे बढ़ाना ही होगा।
          इसी के साथ योजना आयोग चाहता है कि ऐलोपैथ के डॉक्टर अब योग और आयुर्वेद से नाक-भौं सिकोड़ना बन्द कर खुद भी अपने मरीजों पर इन्हें आजमाएं। आयोग ने साफ तौर पर सिफारिश की है कि ऐलोपैथी चिकित्सा के एमबीबीएस पाट्यक्रम में योग और आयुर्वेद को भी शामिल किया जाये। योजना आयोग के अनुसार आयुर्वेद, योग, यूनानी, और होम्योपैथी जैसी पद्वतियों को शामिल करते हुए अनिवार्य स्वास्थ्य पैकेज और लोक स्वास्थ्य के आदर्श माड्यूल तैयार किए जाएं और उन्हें इन पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाये।
प्रतिष्ठित सरकारी एवं प्राइवेट अस्पतालों का हवाला देते हुए उसने कहा है कि एम्स जैसे अस्पतालों में भी आयुर्वेद और योगा जैसी पद्वतियों के विशेषज्ञों को जरूर शामिल किया जाये। इलाज के साथ ही गम्भीर बीमारियों के मामले में उसके बाद की देख-भाल के लिए भी इसे जरूरी बताया है। वर्तमान में भारत में पारम्परिक चिकित्सा पद्वति के 7.87 लाख डॉक्टर रजिस्टर्ड हैं। देशभर में ऐसे 3277 अस्पताल, 24289 दवाखाने, 489 कॉलेज और 8644 दवा निर्माण इकाईयां चल रही हैं।

          अन्त में आपको ऐसे आयुर्वेद विशेषज्ञ चिकित्सक के बारे में संक्षेप में बता दूं, जिन्होंने अपनी योग्यता, अनुभव एवं हुनर के बल पर किंग जार्ज मेडीकल कॉलेज और संजय गॉंधी आर्युविज्ञान संस्थान से कैन्सर एवं अन्य गम्भीर बीमारी से ग्रस्त ऐसे मरीजों (अन्तिम समय में यह कहकर लौटाये गये मरीज कि अब इन्हें घर ले जाइये और ऊपर वाले को याद कीजिए) को जिनका अन्त समय निकट था, आयुर्वेद चिकित्सा पद्वति के बल पर न केवल उनके जीवन को आगे बढ़ाया बल्कि उन्हें ठीक भी किया है। उनके इसी प्रयास पर आर्युविज्ञान संस्थान के महानिदेशक उनसे मिलने और उन्हें धन्यवाद देने उनके घर तक गये। ऐसे महान आयुर्वेद चिकित्सक के बारे में पूरी पोस्ट अलग से प्रस्तुत की जायेगी, जिससे गम्भीर बीमारी से जूझ रहे मरीजगण उसका लाभ उठा सकें। (सतीश प्रधान)

Friday, February 17, 2012

क्लीनिकल परीक्षण का फॉलोअप


          दिनांक 5 फरवरी 2012 को ’ऐसे डॉक्टर और केमिस्ट दोनों ठग’ शीषर्क की पोस्ट में आपने पढ़ा कि कैसे हिन्दुस्तान में दवाओं का परीक्षण बिना किसी हिचक व रोक-टोक के यहॉं के चिकित्सालयों, मेडीकल रिसर्च सेन्टर्स, पी0जी0आई0 आदि में किया जा रहा है, जिसमें कितने ही हजार लोगों की जान बगैर यह जाने चली गई कि उनके शरीर के साथ बिना उनकी सहमति के दवाओं का परीक्षण किया जा रहा है। इसी बिना पर तथ्यों पर आधारित एक जनहित याचिका गैर सरकारी संगठन स्वास्थ्य अधिकार मंच ने वकील संजय पारिख के माध्यम से भारत के सुप्रीम कोर्ट में दाखिल कर मांग की है, कि आम लोगों पर दवाओं के गैरकानूनी परीक्षण पर रोक लगाई जाये साथ ही परीक्षण सम्बन्धी नियम कानूनों को चाक चैबन्द करने पर भी जोर दिया जाये।
          संजय पारिख का कहना था कि बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियां ठेके पर रिसर्च कम्पनियों से ये काम कराती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक 1727 लोगों की ऐसे परीक्षणों से मौत हो चुकी है। ऐसा खेल सिर्फ इन्दौर में ही नहीं अपितू ये पूरे देश में चल रहा है। दवाओं के गैरकानूनी परीक्षण के लिए भारत के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। मध्य प्रदेश राज्य में पिछले साल जून में पूरी हुई राज्य सरकार की जॉंच में यह साबित हो चुका है कि सिर्फ इसी मामले में 3307 लोगों पर ऐसे परीक्षण गैर कानूनी रूप से किये गये। इनमें से 81 मरीजों को तो अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। कई मामलों में तो पाया गया कि मुख्य शोधकर्ता ही एथिकल कमेटी के सदस्य भी थे। परीक्षण के लिए भारत में वर्ष 1945 से जो नियम चल रहे थे, उन्हें जनवरी 2005 में बदल कर कम्पनियों के लिए आसान कर दिया गया।
          दरअसल ये बदलाव किया ही गया था इन कम्पनियों के दवाब में। इसके तहत भारत में पहले और दूसरे फेज के परीक्षण काफी आसान कर दिये गये। इसके बाद से सारी दवा कम्पनियों ने परीक्षणों के लिए भारत का रूख कर लिया, क्योंकि यहॉं पर आम आदमी की जान की कीमत बहुत सस्ती और कभी-कभी तो एकदम मुफ्त की होती है। नई दवा मूल रूप से जहॉं खोजी गई होती है, वहॉं या तो उसका क्लीनिकल परीक्षण करने की इजाजत नहीं होती, या फिर यह काम बहुत मंहगा होता है। वैसे तो नियमों में यह प्राविधान होना चाहिए कि केवल भारत में खोजी गई दवाओं के ही क्लीनिकल परीक्षण भारत में होंगे। विदेश में खोजी गई दवा का परीक्षण भारत में किये जाने का क्या औचित्य? लेकिन पता नहीं कि याचिका में इस सम्बन्ध में मांग की गई है अथवा नहीं। याचिका पर सज्ञान लेते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार और मेडीकल काउन्सिल ऑफ इण्डिया को नोटिस जारी कर छह सप्ताह में याचिका का जवाब दाखिल करने को कहा है। देखना शेष है कि अब होता क्या है। 
(सतीश प्रधान)

Sunday, February 12, 2012

ब्रिटिश लुटेरे

          ब्रिटेन में भारतीय मूल के निवासियों को निशाने पर रखते हुए उनके घरों में सोने की लूट के वास्ते सेंधमारी की जा रही है। दरअसल भारतीय उपमहाद्वीप के लोग अपनी रूढ़िवादी परम्परा को संजोये हुए, आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए सोना बचाकर रखते हैं। सोने का संग्रहण ही भारतीयों के लिए मुसीबत बन गया है। ब्रिटेन में हथियारबन्द ब्रिटिश लुटेरे मैटल डिटेक्टर के साथ वहॉं बसे भारतीय मूल के निवासियों के घरों में सेंधमारी करके सबकुछ लूटे ले रहे हैं।
          एशियाई मूल के लोगों के घरों में सेंधमारी की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए ब्रिटेन की पुलिस ने उन इलाकों में विशेष जागरूकता अभियान चलाने का निर्णय किया है, जहॉं भारतीय उप महाद्वीप के लोग अधिक संख्या में रहते हैं। भारतीय मूल के लोग बर्मिघम, स्लॉज, ईलिंग, लीसेस्टर, मैनचेस्टर, और ब्रेडफोर्ड में रहते हैं, इसीलिए यह अभियान विशेष तौर पर यहीं चलाया जा रहा है। लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही है। ब्रिटेन में मन्दी के बावजूद सोने की कीमतें बढ़ रही हैं, इसी कारण सेंधमार सोने की चोरी को अंजाम दे रहे हैं।
          सोने की रीसेल वैल्यू चूँकि अच्छी है और निशाने पर भारतीय मूल के ही लोग हैं, इसी कारण अपराधियों को भी पता है कि उनके साथ उनकी पुलिस कड़ाई से पेश नहीं आयेगी। वरना क्या कारण है कि विश्वभर में प्रसिद्ध स्कॉटलैण्ड पुलिस के मौजूद रहते केवल भारतीयों के साथ ही इस तरह की घटनायें हो रही हैं। सेन्ट्रल लन्दन स्थित द बैंक ऑफ इंग्लैण्ड के खजाने में 4600 टन स्वर्ण भण्डार सुरक्षित है। सोने की बिस्कुटनुमा 24 कैरेट वाली सिल्लियों के इस भण्डार की कीमत 10035.61 अरब रूपये है। आर्थिक मन्दी से जूझ रहे इंग्लैण्ड -वासियों के लिए इस खजाने का क्या औचित्य है, जब वे मंदी के कारण गलत राह पकड़ रहे हैं। क्या यह ब्रिटेनवासियों के लिए शर्मिंदगी का विषय नहीं है।
          इस खजाने से पूरे विश्व को इंग्लैण्ड यह समझाने की भले ही असफल कोशिश करे कि वह समृद्धशाली है, लेकन सत्यता यह है कि जबतक वह अपने सोने के भण्डार को बेचता नहीं है उसके यहॉं छाई मन्दी के दौर में ऐसी खोखली समृद्धि का क्या फायदा? वर्ष 1991 में भारत पर 163000 करोड़ रूपये का कर्ज था और जरूरतों को पूरा करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री स्व0 चन्द्रशेखर के नेतृत्व वाली कार्यवाहक सरकार ने 67 टन सोना गिरवी रखकर आई.एम.एफ. से दो अरब डॉलर का कर्ज लिया था।
          भारत की इस नीति का अनुशरण करके ब्रिटेन अपने यहॉ सुरक्षित सोने के भण्डार में से कुछ टन सोना भारत को बेंचकर अपने यहॉं आई मन्दी से सामना करने के साथ ही सेंधमारी करने वाले लोगों में हो रहे इजाफे को कम जरूर कर सकता है। इसी के साथ ब्रिटेन मन्दी की मार से भी राहत पा सकता है। ब्रिटेनवासी कृपया इस पोस्ट पर अपने कमेन्ट प्रेषित कर वस्तुस्थिति से अवगत कराना चाहें। (सतीश प्रधान)